कवि–आलोचक। लेखन की शुरुआत कविताओं से हुई। दो पुस्तकें ‘कहानी का लोकतंत्र’ और ‘लेखकों का संसार’। मेवाड़ क्षेत्र से आकर संप्रति दिल्ली के हिंदू कॉलेज में अध्यापन और ‘बनास जन’ पत्रिका का संपादन।
देस
देस में डूबता हूँ
देस की याद में डूबता हूँ
वही उदास रास्ते, वही थके चेहरे
रोना चाहता हूँ
मेड़ी पर उतर रहे आरास के पापड़ों को देखकर
बीच में उगम भुआजी खड़े हैं
सर पर हाथ फेरने के लिए उत्सुक
उनके सामने खुश रहना है।
घर पहुंचकर उसी चिट्ठी की तलाश करता हूँ
ऐसा कैसे हो सकता है
कि वह चिट्ठी का जवाब न दे
जो अपनी तरफ से
हर हमेश लिखता था भरकर अंतर्देशीय
लेकिन कोई चिट्ठी नहीं है वहां
फिर सांकल चढ़ाकर लौटता हूँ
देस से विदा लेते हुए फूट रहा है मन
मैं भी इसी धरती का जाया था
कोई आकाश से नहीं आया था।
अधूरी बातें
मोबाइल पर बात करते करते
अचानक वह माफी की मुद्रा बना लेता है
बात करते हुए
फोन से आवाज बंद हो जाती है अचानक
बात काटकर कोई नया वृत्तांत
सुनाने लगता है कोई
बातें अधूरी रह जाती हैं
अभिशप्त और उदास
उन्हें जाने कब पूरा होने का अवसर मिले
मैं कहना चाहता था
कि जिन्हें आपने लोकल ट्रम्पेट कहा था
उन्हें मैंने नहीं बुलाया था
मैं कहना चाहता था
कि खत लिखना मेरी आदत है
उन्हें खत ही मानना, प्रेम पत्र नहीं
मैं कहना चाहता था
कि ऐसी यात्रा फिर होती रहे आपके साथ
चाहे रेगिस्तान में
मैं कहना चाहता था
कि दूध खट्टा हो जाने का आरोप मेरा नहीं था
मैंने तो दुहराया भर था उनसे सुनकर
कह न सका
वह चला गया बात अधूरी छोड़कर
आधी रात बीतने को है
और बात याद आ रही है
किससे कहूँ?
ऊंखला
ऊंखला नानी लाई थी ठेठ किले की जड़ों से
टेम्पो में नाना बैठ गए थे और सामान के साथ
ऊंखला घर में परेंडे के पास
बन गए एक कोने में रोपा जाना था
मोटे काले चित्तौड़ के पत्थर से बना ऊंखला
अब हमारे घर में भी था
नानी मूसला पहले ही ले आई थीं
जिसे खाती ने बढ़िया गढ़ा था
जिसके नीचे लुहार से
गोल घेरा भी लगवा दिया था नाना ने
ऊंखला कारीगर ने खूब जतन से रोप दिया था
और मैं कई दिनों तक उसकी तराई करता रहा
मकर संक्रांत पर मां ने ऊंखले पर खीचड़ा कूटा
अनाज साफ किया
और वह चिकना भी होता गया
नानी कहती थीं कि
ऊंखला तो होना ही चाहिए हर घर में
भाग भागकर कहां अनाज कूटने जाए कोई!
मैं नानी के ऊंखले से उसकी तुलना करता था
जो ननिहाल में सीढ़ियों के नजदीक था
और सफेद पत्थर का बना था
अनाज कूट कूटकर वह इतना चिकना हो गया था
कि मुलायम नजर आता था
यह उतना चिकना तो नहीं ही हुआ
तब भी पत्थर का काला रंग जैसे
थोड़ा साफ होता गया
कोई तीस बरस से ज्यादा हुए
जब किले की जड़ों से नानी ऊँखला लाई थीं
मैं अचकचा जाता हूँ
क्या इसी तरह
वस्तुएं और साधन भी विदा लेते हैं?
पहले नानी ही गईं, फिर माँ
और अंततः नाना
वह घर भी छूट गया जहां हम रहते थे
वे घर याद आते हैं तो ऊंखले भी याद आते हैं
मूसला जाने कहां चला गया होगा!
उसका स्पर्श अब तक
मेरी हथेलियों को याद आता है
कानों में स्वर आ जाता है
जाने कहाँ से दौड़ता
कि माँ अनाज कूट रही हैं
मन पूछता है
नानी होतीं तो दिल्ली के फ्लैट में
कहां रोपती ऊंखला?
(ऊंखला= पत्थर की ओखल)
पुल पर
अपने शहर में लौटता हूँ
नया पुल मेरे सामने खड़ा है
लेकिन उसने पिछला रास्ता बंद कर दिया है
यह वह रास्ता था
जिससे होकर मैं चार बार निकलता था दिन में
इसी रास्ते पर चलकर
एक दिन मैं शहर से निकल आया था
फिर वही रास्ता
मुझे लौटा देता है अपने पुराने शहर में
बस पुल नया है मेरे सामने खड़ा हुआ
इस रास्ते से होकर कवि का घर आता था
जिसे सयाने होते बच्चों से इतनी सी शिकायत थी
कि सेरिये में बेर गिरते जा रहे हैं
और वे खाने भी नहीं आते
कवि अब अविश्वास से भर गया है
और उसे बच्चों के न आने में
गहरा षड़यंत्र दिखाई देता है
मुक्तिबोध को पढ़ते हुए उसे हर शहरवाला
डोमाजी उस्ताद लगता है इधर
थोड़ा सा पहले
इस रास्ते में आता था उसका घर
जहाँ से एक बार गुजरते हुए
रोककर उसने मुझे खत दिया था
पीछे पलटता हूँ
तो उस तारीख को पच्चीस साल हो गए
पूरे पच्चीस साल
अपने शहर में ही मैं
भूल जाता हूँ शर्मा जी का घर
और पड़ोस के घर में जाकर घंटी बजा देता हूँ
संभ्रांत महिला पूछती है – ‘यस प्लीज़?’
कैसे बताऊं कि यहां तो शर्मा जी का घर था!
क्या मिलते होंगे अभी भी रस्तोगी के गुंजिए?
क्या अभी भी नमकीन वाले के यहाँ
शाम होते होते नमकीन खत्म हो जाता होगा?
क्या लड़के अकारण प्रतापनगर चौराहे पर
इकट्ठे होंगे शाम ढलते ढलते?
क्या पुलिस लाइन में
चक्कर काटने आते होंगे
अधेड़ों के साथ कुछ लड़के भी
कविता की डायरी लिए?
शहर भर के कौवों का
क्या हाल है आजकल संतोष भैया?
सारे तोते अब भी पहुंचते हैं
सैनिक स्कूल गोधूलि में?
दूदू पागल तो अब नहीं ही होगा
उसका अंतिम संस्कार कैसे हुआ नगेंद्र?
और भंवरी बेंडी के किस्से
अब भी दुहराते हैं शहरवाले?
कॉलेजों में पढ़ने वाले शहर के हैं या
सिर्फ छात्रवृत्ति वाले हैं आजकल?
जिला पुस्तकालय का क्या हुआ परिहार जी?
किले पर जाकर गोठ मनाने की रस्म
अभी बाकी है?
शंकर घाट पर नहाने आते हैं गांव वाले?
जयेंद्र का वह मकान तो टूट ही गया
जिसके बगल में स्थानीय अखबार छपता था
इस नए पुल से गुजरते हुए
देख रहा हूँ पुरानी राह
जहां खड़े होकर कितने इंतज़ार किये थे मैंने
अब उसे एहतियातन बंद कर दिया गया है
ताकि दुर्घटनाएं न हों
शहरवाले नए पुल से गुजरें
पुराने रास्ते को क्या देखना!
एक युवक सामने से आ रहा है पुल पर
जिसे मैं पूरी कोशिश कर भी पहचान नहीं पा रहा हूँ
वह मुस्कराता है और आगे बढ़ जाता है।
डिम्पी भैया
बीस बरस बाद
मैं उस व्यक्ति से मिल रहा था
और यह मैं
उससे लंबी बातचीत के बाद जान पाया
जब उसने बता दिया
कि वह म-16 के सामने रहता था
और ज़िंक कारखाने में काम करता था
मैं सोचता रहा कि क्या यह वही व्यक्ति है
जिसके पिता की औचक मृत्यु
मैंने देखी थी अपने घर के सामने
जिसके पास वेस्पा स्कूटर था
जिसकी मां बहुत तेज औरत थीं
जिसकी पत्नी गोरी और सचमुच सुंदर थीं
जिसकी इस सुंदर पत्नी की मृत्यु की सूचना
एक दिन अचानक मिली थी
और मोहल्ले ने मान लिया था
कि उसे मार दिया गया है
मैं उसके चेहरे को ध्यान से देखता रहा
उसके बाल मेहंदी से रंगे थे
और उनमें बहुत तेल लगा था
उसका चेहरा यहां वहां से थपड़ाया था
जैसे पिचका हुआ
रंग अब भी गोरा होने का भ्रम देता था
उस संक्षिप्त मुलाक़ात के बाद
कई घंटों मैं सोचता रहा
मैं क्यों नहीं याद कर पा रहा उसका वह चेहरा
जो तो भी नाम था क्या महेंद्र सोनी उसका
उसकी माँ की गुर्राहट
अब भी मेरे कानों में गूंजती थी
उसके पिता के सिगरेट वाले धुंए के साथ
वह सामने वाला मकान
बड़ा और खाली खाली सा था
जिसमें वे लोग रहा करते थे
कारखाने वाली बस्ती में जाने से पहले तक
नहीं मैं किसी महेंद्र सोनी को याद नहीं कर पा रहा
हां, तो वह महेंद्र सोनी नहीं डिम्पी भैया था
जिससे मैंने एक बार परीक्षा का फारम भरवाया था
उसकी घनी मूंछें थीं और घुंघराले बाल
उन दिनों वह काला चश्मा भी लगाता था
दिन बीत जाते हैं
धुंधले पड़ते जाते हैं चेहरे
और अपना शहर पराया होता जाता है
जैसे डिम्पी भैया।
छत पर खाना
इन दिनों जब फ्लैट में रहते हुए छत
साल में एक दो बार ही नसीब होती है
तब सर्दियों की जाती हुई दोपहर में
याद आ गया छत पर खाना
घर से मां का ननिहाल कुछ ही दूर था
बस दो चौराहों के पार
मां के मामा और मामीसाहब का घर
जहां मैं उछलता कूदता चला जाता था
मामासाहब पुराने आदमी थे
और मामीसाहब भी पुराने
वे चूल्हे पर खाना बनाते थे
और हर त्योहार पर हमें बुलाते
देर तक चूल्हा जलता
पूड़ियां छनती और खीर उबाली जाती
यह सब लकड़ी के चूल्हे पर होता
जो रसोई के बाहर
घर के बीचों बीच रखा जाता था
ताकि जंगले से धुंआ निकलता रहे
यह भोजन ख़ास तौर पर
श्राद्ध और खास त्योहारों पर बनता था
सर्दी में हरे चने का हलवा
जिसे मामीसाहब जाजरिया कहते थे
और जिसका स्वाद मेरे लिए कठिन था
बहरहाल बात छत की थी यानी छत पर खाने की
तो सर्दियों में मामीसाहब छत पर खाना बनाते थे
चूल्हा ऊपर जाता था या कभी कभी सिगड़ी भी
सिगड़ी पर मक्की के पापड़ सेके जाते
जिन्हें पापड़ नहीं पापड़ियां कहा जाता था
शाम का अंधेरा घिरने लगता
खाना बनता और हम सारे बच्चे उधम मचाते
तब नानी भी वहां होतीं
नाना भी और नानी की बहन भी बहनोई साहब भी
तब खाना खाना ही
जैसे पूरे दिन का लक्ष्य होता था
सुबह और शाम तक खाना ही खाना
कितनी जल्दी वे दिन बीत गए मां
तुम भी नहीं हो
मामीसाहब चले ही गए
जो बहुत मौज में आने पर
मुझे लाला हजारी कहते थे
मामीसाहब गाना गाने लगते थे-
ओ लाला हजारी ओ चांदा सेठानी
मैं उनकी भानजी का बेटा था
जिसे मेवाड़ और मालवा में
भाणेज नहीं ताणेज कहा जाता है
और मामीसाहब के अनुसार
जिसे खाना खिलाना पुण्य कमाना होता है
फिर शिशिर की संध्या है मामीसाहब
एक भोज का बुलावा है
जिसे कांट्रिब्यूटरी डिनर कहते हैं भले लोग
मुझे छत की याद आती है
और एक रुलाई फूट पड़ती है
अब छत पर खाना नहीं होगा।
संपर्क: 393, डीडीए, ब्लॉक सी एंड डी, कनिष्क अपार्टमेंट, शालीमार बाग, दिली –110088 मो.8130072004