कवि और आलोचक। ‘कुसुम वियोगी की चुनिंदा कविताएं’ संपादित पुस्तक।है।तृतीय ओमप्रकाश वाल्मीकि स्मृति साहित्य सम्मान से सम्मानित।केंद्रीय हिंदी निदेशालय, दिल्ली में मूल्यांकक के पद पर कार्यरत।
भूमंडलीकरण के बाद से दुनिया तेजी से बदली है।समाज में रहने वाला मनुष्य अपनी-अपनी वैयक्तिक पहचान को लेकर सजग होने लगा है।यहां से जब अस्मितावादी साहित्य आकार ग्रहण करने लगा और विमर्श सामने आए तो इतिहास पर नए सिरे से चर्चा शुरू हो गई।इस दौर में तथाकथित मुख्यधारा के सामने प्रश्नों की बौछार होने लगी।परंपरागत लेखन को प्रश्नांकित किया जाने लगा।इसके अलावा सबाल्टर्न साहित्य की खोज शुरू हुई।देशज साहित्य और वाचिक परंपरा का हवाला देकर नए तर्क गढ़े जाने लगे।कहा जाने लगा कि परंपरागत इतिहास संभ्रांत लोगों, सत्तासीन राजाओं, उच्च जातियों और जनता की आवाज दबानेवाले वाले विजेताओं का इतिहास है।इस दौर में एक तरफ स्थापित मान्यताओं का खंडन किया जाने लगा तथा अपनी-अपनी परंपरा के प्रगतिशील तत्वों का मंडन किया जाने लगा।
अस्मितामूलक विमर्शों के दौर में दलित विमर्श सत्ता से टकराने और अपनी ठोस जगह की मांग को लेकर आगे बढ़ा।दलित साहित्य ने अपने को कबीर, रैदास, फुले, पेरियार और अंबेडकर की परंपरा से जोड़ते हुए इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता पर बल दिया।इस तरह १९८० के दशक में दलित आंदोलन की कोख से जन्मा साहित्यांदोलन आज हर विचार, बहस और चिंतन-मनन का जरूरी हिस्सा बन गया है।आज बड़े पैमाने पर दलित लेखन हो रहा है।दलित साहित्य के हजारों लेखक लगातार अपने समय और समाज के ज्वलंत प्रश्नों को साहित्य की विविध विधाओं के माध्यम से सामने ला रहे हैं।इससे साहित्य का दायरा बढ़ा है और उसकी स्वीकार्यता बढ़ी है।
मैनेजर पांडे के शब्दों में कहें तो ‘यह साहित्य का लोकतंत्रीकरण कर रहा है’।आज दलित साहित्य पहले की तरह हाशिए पर नहीं है।किंतु अभी भी बहुत से विषय ऐसे हैं, जिनपर मंथन करना आज के समय की मांग है।मंगल ग्रह तक पहुंच जाने वाली मानव-सभ्यता के सामने आज बहुत से विकट प्रश्न मुंह बाए खड़े हैं।सरहदों पर युद्ध की विभीषिका, समाज में बढ़ती हिंसक प्रवृत्तियां, गरीबी और भुखमरी आज चरम पर हैं।इन सवालों से दलित साहित्य का टकराना लाजिमी है।अब केवल जाति-आधारित सवालों तक ही सीमित रहना काफी नहीं है।हालांकि ये सवाल भी महत्वपूर्ण हैं।किंतु आज वैश्विक स्तर पर बृहद मानव समुदाय के समक्ष जो चुनौतियां हैं, उनका मुकाबला करने के लिए जिस व्यापक चेतना की जरूरत है, क्या दलित साहित्य उस दिशा में सक्रिय है? क्या वह आंतरिक अंतर्विरोधों से उबरकर सबको अपने साथ जोड़ पा रहा है? और क्या उसमें अंतर्निहित आंदोलन की ऊर्जा अब भी प्रतिफलित हो रही है? ऐसे कई सवाल हैं जिनका उत्तर जानना जरूरी है।यह परिचर्चा इसी तरह के सवालों को उठाने की कोशिश है।
सवाल :
(१) पिछले दशकों के दलित आंदोलन की क्या उपलब्धियां हैं और इनका साहित्य पर क्या प्रभाव पड़ा है?
(२) निजीकरण का दलित आंदोलन पर क्या असर है, दलित इस चुनौती का किस तरह सामना कर पा रहे हैं?
(३) दलित राजनीति और दलित साहित्य के बीच आज कैसा संबंध है? क्या यह दलित साहित्य के आंदोलन में बिखराव का दौर है या इसके पुनर्गठन के लक्षण दिख रहे हैं? ये लक्षण किन रूपों में दिख रहे हैं?
(४) २१वीं सदी के वर्तमान दौर में दलित साहित्य किस मोड़ पर खड़ा है और इसके सामने क्या समस्याएं हैं?
(५)‘राष्ट्र’ के पहले के स्वरूप से आज के स्वरूप में क्या भिन्नता है? इस नए स्वरूप से दलितों का क्या संबंध है?
(६) क्या दलित विमर्श वर्तमान युग में स्त्री विमर्श, आदिवासी विमर्श, किसान विमर्श तथा अन्य वंचित लोगों के बीच पुल बन सकता है? स्वानुभूति तक सीमित रहने के संबंध में आपके क्या विचार हैं?
शरण कुमार लिंबाले मराठी के सुप्रसिद्ध दलित साहित्यकार।सरस्वती सम्मान से सम्मानित।यशवंतराव चव्हाण, महाराष्ट्र मुक्त विद्यापीठ, नासिक के प्रकाशन विभाग में सहायक संपादक के पद पर कार्य करते हुए इसी विश्वविद्यालय से प्रोफेसर एवं निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए।प्रमुख कृतियों में- ‘अक्करमाशी’ (आत्मकथा), ‘दलित ब्राह्मण’ (कहानी संग्रह), ‘झुंड’ (उपन्यास), ‘यल्गार’ (कविता संग्रह), ‘सनातन’ (उपन्यास) आदि। |
दलित मानवाधिकारों के लिए साहित्य लिखा जा रहा है
(१) दलित आंदोलन का प्रभाव दलित और गैर-दलित समाज दोनों पर हुआ है।इससे दलित साहित्य कैसे बच सकता था? दलित लेखकों ने सामाजिक प्रतिबद्धता से लेखन-कार्य किया।समाज में क्रांति हो, इस उद्देश्य से यह लेखन हुआ है।दलित साहित्य, दलित आंदोलन का दूसरा पहिया है।आंदोलन के कारण दलित लेखक जुझारू तरीके से लिखने लगे।दलित लेखक अपने लेखन को अपनी जिम्मेदारी मानता है।हजारों सालों से दलितों को दबाकर जो लिखा गया है, उसे सिरे से खारिज करने के लिए दलित साहित्य का उदय हुआ है।दलित साहित्य में जो जागरूकता पैदा हुई है और जिस तरह से यह समाज मानव अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहा है, इसके कारण दलित आंदोलन और दलित साहित्य है।दलित साहित्य का सही आकलन करने के लिए यहां की जाति व्यवस्था को जानना होगा।जाति के खिलाफ संघर्ष करने वाले लेखक और कार्यकर्ताओं की भूमिका को तभी सही तरीके से समझा जा सकता है।दलित आंदोलन का असर दलित साहित्य पर हुआ है और दलित साहित्य का असर दलित आंदोलन पर हुआ है।दलित आंदोलन और साहित्य का प्रभाव इतना सीमित नहीं है।दलित आंदोलन और साहित्य का असर मुख्यधारा पर भी पड़ा है।इसके फलस्वरूप समाज में हलचल पैदा हुई है।पुरानी व्यवस्थाएं डगमगाई हैं।दलित लेखक मनुष्य को महान मानकर और केंद्र में रखकर लगातार लिख रहे हैं।
(२) निजीकरण का दलितों पर सीधे कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।दलितों की कोई इंडस्ट्री नहीं है और न ही इनकी कोई निजी संपत्ति है।संपत्ति का मालिक सवर्ण था।अब समय बदल रहा है।बाहर की कंपनियां आ रही हैं और नए-नए उद्योग-धंधे खड़े हो रहे हैं।दलित तो पूरे परिदृश्य में कहीं नहीं है।वह तो इस व्यवस्था में सिक्युरिटी गॉर्ड की भूमिका में है।निजीकरण का असर आरक्षण पर जरूर हुआ है।सरकारी नौकरियाँ कम हुई हैं।इसका असर दलित और गैर-दलित दोनों तबके पर हुआ है।
जब भी बाहरी सत्ता प्रवेश करती है, इसका लाभ दलितों को मिलता है।बाहर से आने वाली सत्ता और संस्कृति दलित विरोधी नहीं है।भारत में अंग्रेज़ नहीं आते तो अंबेडकर का उदय नहीं होता।राजा राममोहन रॉय से लेकर नवजागरण के अंत तक हमारे यहाँ अंग्रेजों का असर दिखाई देता है।जनतांत्रिक आंदोलनों के कारण ही देश में नई व्यवस्था निर्मित हुई है।निजीकरण इसमें दखल दे रहा है।मैं निजीकरण का विरोध नहीं कर रहा हूँ।यहां पर भी दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था हो, यह मेरी मांग है।आज भी आरक्षण का लाभ छोटी जातियों तक नहीं पहुंच पाया है।असल बात यह है कि दलित आंदोलन पर किसी का असर नहीं पड़ सकता।आंदोलन अपने बलबूते पर खड़ा होता है।नई व्यवस्थाएं आती हैं, नए प्रश्न खड़े होते हैं।आंदोलन इनका डटकर सामना करता है।आंदोलन को हमेशा नए प्रश्नों की प्रतीक्षा होती है।निजीकरण के कारण भविष्य में मजदूरों और दलितों में एकजुट होने की संभावना दिखाई देती है।
(३) दलित साहित्य एक पॉलिटिकल डॉक्युमेंट है।दलित साहित्य और कुछ नहीं, वह दलित राजनीति का एक हिस्सा है।दलित साहित्य में दलितों के सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों की चर्चा होती है।समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व इस साहित्य का प्राण है।दलित साहित्य सामाजिक न्याय, सामाजिक स्वाधीनता और सामाजिक जनतंत्र के लिए लिखा गया है।दलितों के मानवाधिकारों के तहत यह साहित्य लिखा जा रहा है।दलित साहित्य राजनीति से प्रेरित है।मैं लिखता हूँ इसका अर्थ है, मैं राजनीति करता हूँ।दलित नेता, दलितों के दल और दलित राजनीति से दलित साहित्य का खून का रिश्ता है।दलित राजनीति जब भटक जाती है तब दलित लेखक उसके विरोध में लिखते हैं।निस्संदेह दलित साहित्य पर दलित राजनीति का असर दिखाई देता है।जब आंदोलन चरम सीमा पर होता है तो उसका व्यापक असर दलित साहित्य में देखने को मिलता है।वहीं जब आंदोलन में बिखराव नजर आता है तो इसका असर भी दलित साहित्य पर दिखाई देता है।उसमें भी बिखराव आता है।इस स्थिति को दलित लेखकों को गंभीरता से लेना चाहिए।नए विषय और नए प्रश्नों पर लिखना होगा और समकालीन समय से भिड़ना होगा।वर्तमान राजनीति और समाजनीति का भी अध्ययन करना होगा।दलित लेखकों की नई पीढ़ी इसी प्रकार के लेखन की तरफ अग्रसर है।
(४) हमारे लिए २१ वीं सदी नाम की है।हम तो १६वीं सदी में जी रहे हैं।इंसान चांद पर पहुंच गया, मंगल तक चल गया।मगर आज भी दलित कई मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकता।एक तरफ हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं वहीं दूसरी तरफ राजस्थान में शिक्षक अपने दलित विद्यार्थी को अपने घड़े से पानी पी लेने मात्र से उसे जान से मार डालता है।जब शिक्षक की जातिवादी मानसिकता नहीं बदली तो आम आदमी की जातिवादी मानसिकता कैसे बदलेगी? २१वीं सदी के कारण हमें विभिन्न अवसर मिल रहे हैं।फेसबुक, व्हाट्सएप और अन्य सर्च इंजनों के कारण हम दुनिया के संपर्क में आ रहे हैं।इलेक्ट्रॉनिक माध्यम हो या प्रिंट माध्यम हो, दलितों से जुड़े प्रश्नों की चर्चा हो रही है।मेरा मानना है कि पुरानी व्यवस्था खत्म होनी चाहिए।हर नई व्यवस्था का हम स्वागत करते हैं।२१ वीं सदी के कारण समाज तेजी से बदल रहा है।इस बदलाव की ओर दलित लेखक गंभीरता से देखता है।नई व्यवस्था नए प्रश्न लेकर आती है।हर नए लेखक को नए प्रश्नों की ओर ध्यान देना होगा।
दलित साहित्य प्रादेशिक भाषाओं में भी लिखा जा रहा है।२१वीं सदी के कारण दलित लेखकों में जो दूरी थी, वह कम हो गई है।तमिल, तेलुगु, मराठी, कन्नड़, गुजराती, बांग्ला, मलयालम आदि भाषाओं में भी दलित लेखन हो रहा है।दलित लेखक एक दूसरे से बात कर रहे हैं।दलित साहित्य को लेकर कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में संगोष्ठियां हो रही हैं।अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी दलित साहित्य की चर्चा हो रही है।दलित लेखकों को ‘लिटरेचर फेस्टिवल’ में बुलाया जा रहा है।दलित साहित्य का दूसरी भाषाओं में अनुवाद भी हो रहा है।कहने का मतलब है कि हमें अब नए-नए अवसर मिल रहे हैं।हम नई व्यवस्था का स्वागत करते हैं।पुरानी व्यवस्था ने हमारा बहुत नुकसान किया है।
(५) समाज बदल रहा है।पुरानी व्यवस्था ने करवट ली है।मल्टीनेशनल कल्चर से हम लिबरल हो रहे हैं।साथ में राष्ट्र भी बदल रहा है।महात्मा गांधी ने कहा था ‘भारतमाता के चेहरे पर जाति धब्बे के समान है।इसे मिटाना होगा’।वहीं बाबा साहब अंबेडकर ने कहा था- ‘भारतमाता के चेहरे पर जो जाति के काले धब्बे हैं वह हम अपने खून से धोएंगे।’ दलित लेखक इसी भावना से प्रेरित हुआ है।वह चाहता है कि यह राष्ट्र सुंदर बने तथा पुराना समाज भी बदले।यह सोचकर दलित लेखक इसमें अपना योगदान दे रहा है।नए राष्ट्र के निर्माण में दलित लेखकों की रचनात्मक भूमिका होगी।
किंतु आज भी गांव के मुखिया से लेकर देश के ऊंचे-ऊंचे पदों तक सवर्ण मनुष्य ही दिखता है।ईश्वर और धर्म की राजनीति इस देश की विरासत को नुकसान पहुंचा रही है।अध्यात्म की जगह मंदिरों में, धर्मग्रंथों में और मनुष्य के निजी जीवन में है।हमने उसे बाजार बना दिया है।आज वह एक राजनीतिक षड्यंत्र का हिस्सा बन गया है।यह जनतंत्र के लिए भी और धर्म के लिए भी नुकसानदेह है।आज हिंसा चरम पर है।जबकि मनुष्य और राष्ट्र के जीवन का आधार अहिंसा होनी चाहिए।दलित साहित्य में जो विद्रोह है वह विध्वंसक नहीं है।वह नई व्यवस्था के निर्माण का विचार है।वास्तव में मनुष्य और समाज का मन बदलने का औजार है दलित साहित्य।आज़ादी से पहले हम राष्ट्र नहीं थे, बल्कि विभिन्न प्रांतों और विभिन्न विचारों में बँटे हुए थे।आजादी के बाद एक नए जनतांत्रिक राष्ट्र का निर्माण हो रहा है जिसका आधार संविधान है।दलित साहित्य संविधान को मानता है।बाबा साहब अंबेडकर ने इस संविधान का निर्माण किया है और इस संविधान पर दलित लेखक गर्व करता है।
(६) ‘दलित’ एक तरह का अंब्रेला टर्म है।दलित, आदिवासी और बहुजन सामाजिक विषमता के खिलाफ लड़ रहे हैं।स्त्री विमर्श भी सामाजिक बदलाव चाहता है।दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श और स्त्री विमर्श के बीच पुल बनना चाहिए।इसकी संभावना भी है।वंचितों का विमर्श एक होना चाहिए मगर इसमें जाति आड़े आती है।स्त्री विमर्श को लेकर आज स्त्रियाँ लगातार प्रगतिशील लेखन कर रही हैं और पुरुषवादी सत्ता को चुनौती दे रही हैं।मगर उनका विमर्श जाति-व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह नहीं करता।दलित, आदिवासी, बहुजन और स्त्री साहित्य के बीच पुल बनेगा तो हमारी लड़ाई और भी आसान होगी।
संपर्क सूत्र :सुयोग कुंज, सर्वे नं. ७२/१, धनश्री हॉस्पिटल के निकट, नवी सांगवी, पुणे–४११०६१
सूर्यनारायण रणसुभे वरिष्ठ लेखक। ‘अनुवाद का समाजशास्त्र’, ‘हिंदी उपन्यास के पदचिह्न’ आदि चर्चित पुस्तकें। |
दलित साहित्य के सामने सबसे बड़ी चुनौती आत्मपरीक्षण की है
(१) उल्टे मेरा यह प्रश्न है कि हिंदी पट्टी में या पूरे भारत में दलित आंदोलन जैसा कोई आंदोलन आज है क्या?
१९५६ में डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर की मृत्यु के बाद दलित प्रश्न पर इस देश में कोई भी किसी भी प्रकार का आंदोलन नहीं हुआ है, ऐसा मेरा मानना है।
किसी भी आंदोलन के लिए जरूरी होता है संगठन का।इस प्रकार के दलित संगठन आज हिंदी पट्टी में कितने सक्रिय हैं? जो भी दलित संगठन हैं, वे कुछ मुट्ठी भर लोगों तक, एक ही जाति के लोगों तक सीमित हैं।सामान्य दलित से इन संगठनों का कोई संंबंंध नहीं है।जब किसी दलित पर दलित होने के कारण अन्याय, अत्याचार होते हैं तब इन संगठनों को उसके विरोध में आवाज उठानी चाहिए।ऐसा कुछ हुआ है क्या? इधर का उदाहरण देता हूँ, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के विद्यालयों में दलित छात्रों को मामूली कारणों से जिस प्रकार बेरहमी से पीटा गया, उसके खिलाफ उस राज्य के सभी दलित शिक्षक और प्रगतिशील सोच से संबंधित लोग क्या सड़क पर आए? क्या उन्होंने वहां की सत्ता से इसका जवाब मांगा?
संपूर्ण हिंदी पट्टी में सामाजिक प्रश्न पर एक तो आंदोलन हुआ है क्या? हिंदी पट्टी की तुलना में महाराष्ट्र में ऐसे आंदोलनों की संख्या दर्जन से भी अधिक है।एक गांव एक कुआं का आंदोलन हो या अंधश्रद्धा निर्मूलन का आंदोलन या अंतरजाति विवाह का आंदोलन।राजनीति से पूरी तरह से अलग होकर ये आंदोलन आज भी चल रहे हैं।दलित आंदोलन ही अगर नहीं हैं तो फिर साहित्य पर उसके प्रभाव को ढूंढना बेमानी है।
हिंदी पट्टी में सामाजिक प्रश्नों का तुरंत राजनीतीकरण हो जाता है।सामाजिक आंदोलनों का जो नेतृत्व करते हैं, वे इसे सत्ता तक पहुंचने की सीढ़ी मात्र मानते हैं।अन्य प्रदेशों में जिस प्रकार सामाजिक प्रश्नों को लेकर आंदोलन होते रहे हैं वैसे आंदोलन हिंदी पट्टी में नहीं हुए हैं।
(२) निजीकरण का दलित आंदोलन पर कहने के बजाय दलित जीवन पर जरूर गहरा असर हुआ है।निजीकरण से आरक्षण पर पहला आघात हुआ।सरकारी नौकरियों में जो आरक्षण था, वह कम हो गया।आज भी सरकार जब सार्वजनिक उद्योग को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेच रही है तो इसके खिलाफ केवल वामपंथी संगठन लड़ रहे हैं।दलित हलकों में इस प्रश्न पर बेहद खामोशी है।असलियत यह है कि हिंदी पट्टी के दलित बुद्धिजीवी केवल सामाजिक विषमता पर बोल, लिख रहे हैं; आर्थिक विषमता को लेकर वे मौन हैं, और वामपंथी सामाजिक विषमता को लेकर मौन हैं।ये दोनों जब तक एक होकर व्यवस्था के खिलाफ लड़ेंगे नहीं, तब तक कुछ होने वाला नहीं है।जरूरत है मार्क्स, गांधी और अंबेडकर के विचारों में समन्वय कर संगठित होकर आंदोलन करने की।
वास्तव में निजीकरण की नीति ८५ प्रतिशत समाज के लिए भी बड़ा खतरा है, केवल दलितों के लिए नहीं।गैर-दलितों के लिए भी यह बहुत बड़ा खतरा है।इसके लिए धर्म, जाति, वर्ण के परे जाकर इस नीति के विरोध में प्रतिरोध का स्वर ऊंचा करने की जरूरत है।इसीलिए कम- से-कम निजीकरण के प्रश्न पर तो वामपंथी, दलित और पिछड़े हुओं को संगठित होना चाहिए।केवल सत्ता को प्राप्त करने के लिए संगठित न होते हुए कुछ बुनियादी प्रश्नों के लिए सत्ता पर दबाव लाने के लिए संगठित होना जरूरी है।
(३) दुनिया भर के साहित्य और साहित्यकार निरंतर प्रतिरोध की राजनीति करते रहे हैं।वही उनकी विशेषता है।वे कभी भी प्रस्थापित सत्ता की हां में हां नहीं मिलाएंगे।आज की भारतीय राजनीति तो प्रतिरोध का गला घोंटने से ही निकली है।२१वीं सदी में आते-आते दलित राजनीति अवसरवादी हो गई है।जो सत्ता पर हैं उनकी जी हुजूरी करने में ही खुद के जीवन की सार्थकता मान रही है।इस अवसरवादी राजनीति का, उनके जैसे नेताओं का पर्दाफाश हिंदी के दलित साहित्य में नहीं के बराबर हुआ है।अलबत्ता मराठी में शरण कुमार लिंबाले के उपन्यासों में दलित नेताओं को पूर्णत: नंगा करके खड़ा किया गया है।
डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर जी के विचारों को सर्वाधिक रूप में पराजित किया है दलित नेतृत्व ने।प्रतिक्रियावादी धर्मिक पार्टी को मतदान करने वाले तथा उसके साथ सत्ता में भागीदारी करने वाले बाकी कुछ भी हो सकते हैं, अंबेडकर के अनुयायी नहीं हो सकते।
मराठी दलित साहित्य वास्तव में दलित पैंथर जैसे जुझारू संगठन के आंदोलन के कारण जन्मा है।दलित साहित्य की मूल-भूमि प्रत्यक्ष सड़क पर संघर्ष करने की है, जिसका अभाव हिंदी में है।
(४) हिंदी का दलित साहित्य आज भी अतीत के उत्खनन में ही लगा हुआ है।सवर्णों के प्रति जहर उगलना, बार-बार अतीत में हुई घटनाओं की आवृत्ति करने तक ही इनके यहां साहित्यिक विषय सीमित रहे हैं।
हिंदी के दलित लेखक और उनके पात्र डी-कास्ट नहीं हो पा रहे हैं।समता की बात करने वालों को सबसे पहले खुद को डी-कास्ट कर लेना चाहिए।वे समता और मानवता की बात तो करते हैं, जाति व्यवस्था पर टूट पड़ते हैं, परंतु उसी समय अपनी जाति की खोल में घुसे भी रहते हैं।
भारतीय दलित साहित्य के सामने सबसे बड़ी समस्या आत्मपरीक्षण की है।और इस आत्मपरीक्षण की प्रक्रिया का अभाव हिंदी दलित साहित्य में काफी है।
(५) १९५० से १९९२ तक राष्ट्र की हमारी अवधारणा कर्तव्य-बोध से जुड़ी हुई थी।वह प्रदर्शनीय नहीं थी।उसका संबंध नैतिक आचरण के साथ था।धर्म, जाति, वर्ण के परे जाकर जीना ही राष्ट्रधर्म है।ऐसा पुरानी पीढ़ी सोचती थी और वैसा आचरण भी करती थी।उन दिनों एक ऐसी प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी कि यहां के प्रत्येक हिंदू, मुस्लिम, ईसाई तथा हिंदुओं की सभी जातियों के भीतर ‘हम भारतीय हैं’ का भाव फैलता जा रहा था।साहित्य, फिल्म और अन्य माध्यम इसी भाव से प्रेरित होकर सक्रिय थे।अब एक उल्टी प्रक्रिया इस देश में शुरू हो गई है; हर भारतीय को हिंदू, मुस्लिम, ईसाई या बौद्ध बनाने की।
२१वीं सदी में इसमें और गति आ गई है।धर्म के, जाति के खोल में प्रत्येेक को बंद करने का प्रयत्न बुरी तरह से चल रहा है।इसका सबसे बुरा असर दलित समाज और दलित जीवन पर है।क्योंकि जब धर्म और जाति आदमी की पहचान के लिए जरूरी हो जाए तो जाहिर है कि इसका फायदा उन्हीं को होगा जो धर्म के ठेकेदार होंगे और जो जाति के तथाकथित सर्वोच्च स्थान पर बैठे होंगे।गुणवत्ता के बजाय तब धर्म और जाति ही चुनाव के मुख्य विषय बन जाएंगे, कहें, बन गए हैं।जीवन के सभी क्षेत्रों में चुनाव होगा तो ऐसी ही विचारधारा के लोगों का, जो धर्म और जाति को महत्वपूर्ण मानते हैं।
खतरा इसी का है और सबसे बड़ा खतरा दलित समाज और दलित जीवन को, पिछड़े वर्ग को है।
(६) दलित विमर्श जब एक जाति तक सीमित हो जाए, स्त्री विमर्श जब समाज के प्रस्थापित वर्ग की स्त्रियों तक सीमित हो जाए और यही हाल अगर अन्य विमर्शों का हो गया हो तो फिर यह सारे विमर्श कुछ मुट्ठी भर लोगों के बौद्धिक विलास के साधन हो जाएंगे और हो गए हैं।सभी विमर्श एक दूसरे के लिए तभी पुल बन सकेंगे, जब इनसे जुड़े प्रत्येक डी-कास्ट हो जाएंंगे।जैसा कि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर हो चुके थे और जैसा कि मराठी के दलित साहित्यकारों की पहली पीढ़ी के लेखक डीकास्ट हो गए थे।हिंदी पट्टी में तो डी-कास्ट होकर जीनेवाले का जीना मुश्किल कर दिया जाता है।
स्वानुभूति का अपना महत्व तो है, परंतु इसका यह मतलब नहीं है कि परानुभूति को स्वानुभूति तक ले जाना संभव ही नहीं होता।प्रतिभा संपन्न साहित्यकार परानुभूति को स्वानुभूति तक ले आता है और उसकी उतनी ही सशक्त अभिव्यक्ति करता है।स्त्रियों की यातना-वेदना को पुरुषों ने पूरी ताकत से अभिव्यक्त किया है।कालिदास का शाकुंतल नाटक अथवा शरद के नारी प्रधान उपन्यास इस बात के प्रमाण हैं।
यह बहुत अच्छी बात है कि हम हिंदीतर भाषी हिंदी के कई लेखकों-कवियों की जातियां नहीं जानते।परिणामस्वरूप हम हिंदीतर भाषी लेखकों की अनुभूति को उसी रूप में ग्रहण करते हैं जैसे उस लेखक ने अनुभवा किया होगा।
‘कफन’ कहानी के बाप बेटे की जाति क्या है, इससे मुझे या किसी शिक्षक को कोई मतलब नहीं है।मैं इस कहानी से इतना ही समझ गया कि श्रेणीबद्ध समाज रचना में जीने वाले बाप-बेटे भूख के कारण कितने संवेदनशून्य, अमानवीय हो जाते हैं।भूख आदमी को कहां से कहां ले जाती है।आज भी मराठी के दलित साहित्यकार प्रेमचंद की दलित संवेदना की अभिव्यक्ति को प्रामाणिक मानते हैं।क्योंकि डॉक्टर बाबासाहेब अंबेडकर ने डी-कास्ट होने के संस्कार हम पर डाले हैं।किसी की भी वेेदना, व्यथा, छटपटाहट किसी जाति की बपौती नहीं होती।वह उस वेदना में जो भी भागीदारी करेगा, उसे उतनी ही तीव्रता से अभिव्यक्त कर सकता है।फिर वह अभिव्यक्ति संपूर्ण मानवता की संपत्ति हो जाती है; किसी जाति विशेष की नहीं।
दलित साहित्य को किसी एक जाति तथा वर्ग तक सीमित करना अन्याय है।भारतीय दलित साहित्य के पिताश्री बाबुराव बागुल ने दलित शब्द की जो व्याख्या की थी उसे मराठी मानस ने पूर्ण रूप से स्वीकारा है।जो जो भी दलित, शोषित, उपेक्षित, श्रमिक और व्यथित हैं; वे सब दलित हैं।
संपर्क सूत्र : निकष’, १९–अजिंक्य विला, अजिंक्य सिटी, अंबाजोगाई रोड, लातूर–४१३५१२ (महाराष्ट्र) मो. ९४२३७३५३९३
विमल थोरात भारतीय दलित साहित्य की प्रमुख हिंदी पत्रिका ‘दलित अस्मिता’ की संपादक। ‘दलित साहित्य का स्त्रीवादी स्वर’, ‘हिंदी और मराठी के स्वातंत्र्योत्तर उपन्यासों में जाति और वर्ग संघर्ष’ आदि पुस्तकें।इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय की पूर्व प्रोफेसर।चर्चित पुस्तक ‘दलित साहित्य का स्त्रीवादी स्वर’। |
महाराष्ट्र का दलित पैंथर दलित साहित्य की मुख्य प्रेरणा है
(१) पिछले पांच दशकों में भारतीय स्तर पर दलित साहित्य आंदोलन के विस्तार ने साहित्यिक इतिहास रचा है।देश की सीमा पार विश्व के अनेकानेक देशों के विश्वविद्यालयों के (एशिया स्टडी सेंटर) द्वारा दलित रचनाएं(अनुवाद) पाठ्यक्रम में शामिल कर ली गई हैं।बहुत से छात्र दलित साहित्य पर शोध कार्य कर चुके हैं और दलित साहित्य में छात्रों की रुचि निरंतर बढ़ रही है।
यदि आप अकादमिक जगत में नज़र दौड़ाएंगे तो भारत की लगभग सभी भाषाओं में उपलब्ध दलित साहित्य रचनाओं पर न केवल भाषा और साहित्य विभागों में बल्कि समाजशास्त्रीय, राजनीतिशास्त्र, महिला विमर्श, दलित रचनाओं पर शोध किया जा रहा है।मैं यकीनन तौर पर कहना चाहती हूं कि अनेक विश्वविद्यालयों के भारतीय भाषा विभाग के पाठ्यक्रमों में दलित साहित्य शामिल किया गया है।अनेक छात्र दलित साहित्य पर पीएच.डी. कर चुके हैं और यह शोधकर्ताओं की रुचि का विषय बनता जा रहा है।
भारतीय साहित्य क्षेत्र में दलित साहित्य केवल एक साहित्यिक धारा के रूप में नहीं, बल्कि शोषण की तमाम ब्राह्मणवादी, सनातनधर्मी व्यवस्था, परंपरागत रूढ़ि-रीति -रिवाजों, वर्ण-जाति-स्त्री, दास्य प्रथाओं और वर्चस्ववादी समूहों के विरोध में प्रतिरोध का आंदोलन है।इसके स्रोत वैदिक काल में चार्वाक दर्शन, ईसा पूर्व छठी शताब्दी में बुद्ध दर्शन, लोकायतों, सिद्धों-नाथों और निर्गुण भक्ति साहित्य आंदोलन, जो कि श्रमणों की परंपरा रही है, के सभी समतावादी मानव अस्मितामूलक आंदोलनों में देखे जा सकते हैं।
यह लगभग ढाई हज़ार वर्षों तक वैदिक-ब्राह्मणवादी परंपरा को चुनौती दे रहा था।आप यदि भारतीय संत परंपरा में रैदास, कबीर, दादूदयाल, पल्टूदास, मीरा, नानकदेव, दक्षिण में बसवेश्वर, अक्कमहादेवी, महाराष्ट्र में नामदेव, तुकाराम, चोखामेला, जनाबाई, गोरा कुम्हार और निर्गुण धारा के अन्य सभी के वचनों को देखें तो उनमें जात-पात, छुआछूत जैसे सामाजिक कोढ़ का, ऊंच-नीच भेदभाव की कड़ी आलोचना दृष्टिगत है।वे धर्म, पोथी पुराण, स्मृतियां, ईश्वर, आत्मा, पूनर्जन्म, भाग्य, अंधविश्वास और कर्मकांडों के घोर विरोधी थे।वे वर्ण श्रेष्ठता को नकारते हुए शूद्रों अतिशूद्रों, स्त्रियों के दासत्व की कठोर आलोचना करते हैं।इन सभी संतों ने विषमतावादी ब्राह्मणवाद, जाति व्यवस्था का तर्कसंगत, प्रखर शब्दों में प्रतिरोध किया था।उन्होंने व्यवहार में समतावादी चिंतनधारा को प्रवाहित करके सामाजिक-सांस्कृतिक बदलाव के भक्ति आंदोलन द्वारा आम जन में चेतना जागृत की थी।
समतावादी वैचारिकी को निरंतर जारी रखने का कार्य आधुनिक युग में महात्मा ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले, पेरियार रामास्वामी, नारायण गुरु, अयंकाली और बाबासाहेब डॉ, अंबेडकर ने सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक आंदोलन द्वारा नाथसंप्रदाय, महानुभाव संप्रदाय द्वारा चली आ रही मुक्ति की आंधी को अपने वैचारिक लेखन और तर्कसंगत चिंतन द्वारा प्रज्वलित कर तीव्रता से आगे बढ़ाया।महात्मा ज्योतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले ने ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था को चुनौती देकर सदियों से उत्पीड़ित शोषित वंचित, अपमानित शूद्रों, अतिशूद्रों को जातिवादी यातना, अवमानना शोषण से मुक्ति के लिए सत्य शोधक समाज के माध्यम से सत्य से रूबरू कराया।हजारों वर्षों तक शिक्षा- ज्ञान की परंपरा से वंचित शूद्रों, अतिशूद्रों, स्त्रियों को शिक्षित करने का क्रांतिकारी कदम उठाया।
१८४८ में पुणे में कुल सत्रह पाठशालाएं खोलकर इतिहास रचा गया।सावित्रीबाई को ज्योतिबा ने घर पर ही पढ़ाया और कुशाग्रबुद्धि सावित्रीबाई अपने लक्ष्य तक पहुंचने में सफल रही।देश के इतिहास में पहली शिक्षिका बनकर सावित्रीबाई ने लड़कियों के लिए शिक्षा के द्वार खोल दिए।उनकी प्रिय सखी फातिमा शेख उनकी सहयोगी थी।शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन का दौर शुरू हुआ था।
सावित्रीबाई की छात्रा मुक्ता साल्वे ने ‘मांग और महारों का दुख’ शीर्षक का लेख लिखकर तत्कालीन समय में उनकी दुर्दशा का वर्णन किया है।
गौतम बुद्ध और महात्मा ज्योतिबा फुले को डॉ. अंबेडकर ने गुरु माना तथा उनके मानव मुक्ति दर्शन को आगे बढ़ाया।
अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा हासिल करके १९२० में डॉ. अंबेडकर भारत लौटे थे।विदेश में अनुभव की गई समानता स्वतंत्रता, भेदभाव रहित समाज, आपसी सहयोग, प्रेम व्यवहार की जब भी वे अंग्रेजी सत्ता के अधीन भारतीय जाति व्यवस्था से तुलना करते तो उन्हें बहुत दुख होता।अस्पृश्यता की घिनौनी प्रथा मेें समाज का बहुत बड़ा तबका गुलामी में जीने को बाध्य था।जीवन की मूलभूत जरूरत पानी भी उन्हें मांगकर पीना पड़ता।कुंआ, तालाब को वे छू नहीं सकते थे।अंग्रेजों के चाटुकार सामंत, जमींदार अछूतों से गुलामों जैसा बरताव करते।बेगारी, शारीरिक दंड दलित स्त्रियों के यौन शोषण को रोकने या उनके खिलाफ कारवाई करने के बजाय अंग्रेज शासक जातिवादी व्यवस्था को अंदरूनी मामला मानते थे।
डॉ. अंबेडकर ने दलित मुक्ति (सामाजिक सांस्कृतिक) आंदोलन को राजनीतिक स्वरूप से जोड़ा।बंबई विधान परिषद द्वारा पारित प्रस्ताव द्वारा दलितों को सभी सार्वजनिक स्थलों पर प्रवेश करने का वैधानिक अधिकार दिया गया।कट्टर हिंदुओं ने इसका जबरदस्त विरोध किया।इस ब्राह्मणवादी रवैए के खिलाफ १८मार्च १९२७ को डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में महाड के चवदार तालाब सत्याग्रह और मई १९३० में कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह किए गए, जो दलित मुक्ति के लिए आंदोलन थे।यह दलितों की पहचान का संघर्ष था जिसमें हजारों की संख्या में स्त्री पुरुष शामिल हुए।संघर्ष के दौरान सवर्ण हिंदुओं ने उनपर लठ्ठों, भालों पत्थरों से हमलें किए।लेकिन बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में दलित मुक्ति का संघर्ष बरसों तक कानूनी तरीके से लड़ा गया।कोर्ट द्वारा फैसला दलितों के पक्ष में दिया गया।डॉ. अंबेडकर ने इस अवसर पर महिलाओंं और पुरुषों को संबोधित करते हुए कहा कि शिक्षा ही दलितों की प्रगति का एकमात्र उपाय है।उनके इस आह्वान पर दलित माता-पिता ने अपने बच्चों को पढ़ाने का संकल्प लिया था।
आपके प्रश्न का विस्तार से उतर देने का यहां उद्देश्य है कि संपूर्ण दलित मुक्ति आंदोलन को समझा जाए।अंग्रेज-शासित भारत में खुद गुलाम सवर्ण अपनी जातिगत दंभ के बल पर अछूतों को गुलाम बनाने में सफल रहे।दलित मुक्ति आंदोलन से जगी चेतना का प्रसार महाराष्ट्र के कोने-कोने तक जलसों, गीत, पोवाडा, कलापथकों के माध्यम से हुआ।डॉ. अंबेडकर ने दलितों को शिक्षित-संगठित होकर संघर्ष करने का आह्वान किया।सजग दलित समाज ने इसे अपने जीवन का उद्देश्य बनाया।
डॉ. अंबेडकर के सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलन के प्रभावस्वरूप महाराष्ट्र में दलित साहित्य आंदोलन को दलित पैंथर की स्थापना से जोड़कर देखना जरूरी हैं।स्वाधीन भारत में जन्मी पहली शिक्षित दलित युवा पीढ़ी ने राजनीतिक संगठन के रूप में दलित पैंथर की स्थापना ९ जुलाई १९७२ को नामदेव ढसाल, ज. वी .पवार, अरुण कांबले के नेतृत्व में की थी।अंबेडकरवाद के प्रखर प्रवक्ता, लेखक, कवि चिंतक, नाटककार, चित्रकार प्रमुख रूप से दलित पैंथर से जुड़े।हालांकि अंबेडकर द्वारा स्थापित रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया ६ दिसंबर १९५६ को उनके महापरिनिर्वाण के तुरंत बाद ही अनेक गुटों में विभाजित होकर कमजोर पड़ गई।राजनीतिक स्वार्थ के कारण आर पी आई के नेताओं के अन्य राजनीतिक पार्टियों में शामिल होने से दलित युवा पीढ़ी में निराशा छा गई।कद्दावर नेता के अभाव में दलित, मजदूर और किसान के मुद्दों पर संसद-विधानसभाओं में चर्चा की संभावनाएं खत्म हो चली थीं।पहली शिक्षित पीढ़ी सरकारी नौकरियों में आने से आर्थिक रूप से बेहतर स्थिति में थी।शिक्षित दलित लेखकों, कवियों, चिंतकों के वर्ग ने बुद्ध-फुले-अंबेडकर की वैचारिकी को आत्मसात किया था।उन्होंने परंपरागत ब्राह्मणवादी साहित्य के ढांचे को नकारकर मानवीय संवेदनात्मक मूल्यों पर नए सौंदर्य बोध की सृजनशीलता को केंद्रीय विषय बनाया।शोषणमुक्त समतावादी, भेदभावरहित, जातिविहिन, सामाजिक न्याय-आधारित समाज निर्माण की भूमिका निभाने वाली रिपब्लिकन पार्टी को कई गुटों में विभाजित देख कर दलित समाज दुख, क्षोभ और गुस्से से भर उठा।देश अपनी आजादी का महोत्सव मनाने जा रहा था, लेकिन दलितों पर सवर्ण सामंतों द्वारा लगातार हिंसा, उत्पीड़न, हत्या अपमानित करने की घटनाएं बढ़ने लगी थीं।सवर्णों के कुंए से पानी लेने पर दो दलित महिलाओं को नंगा करके घुमाने, सवर्ण सामंतों द्वारा दलित कांबळे बंधुओं की आंखें फोड़ने, आदिवासी स्त्रियों पर बलात्कार की पाशविक घटनाएं बढ़ने से दलित समाज विशेष रूप से युवा वर्ग तत्कालीन सरकार की ढुलमुल नीति से क्षुब्ध और क्रोधित हो उठी और उत्पीड़कों को सबक सिखाने की मुहिम चल पड़ी।युवा दलित पैंथर अन्याय अत्याचार की घटना के स्थान पर पहुंच कर अत्याचारियों को दंडित करने लगे।सरकारी महकमा दलितों के प्रति असंवेदनशील और बर्बर था और खुद की नाकामियों को छिपाने के लिए दलितों पर कहर बरपाने लगा था।
स्वाधीनता के पचीस वर्ष बीत जाने पर दलितों की सामाजिक- आर्थिक स्थिति में किसी प्रकार के गुणात्मक बदलाव न होने से दलित युवा पीढ़ी में निराशा फैलने लगी थी।आजादी से पहले देखे गए सपने टूटकर बिखरने से युवा पीढ़ी में व्यवस्था के प्रति क्रोध, अविश्वास बढ़ा।संवैधानिक मूल्यों की अनदेखी करके सवर्ण सामंतों, बड़े ओहदों पर बैठे उच्च वर्गीय अधिकारियों से दलितों को न्याय मिलना असंभव हो गया था।दलित पैंथर्स का असंतोष सरकार के विरोध में फूट पड़ा।फुले अंबेडकर की वैचारिकी से प्रेरित युवा पीढ़ी व्यवस्था को चुनौती देकर उन्हें कटघरे में खड़ा करके सवाल करने लगी।धरना, प्रदर्शन, मोर्चे, भित्तिचित्र, हाथ से लिखी पत्रिका में सवाल दर सवाल किए जाने लगे।सरकारी भ्रष्टाचार विरोधी नारों से संपूर्ण महाराष्ट्र में दलित पैंथर आंदोलन जोर पकड़ने लगा।
यदि आप दलित पैंथर के मेनिफेस्टो को देखेंगे तो बात समझ में आएगी कि क्यों दलित समाज की बेहतरी की मांग उठाई गई।अंग्रेजों से आजादी मिली, लेकिन अंग्रेजों के चाटुकार राजे-रजवाड़े, सामंत, जमींदारों, ब्राह्मणों की निरंकुशता ने दलितों-आदिवासियों को आजादी का अहसास ही नहीं करा पाया।राज्य तथा केंद्र सरकार के सभी निर्णायक स्थानों पर इन्हीं का कब्जा था।सरकारी योजनाओं को लागू करने का दारोमदार इनके ही जिम्मे था।मूलतः सामंतवादी, पूंजीवादी ब्राह्मणवादी व्यवस्था ही राजनीतिक, सामाजिक आर्थिक फैसले लेती।बलात्कार और हत्या के गुनहगार पैसे के बल पर छूट जाते।गरीब लाचार दलितों को न्याय मिलने की संभावना नहीं बची।
दलित पैंथर ने अन्यायपूर्ण स्थिति में बदलाव लाने की ठान ली।जहां दलितों पर अन्याय की घटनाएं होतीं, वे वहां ग्रुप में पहुंच कर अन्याय अत्याचार विरोधी धरना प्रदर्शन करके गुनहगारों की गिरफ्तारी के लिए प्रशासन, पुलिस पर दबाव बनाते।बहुत बार पुलिस दलित पैंथर्स पर झूठे मुकदमे दायर करके जेलों में डालने लगी।उनके साथ क्रूरतम व्यवहार किया जाता।सभी युवा पैंथर्स शिक्षित, चेतनाशील, संवेदनशील और संवैधानिक अधिकारों के प्रति सजग थे।परिवर्तनवादी विचारों को साहित्यिक रचनाओं में अभिव्यक्त करते, दलित थिएटर, चित्रकला, जलसे, गीतों के माध्यम से चेतना जगाने के प्रयास करते।युवा पीढ़ी उनसे प्रभावित होकर दलित उत्पीड़न, अन्याय अत्याचारों का पुरजोर विरोध करने लगे।महाराष्ट्र के कोने-कोने से विद्रोह के स्वर सुनाई दे रहे थे।सरकार द्वारा दलित पैंथर को खत्म करने के प्रयास जारी थे।एक एक नेता पर बीसियों मुकदमे दर्ज थे।नामदेव ढसाल, राजा ढाले, ज वी पवार, अरुण कांबले, अर्जुन डांगले दलित पैंथर को अग्रणी नेतृत्व दे रहे थे।उनकी रचनात्मकता से मराठी साहित्य में हलचल पैदा हो गई थी।उन्होंने सदियों से नीचे की पायदान पर जीने की त्रासदी और संचित संताप को रचनात्मक अभिव्यक्ति देकर आजाद भारत में अपनी भाषा, बोली में सफलतापूर्वक चित्रित किया।ज्वलंत मुद्दों को राजनीतिक मंचों पर जोरदार तरीके से उठानेेवाले लेखकों, कवियों, कलाकारों, चित्रकारों, नाटककारों को जेलों में बंद करके दलित पैंथर की आक्रामक भूमिका को खत्म करने पर तब की महाराष्ट्र सरकार उतारू थी।
पर दलित पैंथर आंदोलन अल्पकालीन रहा।राजा ढाले और नामदेव ढसाल के बीच वैचारिक मतभेद बढ़ने से १९७७ में इस क्रांतिकारी परिवर्तनवादी राजनीतिक दल को विराम दे दिया गया।
आज का दलित साहित्य आंदोलन दलित पैंथर आंदोलन से प्रभावित है।
(२) निजीकरण की नीति से सबसे अधिक प्रभावित हुआ है शिक्षा का क्षेत्र।दलित आदिवासी समाज को सामाजिक-सांस्कृतिक पिछड़ेपन के आधार पर समान अवसर देकर अन्य कथित सवर्णों के समकक्ष लाने के लिए संविधान में आरक्षण का प्रावधान किया गया है।शिक्षा के निजीकरण से निश्चित रूप से दलितों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलता है।आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के बच्चे सरकारी स्कूल, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में उपलब्ध आरक्षित सीटों की बदौलत ही पढ़ सकते हैं।सार्वजनिक संस्थानों को निजी हाथों में जाने से बचाना है तो देशभर के दलित आदिवासी बहुजन समाज को आंदोलन में उतरना पड़ेगा।पिछले नौ वर्षों में जिस गति से सार्वजनिक संस्थानों का निजीकरण होता गया, वह खतरें की घंटी है।मौजूदा सरकार ने रेलवे रखरखाव के बहाने नौ से अधिक हवाई अड्डे, पानी के जहाज के पोर्ट, बिजली, सरकारी होटेल इत्यादि उद्योगपति अंबानी को और एयर इंडिया कंपनी टाटा जैसे उद्योगपतियों को बेच दिए।सभी निजी औद्योगिक समूहों ने आरक्षण को नामंजूर किया है।इन उद्योग समूहों में कर्मचारियों की नियुक्ति कथित सवर्णों के लिए आरक्षित हैं।देश की जाति आधारित सामाजिक संरचना में जातिवादी मानसिकता में बदलाव की संभावना तो दूर दूर तक नहीं दिखाई देती।वर्चस्ववादी सवर्ण श्रेष्ठता के अहंकार से भरे, बेशर्मी से खुले तौर पर दलितों का तिरस्कार करने, अपमानित करने का मौका नहीं छोड़ते।पद के लिए मांगी गईं अकादमिक योग्यता के बावजूद नाम देखकर, बिना खोले ही दलित प्रत्याशियों के आवेदन फार्म कूड़ेदान में फेंक दिए जाते हैं (ब्लॉक्ड बाइ कास्ट-इकोनॉमिक डिस्क्रिमिनेशन इन मॉडर्न इंडिया, संपादक : सुखदेव थोरात और कैथरिन न्यूमैन)
नफरत, तिरस्कार, घृणा के ऐसे माहौल में निजी कंपनियों में उच्च शिक्षित दलित, आदिवासी और मुस्लिम प्रत्याशी के चयन की संभावनाएं खत्म हैं।सार्वजनिक क्षेत्रों के घटने से नौकरियों की संख्या घटकर मात्र ३५ लाख है।जाति व्यवस्था की कट्टरता तथा निर्णायक चयन प्रक्रिया में सवर्ण अधिकारियों की उपस्थिति से योग्यता के बावजूद दलित-आदिवासी-पिछड़े प्रत्याशियों का चयन नहीं किया जाता, जबकि लगभग ६० लाख सरकारी पद राज्य और केंद्र में रिक्त हैं।चयन प्रकिया यदि जाति-धर्माधारित होगी तो नोकरियों के अभाव में दलित-आदिवासी-पिछड़ा-मुस्लिम समाज और अधिक पिछड़ता जाएगा।जिन सार्वजनिक संस्थानों, उपक्रमों, बैंकों, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालयों में कर्मचारी यूनियन, छात्र संघ, शिक्षक संघ अस्तित्व में हैं, वे छात्र, शिक्षकों के आरक्षित सीटों के नहीं भरें जाने पर, कर्मचारी यूनियन समयानुसार प्रमोशन के लिए धरना प्रदर्शन एवं मोर्चे निकालकर प्रखर विरोध दर्शाते जरूर हैं।इसके बावजूद केंद्रीय विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति तथा ओबीसी के सैकड़ों पद रिक्त पड़े हैं।केंद्रीय विश्वविद्यालयों में १ दिसंबर २०२२ तक असिस्टेंट प्रोफेसर, एसोसिएट प्रोफेसर और प्रोफेसर के रिक्त पदों की संख्या ६१८० है। (इंडियन एक्सप्रेस, १३ दिसंबर २०२२) अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों, पिछड़े वर्ग के पांच हजार से अधिक आरक्षित पद केंद्रीय दिल्ली विश्वविद्यालय में रिक्त रखे गए हैं।आरटीआई के तहत इस धांधली को जानने की कोशिश भी कामयाब नहीं होती।ऐसे में दलित, आदिवासी और बहुजनों को एकत्रित साझा जनांदोलन की सख्त जरूरत हैं।
(३) दलित आंदोलन द्वारा आरक्षण बचाने की और सरकार को चेतावनी देने की कोशिशें भी जारी हैं।मुख्य रूप से मजदूर, किसान, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता, मोलकरणी (काम वाली बाई) के आंदोलनों में दलितों की संख्या अधिक है।जमीन अथवा किसी अन्य प्रकार की संपत्ति से वंचित दलित समाज की भूमिहीन स्त्री-पुरुषों को परिवार के भरण पोषण के लिए मजदूरी ही एकमात्र उपाय है।असंगठित क्षेत्रों में महिलाओं को न्यूनतम मजदूरी से कम मजदूरी देने पर आंदोलन की कमी खटकती है।
(४) दलित साहित्य आंदोलन की विशेषता है कि राजनीतिक कारणवश इसका उद्भव महाराष्ट्र में हुआ जरूर था, लेकिन साहित्यिक आंदोलन कभी भी राजनीतिक सत्ता का पैरोकार अथवा पिछलग्गू होने से कोसों दूर रहा।बहुजन समाज पार्टी उत्तर भारत में तीन बार सत्ता में आई थी।दलित समाज पर उस दौरान अन्याय, अत्याचार, उत्पीड़न की घटनाएं बढ़ी नहीं, परंतु कम भी नहीं हुईं।गोबर पट्टी कहलाने वाले धुर जातिवादी उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति की जीत से दलितों को न्याय मिलने की संभावना नजर आने लगी।उनमें आत्मविश्वास बढ़ा, अन्याय के प्रतिरोध में दलित लामबंद होने लगे।अनायास नहीं था कि हिंदी दलित साहित्य में जाति व्यवस्था को चुनौती देने वाली रचनाओं का सृजन पर्याप्त मात्रा में हुआ।फिर भी हम दि-४ इस नतीजे पर नहीं पहुंच सकते कि राजनीति हमेशा सृजनशीलता को आगे बढ़ाने में सहायक ही होगी।
संपर्क सूत्र : प्लॉट नं. ५८, गवर्नमेंट प्रेस कॉलोनी, दाभा, नागपुर– ४४००२३, महाराष्ट्र मो.९९९९८०७८१८
श्यौराज सिंह बेचैन सुपरिचित दलित कवि, कहानीकार और निबंधकार।प्रसिद्ध आत्मकथा ‘मेरा बचपन मेरे कंधों पर है’।अन्य उल्लेखनीय कृतियां ‘हाथ तो उग आते हें’, ‘क्रौंच हूँ मैं’, ‘भोर के अंधेरे में’, ‘नई फसल’ आदि।दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर। |
दलित राजनेताओं ने साहित्य को महत्व नहीं दिया
(१) असल में दलित साहित्य की शुरुआत कबीर और रैदास के समय के बहुत पहले से हो चुकी थी।इसकी निरंतरता तो शुरू से ही रही है।लेकिन इसका नाम, इसका स्वरूप, इसके मुद्दे समय-समय पर बदलते रहे हैं।
अगर पीछे जाएं तो हम पाते हैं कि छठे दशक में बाबा साहब धर्मांतरण कर रहे थे तो उस समय की चुनौतियां अलग थीं।उस समय यह समस्या थी कि यह जो धार्मिक समस्या है, उससे समाज को कैसे मुक्त किया जाए? क्या रास्ता चुना जाए? बाबासाहब बेशक बौद्ध धर्म की तरफ गए, लेकिन हिंदी क्षेत्र में इसके लिए वातावरण नहीं था।उस समय जो आंदोलन चल रहे थे, जैसे स्वामी अछूतानंद के आदि हिंदू आंदोलन को देखेंगे तो पाएंगे कि उनका स्वर अलग था।वे मूल निवासियों का अपना जो स्वतंत्र धर्म था, उसकी बात कर रहे थे।उनके लेखन को देखकर या मंगूराम के लेखन को देखकर मुझे ऐसा लगता है कि अगर वे बाबासाहब के सामने होते तो वे निश्चित तौर पर बाबासाहब को बौद्ध धर्म में नहीं जाने देते।स्वामी अछूतानंद तो १९३६ में ही गुजर गए।इन लोगों का मत था कि रविदास, कबीर, चोखामेला, नायनार जैसे संतों के विचारों को मिलाकर जो धर्म बन रहा था, उसको आकार देते या अपना कोई नया धर्म बनाते।
यह पांचवें दशक की बात है।जब बाबासाहब गुजर गए और अगला दशक आया तो उस समय मराठी में ‘ब्लैक लिटरेचर’ के प्रभाव से दलित साहित्य बहुत जोर-शोर से आया।उसकी शैली भी अलग थी।उस समय जहां किसी के साथ भेदभाव होता था, उत्पीड़न होता था या बलात्कार जैसी घटनाएं होती थीं; वहां लेखक जाते थे, आंदोलन करते थे और मोर्चा निकालते थे।वे लोग जो मोर्चे में शामिल थे, उनका ध्यान साहित्य की साहित्यिकता की तरफ ज्यादा नहीं था, उनका ध्यान मूल रूप से समस्या की तरफ था।वे समस्याओं को उठाते थे और उसको दर्ज करते थे।उनका ध्यान लेखन की अपेक्षा आंदोलन की तरफ ज्यादा था।हालांकि उसमें आग बहुत थी, उत्तेजना बहुत थी।इसी समय अगर १९६०-६२ के आस-पास के समय के हिंदी क्षेत्र का अध्ययन करेंगे तो देखेंगे कि इधर जो चेतना थी उसमें साहित्य थोड़ा पीछे था, राजनीति आगे आ गई थी।जैसे बुद्धप्रिय मौर्य, जो बाबासाहब से बहुत प्रभावित थे।उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी की स्थापना की थी, वे उस समय काफी सक्रिय थे।उस समय उनकी पार्टी का प्रभाव आगरा और बुंदेलखंड में तेजी से फैल रहा था।उस दौर में पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों के जरिए भी राजनीतिक आंदोलनों को गति मिल रही थी। ‘जमीं के तारे’, जो अलीगढ़ से निकलता था, एक महत्वपूर्ण अखबार था।इसी समय ‘समता’ भी शुरू हो गया था।सोहनपाल सुमनाक्षर जी ने ‘हिमायती’ का प्रकाशन भी आरंभ कर दिया था।
बाबू जगजीवन राम ने ‘भारतीय दलित साहित्य अकादमी’ की स्थापना करवा दी थी।कहने का मतलब है कि उस समय साहित्य तो था, किंतु उस तरह की साहित्यिकता नहीं थी।उस समय लोक कवि थे, जो घूम-घूमकर गा रहे थे।मतलब जो कुछ हो रहा था वह मूल रूप से राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए किया जा रहा था।उसी समय आप देखेंगे बिहारीलाल ‘हरित’ जैसे कवि हुए।बाबासाहब अंबेडकर उस समय दिल्ली में ही रहकर संविधान-निर्माण का काम कर रहे थे।जब उन्होंने ‘द अनटचेबल’ लिखी तो वे पृथ्वीराज रोड में रहते थे।
बिहारीलाल हरित लोककवि थे।उनकी बहुत ख्याति थी, क्योंकि उन्होंने पूरी मंडली बना रखी थी।वे बाबासाहब से बहुत प्रभावित थे।उन्होंने जो कुछ लिखा बाबासाहब से मिलकर लिखा।उनकी रचनाओं पर बाबासाहब की स्पष्ट छाप दिखाई पड़ती है।महाकाव्य ‘भीमायन’ जैसा काव्य उन्होंने इसी दौरान रचा।चूंकि मुलाकातों का असर बहुत ज्यादा था।कहा जाता है कि ‘जय भीम’ का नारा उन्होंने ही लगाया था।हो सकता है यह सच भी हो।किंतु बाबासाहब का उनपर गहरा प्रभाव था, इसमें कोई दो राय नहीं है।दूसरा कबीर और रैदास का भी उनपर प्रभाव था।चूंकि यह बनारस और इलाहाबाद का इलाका था, इसलिए ऐसा होना ही था।पंजाब में भी उनकी रचनाओं का प्रभाव पड़ा।अछूतानंद और मंगूराम का भी प्रभाव पंजाब में था।हिंदू धर्म में अस्पृश्यता वाला जो पक्ष था, उससे वे दुखी थे।कई लोग आर्यसमाज की तरफ गए, पर वहाँ भी उन्हें अस्पृश्यता दिखाई पड़ी तो वहाँ से भी वे लोग हटे।इनकी सारी रचनाएं लोकधुनी (कव्वाली, ढोला, सवैया, बारहमासी) पर आधारित थीं जिसके कारण इनकी पहुँच बहुत थी।वे जनता के बीच थे और जनता के लिए थे।चूंकि उनपर काम करने वाला कोई नहीं था।उनके लोग विश्वविद्यालयों में नहीं थे इसलिए दलित साहित्य के आंदोलन का यह स्वर दबकर रह गया।उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा के साहित्य में जगह नहीं मिली।बाद में बहुत कुछ नष्ट भी हो गया।इस विषय पर शोध किया जा सकता है।
(२) दलित पर इसका सबसे नकारात्मक असर पड़ रहा है।क्योंकि सबसे ज्यादा वही इससे प्रभावित होगा।इसका कारण यह है कि यह एक ऐसा वर्ग है जिसके पास अपनी कोई निजी संपत्ति नहीं है।उनकी जमीनें पहले ही छीनी जा चुकी हैं।समय-समय पर इन्हें अपनी जगहों से पलायन करना पड़ा है।उद्योग-धंधे उनके पास हैं नहीं।वे चाय की दुकान भी खोले तो कोई चाय पीने को तैयार नहीं होता।निजी क्षेत्र तो उन्हें छोटा-बड़ा काम करने के लिए भी अवसर नहीं देगा।यह संविधान की भावना और लोककल्याण राज्य की संकल्पना के बिलकुल विपरीत है, लेकिन ऐसा कोई मानने को तैयार नहीं है।दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस की सरकारों ने ऐसा शुरू किया तो बाकियों ने भी वैसा ही करना शुरू कर दिया।क्योंकि यह पूंजीपतियों के व्यक्तिगत हित की बात थी।यह लगातार बढ़ रहा है।मुझे लगता है बाबासाहब को भी इसकी आशंका थी।
ब्रिटेन के एक पत्रकार ने उनका एक इंटरव्यू लिया और पूछा कि भारत में डेमोक्रेसी कैसी रहेगी? इस सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि नाममात्र के लिए रह जाएगी।जब लोगों का प्रतिनिधित्व ही नहीं रह जाएगा तो वह किस काम की होगी? फ़िर उनसे पूछा गया कि समाधान क्या है? क्या अमेरिका के लोकतंत्र के मॉडल के आधार पर कुछ भला हो सकता है? हाँ, कुछ हो सकता है।जैसे अश्वेतों के लिए वहां डाइवर्सिटी है, आरक्षण तो नहीं है।किंतु वहां के अश्वेत जागरूक हैं।ऐसा कोई उद्योग, कारखाना, ऐसा कोई संस्थान वहां नहीं है जहां उनका प्रतिनिधित्व नहीं हो।अगर किसी कारखाने में या किसी उद्योग में उनका प्रतिनिधित्व नहीं होता है तो सरकार की तरफ से ‘ग्रीन कार्ड’ जारी नहीं किया जाता।वह संस्थान बंद हो जाता है।निजी संस्थाएं खुल रही हैं, सरकार उन्हें आर्थिक मदद भी दे रही है, लेकिन कमजोर वर्गों को भी उचित प्रतिनिधित्व दिया जा रहा है।
मैं महसूस करता हूँ कि निजीकरण के जरिए एक ‘प्राइवेट’ सरकार बन रही है।इससे आरक्षण बेमानी साबित हो रहा है।चूंकि सामाजिक स्तर पर, सांस्कृतिक स्तर पर लोगों में दलित विरोध भरा हुआ है, वही निजीकरण के रूप में आज प्रकट हो रहा है।यही साहित्य में भी यदा-कदा दिखाई पड़ता है।इसका नतीजा यह होता है कि इससे देश कमजोर होता है।देश-निर्माण का काम वर्किंग क्लास ही करता है।अगर वह शिक्षित, कौशलयुक्त और सामर्थ्यवान नहीं बनेगा तो वह देश को कैसे आगे ले जाएगा? और जब देश कमजोर होता है तो बाहरी लोगों का वर्चस्व बढ़ने लगता है।
मेरे अनुसार सार्वजनिक हित का ध्यान नहीं रखना, कमजोरों का उत्थान न करना तथा कल्याणकारी कार्यों को बढ़ावा न देकर संस्थानों का निजीकरण करना देशद्रोह का काम है, राष्ट्रविरोधी काम है।यह संविधान की भावना के खिलाफ है।संकट में साहित्य तो अपना काम करेगा ही, किंतु इस तरह की गतिविधियों को नियंत्रित किया जाना चाहिए।मैं तो कहूंगा कि जहां कमजोर वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व न मिले उसे प्रतिबंधित किया जाना चाहिए।कहते हैं कि अंग्रेजों ने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान कई रचनाओं पर प्रतिबंध लगा दिया था।वही काम बहुत हद तक अभी हो रहा है।लंबे समय तक गैर-दलितों ने दलित साहित्य पर प्रतिबंध लगा रखा था।जो काम अंग्रेजों ने भारतीयों के साथ किया था, वही काम तथाकथित सवर्ण जातियों ने भी अस्पृश्यों के साथ किया था।अभी कई महत्वपूर्ण चीजें दबी पड़ी हैं।जब नई पीढ़ी को गुणवत्तायुक्त शिक्षा ही उपलब्ध नहीं होगी तो वह अपनी मुक्ति के बारे में भी कैसे सोचेगा? कहने का मतलब है कि इसका बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है।स्वतंत्रता के बाद जिस बराबरी की बात हो रही थी, अगर ऐसा ही होता रहा तो समाज और सौ साल पीछे चला जाएगा।
(३) बाबासाहब के अनुयायी होने या उनके विचारों की राजनीति करने के दावे सारी दलित पार्टियों ने भी किए और जो गैर-दलित पार्टियों में रहे, उन्होंने भी अपने को अंबेडकरवादी कहा।सबने कहा है कि हम बाबासाहब को मानते हैं और दलितों का प्रतिनिधित्व करते हैं।लेकिन अपवाद स्वरूप ही किसी ने साहित्य की ताकत को समझा हो और उसे महत्व दिया हो।एकाध लोग होंगे जिन्होंने साहित्य को भी महत्व दिया।माताप्रसाद जी ऐसे थे जिन्होंने साहित्य और राजनीति दोनों को महत्व दिया।लेकिन आप देखिए कि कांशीराम जी और मायावती जी का इतना बड़ा आंदोलन था, किंतु उन्होंने भी साहित्यकारों को महत्व नहीं दिया।उनके लिए बस एक ही श्लोक काफी है- साहित्य-संङ्गीत-कला-विहीनः साक्षात पशुः पुच्छ-विषाण-हीनः।दलित राजनेता ऐसे ही रहे।उन्हें साहित्य की समझ ही नहीं है।उन्होंने कभी इस बात पर विचार ही नहीं किया कि राजनीति में साहित्यकार भी कोई भूमिका निभा सकता है।साहित्य राजनीति को स्वच्छ करेगा और प्रेरणा देता है, ऐसा सोचा ही नहीं गया।
बाबासाहब भी कहा करते थे कि अगर समाज समर्थ होगा तो राजनेता भी हमारे निकलकर आएंगे।जब आपका सांस्कृतिक विकास ही नहीं होगा तो चुनाव में जीतने के बाद भी आप कुछ नहीं कर पाएंगे।यही हाल राजनेताओं का भी है।उन्हें पता ही नहीं कि उन्हें करना क्या है? सिवा हाथ उठाने के आप कुछ कर ही नहीं सकते।चूंकि वे समाज की समस्यायों से वाकिफ़ नहीं हैं, न ही उन्हें किसी की चिंता है और न वे उनके बारे में जानते हैं, अतएव वे कुछ कर नहीं पाते।वे नहीं जानते कि हमारी कला-संस्कृति कैसे विकसित होनी चाहिए।समाज को कैसे विकसित किया जा सकता है।समाज में बौद्धिक चेतना कैसे फैलानी चाहिए।यही कारण है कि वे किसी मुद्दे पर अपना मत नहीं दे पाते।
एक बात और है कि यह जो पूना पैक्ट हुआ, वे पूना पैक्ट में यह चाहते थे कि पृथक निर्वाचन हो और हमारे बीच से नेता आएं।अब दलितों को एक तरह से अपना नेता चुनने का अधिकार नहीं है, क्योंकि बहुमत हर जगह गैर-दलितों का होता है।इस तरह एक ऐसा व्यक्ति चुनकर आ जाता है जो हमारे ही खिलाफ होता है या जो हमारे बीच का ही भ्रष्ट व्यक्ति होता है।वह गैर-दलितों की तरफ ही झुका होता है और सारी जिंदगी कोशिश करता है कि उसके आका खुश रहें तथा वह किसी तरह से सत्ता में बना रहे।ऐसे में वह दलित समाज के लिए कुछ कर नहीं पाता।इसीलिए राजनीति का कोई फायदा दलित समाज को नहीं मिल पाता।
कई लोगों ने संसद में मांग की कि आरक्षण खत्म होना चाहिए।हालांकि मुझे यह इसलिए उचित नहीं लगा, क्योंकि अगर आरक्षण के जरिए गलत लोग जा रहे हैं तो सही लोग भी तो जा सकते हैं।यदि आरक्षण ही नहीं रहेगा तो जो कुछ है वह भी नहीं होगा।सोचा यह जाना चाहिए कि कैसे हमारा सही नेता वहां तक पहुंचे और कैसे हमारा प्रतिनिधित्व हो? इसपर बात होनी चाहिए।इस काम में साहित्य राजनीति की मदद कर सकता है।चूंकि पूना पैक्ट की वजह से कुछ समझौते हुए, जिससे आरक्षण का सपना भी साकार हुआ, किंतु वहीं कुछ गैर-दलितों ने यह हवा उड़ा दी कि उन्होंने दलितों पर दया की तब जाकर उन्हें यह अधिकार मिला।वे कहने लगे कि वे अपना हिस्सा दे रहे हैं।
सवाल यह है कि क्या वास्तव में दलितों की क्षतिपूर्ति हुई? हजारों सालों से उन्हें जिस तरह से लूटा गया, उनकी जमीनें हड़प ली गईं, उन्हें शिक्षा से वंचित किया गया, उनपर अत्याचार किया गया; उसके बारे में कोई बात नहीं करना चाहता।ये जो बैकलॉग है उसकी तो कोई चर्चा तक नहीं करता।वहीं कई गैर-दलित यह बोलने लगते हैं कि अब तो उनका बहुत विकास हो गया है।अब यह ईडब्ल्यूएस का मसला है।इसमें आपने तय किया कि अर्थ के आधार पर आरक्षण का प्रमाण-पत्र दिया जाएगा।अगर एक दलित अत्यधिक गरीब है तो उसको प्रमाण-पत्र दीजिए।गरीबी का आधार मानिए।किंतु वहाँ आप कहते हैं कि इनका चुनाव सवर्णों में से किया जाएगा, तो फ़िर तो यह जाति का आधार हो जाएगा।अगर आपने आर्थिक आधार को मानदंड माना है तो आर्थिक रूप से जो सबसे कमजोर है उसे आरक्षण दीजिए।वहाँ भी आपने गरीबी की सीमा को आठ लाख कर दिया।यहाँ तो गरीबी भी दो तरह की हो गई ।यह तो विरोधाभास है।वहीं दलित वर्ग के जो नेता हैं उन्हें समस्याओं के बारे में पता नहीं है, न किसी चीज की समझ है और न ही इन सब चीजों के बारे में कुछ पता है।
(४) जब दलित साहित्य को महत्व नहीं मिला था या जब उसे सम्मान नहीं मिला था तो लोग यह दावा नहीं करना चाह रहे थे कि हम भी लेखक हैं।क्योंकि उस समय अपमान सहना पड़ता था और बेइज्जती सहनी पड़ती थी।उस समय आपकी उपेक्षा होती थी।अब दलित साहित्यकार को सम्मान मिलता है और यह माना जा रहा है कि यह न्यायवंचित पक्ष को लेकर आ रहा है।अब उसे आदर के साथ देखा जा रहा है तो लोग स्वयं को दलित साहित्यकार घोषित करने में लगे हुए हैं।किंतु वे स्वयं को दलित साहित्य की परंपरा से नहीं जोड़ पाते।वे सीधे-सीधे उससे स्वयं को जोड़ना नहीं चाहते।नई पीढ़ी इस तरह का द्वंद्व लेकर आ रही है।कहने का मतलब है कि अगर आप अपने अतीत को, अपने इतिहास को तथा पुरानी पीढ़ी को महत्व नहीं देंगे तो आप एक ईमानदार इतिहास नहीं बना सकते।यह झिझक आज नजर आ रही है।नए लोग अपनी पृष्ठभूमि को नकारकर आगे बढ़ना चाहते हैं और साबित करना चाहते हैं कि जैसे उन्होंने ही उसे खड़ा किया है।
आप मार्क्स को देखिए, वे कहते हैं कि अब तक के दार्शनिकों ने दुनिया की व्याख्या की है जबकि सवाल दुनिया को बदलने का है ।हीगेल के बारे में उन्होंने कहा कि वह दर्शन की दुनिया में सिर के बल खड़ा था।मैंने उसको सीधा कर दिया, और कुछ नहीं किया।लेकिन वे मेरे गुरु थे, अगर उन्होंने ऐसा नहीं किया होता तो मैं इसे सीधा कैसे करता? मतलब यह है कि हमें अपनी पीढ़ी के लोगों के साहित्य का अध्ययन करना चाहिए।चाहे मोहनदास नैमिशराय हों, जयप्रकाश कर्दम हों, धर्मवीर हों या कंवल भारती जैसे लोग हों; उनको पढ़ा जाना चाहिए।अगर किसी में कोई कमी है या किसी ने खराब लिखा हो तो भी आपको उन्हें पढ़ना चाहिए।तभी आप बेहतर लिख सकेंगे।इसीलिए अपनी विरासत को जांनना आवश्यक है।
आप हवा में कुछ खड़ा नहीं कर सकते, कुछ ठोस नहीं रच सकते।मैं बड़ी ईमानदारी से कहना चाहता हूँ कि मुझे जो पिछले ३०-४० साल का जो साहित्य मिला, मैंने उसका मन से अध्ययन किया और उससे बहुत फायदा उठाया।उसके जरिए खुद को सुधारा और स्वयं को समृद्ध किया।मैं तो इन सबका एक तरह से विद्यार्थी रहा।
(५) भारत आज़ादी से पहले कोई राष्ट्र नहीं था।उस समय राजे-रजवाड़े थे, जिनके पास टुकड़े-टुकड़े में छोटी-छोटी रियासतें थीं।उनमें आपस में कोई तालमेल भी नहीं था।एक दूसरे से इनका आपस में युद्ध होता रहता था।इनके एकीकरण में पटेल जी की महत्वपूर्ण भूमिका रही।जब ये राजशाही और जमींदाराना खत्म हुआ और नागरिक समानता आई, तब यह देश राष्ट्र बनना शुरू हुआ।निजीकरण फिर उसी तरफ इस राष्ट्र को ले जा रहा है।अब अघोषित राजा बन रहे हैं, जिनके पास अरबों की संपत्ति है।कहा जाए तो हम राजतंत्र की तरफ जा रहे हैं जिससे राष्ट्र खंडित होता जा रहा है।जब सामूहिकता होती है और सार्वजनिक स्वतंत्रता होती है, तब सचमुच में राष्ट्र ‘राष्ट्र’ होता है।आजादी के बाद राष्ट्र बना है, काफी हद तक बना है।सार्वजनिक संपत्तियों, संस्थानों, बैंकों के आदि के राष्ट्रीयकरण से एक कल्याणकारी राज्य की संकल्पना साकार हुई।किंतु निजीकरण के जरिए ये सारी चीजें गिने-चुने लोगों के हाथ में चली जाएंगी।अब बगैर ताज के राजा बनने लगे हैं।निजीकरण की वजह से राष्ट्र टूट रहा है।इसे टूटने से बचाना है।सत्ता और शासन में जितना दलित, आदिवासियों और पिछड़ों का प्रतिनिधित्व बढ़ेगा; उतना ही राष्ट्र मजबूत होगा।यदि कुछ लोगों के हाथ में ही संपत्ति होगी तो इससे राष्ट्र कमजोर होगा।इससे बाहरी शक्तियों को फायदा होगा।
(६) जब स्त्री विमर्श की बात की जाती है, तो इसमें भी जो अभिजात महिलाएं हैं, जिनका संबंध उच्चवर्गों से है और जिनका संबंध संपन्न परिवारों से है; उन्होंने पहले शिक्षा हासिल कर ली तो वे महिला विमर्श में सबसे पहले आ गईं।लेकिन इनमें भी बहनापा नहीं है कि दलित महिलाओं को भी बराबर की जगह दें।बल्कि उन्होंने भी पुरुषों के समान ही आचरण किया कि तुम चुप रहो, हम तुम्हारी तरफ से बोल लेंगे।अब कमजोर वर्ग की महिलाएं जैसे आदिवासी और दलित महिलाएं यदि एक पुल बनाएं; उनके मुद्दे लगभग एक जैसे होंगे, तब कुछ हो सकता है।बाकी जो सुविधाभोगी महिलाएं हैं और उनका जो लेखन है वह वही भूमिका निभा रहा है जो उनके पुरुष निभा रहे हैं।ये तो संकट है।
किसान आंदोलन को भी देखिए।जो धनी किसान हैं, उनके यहां जो किसान काम करता है, वह भूमिहीन है, मजदूर है।जो धनी किसान है वह उनका शोषण कर रहा है।मैं कई किसान संगठनों में रहा हूँ।हमने सर्वे किया तो पता चला कि जो किसान पंजाब से आकर यहां धरना दे रहे हैं, उनके खेतों में बिहार, उत्तरप्रदेश के मजदूर काम कर रहे हैं।काम वे कर रहे हैं और बड़े किसान धरना दे रहे हैं।बड़े किसानों ने दलितों के खेत हड़प लिए या सस्ते दाम पर खरीद लिए और उन्हें भगा दिया।फलस्वरूप छोटे किसान मजदूर बन गए।दलितों का मसला, चाहे वह किसानों के बीच हो, मजदूरों के बीच हो, मालिक के बीच हो, पढ़े-लिखों के बीच हो या शिक्षकों के बीच हो; वह हर जगह हाशिए पर है।अगर किसानों के साथ भी उन्हें मोर्चा बनाना है तो भूमिहीन और शोषित किसानों को अपने साथ जोड़ना होगा।तभी जाकर सभी शोषित वर्गों के बीच कोई पुल बन सकता है।यहां भी छोटे किसान, दलित किसान शोषण की चक्की में पिस ही रहे हैं।
मेरठ में मैं राकेश टिकैत के किसान आंदोलन के पहले दिन के कार्यक्रम में शामिल था।मैंने उसका संचालन किया था।आंदोलन की समाप्ति के आखिरी दिन जब घोषणा-पत्र पढ़ा जा रहा था, उसमें बहुत सारी बातें थीं।किंतु जो सामाजिक मुद्दे थे, उसपर बात करते हुए वहां से कहा गया कि एक तो हम अपनी औरतों को आधी बांह की कमीज नहीं पहनने देंगे, उनकी जो बगलें दिखाई देती हैं उन्हें ढंकने को कहेंगे।दूसरा यह था कि गांव में सफाई करनेवाली महिलाओं को गांव से बाहर नहीं जाने देंगे, क्योंकि इससे हमारा काम प्रभावित होता है।तो आप बताएं कि ऐसे किसानों को आप कैसे जोड़ेंगे? कहने का मतलब यह है कि चूंकि हित और मुद्दे अलग-अलग हैं, अतः उनके बीच पुल बनाने की संभावना बहुत कम है।ऐसे लोग भी आने चाहिए जो स्वयं से काम करने को तैयार हो।आप यह देखिए जब बाबू जगजीवन राम ने यह कहा था कि सारे सफाई कर्मचारी अपना काम छोड़ें तो कई लेखिकाओं ने बहस चलाई थी, जिसमें मृणाल पांडे की मां शिवानी भी शामिल थीं।उनका कहना था कि जब इतने साल से करते आ रहे हैं तो वे क्यों नहीं करेंगी यह काम?
बैजवाड़ा विल्सन का एक लेख आया है, जिसमें वे कह रहे हैं कि केवल गांधी से हमारा काम नहीं चलने वाला।गांधी जी तो सफाई में जुड़ गए थे, किंतु गांधीवादी तो वैसा करना नहीं चाहते।जो करते हैं वे सिर्फ दिखावा करते हैं।इसमें तो अभी भी शत-प्रतिशत वाल्मीकि समाज ही यह काम कर रहा है।अतः ऐसे में तमाम विमर्शों के बीच पुल बनाना बहुत मुश्किल काम है।
संपर्क सूत्र : १/२२ वसुंधरा, गाजियाबाद २०१०१२ (उत्तर प्रदेश) मो.९९११०४३५८८
जयप्रकाश कर्दम वरिष्ठ लेखक।तीन उपन्यास, एक बाल उपन्यास, दो कहानी संग्रह, पाँच कविता संग्रह, सहित ५० पुस्तकें प्रकाशित। |
दलित साहित्य आज बाजार का सबसे बड़ा ब्रांड है
(१) पिछले दशकों में दलित आंदोलन की अनेक उपलब्धियाँ रही हैं।सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि दलितों के अंदर इतिहासबोध पैदा हुआ है।उनके अंदर यह जानने के प्रति जिज्ञासा बढ़ी है कि हमारी आज की स्थिति का कारण क्या रहा है।पहले हम क्या थे।इस जिज्ञासा के जवाब की तलाश में वे इतिहास के साथ-साथ अपनी संस्कृति की जड़ों को भी खोज रहे हैं।
दलितों के अंदर अस्मिता-बोध पैदा हुआ है तथा अपनी अस्मिता की रक्षा के लिए संघर्ष की भावना प्रबल हुई है।शिक्षा प्राप्त करने के प्रति रुझान बढ़ा है।आज ग़रीब से ग़रीब दलित भी अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता है।सम्मान से जीने की भावना विकसित हुई है।इस दौर के दलित आंदोलन की एक बड़ी उपलब्धि रही है बहुजन समाज पार्टी के रूप में दलित राजनीति का उभार, जो इस बात का संकेत है कि अब तक दूसरों के पिछलग्गू बने रहे दलित अब अपना नेतृत्व स्वयं करना चाहते हैं तथा सत्ता में हिस्सेदारी तक सीमित न रहकर सत्ता की चाबी अपने हाथों में चाहते हैं।
अभी तक दलितों की चेतना पढ़-लिखकर नौकरी पाने तक सीमित रही है।किंतु अब नौकर के बजाए मालिक बनने की भावना विकसित होने लगी है।इस भावना ने दलितों के एक वर्ग को नौकरी का मोह छोड़कर व्यवसाय करने के लिए प्रेरित किया है।आज कई दलित सफल व्यवसायी हैं, जो हज़ारों लोगों को रोज़गार दे रहे हैं।फ़िक्की की तर्ज़ पर दलित व्यवसायियों का अपना व्यापार संगठन ‘डिक्की’, अर्थात ‘दलित चेम्बर ऑफ़ कामर्स एंड इंडस्ट्री’ है।
आरक्षण के प्रति दलित समाज के दृष्टिकोण में बदलाव आया है और आज आरक्षण को सुरक्षा या संरक्षण नहीं, अपितु प्रतिनिधित्व के रूप में देखा जा रहा है।साहित्य और सामाजिक आंदोलन प्रायः साथ-साथ चलते हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं।
दलित आंदोलन और साहित्य ने एक-दूसरे को प्रभावित किया है, एक-दूसरे से ऊर्जा ग्रहण की है तथा एक-दूसरे को प्रेरित किया है।दलित आंदोलन ने साहित्यकारों को चेतना-उन्मुख साहित्य का सृजन करने की प्रेरणा देने के साथ-साथ अपने विचार और अनुभूतियों को साहस के साथ अभिव्यक्त करने की शक्ति दी है तो दलित साहित्य ने भी आंदोलन को स्फूर्ति, ऊर्जा और शक्ति दी है तथा आंदोलन के लिए ज़मीन तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
(२) निजीकरण दलितों के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है।सरकारी क्षेत्र का निजीकरण होने से दलितों के लिए संवैधानिक आरक्षण निष्प्रभावी हुआ है।इससे दलितों के सम्माजनक रोज़गार के अवसर सीमित हुए हैं, निजी क्षेत्र में आरक्षण का प्रावधान नहीं होने के कारण वहाँ दलितों को समुचित रोज़गार नहीं मिल पाता है।समाज का जातिवाद निजी क्षेत्र को प्रभावित करता है।
निजीकरण ने आर्थिक रूप से दलितों की कमर को तोड़ा है।अधिक से अधिक लाभ कमाने पर ध्यान केंद्रित करने वाली निजी कंपनियां दलितों का भरपूर शोषण कर रही हैं।यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि निजीकरण दलितों की प्रगति की संभावनाओं के मार्ग में एक बड़े अवरोधक की तरह है।निजीकरण ने नव-पूंजीवाद को जन्म दिया है, जो सरकार द्वारा प्रायोजित है।निजीकरण की आँधी ने जिस तरह बड़ी संख्या में दलित, आदिवासी और पिछड़े समुदायों की सरकारी नौकरियां छीनी हैं तथा निरंतर उनके भविष्य के रास्ते बंद किए हैं, उसने दलितों को आर्थिक रूप से असुरक्षित कर दिया है।आगे की ओर बढ़ने की अपेक्षा वे अब पीछे की ओर जाने लगे हैं।दलितों पर सबसे अधिक मार शिक्षा के निजीकरण से पड़ी है।महंगी शिक्षा का ख़र्च वहन करना दलितों के लिए दूभर है, जिसके कारण दलितों के लिए अपने बच्चों को अच्छी उच्च शिक्षा दिलाना सपने जैसा हो गया है।निजीकरण से भारतीय संविधान की कल्याणकारी राज्य की संकल्पना की धज्जियां उड़ गई हैं।निजी क्षेत्र के लिए सरकारी क्षेत्र के समान वेतन का मानक निर्धारित करने के साथ-साथ दलितों के लिए सरकारी क्षेत्र के समान आरक्षण का प्रावधान किया जाना अत्यंत आवश्यक है।ऐसा होने पर ही दलित शेष समाज के साथ खड़े हो सकते हैं और चल सकते हैं, अन्यथा निजीकरण की आंधी उनको अठारहवीं शताब्दी में ले जाकर छोड़ेगी।
(३) राजनीति और साहित्य की अपनी-अपनी भूमिका है और दोनों अपनी-अपनी तरह से कार्य करते हैं।राजनीति का उद्देश्य सत्ता प्राप्त करना होता है और साहित्य का उद्देश्य समाज को मानवीय बनाना।क़ानून निर्माण, नीति निर्धारण और कार्यान्वयन तथा अर्थतंत्र पर नियंत्रण, यह सब सत्ता द्वारा किया जाता है।इसलिए दलित राजनीति सत्ता के केंद्र में आती है तो दलितों की सामाजिक-आर्थिक समानता के लिए बेहतर कार्य कर सकती है।साहित्य तो जनता का प्रतिनिधि और प्रवक्ता है।वह समाज के ज़मीनी मुद्दों को उठाकर राजनीति का मार्गदर्शन करता है ताकि सत्ता द्वारा उनके समुचित समाधान किए जा सकें।साहित्य जन-विरोधी अथवा ग़लत कार्यों की आलोचना कर राजनीति को सही मार्ग दिखाता है।दलित साहित्य और राजनीति के बीच भी इसी तरह का संबंध रहा है।जहां समाज हित में उचित लगा वहां दलित साहित्य ने राजनीति का समर्थन किया, जहां उचित नहीं लगा वहां उसकी आलोचना की।
दलित राजनीति और साहित्य के बीच न बहुत नज़दीकी और न ही दूरी है।दोनों अपनी-अपनी राह चल रहे हैं।लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि बिखराव और भटकाव दलित राजनीति में भी आया है और दलित साहित्य में भी।लेकिन मैं इसे एक सहज प्रक्रिया के रूप में देखता हूँ।बिखराव में चीज़ें छंट जाती हैं, लेकिन प्रतिबद्धता बची रहती है।सबसे सुखद बात यह है कि दलित साहित्य में भले ही बिखराव है, ठहराव नहीं है।बिखराव भी धीरे-धीरे सिमट रहा है तथा नए तरह से संगठित हो रहा है।दलित लेखक कई लेखक संघों में विभक्त हुए, यहाँ तक कि एक दलित लेखक संघ के कई लेखक संघ बन गए।किंतु अब धीरे-धीरे उनके बीच तालमेल होता जा रहा है।सभी समूह अपनी रचनात्मक सक्रियता से दलित साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं।रचनात्मकता सदैव शुभ होती है।दलित लेखक समूह और संघों की रचनात्मक सक्रियता दलित साहित्य आंदोलन के लिए शुभ है।
(४) जैसा मैंने कहा है, दलित साहित्य रचनात्मक रूप से निरंतर सक्रिय है।वरिष्ठ लेखक जहाँ पहले से अधिक ज़िम्मेदार हुए हैं, युवा लेखक अधिक उत्साह और ऊर्जा के साथ सीख रहे हैं और लिख रहे हैं।आज दलित साहित्य एक विमर्श के रूप में साहित्य का अनिवार्य अंग बन गया है तथा देश के अधिकांश विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रमों का हिस्सा है।दलित साहित्य पर प्रचुर मात्रा में शोध भी हुए हैं और बहुत से शोध प्रकाशित भी हुए हैं।पहले की तरह प्रकाशन की समस्या भी दलित साहित्य के समक्ष अब नहीं है।अपितु दलित साहित्य आज साहित्य के बाज़ार का सबसे बड़ा ब्रांड और बिकाऊ माल है।शोधार्थी और विद्यार्थियों की नई पीढ़ी दलित साहित्य के माध्यम से भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव और उत्पीड़न की अमानवीय परंपरा के यथार्थ से परिचित हो रही है।
अभी तक की स्थिति के आधार पर कहा जा सकता है कि २१वीं सदी दलित साहित्य की है।आज दलित साहित्य के समक्ष एक बड़ी समस्या अपने नाम या पहचान की है।केंद्र सरकार द्वारा सरकारी दस्तावेज़ों में दलित शब्द का प्रयोग नहीं करने की नीति अपनाए जाने के बाद विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों से दलित साहित्य के पाठ्यक्रमों को बाहर कर दिए जाने की आशंका है।बहुत से विश्वविद्यालयों में दलित साहित्य के पाठ्यक्रम के स्थान पर अस्मितामूलक विमर्श के अंतर्गत दलित विमर्श पढ़ाया जा रहा है।
दूसरी बड़ी समस्या यह दिखाई दे रही है कि दलित लेखकों के बारे में साहित्य की दुनिया यह मानकर चल रही है कि दलित लेखक केवल अपना रोना-धोना या अपने अनुभव ही लिख सकते हैं, अपने समाज की समस्याओं तक ही वे सीमित हैं, उससे इतर का साहित्य न वे पढ़ते हैं और न उसके बारे में उनकी कोई खास समझ है।इसलिए दलित लेखकों को केवल दलित साहित्य या विमर्श पर होने वाले सेमिनार और संगोष्ठियों में ही वक़्ता के रूप में बुलाया जाता है, अन्य सेमिनार या संगोष्ठियों में नहीं बुलाया जाता है।यह एक तरह से उनको दलित नाम के दड़बे में बंद कर देना है।यह प्रवृत्ति गांवों के दक्षिण टोलों की तरह दलित साहित्य को भी साहित्य का दक्षिण टोला बनाने का प्रयास है।सदियों से दक्षिण टोला के रूप में गांव और समाज की मुख्यधारा से बहिष्कृत रहते आए दलित समाज की मुख्यधारा के साथ घुल-मिलकर रहने के आकांक्षी हैं।समानता, प्रेम और सह-अस्तित्व के लिए ही दलित साहित्य का संघर्ष है।
दलित साहित्य और साहित्यकार जोड़ना और जुड़ना चाहते हैं और यही संदेश और सीख समाज को देने का प्रयास किया जा रहा है।
(५) स्वाधीन भारत एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राष्ट्र है।भारतीय संविधान ऐसे ही राष्ट्र की संकल्पना देता है जो समतामूलक तथा न्याय आधारित हो।जहाँ सब नागरिक ‘हम’ की भावना के साथ रहें।राष्ट्र की संकल्पना में धर्म नहीं, मनुष्य और समाज प्रमुख था, किंतु स्वाधीनता के पश्चात समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और सद्भाव की राह पर चला भारतीय राष्ट्र आज अपने उद्देश्य से काफ़ी भटका दिखायी देता है।समाज के वर्चस्ववादी वर्ग द्वारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदू राष्ट्रवाद की चेतना तेज़ी से विकसित की जा रही है।संविधान हिंदू राष्ट्र के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है।इसलिए कट्टरवादी वर्ग द्वारा संविधान का विरोध किया जा रहा है।कुछ लोगों द्वारा संविधान को जलाने की घटनाएँ भी सामने आई हैं।सांप्रदायिक कटुता और अलगाव तेज़ी से बढ़ता जा रहा है।जातिवाद भी उसी तेज़ी से बढ़ रहा है तथा दलितों के जातिगत उत्पीड़न और हिंसा की घटनाओं में निरंतर वृद्धि हो रही है। ‘जय भीम’ कहने वाले दलितों के साथ हिंसा कर उनसे ज़बरन ‘जय श्रीराम’ कहलवाने की घटनाएं भी सामने आई हैं।सांप्रदायिक और जातिगत आग्रह बढ़ते जा रहे हैं।यह कम आश्चर्यजनक नहीं है कि जयपुर में राजस्थान हाईकोर्ट के परिसर में मनु की मूर्ति स्थापित हो गई है।यह सब द्योतित करता है कि आज जब भारतीय संविधान ही ख़तरे में है, संविधान द्वारा प्रत्येक नागरिक को प्रदत्त स्वतंत्रता का कोई अर्थ नहीं रह गया है।राष्ट्र का स्वरूप आज बिलकुल बदल गया है।हिंदू राष्ट्रवाद की इस अवधारणा में दलित अपने मानवीय अस्तित्व को लेकर सबसे अधिक आशंकित और आतंकित हैं।
(६) दलित, आदिवासी, किन्नर, किसान तथा सभी अन्य वंचित वर्ग अपने अस्तित्व और अस्मिता के लिए संघर्षरत हैं।इसलिए उनके बीच तालमेल बहुत आवश्यक है।खंडित अस्मिताएं साथ मिलकर संघर्ष करेंगी तो उनके संघर्षों के सफल होने की संभावनाएं प्रबल रहेंगी।किंतु, किसान वर्ग में सभी धर्म और जातियों के लोग शामिल हैं तथा बहुत सी किसान जातियां दलितों के साथ ब्राह्मणों से भी अधिक छुआछूत तथा क्षत्रियों से भी अधिक उत्पीड़न करती हैं।जब तक दलितों के प्रति उनका सामाजिक व्यवहार नहीं बदलता, तब तक उनके साथ मिलकर संघर्ष करने की भावना विकसित नहीं हो सकती।
स्वानुभूति के विषय में यही कहना चाहूंगा कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी स्वानुभूति होती है।जिस तरह दलित अपने स्वानुभूत सत्य को साहित्य में अभिव्यक्त कर रहे हैं, ग़ैर-दलित भी वैसा कर सकते हैं।सवाल यह है कि ग़ैर-दलित स्वानुभूति से बचते क्यों हैं? क्यों सहानुभूति पर ही बल देते हैं? दलितों के साथ उनका, उनके परिजनों और स्वजातियों का किस प्रकार का व्यवहार रहा है? किस किस तरह से वे, उनके परिजन और स्वजातीय दलितों का दमन, दलन, शोषण और उत्पीड़न करते रहे हैं और आज भी कर रहे हैं? किस तरह की अपमानजनक शब्दावली वे दलितों के लिए प्रयुक्त करते रहे हैं, यह अभिव्यक्त करने से उनको किसने रोका है? ग़ैर-दलित लेखक जब अपनी स्वानुभूतियों को ईमानदारी से साहित्य में अभिव्यक्त करने लगेंगे, स्वानुभूति बनाम सहानुभूति का प्रश्न स्वत: बेमानी हो जाएगा।
संपर्क सूत्र : ३४३, संस्कृति अपार्टमेंट्स, सेक्टर–१९ बी, द्वारका, नई दिल्ली–११००७ मो. ९८७१२१६२९८
बजरंग बिहारी तिवारी दलित विमर्शकार के रूप में चर्चित। ‘केरल में सामाजिक आंदोलन और दलित चेतना’ चर्चित पुस्तक। |
दलित बुद्धिजीवियों का बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उद्धारक मानना गलत है
(१) दलित शब्द पैंथर आंदोलन से चलन में आया।पैंथर का औपचारिक निर्माण १९७३ में हुआ।पैंथर के घोषणापत्र का ऐतिहासिक महत्व है।दुनिया भर के सर्वहारा समुदाय से, संघर्षशील जनता से दलित पैंथर ने अपना नाता जोड़ा था।उनकी लड़ाई को अपनी लड़ाई माना था।उनकी जीत को अपनी जीत स्वीकारा था।उतने बड़े फलक पर दलित आंदोलन का आरंभ होना यादगार घटना है।
दलित आंदोलन की अनेक उपलब्धियां हैं।जाति-आधारित उत्पीड़न को सार्वजनिक मंच पर, दुनिया की निगाह में ले आना मामूली बात नहीं।साहित्य पर उसके प्रभाव की बात करें तो कई बिंदु उभरते हैं।सबसे बड़ी बात यह कि पदानुक्रमी संरचना में घुली-मिली हिंसा साहित्य का केंद्रीय विषय बनी।
इस हिंसा के तीनों रूपों को दलित रचनाकारों ने शब्दबद्ध किया।पहला रूप स्थूल हिंसा का है।इसमें हत्या, बलात्कार, लूट और आगजनी आदि आते हैं।दूसरा रूप अपमान का है।स्वाभिमान को छिन्न-भिन्न कर देने वाले संबोधन, अस्मिता को तार-तार कर देने के मक़सद से दी जाने वाली गालियाँ, स्वत्व को चोट पहुंचाने वाली अभिव्यक्तियाँ हिंसा के इस रूप में आती हैं।इस हिंसा का ठिकाना भाषा है।हिंसा का तीसरा रूप अवमानना है।इसमें मुख्य रूप से वे अभाषिक कायिक हरकतें शामिल हैं जो एक दलित को उसकी ‘हैसियत’ बता देती हैं।संकेतों, इशारों, भंगिमाओं, मुद्राओं में विन्यस्त अवमानना की चुभन अभीष्ट व्यक्ति ही, निशाने पर आया ‘भोक्ता’ ही समझ सकता है।जाति आधारित हिंसा की रोकथाम के लिए बने क़ानून एससी/एसटी एक्ट से बचने के लिए उत्तर आधुनिक ‘संभ्रांतों’ ने इसे अपनाया और बढ़ाया है।
दलित साहित्य आंदोलनधर्मी है।इसने साहित्य को नए अनुभवों से जोड़ा है।नायक की, प्रतिनायक-खलनायक की अवधारणा बदली है।भाषा की नई तासीर रची है।आत्मकथा विधा को केंद्र में ला दिया है।
(२) वैश्वीकरण के कई आयाम हैं, कई रूप हैं।निजीकरण इनमें से एक है।वैश्वीकरण ने दलित आंदोलन पर सकारात्मक असर भी डाला है।दलितों की शैक्षिक, स्वास्थ्य-संबंधी, आर्थिक स्थिति संबंधी शोध कार्यों में इस दौरान तेजी आई है।कई एनजीओ इस क्षेत्र में उतरे और उनको यूरोप व अमरीका आदि से वित्तीय एवं बौद्धिक सहायता मिली।दलितों की समस्याओं को, उनपर होने वाली हिंसा को विश्व-पटल पर उभरने का अवसर मिला।दुनिया भर का ध्यान इस ओर गया।विश्व के प्रमुख शोध केंद्रों और विश्वविद्यालयों में दलित शोधार्थियों को प्रवेश मिला, यहाँ काम करने का अवसर मिला।
वैश्वीकरण की अंतर्वस्तु बहुराष्ट्रीय कम्पनियां हैं।एक ओर, उन्होंने छद्म राष्ट्रवाद को खूब संपोषित किया है, दूसरी ओर, राष्ट्र के आधार-स्तंभों को खोखला कर दिया है।जो कुछ राष्ट्रीय था वह एक-एक कर निजी होता गया।राष्ट्रीय परिसंपत्तियां उनकी अपनी संपत्तियां बनती गईं।मल्टीनेशनल कंपनियों के प्रति शुरुआती सम्मोहन इतना तगड़ा था कि कई दलित बुद्धिजीवी उन्हें अपना उद्धारकर्ता मानने लगे।एक ख़ुशफ़हमी पाली गई कि ये कंपनियां अपने ‘सामाजिक सरोकारों’ के प्रति संजीदा हैं और रहेंगी तथा भारतीय संविधान के प्रावधानों का पालन करेंगी।कुछ दलित बुद्धिजीवियों ने लिखा कि सरकारी उपक्रमों को प्राइवेट किए जाने में कोई हर्ज़ नहीं है, बस वहां आरक्षण की व्यवस्था बनी रहे।बड़े कॉर्पोरेट घरानों को मुक्तिदाता मानने वालों ने उनकी निगरानी में एनजीओ बनाए और प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ताओं व संभावित आंदोलनकारी युवकों, युवतियों को इन एनजीओ से जोड़ दिया, उनका पदाधिकारी बना दिया।दलित आंदोलन का वर्तमान और भविष्य इससे बहुत दुष्प्रभावित हुआ।जो दलित रचनाकार, बुद्धिजीवी इन खतरों से वाक़िफ़ थे और लगातार आगाह कर रहे थे वे हाशिए पर डाल दिए गए।आज भी कमोबेश वही स्थिति है।
(३) जिस तरह कम्युनिस्ट राजनीति का प्रगतिवादी साहित्य से घनिष्ठ और आत्मीय संबंध रहा है, वैसी स्थिति दलित राजनीति और दलित साहित्य में कभी नहीं बनी।असल में दलित साहित्य का उभार ही तत्कालीन दलित राजनेताओं से निराश और क्षुब्ध होकर हुआ था।डॉ. आंबेडकर ने एक राजनीतिक पार्टी ‘भारतीय रिपब्लिकन दल’ (आरपीआई) बनाने की योजना बनाई थी।उनके परिनिर्वाण के बाद इस दल का गठन हुआ।दलित जनता ने स्वाभाविक रूप से आरपीआइ पर भरोसा किया। ‘अपनी’ पोलिटिकल पार्टी से बड़ी उम्मीदें पालीं।बहुत जल्दी ही यह भरोसा दरक गया।मोहभंग की मनोदशा ने नई पीढ़ी में जो आक्रोश पैदा किया उसी का परिणाम दलित पैंथर था।
हिंदी क्षेत्र में बहुजन समाज पार्टी सक्रिय हुई।इसके नेताओं के संबंध भी दलित रचनाकारों से तनावपूर्ण रहे।रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने भी कुछ ऐसा नहीं किया कि दलित रचनाकार उससे जुड़ते, संवाद करते।दलित साहित्य का बहुलांश सांप्रदायिक हिंसा का विरोधी है।२००२ के गुजरात नरसंहार के बाद बसपा की मुखिया ने वहाँ की दलित जनता से विधानसभा चुनाव में ‘नरेन्द्र भाई’ को वोट देने की अपील की।जनतंत्र और सामाजिक सद्भाव के पैरोकार इस ‘अपील’ से अवसन्न हुए, लेकिन बसपा ने इसका संज्ञान नहीं लिया।वह गुरुकिल्ली की तलाश में आगे बढ़ती गई।
आज स्थिति यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र या तो बिक चुके हैं या चौपट किए जाकर बिकने की कगार पर हैं, लेकिन दलित राजनीति इस पर मौन साधे बैठी है।इन्हीं सेक्टरों में आरक्षण के नियम लागू होते थे और दलित युवाओं/युवतियों को सरकारी नौकरियाँ मिलती थीं।
(४) एक उम्मीद थी कि देश में जनतांत्रिक भावना के विकास के साथ जाति आधारित हिंसा रुकेगी।यह हिंसा बढ़ती जा रही है।दलित रचनाकार इस हिंसा का अंत चाहते हैं।समाधान के रास्ते की तलाश जारी है।गोहाना (२००६), खैरलांजी (२००६), हाथरस (२०२१), जालोर (२०२२) जैसे अनगिनत कांड जीवन-मरण के सवाल की तरह बने हुए हैं।यह सिलसिला थम नहीं रहा है।जनता को गोलबंद कौन करे? राजनीति को पटरी पर कौन लाए? दलित रचनाकार इन प्रश्नों से जूझ रहे हैं।सांस्कृतिक अस्मितावाद से अब कोई आशा नहीं है।साहित्यिक, सामाजिक, सौंदर्यात्मक बदलावों की बागडोर दलित साहित्य को थामनी है।उसे स्वयं को नेतृत्व के लिए तैयार रखना होगा।
(५) स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लोकतंत्र के मूल्य बने।नव-स्वतंत्र राष्ट्र को उन मूल्यों पर रचा जाना था।कुछ हद तक रचा भी गया।यह राष्ट्र थोड़े-बहुत अंतर से सभी समुदायों, वर्गों, व्यक्तियों की परवाह कर रहा था।फिर, कॉर्पोरेट हिंदुत्व का ज़माना आया।केंद्र में सत्तारूढ़ होने से पहले ही उसने अपनी कार्यप्रणाली का साफ संकेत दे दिया था।फिर भी, देश की करीब ३४ प्रतिशत जनता ने उसे अपना समर्थन दिया और उसे राष्ट्र की जिम्मेदारी सौंपी।इसने राष्ट्र का स्वरूप ही उलटकर रख दिया।लोकतंत्र कहीं दुबक गया।वास्तविक तानाशाही आ गई।जितने बड़े निर्णय पिछले ७-८ वर्षों में लिए गए, उन्हें देखते हुए यह बात समझी जा सकती है।संसद में बहस-मुबाहिसों की स्थिति व अवकाश नहीं है।सामाजिक न्याय की आधी-अधूरी व्यवस्था के तहत एससी/एसटी/ओबीसी को जो सरकारी नौकरियां मिलती थीं, वे लगभग बंद हैं।दूरसंचार, नागरिक उड्डयन, रेल, बैंक, खनन, पेट्रोलियम, रोडवेज़ आदि को पूर्णतः या अंशतः बेचा जा चुका है।राष्ट्र खोखला हो चुका है।ग्लोबल हंगर इंडेक्स सहित मानव विकास के तमाम सूचकांकों में भारत सबसे नीचे के देशों में जा चुका है।
(६) स्वानुभूति का प्रश्न गंभीर है, अपरिहार्य है।इसी ने दलित साहित्य को पारंपरिक/सामान्य साहित्य से अलग मान्यता दिलाई।दलित पीड़ा अपने प्रामाणिक रूप में स्वानुभूति के जरिए व्यक्त हो पाई।स्वानुभूति का आग्रह जरूरी है, लेकिन वहीं तक सीमित रह जाना उचित नहीं।स्वानुभव के पैरोकारों को अन्य वंचित वर्गों का अनुभव भी देखना होगा, उनका यथोचित संज्ञान लेना होगा।पीड़ितों का साझा मंच बने बिना पीड़ा के कारणों तक पहुंचना, उन स्रोतों को बंद कर पाना लगभग असंभव है।शोषक व्यवस्था बहुत मजबूत है।सांप्रदायिक हमलों में वह अल्पसंख्यकों का विनाश करती है और जातिवादी हमलों में दलितों का।यही सत्ता स्त्रियों का बलात्कार और हत्या करती रहती है।आदिवासी समुदाय को यही सत्ता उजाड़ती है, बड़े पैमाने पर उनका संहार करती है।किसानों को बरबाद करने में यह कोई कसर नहीं छोड़ रही।सभी पीड़ित अपनी व्यथा के साथ अन्यों की व्यथा जोड़कर देखें और अपनी प्रतिरोधी ताकत को साझेपन से मजबूत करें, तभी कोई राह निकलेगी।
संपर्क सूत्र : २०४, दूसरी मंजिल, टी-१३४/१, बेगमपुर, मालवीय नगर, नई दिल्ली-११००१७ मो.९८१८५७५४४०
अजय नावरिया दलित कथाकार और आलोचक। ‘यस सर’, ‘पटकथा और अन्य कहानियां’ (कहानी संग्रह), ‘उधर के लोग’ (उपन्यास)। |
दलित राजनीति के खांचे में दलित साहित्य फिट नहीं हो सकता
(१) दलित आंदोलन, स्वतंत्रता से पहले जिस रूप में चले, वे ज्यादातर महाराष्ट्र की भूमि पर गतिमान दिखाई देते हैं।वे आंदोलन चाहे ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले और डॉ. अंबेडकर द्वारा चलाए गए हों, चाहे अन्य किसी व्यक्ति अथवा संस्था द्वारा।इन आंदोलनों का प्रभाव आजादी के बाद के आंदोलनों की पीठिका बनता है।इन आंदोलनों के कारण उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में दलित आंदोलन की शुरुआत होती है।ऐसा नहीं है कि उत्तर प्रदेश में स्वामी अछूतानंद अथवा अन्य अल्पचर्चित समाज सुधारकों ने कार्य न किया हो, परन्तु उनका प्रभाव वैसा नहीं था जैसा डॉ. अंबेडकर के आंदोलन का प्रभाव था।कहना यह होगा कि दलित साहित्य की वैचारिकी का आधार ही डॉ. अंबेडकर का साहित्य और सामाजिक कर्म बन गया।आज जो दलित साहित्य सामान्य जनता और साहित्यिक अभिरुचि के विशिष्ट जनों के सामने दिखाई देता है, उसके उद्देश्य और प्रस्थानबिंदु दोनों डॉ. अंबेडकर के विचारों से ओतप्रोत हैं।
(२) निजीकरण एक राष्ट्रीय परिघटना नहीं है, बल्कि वैश्विक परिघटना है।निजीकरण ने दलितों के जीवन को ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व को नए रूप में संरचित किया है।निजीकरण के कारण लोग कल के बारे में विचार करना छोड़ रहे हैं और आज में जी रहे हैं।दलित समाज इस स्थिति में सैकड़ों सालों से रहा है, उसे रोज ही जीना पड़ता था और अगले दिन के लिए अक्सर कोई व्यवस्था नही होती थी।आजादी के बाद आरक्षण और शिक्षा के कारण कुछ दशकों के लिए यह स्थिति जरूर बदली, परंतु जल्द ही १९९० में निजीकरण की शुरुआत भारत में हो गई।धीरे-धीरे यह प्रक्रिया तेज होती गई और आरक्षण सिकुड़ता चला गया।अब आरक्षण होने के बावजूद सरकारी क्षेत्र में नौकरियां नहीं हैं।निजीकरण की प्रक्रिया ने उन अवसरों से दलित समाज को वंचित कर दिया, जिसके फलस्वरूप उनमें समृद्धि और चेतना आ रही थी।निजीकरण की इस क्रूर प्रक्रिया के विरुद्ध दलित आंदोलनों और दलित बुद्धिजीवियों के पास कोई प्रभावी रणनीति नहीं है।
(३) अफ़सोस की बात है कि आज दलित राजनीति और दलित साहित्य का दूर का भी रिश्ता नहीं है।दलित राजनीति और तथाकथित मुख्यधारा की राजनीति एक ही ढंग से चल रही है।दलित साहित्य उस सांचे में फिट नहीं हो सकता।यह बिखराव का दौर नहीं कहा जा सकता, परंतु बेशक यह कहा जा सकता है कि आज दलित आंदोलन निर्णय और अनिर्णय के दोराहे पर खड़ा है।दलित साहित्य अब भी अपनी उसी गति से, उसी विचार के साथ सतत गतिमान है और न केवल आंदोलनों को, बल्कि राजनीति को भी मार्गदर्शन दे रहा है।
(४) दलित साहित्य के समक्ष सबसे पहली लड़ाई जाति-व्यवस्था की है।इस व्यवस्था ने इस समाज को ही नहीं, अन्य अनेक समाजों को अवसरों से वंचित किया है।शक्ति संपन्न जातियां, दूसरी जातियों के साधारण अधिकारों पर भी अपना प्रभुत्व जमाए बैठी हैं।
२१वीं सदी में कुछ नया नहीं हुआ है, अब भी भारत का एक बड़ा हिस्सा इसी जातिवाद क्वे शिकंजे में फंसा हुआ है।जाति ने धर्म के फौलादी कवच को भी भेद दिया है और दूसरे धर्मों में भी जाति ने पैठ बना ली है।दलित साहित्य का दायित्व थोड़ा और बढ़ गया है, अभी उसे सामाजिक न्याय के साथ-साथ आर्थिक न्याय और राजनीतिक न्याय के लिए भी संघर्ष करना होगा।डॉ. अंबेडकर ने अपने साहित्य में उस समय ही इन समस्याओं और इनके निदानों का मानचित्र बना दिया था।दलित साहित्य को इस मानचित्र को वास्तविक भूगोल पर उतरना है।
(५)‘राष्ट्र’ पर विचार करते हुए डॉ. अंबेडकर की एक बात को जरूर ध्यान में रखनी चाहिए।उन्होंने कहा था कि जब तक नागरिक को उसके अधिकार न मिले, तब तक उसे यह कैसे महसूस होगा कि वह उस राष्ट्र का नागरिक है।गाँधी जी से उन्होंने इसीलिए पूंछा था कि हमारी मातृभूमि कहाँ है?
आज ‘राष्ट्र’ की कोई नई परिभाषा नहीं बनी है। ‘राष्ट्र’ जो १९५० में था, वही २०२२ में भी है।दलितों की स्थिति में कोई बड़ा परिवर्तन नही आया है।अब भी प्रभु वर्ग की दृष्टि में दलित समाज हेय और तुच्छ है।
(६) यह तो बहुत अच्छा होगा कि सभी विमर्शों के बीच आपसी तालमेल बने।वे एक प्रतिरोध की सामूहिक शक्ति के रूप में एक-दूसरे से जुड़ें।आखिर ये सभी किन्हीं रूपों में वंचित वर्गों के ही लोग हैं।परंतु मुश्किल यह है कि जाति-व्यवस्था ने इन सभी को एक-दूसरे से अलग कर रखा है।डॉ. अंबेडकर इसीलिए कहते थे कि जाति-व्यवस्था श्रम का विभाजन नहीं है, बल्कि श्रमिकों का विभाजन है।जाति-व्यवस्था के कारण वंचित वर्गों के लोग भी एक-दूसरे से ऊंच-नीच और छुआछूत का व्यवहार करते हैं।ये उनकी एकता में हमेशा बाधक बना रहेगा।जहां तक दलित साहित्य की बात है, स्वानुभूति पर अब कोई प्रश्न ही नही बचा है, यह लगभग अब मान लिया गया है कि जिसने भोगा है अगर उसके पास भाषा कौशल भी है तो उसकी रचना में अन्य लेखक की तुलना में अधिक प्रामाणिकता होगी।अनुभव और भाषा मिलकर उस रचना को एक प्रामाणिक अनुभव और उत्कृष्ट रचना में बदल देते हैं।
संपर्क सूत्र : एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया (केंद्रीय विश्वविद्यालय),नई दिल्ली-११००२५ मो. ९९१०८२७३३०
राम चंद्र दलित कथाकार और आलोचक। ‘आशय, आंदोलन और अवधारणा’, ‘दलित साहित्य की विकास यात्रा’ आदि पुस्तकें। |
वर्चस्वों की व्यापक समझ से उनके बीच स्वतः पुल बनने लगेगा
(१) विगत दशकों के दलित आंदोलन की बहुत ही सार्थक उपलब्धियां रहीं हैं।मसलन सामाजिक-सांस्कृतिक, साहित्यिक, शैक्षिक और राजनीतिक संदर्भों में इस आंदोलन ने बहुआयामी अमिट छाप छोड़ी है।आत्मसम्मान, समानता, न्याय और अधिकारों के लिए किए गए निरंतर संघर्षपूर्ण आंदोलनों ने परंपरागत-स्थापित साहित्य एवं राजनीति की एकांगिकता को कठघरे में खड़ा कर उन्हें अपने एजेंडे को बदलने एवं आत्मविवेचन के लिए बाध्य किया है।साथ ही इस आंदोलन ने साहित्य और राजनीति के आलोक में राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी मजबूत स्वायत्त उपस्थिति को दर्ज किया है।यद्यपि यह भी सुस्पष्ट है कि दलित आंदोलन का वर्तमान स्वरूप बहुजन आंदोलन की सुव्यस्थित ऐतिहासिक सशक्त परंपरा का प्रतिफलन है, जो प्राचीन काल में गौतम बुद्ध से शुरू होकर परिवर्तनकामी तमाम बहुजन नायक-नायिकाओं की संघर्षमयी विरासत को गतिमान रखते हुए आधुनिक काल में फुले दम्पति, डॉ।अंबेडकर और मान्यवर कांशीराम की चेतनापूर्ण समतावादी दृष्टि से निर्मित हुई है।इसी समतावादी चेतना ने साहित्य पर गहरा प्रभाव छोड़ा, जिसकी उपज दलित साहित्य है।
(२) निजीकरण ने शिक्षा और रोजगार के परिप्रेक्ष्य में दलितों का अत्यधिक नुकसान किया है।शिक्षा महंगी हुई है।सरकारी नौकरियां निरंतर घटती या घटाई जा रही हैं।संविदा आधारित नौकरियों से असुरक्षा बढ़ी है, जिससे श्रम का दोहन और भी ज्यादा बढ़ गया है।निजीकरण से संसाधनों पर सरकार का नियंत्रण भी कम हुआ है, जिससे मनमानापन बढ़ा है और दलितों का प्रतिनिधित्व आनुपातिक रूप से निरंतर घटता जा रहा है।बेबसी और बेकारी बढ़ी है।दिहाड़ी मजदूर बनने के लिए दलित अभिशप्त हैं।परिणामस्वरूप दलित आंदोलन भी प्रभावित हुआ है।परंतु चेतना में अभिवृद्धि हुई है।सत्ता-तंत्र के कुचक्र को अब आम जनता समझने लगी है।
दरअसल मंडल कमीशन लागू होने के बाद अनारक्षित वर्गों के हितों को वरीयता देते हुए उनके राजनीतिक संरक्षकों ने एक हिडेन एजेंडा के तहत धीरे-धीरे सरकारी संस्थाओं-संस्थानों को बीमार घोषित करके निजीकरण के तहत उसे निजी हाथों में देना-बेचना शुरू कर दिया था, जो बदस्तूर जारी है।इसमें प्रतिनिधित्व/आरक्षण की कोई भी व्यवस्था अभी तक नहीं की गई है।वर्चस्वशाली विचारधारा ने सीधे तौर पर आरक्षण खत्म करने के बजाय सरकारी नौकरियों की संख्या ही घटा दी, जबकि जनसंख्या और शिक्षा की दर बहुत बढ़ गई है।बैंकों का विलयन, बीएसएनएल कर्मियों की छंटनी, रेलवे एवं एयरपोर्ट का निजीकरण और अनेक सरकारी उपक्रमों को प्राइवेट कंपनियों को सौंप दिया गई।इससे करोड़ों सरकारी नौकरियां समाप्त कर दी गयीं।अब लैटरल एंट्री के जरिए रिज़र्वेशन पर कुठाराघात किया जा रहा है।भूखंडों का भी निजीकरण कर दिया गया।इसे एक भिन्न तरह की आधुनिक वर्ण व्यवस्था का नाम दिया जा सकता है।सामाजिक और आर्थिक असमानता की खाई और बढ़ गई है।इस तरह दलित और दलित आंदोलन विषम स्थिति का सामना कर रहे हैं।यद्यपि ऐसे संघर्षमयी हालात में भी दलितों का मनोबल नहीं टूटा है।वे धीरे-धीरे व्यावसायिकता की ओर बढ़ रहे हैं।
(३) वैसे तो दलित राजनीति का अपना साहित्य है और दलित साहित्य की अपनी राजनीति।प्रश्न यह है कि दलित राजनीति से आपका आशय क्या है? १९८४ में बहुजन समाज पार्टी के गठन के बाद बहुजन राजनीति को वर्चस्ववादी मीडिया ने नेतृत्व के आधार पर इसे दलित राजनीति के रूप में प्रचारित किया।इसके बाद ही दलित, दलित नेतृत्व और दलित राजनीति जैसे पदबंध हिदी क्षेत्र में ज्यादा प्रचलन में आए।यद्यपि दलित, दलित आंदोलन और दलित साहित्य जैसे पदबंध बाबा साहेब के परिनिर्वाण के बाद २०वीं शताब्दी के ५वें—७वें दशक के मध्य महाराष्ट्र के दलित साहित्य परिषद और दलित पैंथर आंदोलनों ने सार्थक रूप से स्थापित हो गए थे।
उपर्युक्त के परिप्रेक्ष्य में यह तथ्य सही है कि दोनों की वैचारिक पृष्ठभूमि एक ही है- अंबेडकरवाद।इस अर्थ में दलित साहित्य दलित राजनीति का पूरक हो सकता है और दलित राजनीति भी दलित साहित्य के लिए जमीन तैयार कर सकती है और यह स्वाभाविक भी है, परंतु दोनों ही स्वायत्त हैं और होना भी यही चाहिए।विशेषकर साहित्य के लिए यह स्वायत्तता बेहद जरूरी है।क्योंकि राजनीति में रणनीतिक कारणों से वैचारिक गठबंधन बनते-बिगड़ते रहते हैं, जबकि साहित्य में वैचारिक प्रतिबद्धता अत्यावश्यक है।दलित साहित्य अंबेडकरवादी विचारधारा पर आधारित है, इसकी अपनी सैद्धांतिक प्रतिबद्धता है।इसने साहित्य, समाज, इतिहास, संस्कृति, धर्म और राजनीति के प्रति अपनी वैचारिक दृष्टि विकसित की है।इसलिए राजनीति से इसकी स्वायत्तता जरूरी है, तभी राजनीति की आलोचना भी संभव है।इससे साहित्य और राजनीति का भी भला होगा, बल्कि आम नागरिक की दृष्टि से भी यही हितकर है।राजनीति बदलती रहती है, जबकि साहित्य में उत्तरोत्तर स्थायित्व आता जाता है।हालांकि समसामयिक परिस्थितियों के कारण साहित्य में भी बदलाव आते हैं, लेकिन वैचारिक लेखन की सैद्धांतिकी में बुनियादी बदलाव नहीं आते।समसामयिक संदर्भों में दलित राजनीति और दलित साहित्य में कुछ ऐसा ही संबंध देखा जा सकता है।
दलित साहित्य आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में मेरा मानना है कि यह पुनर्गठन का दौर है।दलित राजनीति के कुछ मद्धिम होने के कारण दलित साहित्य आंदोलन की वैचारिकी-सैद्धांतिकी में सुस्पष्टता एवं मजबूती आई है।समतापरक सामाजिक आंदोलनों में एकजुटता बढ़ी है।
(४) वर्तमान दौर में भी दलित साहित्य मजबूती से अपनी सैद्धांतिकी के साथ खड़ा है।भारत के अधिकांश शिक्षण संस्थानों के पाठ्यक्रमों में दलित रचनाएं शामिल हैं।यह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विमर्श के केंद्र में है।वर्तमान सरकार द्वारा निर्मित/प्रस्तावित पाठ्यचर्या में भी दलित साहित्य को प्रश्रय दिया गया है।दलित और गैर-दलित संवाद का सकारात्मक स्वरूप सामने आया है।दलित आत्मकथाओं ने इसकी बेहतरीन भावभूमि तैयार की है।चेतना और संवेदना के स्तर पर बुनियादी बदलाव आए हैं।आज दुनिया के सभी शैक्षणिक संस्थानों के अंतरानुशासनिक अध्ययनों में दलित साहित्य विमर्श का विषय बना है।दलित साहित्य भारत की सभी भाषाओं में लिखा जा चुका है और लगातार लेखन जारी है।
गैर दलित रचनाकार भी दलित विषयों पर बड़ी प्रतिबद्धता के साथ लिख रहे हैं।वैश्विक स्तर पर लेखन और पठन-पाठन जारी है।इससे वैचारिकी में और निखार आया है।इसका दस्तावेजीकरण हो चुका है।अब कोई भी दलित साहित्य आंदोलन की विरोधी विचारधारा इसे रोक नहीं सकती।इस आंदोलन के सामने जो भी समस्याएं खड़ी करने की कोशिश करेगा वह टिक नहीं पाएगा, बेनकाब हो जाएगा।भारत में विचारधारात्मक टकराहटें सदियों से रही हैं, इसलिए बदलते राजनीतिक परिवेश में समस्याओं का पैदा होना लाज़िमी है।
धर्म एवं संस्कृति अनुमोदित परंपरागत जातिगत समाजों ने संस्थागत स्वरूप ग्रहण कर लिया है, जिसे राजनीतिक संरक्षण मिलता रहता है।इन्हीं कारणों से हम विकसित देश नहीं बन पा रहे हैं और एक मुकम्मल मजबूत राष्ट्र बनने में भी बाधाएं बनी हुई हैं।२१वीं सदी के तीसरे दशक में भी जाति आधारित असमानता, अपमान, अन्याय, उत्पीड़न, दमन, शोषण और हिंसा के विविध रूप मौजूद हैं।समता, स्वतंत्रता, बंधुता, प्रेम, मैत्री, न्याय, अहिंसा और करुणा आधारित समाज बनाने की दलित साहित्य की मुख्य चुनौती और जिम्मेदारी है।यद्यपि वर्तमान राजनीतिक-सांस्कृतिक माहौल में दलित साहित्य के समक्ष कुछ समस्याएं तो हैं, किन्तु सदियों से चला आ रहा प्रेरणास्पद वैचारिक एवं ऐतिहासिक बहुजन आंदोलन स्वयं ही प्रमाण है कि तमाम विषम स्थितियों में भी वह कभी नहीं डिगा।दलित साहित्य के लिए वह आंदोलनधर्मी बहुजन परंपरा आज भी प्रेरणास्रोत के रूप में मौजूद है।अतः दलित साहित्य आंदोलन प्रत्येक स्थिति का सामना करने को तैयार है।
(५) इस प्रश्न को डॉ. अंबेडकर के नजरिए से ज्यादा बेहतर समझा जा सकता है। ‘जाति प्रथा-उन्मूलन’ शीर्षक के अंतर्गत बाबासाहेब का वक्तव्य उल्लेखनीय है, ‘मेरी राय में इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब तक आप अपनी सामाजिक व्यवस्था नहीं बदलेंगे, तब तक कोई प्रगति नहीं होगी।आप समाज को रक्षा या अपराध के लिए प्रेरित कर सकते हैं, लेकिन जाति व्यवस्था की नींव पर आप कोई निर्माण नहीं कर सकते: आप राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते, आप नैतिकता का निर्माण नहीं कर सकते।जाति व्यवस्था की नींव पर आप कोई भी निर्माण करेंगे, वह चटक जाएगा और कभी भी पूरा नहीं होगा।’ (‘बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर संपूर्ण वाङ्मय’, खंड-१)
अर्थात डॉ. अंबेडकर के शब्दों में असमानपरक सामाजिक व्यवस्था को बदले बिना राष्ट्र का निर्माण नहीं किया जा सकता।ध्यातव्य है कि मई, १९३६ में जातपांत तोड़क मंडल, लाहौर के वार्षिक सम्मलेन में डॉ. अंबेडकर द्वारा जो अध्यक्षीय भाषण प्रस्तुत किया जाना था, उस भाषण के अस्वीकार्य होने पर स्वागत समिति ने सम्मेलन का आयोजन ही स्थगित कर दिया था।यही भाषण बाद में ‘हरिजन’ पत्र के जुलाई १९३६ के अंक में प्रकाशित हुआ।इसके छपने के बाद कई अंकों तक डॉ. अंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच तीखी बहसें होती रहीं।वे सभी बहसें आज भी प्रासंगिक हैं।अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होने के बाद राजनीतिक लोकतंत्र तो स्थापित हो गया, परंतु सामाजिक लोकतंत्र अभी भी स्थापित नहीं हो सका।ऐसे में राष्ट्र की अवधारणा अभी भी एकांगी और अधूरी है।एक मजबूत राष्ट्र के निर्माण के लिए जातिवाद, सत्तावाद और सांप्रदायिकता से मुक्ति जरूरी है।डॉ. अंबेडकर का मानना था कि कोई भी राष्ट्र तब तक मजबूत नहीं हो सकता जब तक वह सामाजिक रूप से एक न हो।अर्थात वे राष्ट्रवाद और सामाजिक एकता को एक दूसरे का पूरक मानते थे।राष्ट्रवाद के संदर्भ में यदि विचार करें कि क्या सामाजिक एकता कायम हो गई है? जातिगत आधार पर बंटे हुए प्रत्येक गांव-मोहल्ले अपनी अलग अस्मिता का बोध कराते हैं।अधिकांश समाजों के मध्य आज भी खान-पान, शादी, त्योहार और सामाजिक आवाजाही प्रतिबंधित-वर्जित हैं।ऐसे में कैसे राष्ट्र का स्वरूप उभरता है? इसलिए पहले और आज के स्वरूप में कोई विशेष अंतर नहीं आया है।बल्कि कुछ मामलों में सामाजिक वर्जनाओं का शिकंजा और भी ज्यादा सख्त हुआ है।जाति आधारित सुनियोजित असमानता, अन्याय, अत्याचार तथा हिंसा का दायरा बढ़कर और भी कंटीला एवं त्रासद हुआ है।वर्तमान दौर के ‘राष्ट्र’ के नए स्वरूप में दलितों की स्थिति में कोई बुनियादी बदलाव नहीं आया है।तथापि दलितों ने अम्बेडकरवादी वैचारिकी को आधार बनाकर राष्ट्र के पुनर्निर्माण की पहल को जारी रखा है।
(६) भारतीय भाषा साहित्य में आज जितने भी विमर्श प्रकाश में हैं, उन सभी के बीच निश्चय ही सेतु बन सकता है और धीरे-धीरे बन भी रहा है।इन सभी विमर्शों के उभरने की वजह क्या है? इसके उत्तर में आप पाएंगे कि वर्चस्ववादी सत्ता एवं संस्कृति की मानसिकता के प्रतिरोध में ही ये विमर्श केंद्र में आए हैं।ग़ौरतलब यह भी है कि संपूर्ण वंचित समाज वर्चस्ववादी सत्ता के सताए हुए हैं।सभी के शत्रु कॉमन हैं।वर्चस्ववादी संस्कृति के पोषक ही सत्ता के केंद्र में हैं, यदि इसकी समझ सभी विमर्शकारों को होने लगेगी, तो स्वतः ही सेतु बनने लगेगा।जिन्होंने समझ लिया है, वे एक मंच पर आने लगे हैं।
स्वानुभूति का संबंध प्रामाणिकता से है।इसका अपना ऐतिहासिक एवं साहित्यिक महत्व है।भुक्तभोगियों की यातनादायी इतिहास की कलम से लिखे हुए का महत्व सर्वदा भिन्न रहेगा।स्वानुभूतिपरक लेखन में विन्यस्त इतिहास, दर्शन, साहित्य, समाज, संस्कृति और वैचारिकी के परिप्रेक्ष्य को परखे बिना इसकी व्यापकता को नहीं समझा जा सकता है।हालांकि दलित साहित्य लेखन की अभिव्यक्ति खुद ही स्वानुभूति को विस्तार दे चुकी है।गैर दलित समाज की संवेदनाओं को दलित साहित्य ने बहुत पहले ही अपना विषय बना लिया था।उदाहरण के तौर पर ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जिनावर’ और मोहनदास नैमिशराय की ‘महाशूद्र’ कहानी को रेखांकित किया जा सकता है।
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