गुजराती की सुपरिचित कवयित्री, कथाकार और समीक्षक।दो कविता संग्रह हिंदी में भी प्रकाशित।शीघ्र प्रकाश्य पंख में बारिश।कुछ पुरस्कारों से सम्मानित।

 

पटकथा

फिर भी आप पूछ रहे हो
तो कहती हूँ : बस मज़े में हूँ
सदियों पहले
तुम्हारें हाथों लिखी गई
नाटक की किसी पटकथा के अनुसार
घर के रंगमंच पर करती रहती हूँ अभिनय
मिटती रहती हूँ एक-एक अंक
होती रहती हूँ प्रदर्शित
प्रहर प्रहर रोज रोज
फिर भी आप पूछ रहे हो
तो कहती हूँ : बस, जलसा है
टांड पर रखे हुए अनुउपयोगी बर्तनों की तरह
कभी कभार
पर्व-त्योहार पर उतरती हूँ
घिस-घिसकर चमक उठती हूँ
और आदतन खनक उठती हूँ
तब कोई चिल्लाता है :
‘बंद कर अपना यह कहकहा’
फिर भी मैं खनकती हूँ!
कहती हूँ बात
आदिम से भी आदिम की बात
कि बोरी में बंद कर रख दी जाती रही हूँ
तांड के किसी कोने में
किसी अनुउपयोगी इनसान की तरह!
फिर भी आप पूछ रहे हो
तो कहती हूँ : बस, मौजे दरिया है
फिर चाहे बिना लहरों का एक पूरा समुद्र
सूख-सूखकर नमकीन रेगिस्तान बन चुका हो
फिर भी सतह का समुद्र गरजता रहता है
कहता है : मेरे भीतर कुछ मर गया है
लाश आती नहीं ऊपर
दुर्गंध आती है मरी हुई लहरों से भयंकर!
फिर भी आप पूछते हो
तो कहती हूँ : बस, मजे में हूँ
कराहती हूँ
तब लगता है
मैं जिंदा हूँ!

लाल रंग

अलमारी के एक कोने में रखा था
ऊन से बुना हुआ आधा-अधूरा फ्रॉक
फ्रॉक की उष्ण गंध फैल गई चारों ओर
कि पूरी हवेली में आग ही आग
दूसरे दिन तो
शहर के किसी छोर के कूड़ादान में
पड़ा था वह गोटमोट बदबू फैलाता!
अधिक जोर नहीं था देह में
फिर भी नया ऊन लिए खड़ी रही दृढ़
फिर हवेली की पक्की दीवारें गरज उठीं :
‘बहोत उड़ रही हो आजकल..!’
मैं धीरे से फुसफुसाती हूँ
कच्ची दीवारों वाले झोपड़ों की कहां होती हैं छतें
कि नजरें उठाकर
पूरा आसमान देखने का कर सके अपराध
झोंपड़ी में जन्मतीं औरतें
पंख कटाकर ही पैदा होती हैं
याद है मुझे
पति गृह की पक्की दीवारों के सामने
ढहती हुई कोई दीवार-सी खड़ी हुई
नववधू के कानों में
शब्दों के कील ठोके जा रहे थे : यहां लगा
कुमकुम वाले हाथ
संभालकर—देखकर—ठीक से लगाना
ये दीवारें थोड़ी अलग हैं
निशान आसानी से मिटातीं नहीं
और भूलतीं भी नहीं…
हाँ, दीवार पर लगाए थे मैंने
अपने कुमकुम वाले हाथ
कांप रहे हैं अभी तक थर-थर
कुमकुम में
दबी—ढंकी भयभीत होती
मेरी हस्तरेखाएं ढूंढ रही हैं
उस लाल रंग में
खोया हुआ अपना लाल रंग!

वह तो

वह तो रेफ्रिजरेटर!
जब चाहो ठंडा पा सकते हो
फिर चाहे उसके उष्ण नि:श्वास
फ्रीजर में रखी हुई बर्फ की ट्रे में
बर्फ बन जाते हों
वह तो टेलीविजन!
रिमोट पकड़ा हाथ जैसा चाहे वैसे
जब चाहे तब ले सकता है मनोरंजन
फिर चाहे करुण रस की चरमसीमा तक
पहुंचते-पहुंचते
उसने अपना पूरा वजूद ही मिटा दिया हो
और एक लंबी प्रतीक्षा के अंत में
जब उसे कुछ कहना हो
अचानक चेनल बदल दी जाती हो
और तब उसे कॉमेडी शुरू करनी पड़ती हो!
वह तो घरघंटी!
स्विच ऑन करते ही
तरह-तरह का आटा मिल सकता है
फिर चाहे उसका समूचा अस्तित्व ही
क्यों न पिस जाता हो!
वह तो वाशिंग मशीन!
चाहो जब
सफेद शर्ट पर लगा काला दाग धो सकते हो
फिर चाहे उसका नि:शब्द क्रंदन
भीतर ही भीतर मचलता-कुचलता रहता हो
वह तो एक अंतहीन कहानी!

कर

परदेशी!
कोई ऐसी जगह हो तो दिखाओ
न तेज
न सेज
न परछाई
न हो टुकड़े मौन के जहां
न गूंज मन की
और न छुए पोरें आवाज की
कोई ऐसी जगह हो तो दिखाओ परदेशी!
चुकाना न पड़ता हो जहां
कर सांसों का!

औरत और उसकी ॠतु

हड्डियां जमा देता जाड़ा
उबल उठा है ग्रीष्म ॠतु बन
और ग्रीष्म?
यह दौड़ा भीगने बारिश में निर्वस्त्र!
अब थम गई है बारिश भी
हालांकि बदलता रहता है मौसम
किंतु स्त्री और उसकी ॠतु?
घर की दीवारें एक दूसरे के कानों में फुसफुसाती हैं
औरत की ॠतु झरने की तैयारी में है
हां, औरतों के कपड़ों पर
उभरते हैं दाग कभी-कभार
और उनके पेट उभरते हैं बैठते हैं उभरते हैं
फिर एक दिन
दाग और पेट दोनों समझ जाते हैं
गिन लेते हैं हिसाब एक पल में
इस औरत ने अभी अभी मनाया है
अपना पचासवां जन्मदिन
दीवारों की बातों ने जोर पकड़ा है अब
औरत की ॠतु झरने की तैयारी में है
कि तभी
सुनाई पड़ती है औरत की आवाज
औरत की ॠतु?
क्या आप कर सकते हो कत्ल समुद्र की
काट सकते हो पानी को कभी
भोंक सकते हो उसकी छाती में छुरी
हां, कभी-कभी लहरों पर पत्थर मारकर
तुम उठा सकते हो लहरों को काटने का
विकृत आनंद
पर वहां देखो दूसरी लहर उठने की तैयारी में है
आई….आई…ये आई…
और दीवारों के बीच
पड़ जाती है दरार अचानक!

(अनुवाद कवयित्री द्वारा)

संपर्क :आसिस्टेंट प्रोफेसर, गुजराती विभाग, वीर नर्मद दक्षिण गुजरात युनिवर्सिटी, उधना मग्दाल्ला रोड, सुरत395007 (गुजरात) मो. 9409565005