हिंदी और राजस्थानी भाषा में लेखन। हिंदी कविता संग्रह देखना एक दिन’, ‘विज्ञप्ति भर बारिश’, ‘तुरपाई : प्रेम की कुछ बातेंऔर कुछ कविताएं

सागवान किसी पेड़ का नाम नहीं

उम्र के दो दशक बीत गए
और नहीं देखा था सागवान का पेड़

गांव को पेड़ से नहीं
फल से मतलब था
और सागवान के तो फल भी नहीं लगते
यह लकड़हारा भी जानता था
गांव भी और वह किसान भी

लेकिन सागवान के लकड़ी लगती थी
जिसके गेडो से बनाना था घर का छप्पर
और वह हल भी जिससे जोतना होता था खेत
जब कभी भी किसान के दिन खते

सपनों में दीमक लगी
या फिर कड़फोड़ा थक गया
करम की रेखा टीचते

सागवान
आखिरी आस की तरह हल में साबुत रहा
माटी के कोल्हू बदले
लेकिन सागवान ने नहीं बदला अपना स्वभाव

सागवान के बारे में
मैं कुछ नहीं जानता
उस लकड़हारे के बारे में जानता हूँ

जो साइकिल के दो बगल
सागवान की लकड़ी बांध
सप्ताह में एक बार
अलसुबह चला आता था गांव

उसे बड़े तड़के से बहुत पहले
जंगल की पीठ पर
कुल्हाड़ी मार पार करनी होती थी
पार्वती नदी की सात मझली धाराएं

सागवान जब
गांव की सुबह की आभा से भर जाता
चंदन की लकड़ी की तरह दमकता-सा लगता

अब कोई
यह झूठ भी कह दे
कि चंदन की तरह महकती है
सागवान की लकड़ी

तो दिन के उजास में भी
पार्वती नदी की सात धाराओं को पार करके भी
नहीं हेर सकता सागवान का गुमशुदा जंगल

आज जब सोचता हूँ कि सागवान के बिना
कितना कमजोर हो गया है हमारा इर्दगिर्द, जीवन

तो लगता है सागवान किसी पेड़ का नाम नहीं
जंगल के सबसे मजबूत सिपाही का नाम है
और
सिपाही को किसी नाम से पुकारो
अंततः वो रहता तो सिपाही ही है।

पेड़ और कुल्हाड़ी

पेड़ों के भरोसे
एक लकड़हारा कुल्हाड़ी में
लगवाता रहा तेज धार

कुल्हाड़ी के भरोसे छंगे पेड़
बहुत सलीके से बढ़ते रहे आकाश की ओर

कुल्हाड़ी से ही जब तलक
काटी जाती रही पेड़ों की भुजाएं
पेड़ों में बची रही फिर से हरे होने की उम्मीद

आरा मशीन ने
चीर डाली जंगल की देह

अभी भी एक कुल्हाड़ी पड़ी है
पेड़ की जड़ों में

जिसे कभी
कालिदास चला गया था छोड़कर
इन दिनों
बढ़ई
पेड़
और कुल्हाड़ी तीनों उदास हैं।

जहां भी बचा है जल

केपटाउन में नहीं बचा जल
बुंदेलखंड और लातूर में भी नहीं बचा
जहां भी बचा हुआ है जल
वहां अभी कुछ बरस बचा है जीवन
यूं जल बिन प्यासा मरुथल
फिर भी सदियों से नहीं मरा

जल को अवेरना जीवन को अवेरना है
जहां भी बचना था जल
वहां घुटक भर अंजुरी में भी बचा रहा
चिलकता रहा कुएं के पैंदे में
टांके में भरा रहा चुपचाप

हिरन की आंख में जो जल दिखता है
वह अनथक प्यास है हिरन की
जिसे लिए दौड़ता रहता यहां से वहां
जल छलिया भी होता है
यह हिरन से पूछना

यूं एक दिन सबको हो जाना है हिरन
अभी अंतिम नहीं जलकूकड़ी की डुबकियां

अभी तालाब में बचा है जल
जीवित हैं मछलियां
सफेद झक्क है अभी बगुले की पांखें
केंचुएं की देह जितनी भी तरलता है
वह मिट्टी की नरमदिली है
जहां भी बचा हुआ है जल
वहां बची हुई है मनुष्यता।

संपर्क :172, मुंबई मराठी ग्रंथ संग्रहालय मार्ग, दादर (ईस्ट), मुंबई400014 मो. 9460677638