गुजराती की प्रसिद्ध कथाकार और कवयित्री। हिंदी में भी लेखन। कई कहानी संग्रह। हिंदी कविता संग्रह ‘खामोश बातें’ और ‘पंख में बारिश’। दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर।
घर वापसी
घर वापसी के बावजूद
मैं कभी नहीं लौट पाती अपने घर
जैसे
पश्चिम के आकाश में डूबता सूरज
कभी नहीं लौट पाता पूर्व के आकाश में दुबारा
कितने एक से हैं हम
बस, एक ही अंतर है हमारे बीच
बुझा-बुझा सा वह सूरज डूबता है साबूत
एक मैं हूँ जो कभी नहीं डूबती पूरी की पूरी
न तैरती हूँ कहीं
न जलती हूँ एक जगह
मेरे देह के अंग
इधर-उधर जलते गिरते-बिखरते रहते हैं
हां, वे स्थान कभी नहीं बनेंगे शक्तिपीठ
मैं आधी पीठ पर
झुलसती पृथ्वी
बंजर जमीन
आकाश के कुछ चीथड़े
मरी हुई भूख
प्यासी प्यास
और शक्ति का एक शव उठाए
लौटती हूँ अपने घर
हां, एक घर लौट आता है घर में
लेकिन मैं कभी नहीं लौट पाई अपने घर!
तुम्हारे साथ मेरा होना
तुम्हारे साथ मेरा होना
महज़ तुम्हारे किसी शर्ट के बटन की तरह नहीं है
तुम्हारे साथ मेरा होना
आकाश में खिलते
सोलह चांद की तरह भी नहीं
तुम्हारे साथ मेरा होना
एक अवकाश को बहती हवा से भर देना है
तुम्हारे साथ मेरा होना
किसी बरगद के पेड़ की जड़ सा होना है
मैं तुम्हारी शर्ट का
पहला या आखिरी बटन नहीं बनना चाहती
जिसके बिना कोई फर्क न पड़ता हो तुम्हारे तन को
दरअसल
तुम्हारे तन की त्वचा बनना ही मेरा होना है!
वर्जिनिया कहती है
वर्जिनिया कहती है :
हर औरत को ‘अपने’ एक कमरे की चाहत रहती है
उसे क्या पता
कि भारतीय औरतों के पास कितने कमरे होते हैं!
और प्रहर-प्रहर निश्चित होता है उनका पता
सुबह सवेरे वह आंगन में धूल सी मिलती है
फिर रसोईघर में धुएं सी फैलती है
कचहरी के कमरों में यंत्र सी चलती दिखती है
या खेतों में धूप सी सिंकती मिलती है
शाम के वक्त बाजार की दुकानों में दिखती है
घर लौटकर फिर धुआं बनती है
और रात को बिस्तर पर बिछती है
कितने कमरे और हैं
और कितने कितने पते हैं इन औरतों के पास
फिर भी
औरतें लापता रहती हैं!
लिटरेचर पढ़ते लड़के
लिटरेचर पढ़ते वे लड़के
निकम्मे की पहचान पहने
घसीट ले आते हैं खुद को
लिटरेचर के संसार में
मछलियों से भरे एक समंदर में
कछुए से वे चार-पांच लड़के
शर्म की ढाल के नीचे
दुबककर बैठे रहते हैं चुपचाप
और आंखों से छूते रहते हैं
खिड़की के बाहर का नीला आकाश
टूटे हुए वे लड़के
और भी टूटने लगते हैं जब वे जानने लगते हैं
घर, गली या दुनिया की किताबों के
किसी भी पन्ने पर
कहीं भी नहीं हैं वे दर्ज़
इसलिए दिन में नोटबुक के अंतिम पन्नों पर
और रात में डायरी के भीगे पन्नों पर
दर्ज़ करते रहते हैं अपनी उपस्थिति
लिटरेचर पढ़ते वे लड़के
समझने लगते हैं आदर्श प्रणय की परिभाषा
नापने लगते हैं प्रेम की ऊंचाई और गहराई
वे जानने लगते हैं कि
प्रेम एक चरवाहे का कर्म भर नहीं है
प्रेम एक पूजा है कोई विज्ञापन नहीं
मगर निरंतर बदलती इस अर्थव्यवस्था में
उनके अनछुए अनकहे प्रेम की दरखास्त
दम तोड़ने लगती है
कविता, कहानी या कोई उपन्यास जीने से पहले
वे जानने लगते हैं
लय, विलय और प्रलय के नवीनतम अर्थ
जो तुम्हारे शब्दकोश में कहीं नहीं है
इसलिए वे असमर्थ हो जाते हैं
तुम्हारे साथ एक सार्थक संवाद के लिए
शेयर बाज़ार के शोरगुल में
तुम्हारे द्विअर्थी चुटकुलों में
अत्याधुनिक तकनीकी मशीनों के बीच वे लड़के
सितार का टूटा हुआ तार जोड़ने की
नाकाम कोशिश करते रहते हैं
वे जानने लगते हैं
जाति ही नहीं भाषा से भी हो सकती है राजनीति
जिसमें कोई चुनाव नहीं होता
जिसमें कोई प्रत्याशी नहीं होता
खड़ा होता है एक पूरा समूह
जो जीत जाता है पुरुषत्व के बल पर
या आभिजात्य के नाम पर
भाषा धकेल सकती है
किसी को भी हाशिये के हाशिये पर
बनाए रखती है स्त्री को मात्र स्त्री
अछूत को मात्र अछूत सदैव के लिए
वह नहीं बनने देती
मुख्यधारा का इंसान उसे
वे लड़के
सुनने लगते हैं अपने भीतर की कोयल को
वे गाना चाहते हैं एक सुरीला गीत
कंप्यूटर की खटखट के बीच
उनके प्रेमगीत और वीरगीत
घुटघुट कर मरने लगते हैं
वे व्हाट्सअप पर नहीं
पर पाती में प्रेम उड़ेलना चाहते हैं
चाहते हैं वे किसी दिन
मेघ को दूत बनाकर प्रिया को कोई संदेश भेजना
किंतु प्रबुद्ध जनों के हाथों
पागलखाने के दरवाजे तक
पहुंचाए जाने के डर से
भयभीत लड़के
धीरे-धीरे उतारने लगते हैं
रुपहली चांदनी की परतें
उन परतों के साथ-साथ वे भी उतरने लगते हैं
असीम अंधेरे भरे पाताललोक में
जहां से वे लौटकर नहीं आ सकते
वे अधमरे लड़के
एक दिन आदर्श मनुष्य होने
या बने रहने का दृढ़ निर्धारण लिए
खाली पेट
तुम्हारी वर्जित दुनिया में करते हैं प्रवेश
चलते रहते हैं वे अनंत अंधकार में
अकेले और अकेले होने के लिए
ख़रगोश की उस भीड़ में
कछुए की चाल चलते वे लड़के सोचते रहते हैं :
जो बोल पाएगा वह इस संसार तक पहुंचेगा
जो नहीं बोल पाएगा
वह खंड-खंड होकर कहां जाएगा?
वे लड़के
गृहस्थाश्रम की आधी उम्र पार कर
हर साक्षात्कार के बाद
बहन के दुपट्टे से, माँ की साड़ी से
या हॉस्टल की चद्दर से
करते रहते हैं आत्महत्या मन ही मन
लिटरेचर पढ़ते वे लड़के अक्सर चुप रहते हैं
बेबस आंखों को सुनते रहते हैं
वे जानते हैं
कविता कभी नहीं सुधार सकती
देश की अर्थव्यवस्था को
मगर कविता
ईश्वर की व्यवस्था का अर्थ जरूर समझा सकती है
केवल वे जानते हैं
उनकी शेष यात्रा का नाम ‘रोटी की खोज’ है
केवल वे जानते हैं
उनके इस शोध के लिए
कभी नहीं मिलेगा उन्हें कोई पुरस्कार
फिर भी इस समय में वे विजेता कहलाएंगे
क्योंकि
यदि सबसे बड़ी कोई उपलब्धि है तो वह है
किसी को सुनना…!
संपर्क : एसिस्टेंट प्रो़फेसर, गुजराती विभाग, वीर नर्मद दक्षिण गुजरात यूनिवर्सिटी, उधना मग्दाल्ला रोड, सूरत-395007 (गुजरात) मो.9409565005
एक से बढ़कर एक बहेतरीन रचना!।
अपनी गहन समवेदना को उचित शब्ददेह दे पाई है ये वाग यात्री।