पंजाबी भाषा में मैं आदम नहीं’  काव्यसंग्रह प्रकाशित।संप्रति झज्जर में बतौर असिस्टेंट प्रोफेसर (शिक्षा) के पद पर कार्यरत।

‘ताया, गांव में सब तुम्हें चोर क्यों कहते हैं?’

बिलकुल सीधे सवाल से बख्तावर थोड़ा सकपकाया, उसे भी पता था कि गांव के लोग उसे बख्तावर चोर कह कर बुलाते हैं,  लेकिन पीठ के पीछे। कभी किसी ने मुंह पर उसे ऐसा नहीं कहा था। गांव में दो बख्तावर थे और पहचान के लिए गांव के लोग दोनों के नाम के साथ एक तखल्लुस लगाते थे, एक को ‘बख्तावर अमली’ और दूसरे को ‘बख्तावर चोर’ कह कर बुलाते थे।

भतीजे कुलजीत के सीधे सवाल से एक बार तो उसे समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दे, कोई और ऐसा बोलता तो बख्तावर उसकी जीभ खींच लेता। उसे पता था कि भतीजे का सवाल मासूमियत और जिज्ञासा से भरा है। पशुओं के लिए बरसीम काट कर दोनों ताया भतीजा घर वापिस मुड़ने ही वाले थे।

ताये ने भतीजे से हल्का मुस्कराते हुए कहा, ‘चल पुत्तर, आज मैं तुम्हें बता ही देता हूँ कि गांव के लोग मुझे चोर क्यों कहते हैं। थोड़े विराम के बाद वह बोला, पहले ऐसा कर झोटा बुग्गी शीशम के पेड़ के नीचे छांव में खड़ी कर दे ताकि बरसीम धूप में सूख न जाए, कहानी थोड़ी लंबी है।

फिर वह ट्यूबवेल की हौद से मुंह-हाथ धोकर शीशम की घनी छांव में नीचे धरती पर बैठ गया, कुलजीत भी हाथ में दराती लिए वहीं जमीन पर उसके बगल में ही बैठ गया और दराती से जमीन में से मिट्टी खुरेदने लगा।

ताया एक किस्सागो की तरह बड़े सलीके से कहानी की शुरुआत करते हुए बोला, बात उन दिनों की है जब पाकिस्तान अभी बना नहीं था। उसने कांटेदार तारों की एक बड़ी-सी दीवार की तरफ इशारा किया जो खेत से साफ नजर आ रही थी। यह भारत-पाकिस्तान की हद पर लगाई गई तारों की दीवार थी जहां बीएसएफ के जवान हमेशा पहरा देते रहते थे। उनका गांव पंजाब के गुरदासपुर जिले में पड़ता था, जो बिलकुल सरहद के पास बसा हुआ था।

वह आगे बोला, सब मिलजुल कर रहते थे, हमारा पूरा गांव सिक्खों का था। घर की माली हालत ज्यादा अच्छी नहीं थी तो मैं एक गिरोह में शामिल हो गया जो पशुओं की चोरी करते थे। पशुओं की चोरी करना या होना उन दिनों आम बात थी। हम ज्यादातर भैंसों की या बढ़िया नस्ल के बैल की चोरी करते थे। ट्रैक्टर थे नहीं उन दिनों, खेतों की जुताई लोग बैलों से करते थे। बैलों की जोड़ी को हमारे यहां ‘जोग’ बोलते थे। जिसके पास सबसे अच्छी जोग होती उसकी खेती गांव में सबसे अच्छी होती। चर्चे होते वो अलग से। लोग बहुत शौक से नागौरी बैल खरीद कर लाते थे।’

कुलजीत ने दराती अब एक तरफ रख दी और कहानी सुनने में मगन हो गया।

‘हम चोरी की नई-नई तरकीब सोचते थे, कोशिश करते थे कि हमारा खुरा किसी खोजी की पकड़ में न आए। ‘खुरा’ समझते हो न, खुरा मतलब हमारे पैरों के निशान।’ कुलजीत ने बैठे-बैठे बिना बोले ‘हां’ में सिर हिलाया।

‘खुरे की चिंता इसलिए होती थी कि उन दिनों खोजी बहुत कमाल के होते थे। हर चौथे-पांचवें गांव में एक खोजी जरूर होता था। कुछ खोजी इतने माने हुए थे कि चोर चोरी करके अपने घर बाद में पहुंचता था, वे साले उससे पहले उसके घर पर पहुंच जाते थे (हँसते हुए), चोर सेर वह सवा सेर साबित होते थे। कुलजीत पुत्तर, तेरे नाना भी बहुत पहुंचे हुए खोजी थे। एक बार की बात है, मैंने तुम्हारे नाना के गांव के साथ लगते गांव से भैंस चोरी की और रातों रात अपने गांव ले आया और घर के पिछवाड़े में एक कमरे में छिपाकर बांध दी। तुम्हारे नाना का गांव अपने गांव से लगभग चौदह-पंद्रह मील दूर था।’ कुलजीत ने ताया के द्वारा नाना के गांव की बताई दूरी को स्वीकृति देने वाले लहजे में सिर हिलाया।

‘अगले दिन उस गांव के लोग तुम्हारे नाना के पास पहुंच गए और लगे मिन्नतें करने। तुम्हारे नाना जो खुरा खोजने में माहिर थे, उन्हें तो इस काम में मजा बहुत आता था। वैसे इसके लिए उन्हें कोई पैसा नहीं मिलता था। बस अपनी खुशी के लिए समाज सेवा करते थे। वे पहले ही तैयार थे, कपड़े बदले और चल पड़े खुरा खोजने के लिए। खुरा खोजते-खोजते जब वह हमारे गांव के खेतों की हद में पहुंच गए तो अचानक रुक गए। रुककर जिनकी भैंस गुम हुई थी उनको मुखातिब होते हुए बोले कि अभी दिन ढल रहा है, खुरा ठीक से पकड़ में नहीं आ रहा। तुम लोग अभी वापिस जाओ और सुबह यहीं से आगे बढ़ेंगे। इतना सुन कर वे लोग वापिस अपने गांव की और रवाना हो गए और तुम्हारे नाना सीधे हमारे घर आकर बोले, “बख्तावर को कहो कि उनकी भैंस जैसे लेकर आया है वैसे ही रातों रात उनके घर पहुंचा कर आए”। मैंने वैसे ही किया, उनकी सब लोग बहुत इज्जत करते थे।’

कुलजीत अपने नाना के कौशल और रुतबे से गदगद हो कहानी पूरा रस लेकर सुन रहा था।

‘इसके बाद मैंने चोरी का एक नया ढंग खोज निकाला, और वह तरीका खूब लंबे समय तक चला। और कोई खोजी खुरा नहीं ढूंढ़ता था। तरीका यह था कि मैं चोरी करने घोड़ी पर सवार होकर जाता, उन दिनों हर दूसरे घर में घोड़ी जरूर होती थी। जिस पशु की चोरी करनी होती थी घोड़ी को उसके खूंटे के बिल्कुल पास ले जाता। और उसके बाद घोड़ी की काठी से एक तरफ सरक कर बड़ी सावधानी से नीचे उतरता, पर अपना पैर जमीन पर नहीं रखता बल्कि उसी खूंटे पर रखता जिस पर पशु बंधा होता। पैर खूंटे पर ही रख पशु का रस्सा खोल उसे पकड़ वापिस घोड़ी पर सवार हो चल देता, आगे घोड़ी पीछे चोरी किया हुआ पशु!’

फिर वह कुलजीत को थोड़ा मुस्कराकर बोला, ‘समझ आया, बिना पैर जमीन पर रखे पशु को खोलकर रफू चक्कर…, अब न किसी इंसान का खुरा और न चोरी की आशंका। दोनों निशान पशुओं के पैरों के, सब को यही लगता कि किसी दूसरे घर का पशु खुल कर आया होगा और उससे लड़ते भिड़ते हमारा पशु भी रस्सा खुला कर यहीं किसी खेत में चला गया होगा। लोग पूरा दिन आस-पास के गांव के खेतों में ढूंढते रहते, गुरुद्वारों में अनाउंसमेंट करवाते रहते कि हमारा पशु रस्सा तुड़ाकर भाग गया है किसी को मिले तो इत्तिला दें। एक-दो दिन में मेरी घोड़ी के खुर के निशान भी मिट जाते, और फिर कैसे खुर और कैसे खोजी। तो जब लगातार मैं और मेरे कुछ दोस्त इसी ढंग से वारदात करते रहे, धीरे-धीरे लोगों को चोरी की यह नई तरकीब समझ में आ गई।’

इसके बाद ताया थोड़ा सफाई देने वाले अंदाज में बोला, ‘वैसे पुत्तर, इस गांव में मैं अकेला ही चोर नहीं था। गांव के ज्यादातर लोग चोरियां करते थे। कोई चोरी से दूसरे के खेत का पानी अपने खेत में काट लेता, कोई पशुओं का हरा चारा, बरसीम वगैरा चोरी से किसी दूसरे के खेत से काट लेता। हमारे आधे गांव की खिड़कियां-दरवाजे वह सामने वाली नहर (नहर की तरफ इशारा करते हुए) के किनारे लगे पेड़ों से बने हैं। गांव के लोग नहरी बेलदार को कुछ खिला पिलाकर रात को चोरी-चोरी लकड़ी काट लाते। फिर उसे सुखाकर, चीरकर खिड़कियां-दरवाजे- खाट आदि बनवाते थे। और तो और, लोग खेत में पशुओं के लिए भंडार किए हुए सूखे भूसे को भी नहीं छोड़ते थे, उसे भी चुरा कर ले जाते थे।’

फिर वह कुछ पल चुप रहा और हँसकर बोला, ‘सूखे भूसे से याद आया, एक बड़ी मजेदार बात है। अपने गांव का अनूप सिंह, वो जो गांव की फिरनी पर रहता है, जिसके खेत में कोल्हू लगा हुआ है, जिससे हमने पिछले साल गुड़ बनवाया था (कुलजीत ने हां कहा)। वह और उसका भाई कहीं से सोना लूटकर लाए, बताते हैं कि कई किलो सोना था। सोना लूटकर घर लाने के बजाय उन्होंने खेत में ही पशुओं के लिए रखे हुए सूखे भूसे में उसे एक तरफ दबा दिया। उन्होंने सोचा कि घर पर तलाशी में पकड़ा न जाए और कुछ दिन मामला ठंडा पड़ जाए तो उसे निकाल कर ले जाएंगे।

अब हुआ यह कि मामला ठंडा पड़ने से पहले एक वारदात हो गई। वारदात यह हुई कि कोई भलामानस रात को उनके खेत से सूखा भूसा चुराने के इरादे से घुसा और उसने बड़ी सी तिरपाल में काफी भूसा डाल कर एक बड़ी सी गठड़ी बनाई और उसे लेकर नौ दो ग्यारह हो गया। अब उसकी किस्मत देखो कि घर जाकर उसने जैसे ही चोरी करके लाए गए सूखे भूसे की गठड़ी खोली तो छन-छन करती सोने की गठड़ी एक तरफ गिर पड़ी। उसने कई दिन तक इस बात की हवा भी नहीं लगने दी और अनूप सिंह के पास कौन से सुनार के बिल थे। वह और उसका भाई कई दिन कोल्हू पर बैठकर अपनी किस्मत को रोते रहे।’

कुलजीत की नजरों से ताये बख्तावर ने ताड़ लिया कि वह इस चोर पर पड़ने वाले मोर के बारे में जानना चाह रहा है।

ताया आगे बोला, ‘मुझे पक्का तो नहीं पता पर वह जो डेरे वाला बचन सिंह है न, वही जो गांव के बाहर खेतों के डेरे में रहता है, लोग ऐसी बातें करते हैं कि उसी ने अनूप के खेत से सूखा भूसा चुराया था। वैसे ठीक भी लगता है उसके पास उसकी अपनी पुश्तैनी जमीन के नाम पर दो एकड़ ही थे। बाद में कुछ सालों में धीरे-धीरे उसने दस एकड़ और खरीद लिए। ऐसी भी उसकी कौन सी फैक्टरी थी जिसकी कमाई से उसने यह जमीन खरीदी। तभी लोगों का शक पुख्ता हुआ।’

कुलजीत अब खुलकर हँसा और बोला, ‘कहानी में स्वाद बहुत आ रहा है।’

ताया आगे से हँस कर बोला, ‘पुत्तर तुम्हें स्वाद आ रहा है, पूछकर देखो उस अनूप से जिसे अब तक बचन के ये दस एकड़ जहर की तरह लगते हैं।’

फिर ताया थोड़े दार्शनिक अंदाज में बोला, ‘मैं यह कह रहा था कि यहां कौन चोर नहीं था? कोई तन का चोर, कोई मन का चोर। मैंने सिर्फ पशु चुराए थे, लोग तो यहां इंसानों को भी चुरा कर ले आए थे!’

कुलजीत अब हैरानी से ताये बख्तावर की तरफ देखने लगा, जिसकी आवाज अब गंभीर हो चली थी।

‘जब बंटवारे का फसाद बढ़ने लगा, यह जो हमारे गांव के बड़े जागीरदार हैं, वही लाल हवेली वाले, पता नहीं कहां से दो मुस्लिम लड़कियों को लूट कर ले आए थे। उन्हें छिपाकर घोड़ों के अस्तबल में रखा था। मैंने भी उनकी चीख पुकार सुनी थी। कई दिन तक वे रोती रहीं। वे तो किसी ने पुलिस को मुखबरी कर दी। पुलिस ने लड़कियां बरामद करके उन्हें उनके घर वापिस भिजवा दिया।’

ताये को थोड़ा गंभीर होते देखकर कुलजीत ने बात बदलते हुए कहा, ‘चलो छोड़ो ताया, तुम यह बताओ कि फिर तुमने यह चोरी छोड़ कैसे दी। लोग कहते हैं कि चोरी एक नशे की तरह होती है। जैसे नशेड़ी नशा नहीं छोड़ सकता, चोर चोरी नहीं छोड़ सकता।’

‘छोड़ सकता है पुत्तर’, ताये ने लंबी और गहरी आह भरते हुए फिर कहा, ‘छोड़ सकता है पुत्तर, अगर कोई गहरी चोट लगे तो।’

इसके बाद वह कुछ देर शांत रहा। फिर अपने भतीजे के सवाल और चोट वाले जवाब के प्रति कुलजीत के चेहरे पर जिज्ञासा के उभरे भावों को देखते हुए वह बोला, ‘यह बात भी उन्हीं दिनों की है, फसाद वाले दिनों की। पुत्तर जब बंटवारा होने वाला था, फसाद उससे पहले ही शुरू हो चुके थे। आए दिन खबरें मिलती थीं कि आज फलां गांव में हिंदुओं और सिक्खों ने मारकाट की और लूट लिया… आज फलां गांव में मुसलमानों ने मारकाट की और लूट लिया। अपना गांव सरहद पर था इसलिए दोनों तरफ की खबरें मिलती रहती थीं। हर तरह की लूट खुलकर हो रही थी। कोई मकान लूट रहा था, कोई दुकान लूट रहा था, कोई पशु लूट रहा था, कोई जवान लड़कियां लूट रहा था। सबके सब चोर, डाकू हो गए थे।

‘मैंने पशुओं के सिवा कभी कुछ नहीं चुराया था। माहौल ने मेरे अंदर भी लालच भर दिया। एक साथी ने आकर खबर दी कि पड़ोस वाले गांव के मुस्लिम आज रात गांव छोड़ेंगे, मौका है हम भी बहती गंगा में हाथ धो लें। मैं रात के प्रबंध में जुट गया। लोहे की राड, गंडासे, तलवार जो भी मिला सब इकट्ठा कर लिया।’

कुलजीत के चेहरे पर अब थोड़ा डर और उत्सुकता का मिला-जुला भाव था।

‘पूरे प्रबंध के साथ हम रात को खेतों के रास्ते से होते हुए उस गांव में पहुंचे। उन दिनों कच्चे मकान ही होते थे, लोग गोबर मिट्टी से लीपकर रखते थे। हमने गांव की फिरनी पर एक घर की तरफ रुख किया, घर के दरवाजे से घुसने के बजाय हम दीवार फांद कर घर में दाखिल हुए। घर में कूदते ही बाकी साथी दबे पांव आंगन के पीछे बने कमरों की तरफ लपके और मैं धीरे-धीरे आंगन के एक कोने में बने चौके (खाना बनाने का स्थान) की तरफ चला गया। लेकिन वहां जो मैंने दृश्य देखा, उसे देखने के बाद मैं तुरंत उल्टे पांव हो लिया। हिम्मत जैसे जवाब सी दे गई। मुझसे वह दीवार फांदनी मुश्किल हो गई जिसे मैं अभी कुछ देर पहले पलक झपकते ही कूद गया था। दीवार फांदने में असफल होकर मैं दरवाजे की तरफ गया। मुझे बाकी साथियों की कोई सुध-बुध नहीं रही। दरवाजा पहले से ही खुला हुआ था, मैं वापिस खेतों से अपने गांव की तरफ चल पड़ा। मुझसे चला नहीं जा रहा था पैर उठाने मुश्किल हो रहे थे। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने मेरे पैरों में लोहा बांध दिया हो। दिमाग में लगातार कुछ तस्वीरें आ रही थीं, जा रही थीं। कैसी-कैसी कल्पना दिमाग कर रहा था, घिन्न-सी आ रही थी सभी इंसानों से, खुद से भी।’

कुलजीत के चेहरे पर बेहद हैरानी के भाव थे कि ऐसा वहां ताये ने क्या देख लिया।

ताये बख्तावर की आंखों में पानी भर आया था। वह बेहद पीड़ादायक आवाज में बोला, ‘मैंने वहां देखा कि चूल्हे की राख में अंगार अभी भी धधक रहे थे, चूल्हे के ऊपर रखे तवे पर एक रोटी जल-जल कर कोयला बन चुकी थी। चूल्हे के एक तरफ रखी थाली में आधी खाई रोटी और अचार की फांक थी, एक टूटा हुआ निवाला भी था जिसे अभी अचार नहीं लगाया गया था, थाली में ही पड़ा था। पास ही एक गिलास कच्चे फर्श पर लुढ़का हुआ था। गिलास से गिरे पानी से फर्श पर अभी भी गीलेपन का निशान ज्यों का त्यों था, जैसे अभी-अभी कुछ घटा हो…।’

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