अमेरिका प्रवासी कवयित्री। क्रिटिकल एथनिक स्टडीज और फाइन आर्ट्सकी प्रोफेसर। दो कविता संग्रह कच्चा रंगऔर कोलतार के पैर

 

चित्र

दोनों हाथ रंगे थे
और कपड़ों पर जहां-तहां छींटे
पता नहीं रो रही थीं
या समझा रही थीं अपने आपको
शब्द नीले पड़ गए थे
पंक्तियों से बाहर आकर
निराकार संवेदना का रूप ले रहे थे
तिलिस्मी दरवाजे की तरह
पन्ने फड़फड़ा रहे थे
बादलों के गर्जन से पहले
रौशनी से भरी लाइनें चमक रही थीं
ठिठुरते पन्ने
एक-दूसरे से चिपक-से गए थे
सब कुछ एक हो गया उस क्षण
कोहरे में फुसफुसाती आवाजें
भाप से ढक गईं
और सुंदर सुबह का अभिवादन
ओस की बूंदों ने किया
वे रोईं गाईं और चुपचाप अपने आपको
समेट कर रात भर बैठी रहीं हरी घास पर
देखती रहीं उन दीवारों को
जहां रातों-रात
श्वेत-श्याम चित्र उग आए थे!

वही अंधेरा

जंगल के पास था
एक सुनसान अंधेरा
जिसकी आंखों के बीच एक बत्ती टिमटिमाती
और बुझ जाती सांझ होते ही
पिघलते पेड़ों के पास मोम की जड़ें थीं
उनकी रौशनी का वृत्त
छोटा होता जा रहा था
एक दिवास्वप्न की तरह
सूत से भी ज्यादा कच्चा था
भावनाओं का तार
उनकी शाखाओं से लटकता था
उनका पढ़ा जाना
जैसे उनकी मृत्यु
जंगल अपनी सघनता समेटे
जुगनुओं से भरी आँखों से एकटक देखता था
पहाड़ों को
जिनकी ऊंचाई के लिए नीला आकाश
कम पड़ जाता
गुजर जाता हर दिन एक दिन की तरह
यह सोच घुटन होती है कि
आज भी बिलकुल गुजरे हुए कल जैसा है
वही रास्ते
वही अंधेरा
रात ठहर जाती है
उस बियाबान जंगल के अंदर
जिसके दोनों ओर खड़े हुए लोग
इंतजार करते हैं उसके गुजरने का
झांकती हैं भयभीत आंखें
रुके हुए समय से ज्यादा
भयावह कुछ भी नहीं होता।

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