कवि और पत्रकार।सीएसडीएस की पत्रिका ‘प्रतिमान’ से संबद्ध।
साहित्य का भविष्य धीरे-धीरे गंभीर चिंतन का विषय बन गया है।बड़े साहित्य उत्सवों ने इसके भविष्य के संबंध में कुछ नए संकेत दिए हैं, जिनपर विस्तृत चर्चा जरूरी है।मैंने प्रयास किया, पर फेस्टिवल में जाने के अवसर और मित्रों को खोने के डर से कई लोगों ने इस परिचर्चा में लिखने से इंकार कर दिया।हम विचार के संकट के दौर से गुजर रहे हैं।इसके बावजूद काफी लोग इस परिचर्चा में शामिल हैं, जिससे बहस और आत्मनिरीक्षण का माहौल बन सकता है।
परंपरा, संस्कृति, और जातीय भावना पर्यायवाची नहीं हैं, किंतु राजनीतिकरण की प्रक्रिया ने उनके अंतर को धुंधला कर दिया है।एक नई चुनौती सामने खड़ी है।हम अपने को अति-बाजारोन्मुख होने से कितना बचा सकते हैं, यह एक प्रमुख सवाल है।प्रबुद्ध और सामान्य पाठक के बीच की खाई जितनी कम होती जाएगी, साहित्य का मुहावरा भी बदलता जाएगा।हम चाहते हैं कि साहित्य के प्रति लोग जाग्रत हों, इस उद्देश्य से यह परिचर्चा है।
सवाल
(१) दिल्ली के ‘आजतक साहित्य उत्सव’ से संबंधित अपने अनुभव बताएँ।यदि आपकी मुलाक़ात आपके किसी पाठक से हुई तो उससे क्या बात हुई, और सामान्यतः ऐसे साहित्य उत्सवों से कौन सा बड़ा लक्ष्य सिद्ध हो सकता है? यदि आप न गए हों तो ऐसे साहित्योत्सवों के संबंध में अपने विचार बताएं।
(२) यदि आप गए हैं तो आपने इस साहित्य उत्सव में क्या कहा है? एक लेखक सामान्यतः साहित्य उत्सवों में कुछ कहते हुए स्वाधीनता का कितना अनुभव करता है और कैसा दबाव महसूस करता है?
(३) आपने इस या ऐसे साहित्य उत्सव में यदि कुछ खास उल्लेखनीय देखा हो जिसके बारे में आप कुछ कहना चाहते/चाहती हों, तो बताएँ।
(४) अब हिंदी में जगह -जगह साहित्य उत्सव हो रहे हैं, इन्हें कैसे अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है? पुस्तक मेला और ऐसे साहित्य उत्सवों में आपको ज्यादा उपयोगी क्या लगता है?
(५) साहित्य उत्सवों पर यदि आप कुछ और कहना चाहें तो बताएं।
![]() |
भगवान दास मोरवाल प्रसिद्ध कथाकार।अद्यतन उपन्यास ‘शकुंतिका’। |
दैनिक अखबारों की साहित्यिक रिक्तता को भरने का प्रयास है साहित्य उत्सव
(१) मुझे पहली बार साल २०१८ में आयोजित तीसरे साहित्योत्सव ‘साहित्य आजतक’ में बतौर एक लेखक आमंत्रित किया गया था।उसके बाद हाल में संपन्न हुए साहित्योत्सव तक लगातार आमंत्रित किया जाता रहा है।मैं बताना चाहूंगा कि इन्हीं तारीख़ों में आयोजित दो बड़े साहित्योत्सवों में मुझे आमंत्रित होने का अवसर मिला।पहला था ‘साहित्य आजतक’ और दूसरा था मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में संपन्न हुआ टैगोर अंतरराष्ट्रीय साहित्य एवं कला महोत्सव ‘विश्वरंग २०२२’।मेरा मानना यह है कि जयपुर में आयोजित होनेवाले ‘जयपुर साहित्योत्सव’ के बाद ये दोनों उत्सव सबसे बड़े साहित्योत्सव हैं।बल्कि मेरा अनुभव यह रहा है कि ‘साहित्य आजतक’ और ‘विश्वरंग’, ‘जयपुर साहित्योत्सव’ की अपेक्षा हिंदी साहित्य को कहीं अधिक प्रतिनिधित्व प्रदान करते हैं। ‘जयपुर साहित्योत्सव’ में जहाँ अंग्रेज़ी साहित्य और साहित्यिक कुलीनता का वर्चस्व नजर आता है, वहीं ‘साहित्य आजतक’ और ‘विश्वरंग’ हिंदी के अलक्षित और उपेक्षित लेखकों के साथ-साथ हर वर्ग के लेखक को मंच प्रदान करते हैं।
ये दोनों उत्सव एक तरह से सभी वर्ग के लेखकों के साहित्योत्सव का रूप ले चुके हैं।इनमें लेखक को उसकी अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता प्रदान की जाती है।यह महज कोई संयोग नहीं है कि जिन दिनों दिल्ली और भोपाल में दो बड़े साहित्योत्सव चल रहे थे, वहीं कोलकाता में भी एक बड़ा साहित्योत्सव ‘लिटेरेरिया’ चल रहा था।इतना ही नहीं इसी कोलकाता में २८वां हिंदी मेला- अर्थात, राष्ट्रीय संस्कृति का सात दिवसीय युवा अभियान भी पिछले माह दिसंबर में संपन्न हो चुका है।एक साथ इतने साहित्योत्सवों का आयोजन मेरी नजर में साहित्य के लिए एक अच्छा संकेत है।
जहां तक ऐसे आयोजनों में अपने पाठकों से मिलने की बात है तो कोई न कोई पाठक मिल ही जाता है।
‘साहित्य आजतक’ साहित्य के साथ-साथ दूसरे क्षेत्र के संस्कृतिकर्मियों और कलाकारों को भी आमंत्रित करता है।यहां मैं बता दूं कि ‘साहित्य आजतक’ का सबसे बड़ा दर्शक वह युवा वर्ग होता है, जो फिल्मी कलाकारों और मंचीय कवियों से बेहद प्रभावित रहता है।उनका आकर्षण साहित्यकारों की अपेक्षा इनके प्रति अधिक रहता है।
एक बात और, चूंकि यह साहित्योत्सव सबसे पुराने न्यूज़ चैनल का आयोजन है और अपने सारे सत्रों का सीधा प्रसारण भी करता है, इसलिए इसका विशेष महत्व है।इतना ही नहीं, इसके सारे सत्रों की रिकॉर्डिंग इनके यूट्यूब चैनल पर उपलब्ध होती है, जिन्हें आप बाद में भी देख सकते हैं।
एक तरह से देखा जाए तो जहां हमारे दैनिक समाचार पत्रों से साहित्य लगभग समाप्त कर दिया गया है, लघु पत्रिकाएं आर्थिक संसाधनों के अभाव में तेजी से दम तोड़ रही हैं, ‘आजतक’ उस रिक्तता को भरने का प्रयास कर रहा है।हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘इंडिया टुडे’ जैसी समाचार पत्रिका ने उस धारणा को तोड़ दिया था कि समाचार पत्रिकाओं में साहित्य नहीं छप सकता।यह पत्रिका भी संयोग से उसी ग्रुप की है जिसका न्यूज़ चैनल ‘आजतक’ है। ‘इंडिया टुडे’ के साहित्य वार्षिकों को भला कौन भूल सकता है?
(२) मुझे याद है साल २०१८ में हमारे सत्र का विषय था ‘साहित्य में मुस्लिम समाज’।मेरे अलावा इसमें प्रसिद्ध कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह और दूरदर्शन में सालों तक उर्दू अदब के बेहद लोकप्रिय कार्यक्रम ‘बज़्म’ के निर्माता अंजुम उस्मानी थे।जबकि संचालन कर रहे थे आजतक चैनल के एक क्राइम रिपोर्टर।संचालक ने जब मेरा परिचय यह कहकर दिया कि मैं उस मेवात से हूँ जहां क्राइम बहुत होते हैं, तब मैंने भरे सभागार में इसका जमकर प्रतिरोध किया कि आप मेवात जैसे शांतिप्रिय क्षेत्र के बारे में ऐसी धारणा न बनाएं।इसी तरह २०१९ के ‘साहित्य आजतक’ के एक सत्र में मैंने उन्हीं दिनों मेवात के पहलू खां और अख़लाक़ की हुई मॉब लिंचिंग में की गई हत्याओं का खुले मंच से प्रतिरोध किया था।मैंने एक लेखक के रूप में मेवात के बहाने देश में अल्पसंख्यकों के बारे में बनाए जा रहे झूठे नैरेटिव का खंडन किया था।सांप्रदायिकता के विरुद्ध अपना प्रतिरोध जताया था।
आपको सुनकर हैरानी होगी कि मुझे २०१८ के इस सत्र का स्क्रीनशॉट मेरे स्कूल के दिनों के एक सहपाठी ने स्विट्ज़रलैंड से भेजा था।इतना ही नहीं, संयोग से मेरे कस्बे में एक चाय की दुकान पर बैठे बहुत से लोगों ने भी इसे देखा था।कहने का आशय यह है कि मैं इस खुले मंच से जो बात कहना चाहता था, कही।और जिन्हें मैं यह सब सुनाना चाह रहा था, उन्होंने सुनी।
(३) लेखक मंचों के अलावा मैंने जो देखा और अनुभव किया उसे मैं जरूर साझा करना चाहूंगा।इस उत्सव में मैंने युवा वर्ग की अभिरुचियों में आए बदलावों को महसूस किया।सबसे बड़ा बदलाव यह देखा कि वे अपने प्रिय कवि, शायर, लेखकों और कलाकारों को नजदीक से देखना चाहते हैं।वे टीवी या सिनेमा के पर्दों पर जिन्हें सिर्फ देखते रहे हैं, या जिनकी रचनाओं को पुस्तकों या समाचार पत्रों में पढ़ते रहे हैं, जब इनके सामने आते हैं तो उनके आह्लाद की कोई सीमा नहीं होती।लोकप्रियता किस तरह उनके सर चढ़कर बोलती है, उसे तब देखा जा सकता है, जब जावेद अख्तर, गुलजार, दीप्ति नवल जैसे आमंत्रित हस्तियों के पीछे युवाओं की भीड़ दौड़ती नजर आती है।
लेखक भले ही फिल्मी सितारों की तरह सेलिब्रिटी न हो, लेकिन इस साहित्योत्सव में आपको बहुत से दर्शक और श्रोता साहित्यिक सत्रों को सुनते हुए नजर आ जाएंगे।यहां लगनेवाले पुस्तकों के स्टाल पर किताबों के पन्नों को उलटते-पुलटते हुए दिखाई दे जाएंगे।दरअसल ऐसे उत्सव कला, साहित्य और संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले आयोजन होते हैं।हम इनसे केवल साहित्य को प्रचारित-प्रसारित करनेवाले आयोजन की अपेक्षा करें, यह संभव ही नहीं है।
साहित्य के आलावा आयोजकों का उद्धेश्य हर वर्ग की रुचि-अभिरुचि को साधने का भी होता है। ‘जयपुर साहित्योत्सव’ ने जिस तरह साहित्य के नाम पर अपने आयोजन को एक ग्लोबल मंडी या कहिए वैश्विक बाजार में तब्दील कर दिया है, ‘साहित्य आजतक’ उससे बचा हुआ है।मेरा मानना है कि ‘साहित्य आजतक’ ऐसा करेगा भी नहीं।यह उस कुलीन भाव से अभी तक तो बचा हुआ है, जिस कुलीनता के शिकंजे में ‘जयपुर साहित्योत्सव’ फंस चुका है। ‘साहित्य आजतक’ का लक्ष्य और उद्धेश्य अपने इस साहित्योत्सव से धनोपार्जन है भी नहीं।
(४) आज हमें जगह-जगह जितने साहित्योत्सव दिखाई दे रहे हैं, उनकी संख्या बहुत कम है।कोरोना काल से पूर्व यानी साल २०१९ तक इस देश में लगभग ३२५ साहित्योत्सव होते थे।कोरोना ने इस देश को जितनी क्षति आर्थिक क्षेत्र और रोजगार के स्तर पर पहुंचाई है, उससे अधिक शिक्षा और साहित्य तथा कला के क्षेत्र में भी पहुंचाई है।इसका असर सबसे अधिक उन साहित्योत्सवों पर पड़ा, जो छोटे शहरों में आयोजित होते थे।साहित्य उत्सवों से पठन-पाठन की एक नई संस्कृति पनपने लगी थी।इन्हें कैसे अधिक से अधिक उपयोगी बनाया जाए, इसके बहाने उन दिनों नए-नए प्रयोगों की शुरुआत हो चुकी थी।उदाहरण के लिए इनका सबसे अधिक उपयोग उन दिनों प्रकाशित होनेवाली पुस्तकों के प्रचार के रूप में किया जा सकता है।इस बार साहित्योत्सव में मैंने वाणी प्रकाशन से दो खंडों में प्रकाशित होनेवाली अपनी संपूर्ण कहानियों की पुस्तकों के आवरण का, अपने सत्र के दो वरिष्ठ कथाकार नासिरा शर्मा और अब्दुल बिस्मिल्लाह के कर-कमलों से लोकार्पण कराया।आपको जानकार सुखद आश्चर्य होगा कि साहित्योत्सवों के मंचों पर अब नई पुस्तकों का लोकार्पण खूब होने लगा है।
मेरा मानना है कि लेखकों, प्रकाशन गृह और हमारे लेखक संघों को इन साहित्योत्सवों के साथ मिलकर ऐसी योजनाएं बनानी चाहिए जिनसे पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा मिल सके।इनमें आमंत्रित कलाकारों और संस्कृति कर्मियों के साथ मिल बैठकर इसपर विचार होना चाहिए कि कैसे साहित्य और पुस्तक संस्कृति को बढ़ावा दिया जाए।क्योंकि अपने साहित्य, समाज, कला और संस्कृति को जानने और समझने का इनसे बेहतर दूसरा मंच कोई और नहीं हो सकता।अपने लेखकों-साहित्यकारों से मिलने और विचारोत्तेजक बहसों, साहित्य के नए आयाम, तथा समकालीन विमर्शों से दो-चार होने के ये सबसे उचित और आधुनिक माध्यम हैं।हमें इनका भरपूर उपयोग करना चाहिए।प्रौद्योगिकी के बदलते स्वरूपों और औजारों के साथ हमें इनके साथ चलना चाहिए।
मेरी नजर में पुस्तक मेले और साहित्योत्सव दोनों की भूमिका बराबर है।पुस्तक मेले जहां विशुद्ध रूप से पुस्तकों के मेले होते हैं, साहित्योत्सव साहित्य के साथ-साथ कला और संस्कृति के संवाहक होते हैं।यह जरूरी भी है, क्योंकि साहित्य सृजन बिना जीवन, कला और संस्कृति के संभव नहीं है।ये सब एक-दूसरे के पूरक हैं।
WZ-745G, दादा देव रोड, नजदीक बाटा चौक, पालम, नई दिल्ली-110045 मो. 9971817173
![]() |
नरेश सक्सेना सुपरिचित कवि।चर्चित कविता संग्रह ‘समुद्र पर हो रही है बारिश’। |
फिलहाल जो स्थिति है क्या मैदान खाली छोड़ देने चाहिए?
(१)‘साहित्य आजतक’ के उत्सव में युवा पाठक और श्रोता हजारों की संख्या में मौजूद थे जो अलग-अलग पंडालों में बंटे थे।हम अपने शहर में हों या किसी और शहर के साहित्यिक कार्यक्रम में, तो वहां औसतन सौ-सवा सौ श्रोता होते हैं।इस कार्यक्रम में कई गुना अधिक श्रोता थे।कार्यक्रम के बाद मुझसे चालीस-पचास श्रोता मिलने के लिए आए जो ऑटोग्राफ या साथ में फोटो लेना चाहते थे।उनमें से एक का नाम उदय था।वे मुश्किल से पंद्रह-सोलह बरस के होंगे और अपना एक साहित्यिक चैनल भी चलाते हैं।इसपर वे अशोक वाजपेयी, मैत्रेयी पुष्पा आदि का इंटरव्यू प्रसारित कर चुके हैं।वे अक्सर फोन पर मुझसे बात करते रहते हैं।
उनमें राधा थीं जो अनुवाद का पोस्ट ग्रैजुएट डिप्लोमा कर चुकी हैं।उन्होंने वादा किया कि मेरी कविताओं के अंग्रेजी अनुवाद करेंगी।इससे पहले वे प्रगतिशील लेखक संघ, दिल्ली के सम्मेलन में मिल चुकी थीं।
दिल्ली में ही पंकज, कल्पना और दिव्या मिले थे जिनमें से पहले दो हिंदी और दिव्या भौतिक विज्ञान की छात्रा हैं।मुझे तत्काल जबलपुर की ट्रेन पकड़नी थी, इसलिए ज्यादा देर श्रोताओं के बीच नहीं रह सका।इन श्रोताओं में युवाओं के साथ कुछ मध्य वय के लोग भी थे, जिन्होंने साथ में फोटो खिंचवाए।
इसके अलावा, कुछ ऐसे भी थे जो विरोध करना चाहते थे लेकिन प्रशंसकों की संख्या अधिक देखकर जय श्री राम का नारा लगाते हुए पलायन कर गए।हालांकि मैंने चुनौतीपूर्ण स्वर में उन्हें पुकारा लेकिन वे रुके नहीं।
(२) अच्छी चीजें भारी संकट में हैं।परसाई जी की बात को याद करते हुए मैंने अपने वक्तव्य में कहा कि अच्छी कविता पर सजा भी मिल सकती है।इस देश की शीर्ष सत्ता घृणा फैला रही है और झूठ बोल रही है।इतना झूठ इस देश में कभी नहीं बोला गया।सारे अखबार और सारे न्यूज चैनल इसमें शामिल हैं।अकेला एनडीटीवी बचा था, उसे भी खरीद लिया गया है।उसे कौन खरीद रहा है और क्यों? यह सब जानते हैं।
इस समय किताबों, पत्रिकाओं और कविता की जगह सिमट रही है, किसी भी रेलवे प्लेटफार्म पर अब आप कोई पत्रिका या अखबार नहीं खरीद सकते।कविता का रिश्ता सत्य से, सौंदर्य और संवेदना से हैं और यही सबसे ज्यादा खतरे में है।
मैंने अपनी एक कविता सुनाकर यह भी बताया कि मनुष्य भले भूल जाता हो, वनस्पतियां नहीं भूलतीं और श्रोताओं को पुकार कर कहा भूलना मत और आमिर अजीज को याद रखना कि सब कुछ याद रखा जाएगा।
श्रोताओं का समर्थन जबरदस्त था, लेकिन उन्हीं में कुछ उग्र विरोध के स्वर भी थे।उनमें से एक सज्जन तो मंच पर चढ़कर विरोध भी करना चाह रहे थे, जिन्हें ‘साहित्य आजतक’ के दो सुरक्षाकर्मियों ने वापिस बिठाया।
(३) साहित्य उत्सव में कम से कम पंद्रह-बीस हजार युवा रहे होंगे जो पुस्तक विमोचन, लेखक से मिलिए और स्टैंड अप कॉमेडी के मंचों में बंटे थे और बाकी यहां-वहां घूम रहे थे।हमारे ठीक सामने जाकिर खान का कॉमेडी शो चल रहा था।वहां सबसे ज्यादा भीड़ थी और वहां से बहुत शोर आ रहा था।लेकिन जो श्रोता काव्य पाठ सुनने आए थे, वे अविचलित होकर कविताएं और वक्तव्य सुन रहे थे।
यह भी देखा कि कार्यक्रम के बाद मेरी सुरक्षा की चिंता में दो गार्ड, मेरे चले जाने तक मुस्तैदी से मेरे साथ रहे।
(४) यह समझना जरूरी है कि वर्तमान सरकार को साहित्य से अरुचि है और वह इससे खतरा अनुभव करती है।पुस्तक मेले भी प्रकाशकों के व्यावसायिक दबाव के कारण संभव हो रहे हैं।इस समय सरकारी स्कूल हजारों की संख्या में बंद करवाए जा रहे हैं, उनकी जगह महंगे इंग्लिश मीडियम स्कूल खुल रहे हैं।यह सरकार चाहती नहीं कि साधारण लोगों के बच्चे पढ़े-लिखें।इस अमृत वर्ष में आज भी ३५ प्रतिशत बच्चे कुपोषण के मारे हुए हैं।गुजरात के २५ प्रतिशत बच्चों को ‘वास्टेड’ की श्रेणी में रखा गया है।इसे देश के लिए मॉडेल यानी अनुकरणीय बताया जा रहा है।
यह समझना कि ‘आजतक’ के मंच से निंदा का अवसर देने से उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है, पूर्ण सत्य नहीं है।ये चैनल प्रतिष्ठा के लिए नहीं, पैसा कमाने के लिए चलाए जाते हैं।यदि प्रतिष्ठा मिलती तो ये रोज कविता पाठ करवाते।इन्हें साहित्यकारों की नहीं, सलमान खान, शाहरुख खान, अक्षय कुमार, प्रियंका चोपड़ा, सचिन तेंदुलकर, विराट कोहली या सांप्रदायिक प्रचार करनवाले राजनेताओें की जरूरत होती है।मेरे जैसे साहित्यकार को जिसका पहला संस्करण दस साल तक नहीं बिक पाता, अपनी हैसियत के बारे में बदगुमान नहीं होना चाहिए।
दूसरी बात यह कि जीवन सिंह ने कहा है कि जैसे घर सूना छोड़ देने से उसमें चोर घुस आते हैं वैसे ही मैं कहता हूँ कि कविता का मंच सूना छोड़ देने से उसे चुटकुलेबाजों, गवैयों और चीन-पाकिस्तान के खिलाफ दहाड़ने वाले तुकबाज हथिया लेते हैं।
‘आजतक’ द्वारा ही इंडिया टुडे की वार्षिकी प्रकाशित होती है।उसमें छपने से क्या इंकार नहीं करना चाहिए?
केरल, बिहार, पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के अनेक पाठ्यक्रमों में मेरी कविताएं लगी हैं।यदि उनके साथ गोडसे के पाठ शामिल कर दिए जाएं तो क्या वहां से अपनी रचनाएं वापस नहीं ले लेना चाहिए?
ज्यादातर विश्वविद्यालयों के कुलपतियों का स्तर आप जानते हैं।झांसी में, मैं साहित्य उत्सव का उद्घाटन करने गया था।वहां के कुलपति तो हनुमान चालीसा में स्पेस साइंस होने का उल्लेख कर रहे थे।वहां के विद्यार्थी क्या करें?
मैं सहमत हूँ कि ऐसे सभी कार्यक्रमों का साहित्यकारों द्वारा देशव्यापी, सामूहिक बहिष्कार करना चाहिए।साहित्यकारों की संख्या और सामूहिक शक्ति कम नहीं है।मैं इसकी कोशिश स्वयं कर रहा हूँ, लेकिन मुझे आशंका है और थोड़ी बहुत जानकारी भी है कि हिंदी के लेखक एक होने के लिए आसानी से तैयार नहीं होंगे।फिलहाल जो स्थिति है क्या उसमें मैदान खाली छोड़ देने चाहिए?
विवेक खंड, २५–गोमती नगर, लखनऊ–२२६०१० मो.९४५०३९०२४१
![]() |
मैत्रेयी पुष्पा मुखर स्त्रीवादी कथाकार। प्रसिद्ध कृतियाँ ‘चाक’, ‘अल्मा कबूतरी’ और कई अन्य। |
अपनी बात कहने की जगह जहां मिले जाना चाहिए
हम साहित्य ‘आज तक’ के मंच पर गए थे।तरह तरह के प्रोग्राम थे, संगीत के, गीत के और साहित्य के।हम तो साहित्य के लिए गए थे।बहुत साहित्यकार मिले, यह अच्छा लगा।हमारे लिए भी मंच था।वरिष्ठ साहित्यकार मृदुला गर्ग के साथ हम थे।मृदुला जी ने अपनी बात कही और हमने अपनी, जो गांवों पर घटित होती है।अपनी बात कहने का अपना महत्व होता है कि जो हम चाहते हैं और अपने श्रोताओं को भी शामिल पाते हैं।हमें यानी मुझे अच्छा लगा कि हम अपने ग्रामबहुल देश की बात राजधानी में कह पाए। ‘साहित्य आज तक’ के प्रोग्राम होने ही चाहिए, क्योंकि इन कार्यक्रमों से ताजगी का अहसास होता है।अब यह किसने किया, कौन इसके पीछे था या किसने इस प्रोग्राम का बहिष्कार किया, यह पता लगाना मैं बहुत ज़रूरी नहीं समझती।क्योंकि हमें जहां मौका मिलता है, जनता के लिए जनता की बात लिखते और बोलते हैं।जरूरी नहीं कि हर जगह आपकी मनचाही सुविधाओं से लैस हो।हमें तो बीहड़ों में भी अपनी बात कहने जाना होता है, क्योंकि किस्से और कहानियां तो उन डाकुओं की भी आपबीती पर लिखी जाती हैं, जिन्हें अपराध की श्रेणी में डाला जाता है।
मेरा मानना यही है कि साहित्य सुविधाओं पर आश्रित नहीं होता।अपनी बात कहने की जगह जहां मिले वहां जाना चाहिए।मैं ‘साहित्य आज तक’ के मंच पर अपनी इच्छा से गई और अपनी बात कह पाई, यह महत्वपूर्ण है मेरे लिए।वहां क्या कमी थी, मैं नहीं देख पाई।
पाठक तो थे ही वहां।हमें पहचान भी रहे थे।यह अलग बात है कि इतना समय नहीं था कि हम एक एक पाठक से बात कर पाते।
साहित्य आज तक जैसे कार्यक्रम में लेखकों और पाठकों के अलावा उन साहित्य प्रेमियों की आवा-जाही रहती है जो लेखकों से बात करना चाहते हैं, मगर शांत जगह नहीं मिलती।हां, वे अपनी दिली इच्छा जताते हैं, यही किसी लेखक के लिए पुस्तक प्रेमियों की ओर से उपहार होता है।यह बात कम महत्वपूर्ण नहीं है कि इस तरह का साहित्यिक वातावरण जन सामान्य के लिए उपलब्ध कराया जाए।साहित्य को आगे बढ़ाने वाला ऐसा सिलसिला चलते रहना चाहिए।
साहित्य के लिए एक ही मंच तो नहीं होता, जगह-जगह साहित्य के मंच होते हैं।ऐसा न हो तो रचनाकारों की आवाज और लेखनी दूर तक कैसे पहुंचे।लेखकों और कवियों के जागरूक स्वरों से आम आदमी भी प्रभावित होता है, क्योंकि इनसे उसको जीवन मूल्यों का ज्ञान होता है।
सी – ८, सेक्टर १९, नोएडा, उ.प्र. मो.०९९१०४१२६८०
![]() |
राजेश जोशी सुप्रसिद्ध हिंदी कवि।प्रतिष्ठित राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित।अद्यतन कविता संग्रह ‘जिद’। |
साहित्य में नई रणनीतियों की ज़रूरत है
नई आर्थिक नीति और उसके बाजारवाद ने साहित्यिक और सांस्कृतिक आयोजनों के स्वरूप को बदल डाला है।कुछ भी अब उसके प्रभाव से पूरी तरह मुक्त नहीं है।इससे पहले कि इन आयोजनों को कौन सी शक्तियां या व्यापारिक घराने आर्थिक मदद पहुंचा रहे हैं, यह जानना जरूरी है कि किस तरह के परिवर्तन साहित्यिक और सांस्कृतिक परिद़ृश्य और उसके आयोजनों में हो रहे हैं।लिट फैस्ट या रंग उत्सवों के नाम पर हो रहे इन आयोजनों को बारीक ढंग से देखने-परखने की जरूरत है।
मैंने जिन बदलावों को देखा और समझा है, मैं उनके बारे में बहुत संक्षेप में बताना चाहता हूँ।
१. विचारधारा की बहसों को ठंडे बस्ते में रख दिया गया है और इन आयोजनों की खुली स्पेस के भ्रम में सभी विचारधाराओं के लेखक आराम से शामिल किए जा रहे हैं।लगता है जैसे सारे वैचारिक टकराव स्थगित हो गए हैं।
२. इन आयोजनों मेंं गैर विचारधारात्मक ललित और क्लासिकल प्रदर्शनकारी कलाओं की स्पेस को बढ़ा कर शब्द और विचार की कलाओं की जगह को सीमित किया जा रहा है।
३. इन आयोजनों में पापुलिस्ट प्रदर्शनकारी कलाओं ने क्लासिकल कलाओं की स्पेस को लगातार सीमित कर दिया है।अब क्लासिकल गायन और नृत्य इन लिटफैस्टों में लगभग हाशिये पर हैं।फिल्मी और लोकप्रिय कलाकार और लेखक इन आयोजनों के वास्तविक सेलिब्रिटी हैं।
४. पापुलिस्ट या लोकप्रियतावादी साहित्य ने गंभीर साहित्य और साहित्यिक बहसों को हाशिये पर धकेल दिया है।कहा जा सकता है कि ये सारे लिटफैस्ट और रंग उत्सव लेखकों की भीड़ तो लगा रहे हैं पर वैचारिक मुद्दोेंं पर बहस के लिए वहां न समय है न माहौल है।बाहरी तौर पर देखने में ये साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजन बहुत खुले हुए नजर आ सकते हैं।
इन आयोजनों को दक्षिणपंथी सरकारों, कार्पोरेट घरानों और कई तरह के व्यापारिक घरानों से अपार धन मिल रहा है।इनमें धन की कोई कमी नहीं है।इनमें आने वाले सभी लेखकों, कलाकारों को बहुत अच्छी सुविधाएं प्रदान की जा रही हैं।विचारधाराओं से जुड़े लेखक संघों के पास इतने साधन नहीं हैं कि वे इनका मुकाबला कर सकें।समांतर आयोजन भी इनके सामने फीके ही हैं।
सोवियत संघ के विघटन के बाद विचारधाराओं से जुड़े संगठनों ने इन खतरों से जूझने के लिए न तो कोई नई रणनीति तैयार की, न नए औजार ईजाद किए।राजनीति के साथ रणनीति भी आवश्यक होती है, यह बात लगता है भुला दी गई है।इसलिए छोटी-छोटी लेकिन प्रभावशाली प्रतिरोध की कार्रवाइयों पर जो सिद्धांत बघारे जा रहे हैं, उन्हें देख कर अफसोस ही किया जा सकता है।लड़ाई में अनेक बार अवसर के अनुसार रणनीतियां बनाई जाती हैं।और उनका उपयोग भी करना होता है।
मुझे लगता है कि इन कार्यक्रमों में हिस्सेदारी के बारे में गंभीर बहस की जरूरत है।और इस समय, इन ताकतों से लड़ने के लिए हर दिन नई रणनीति जरूरी है।
११ निराला नगर, भदभदा रोड, भोपाल ४६२००३ मो.९४२४५७९२७७
![]() |
वीरेंद्र यादव प्रसिद्ध आलोचक। ‘उपन्यास और देस’, ‘विवाद नहीं हस्तक्षेप’ , ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता’ चर्चित पुस्तकें। |
ऐसे साहित्य उत्सव साहित्य के मंच नहीं हैं
विगत कुछ वर्षों से शहर-दर-शहर ‘लिटरेचर फेस्टिवल’ का चलन जिस तेजी से बढ़ा है, उसी अनुपात में गंभीर साहित्य के मुद्दे तथा चर्चाएं उससे अनुपस्थित होते जा रहे हैं।इन उत्सवों में कार्पोरेट पूंजी और विज्ञापन की आमद ने गंभीरता को विस्थापित कर मनोरंजन तथा सेलिब्रिटी कल्चर की केंद्रीयता स्थापित कर दी है।
विज्ञापन, चमचमाते होर्डिंग तथा रंगबिरंगें तोरण द्वारों से सजा फेस्टिवल स्थल भव्यता और भड़कीलेपन का ऐसा वातावरण निर्मित करता है जिसमें सेलुलाइड व पापुलर मंच के जाने-पहचाने चेहरों की जगमग अपेक्षित व स्वाभाविक लगती हैं।यहां जावेद अख्तर, नसीरुद्दीन शाह, गुलज़ार से लेकर आमीश त्रिपाठी, चेतन भगत और कुमार विश्वास सरीखे व्यक्तित्वों तक की मांग और पूर्ति रहती है।यानी साहित्य के इस बाजार में जो बिकता है वही सजता है।बिकते मुरारी बापू भी हैं, इसलिए वे भी अपनी संत आभा के साथ अक्सर इन कथित साहित्य उत्सवों में अब सुशोभित होने लगे हैं।कुमार विश्वास का कवि कर्म फीका न पड़ जाए, इसलिए अब वे भी इन मंचों पर कविताई के साथ-साथ राम-चर्चा का तड़का लगाने लगे हैं।
गोया कि अब साहित्य के पैकेज में यह एक ऐसा मेला है जहां आप मंचीय कविता, फिल्मी शेरो शायरी से लेकर आध्यात्मिक गुरुओं तक का लुत्फ उठा सकते हैं। ‘वर्दी वाला गुंडा’ फेम के सुरेंद्र मोहन पाठक भी यहां सुर्खरू हो सकते हैं और दीप्ति नवल भी अपनी सौम्य छवि के साथ उपस्थित हो सकती हैं।मतलब कि यह सेलेब्रिटी और स्पांसरशिप का खेल अधिक है, साहित्य और संस्कृति का कम।
इस तरह के उत्सव और आयोजन होते रहने में कोई दिक्कत नही है, बशर्ते इसे लेकर गंभीर साहित्य के मंच का भ्रम न पाला जाए।बड़े शहरों की तर्ज पर अब छोटे शहरों में भी इस तरह के लिट्फेस्ट की शुरुआत हो गई है।इन मंचों पर शिरकत करना जहां कुछ लोगों के लिए सामाजिक स्वीकार्यता का द्योतक बन गया है, वहीं कुछ लोग इसे स्टैटॅस सिंबल के रूप में लहराते हैं।इस प्रक्रिया में गंभीर साहित्यिक प्रयास नेपथ्य में चले जाते हैं।ऐसे प्रयासों के प्रति न सहयोगी भाव रहता है न उत्साह।यह सचमुच विडंबनात्मक है कि साहित्य के नाम पर उत्सव तो होते हैं, लेकिन साहित्य के सरोकार नदारद रहते हैं।
हिंदी साहित्य-समाज में विगत वर्षों में कुछ ऐसे आयोजन हुए, जिनसे साहित्य के नाम पर आयोजित किए जाने वाले इन उत्सवों को लेकर यह बहस उपस्थित हुई कि इनमें गंभीर लेखकों को शामिल होना चाहिए या नहीं।
आठ वर्ष पूर्व दिसंबर २०१४ में छतीसगढ़ सरकार ने अपने शासन के ११ वर्ष पूरे होने पर जो तीन दिवसीय साहित्य महोत्सव आयोजित किया था, वह ऐसा ही एक आयोजन था।उस समय के राज्यपाल, मुख्यमंत्री व मंत्रियों की उपस्थिति से भरे-पूरे उस आयोजन में हिंदी के कई जाने-माने लेखकों ने हवाई यात्रा व पंचसितारा होटल की सुविधा का लुत्फ उठाते हुए भागेदारी की थी।उनका तर्क यह था कि आयोजन में अभिव्यक्ति की आजादी पर कोई बंदिश नहीं थी और उन्होंने वहां वही कहा जो उन्हें कहना था।तब सवाल यह उठा था कि जिस सरकार ने मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और आदिवासियों पर दमनचक्र चला रखा है, उस सरकार को लेखकों द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी का रक्षक होने का प्रमाणपत्र देना कहां तक उचित है!
दरअसल किसी भी मंच पर जाकर अपनी बात कहने का तर्क अपने अवसरवाद को छिपाने की एक कठदलील है, विशेषकर उन लेखकों द्वारा जो प्रतिबद्धता और जनपक्षधरता का दावा करते हैं।ऐसा ही एक अवसर अभी हाल में तब आया जब ‘गोदी मीडिया’ के पद से अभिहीत एक हिंदी न्यूज चैनल ने नई दिल्ली में ‘साहित्य आजतक’ उत्सव का आयोजन किया।संयोग यह कि इस उत्सव में भी कुछ वे चेहरे शामिल थे जो ११ वर्ष पूर्व के रायपुर के उत्सव में भी थे।यहां भी वही तर्क दिया गया कि हमने वहां जाकर अपनी बात कही और अपना प्रतिरोध दर्ज किया।
प्रश्न यह है कि जो मीडिया अहर्निश सत्ता तंत्र के प्रचारक की भूमिका में है, वह आपको ‘प्रतिरोध का दृष्य’ रचने क्यों दे रहा है? इसीलिए न कि उसके एंकर को यह कहने का अवसर मिले कि ‘कहां है अभिव्यक्ति पर पहरा? कहां है फासीवाद? आप तो यहां अपनी बात कह पा रहे हैं।’ दरअसल ऐसे लोग सत्ता रूपी व्हेल द्वारा निगले जा चुके हैं।उन्हें फख्र है कि उन्होंने अपनी बात उनके मंच पर कह दी, लेकिन गोदी मीडिया की उपलब्धि यह है कि वह अपनी निष्पक्षता का भ्रम पैदा करने में सफल रहा।इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि जो मीडिया सत्तातंत्र के ध्वनिविस्तारक की भूमिका में है, वह अपने मंच पर आपको अपनी बात कहने का अभयदान क्यों दे रहा है?
सच यह है कि पंचतारा सत्कार की सुविधा प्रदान कर वे लेखकों से अपनी सत्तापरस्त भूमिका के प्रति वैधता अर्जित कर रहे हैं।लेखकों को गोदी मीडिया द्वारा असहमति को मंच प्रदान करने की उदारता का ब्रैंड अंबैसडर बनने की भूमिका से बचना चाहिए।इन्हीं दिनों भोपाल में एक निजी विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित ‘अंतरराष्ट्रीय साहित्य एवं कला महोत्सव- विश्वरंग’ के उद्घाटन से लेकर समापन महोत्सव तक राज्यपाल से लेकर मंत्रियों तक की मंच पर उपस्थिति सुशोभित होती रही।चर्चा के विषयों में अद्वैतवाद, शंकाराचार्य, भारतीय संस्कृति, भारतीय ज्ञान परंपरा, राष्ट्रीय शिक्षा नीति आदि शामिल थे।
पता नहीं साहित्य एवं कला के उत्सव में इन विषयों को मुख्य सत्र में शामिल किए जाने को लेकर वहां उपस्थित लेखकों के मन में कोई द्वंद्व था या नहीं! वैसे सवाल तो उत्सव के पूर्वरंग के रूप में ‘कश्मीर फाइल्स’ के विवादित फिल्मकार विवेक अग्निहोत्री की पुस्तक के विमोचन को लेकर भी नही थे।जिस दौर में पुस्तकें प्रतिबंधित की जा रही हों, उनपर चर्चाओं को रोका जा रहा हो, लेखकों बौद्धिकों की गिरफ्तारी हो रही हो, निरापद और अमूर्त विषयों पर साहित्य के नाम पर भव्य समारोहों का आयोजन और लेखकों की जुटान लेखकों को उनके सरोकारों तथा समय-संदर्भों से विलग करना है।लेखक समुदाय को इस तरह के आयोजन की उपादेयता और न्यस्त स्वार्थों द्वरा स्वयं के इस्तेमाल किए जाने को लेकर सतर्कता बरतनी चाहिए।विशेषकर तब, जब लेखकीय अभिव्यक्ति पर कड़ी पहरेदारी हो, तो लेखक को अपनी अंतरात्मा की निगहबानी स्वयं करनी होगी।
‘लिटरेचर फेस्टिवल’ अब कार्पोरेट पूंजी और सत्तापरस्त राजनीति के खुले गठबंधन द्वारा संचालित हो रहे हैं।कुछ गंभीर लेखकों की भागेदारी से इसके मूल स्वरूप और प्रयोजन बदलने वाला नहीं है।वहां जितनी तालियां मुरारी बापू, कुमार विश्वास और विवेक अग्निहोत्री के लिए हैं, उतनी हिंदी के गंभीर कवियों के लिए नही हैं।यह तर्क कि जब दूसरे मंच उपलब्ध नहीं हैं तो लेखक कहां जाए, अपने वैचारिक ढुलमुलपन को ढकने की नाकाम कोशिश है।जरूरत है, लेखक संगठनों द्वारा संयुक्त प्रयासों से वैकल्पिक साहित्य मंच तैयार करने की।
विगत वर्षों ‘जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल’ के बरक्स ‘पापुलर लिटरेचर फेस्टिवल’ की पहल एक अच्छी शुरुआत थी।प्रकाशकों तथा लेखकों के संयुक्त प्रयास से पुस्तक मेलों का आयोजन व उनमें गंभीर लेखकों की सक्रिय भागेदारी से भी वैकल्पिक मंच निर्मित किए जा सकते हैं।
प्रेमचंद ने कहा था कि ‘साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है उसका दर्जा इतना न गिराइए।वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलनेवाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलनेवाली सचाई है।’ उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदी के लेखक ‘मनोरंजन’ के उपादान बनने के लोभ का संवरण करते हुए इस चुनौतीपूर्ण समय में अपने सरोकारों के साथ अपने मंचों पर अपनी बात कहने में समर्थ हो सकेंगे।
सी-८५५, इंदिरा नगर,लखनऊ-२२६०१६मो.९४१५३७१८७२
![]() |
मदन कश्यप चर्चित कवि।छह कविता-संग्रह प्रकाशित।अद्यतन संग्रह ‘पनसोखा है इंद्रधनुष’।कविता के लिए शमशेर सम्मान, केदार सम्मान और नागार्जुन पुरस्कार प्राप्त। |
साहित्य उत्सवों को लेकर व्यापक बहस हो
(1)आजतक के इस वर्ष के साहित्य उत्सव में वैसा कुछ नया नहीं था।फारमेट वही पुराना था, सेलिब्रिटियों के भीड़भाड़ वाले मंच, पंडालों में खूब हंगामा और लेखक के छोटे खुले मंचों पर गंभीर चर्चा।ऐंकर भी उसी हिसाब से चुने गए थे और उनकी तैयारियां भी अपेक्षा के अनुकूल ही थीं।पिछले वर्षों के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय कलाकेंद्र की तुलना में इस बार का ध्यानचंद स्टेडियम काफी बड़ा था।इसलिए तथाकथित सेलिब्रिटियों के साथ टकराने की संभावना कम थी।भीड़ भी अधिक थी।मेरा अग्रज कवि राजेश जोशी के साथ काव्यपाठ था।इसमें शामिल होने को लेकर राजेश जी के मन में गहरा संकोच था।हम लोगों के बीच कई बार आपस में टेलीफोन पर बातें भी हुईं।
ऐसा ही संकोच मेरे मन में २०१८ के आयोजन को लेकर था।जब पहली बार ‘साहित्य आजतक’ में शामिल होने का आमंत्रण मिला था।मैं मानता हूँ कि ऐसी जगहों पर जाने या नहीं जाने का निर्णय सामूहिक होना चाहिए, सो तब मैंने फेसबुक पर एक बहस चलाई थी।उस समय कुछ लोगों ने बहिष्कार की बात की थी, लेकिन मंगलेश डबराल से लेकर अशोक पांडेय तक मेरे सभी प्रिय और प्रमुख रचनाकारों की राय यह थी कि सरकारी और सत्ताधारी संगठनों के आयोजनों का बहिष्कार होना चाहिए, मीडिया का नहीं।हमारी उनसे असहमति हो सकती है, पर अपनी बात कहने के लिए उनके मंच पर जाना चाहिए।हां, यदि वे हमारी अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाएं, तब बहिष्कार किया जाना चाहिए।यह पूरी बहस हमने एडवर्ड हर्मेन और नॉम चम्स्की की पुस्तक ‘मनुफैक्चरिंग कांसेंट’ को आधार बना कर चलाई थी।
फेसबुक की स्मृति बहुत कमजोर होती है, लोग बार-बार पुरानी बात को दुहराते हैं।ऐसे में अब जरूरी है कि फेसबुकिया ‘तू-तू मैं-मैं’ से हट कर कुछ लेख लिए जाएं अथवा सेमिनार करके किसी निर्णय तक पहुंचा जाए।संवाद करने के बजाय फेसबुक पर फतवा जारी कर देना, आखिर कौन सा लोकतांत्रिक तरीका है।मैं अपने व्यक्तिगत दुख के कारण फेसबुक बहुत कम देख पा रहा हूँ और पहले की तरह टिप्पणियां नहीं कर रहा हूँ।फिर भी, जब अपने उद्देश्य को भूलकर अरुणाचल प्रदेश की सरकार के साहित्य उत्सव में शामिल होकर लौटे लोग भी ‘साहित्य आजतक’ के बहिष्कार की बात कर कर रहे थे, तो मुझे हँसी आ रही थी।
लोग सरकार की गोदी में बैठ कर गोदी मीडिया का विरोध कर रहे हैं।उसी तरह रजनी गंधा और ऐसी ही वाहियात चीजों का उत्पादन करके सामान्य जन को लूटने वाले व्यापारियों की गोद में बैठे लोग उसके विज्ञापन प्रकाशित करने के लिए आजतक का विरोध कर रहे थे।ऐसे में बिना बहस के हम इसे क्यों मान लें।हां, संगोष्ठी कीजिए, बहस कीजिए फिर किसी निर्णय पर जाइए-स्वागत है।
(२) साहित्य उत्सव में कुछ नए पाठक मिले।हमारे आयोजन में कुल दो-ढाई सौ श्रोता थे।इनमें पचास के आसपास सुपरिचित अग्रज और मित्र रचनाकार थे।बाकी सब युवा और नए पाठक।कुछ भविष्य के लेखक भी होंगे।कुछ शोधार्थियों ने उसके बाद हम लोगों से अलग से लंबी बातचीत भी की।हम कार्यक्रम के समाप्त होने के बाद साथ-साथ घूमते रहे, पुस्तकों के स्टालों तक गए और वे लौटने तक साथ रहे।अभी मैं केवल दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र हर्ष पटेल और अनुपम कौल को याद कर पा रहा हूँ।अस्वस्थता के कारण स्मृति कुछ कमजोर हो गई है।मैं वहां मिलने और देर तक साथ रहने वाले लेखकों, कवियों और पत्रकारों की चर्चा नहीं कर रहा हूँ।
मेरी समझ से यह जानने की तुलना में कि नक्कारखाने में तूती की आवाज कौन सुनता है, यह जानना अधिक जरूरी है कि तूती बोल रही है, या नहीं।
(3) कोई दबाव नहीं था, मैं सह भी नही सकता हूँ।दबाव से बचने के लिए ही अच्छी-खासी सरकारी नौकरी छोड़ दी और जीवन में इतना संकट उठाया, तो अब भला क्या दबाव सहूंगा।इस बार हमारा सब काव्यपाठ तक सीमित था।फिर भी मैंने और राजेश जी ने जो कविताएं चुनीं और उस क्रम में जो टिप्पणियां कीं वह सब ‘आजतक’ के बेवसाइट और यू ट्यूब पर मौजूद है।कोई भी देख-सुन सकता है।मैं अपनी ओर से फेसबुक पर नहीं लगाऊंगा।आत्मप्रचार करने में मुझे अब भी गहरा संकोच होता है।
(4) सेलिब्रिटियों के लिए जगह अधिक थी, हंगामा भी था, उन्हें देखने-सुनने वाले लोग बहुत थे।लेकिन आयोजकों के व्यवहार से स्पष्ट हो रहा था कि साहित्य के महत्व को वे समझते हैं।उन्हें टिकाऊ साहित्य और बिकाऊ साहित्य का अंतर पता है।यह इसलिए संतोषजनक है, क्योंकि अन्य कई आयोजनों में यह विवेक भी नहीं दिखता।फिर भी, इतना तो लगता ही है कि ये लोग बाजार के दबाव से मुक्त नहीं हैं, शायद होना भी नहीं चाहते हैं।
(5) उत्सव हो रहे हैं और होने चाहिए, साहित्य को समाज से जोड़ने के लिए यह जरूरी है।लेकिन उत्सव में अक्सर विवेक का पक्ष कमजोर पड़ जाने का खतरा होता है।विवेकहीन उत्सवधर्मिता से बचने की जरूरत है।एक सजग तैयारी के साथ हमें बेहतर विकल्प का निर्माण करना होगा, अन्यथा आलोचना करते रहने से कोई मतलब नहीं निकलेगा।
पुस्तक मेला और साहित्योत्सव, दोनों में कुछ बदलाव की जरूरत है।
बेतिना–२७८६, महागम मॉडर्न, सेक्टर–७८, नोएडा–२०१३०६ मो.९९९९१५४८२२
![]() |
नरेश गोस्वामी डॉ. बी.आर. अंबेडकर युनिवर्सिटी, दिल्ली के देशिक अभिलेख-अनुसंधान केंद्र (सीआरए-आइआइएलकेएस) में एकेडमिक फेलो। |
बाजार साहित्य और संस्कृति को नियंत्रित करने में दक्ष है
मैं साहित्य-उत्सवों की रिपोर्टिंग और उनकी तस्वीरें तो देखता रहा हूँ, लेकिन उनमें बतौर दर्शक शिरकत करने का कोई अनुभव नहीं है।इसलिए मैं यहां जो कहूंगा उसे एक स्वतंत्र पर्यवेक्षक की टिप्पणी माना जाए।
पहली बात, साहित्य एकांतिक कर्म है।अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि साहित्यकार इसी दुनिया के झंझटों और धंधों में जीता है, लेकिन वह अपने अनुभवों को अकेले संसाधित करता है।उसे संस्थागत सुविधाओं या तामझाम की बहुत जरूरत नहीं होती।अगर कोई रचना अपने युग और मनुष्य के गहरे प्रश्नों या बेचैनियों को संबोधित करने में सक्षम है तो वह अपना रास्ता ढूंढ़ लेती है।इसका एक अर्थ यह हुआ कि सशक्त रचना को संगठित प्रचार या साहित्य-उत्सव जैसे किसी माध्यम की जरूरत नहीं होनी चाहिए।यह शायद एक आदर्श छवि है।
सच यह है कि समाज के एक बड़े हिस्से के लिए साहित्य भी विशिष्ट दिखने या लोकप्रिय होने का माध्यम है।इसलिए साहित्य के संसार में हमेशा ऐसे लोग भी सक्रिय रहे हैं, जिनके लिए यह साधारण से अलग दिखने-दिखाने का जरिया है।साहित्य एक पूरी दुनिया है जिसमें पाठक, साहित्य के प्रबंधक तथा रचनाकार सब शामिल रहते हैं।एक समय साहित्य के मुद्रित संसार में रचनाकार की लोकप्रियता या प्रतिष्ठा धीरे-धीरे और अपने आप बनती थी।लेकिन, इस बीच ओद्यौगिक-उपभोक्तावादी मास सोसाइटी में लोकप्रियता और प्रसिद्धि के मायने बदल गए है अबलोकप्रियताका इंतजार नहीं, उसका निर्माण किया जाता है।अगर बाजार ठान ले तो अपने विज्ञापन-अभियान के जरिये जीवन की मामूली गतिविधि को एक बड़ी परिघटना बना सकता है।वह साधारण को महान बना सकता है या प्रतिष्ठित को ओझल कर सकता है।
यहां से देखें तो साहित्य-उत्सव साहित्य का नहीं बाजार का उत्सव है।इसमें साहित्य की भूमिका केवल उद्दीपक की होती है।इसका आकर्षण इसलिए है कि अगर किसी रचनाकार को वहां बुला लिया जाता है तो उसे एक तरह की मान्यता मिल जाती है।यहां हमें इस बात को स्वीकार करने से गुरेज नहीं करना चाहिए कि मान्यता या स्वीकृति सभी को चाहिए।बाजार के दर्शन और उसके कारोबार का बड़ा हिस्सा हमारी इन्हीं आकांक्षाओं का प्रबंधन करता है।
मसलन, अमेरिका में चौथे दशक के दौरान एक तंबाकू कंपनी ने अपनी सिगरेट को महिलाओं के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए जनसंपर्क और विज्ञापन के प्रसिद्ध रणनीतिकार एडवर्ड बर्नेज से संपर्क साधा।बर्नेज ने इस पूरी योजना को महिला-मुक्ति के मुहावरे में फिट करते हुए युवतियों को न्यूयॉर्क के एक चौराहे पर सामूहिक रूप से सिगरेट पीने के लिए तैयार किया।इसके लिए लड़कियां और कैमरामैन पहले से तैयार थे।बर्नेज ने अखबारों को इस आयोजन की जो विज्ञप्तियां भेजी थीं, उनमें इस घटना को ‘टॉर्चेज ऑफ़ फ्रीडम’ यानी आजादी की मशालें नाम दिया गया था।
कहने का आशय यह है कि बाजार हमेशा खरीदने-बेचने की भाषा में ही बात नहीं करता।वह साहित्य और संस्कृति को नियंत्रित करने में भी उतना ही दक्ष है जितना अपने लाभ के गणित में।बाजार का अंतनिर्हित स्वभाव है कि वह खुद को फैलाना चाहता है।लाभांश की दृष्टि से हिंदी का साहित्य उसके लिए भले बहुत उपयोगी न हो, लेकिन अगर साहित्यकार उसके द्वारा आयोजित उत्सवों में जाने को तैयार हों तो वह छिटपुट निवेश करने से हिचकता नहीं है।
इसके अलावा, हमें साहित्य-उत्सवों की परिघटना को समाज में पिछले तीन-चार दशकों से चल रही व्यापक प्रक्रिया से जोड़कर देखना चाहिए।यहां हम इन प्रक्रियाओं के बारे में विस्तार से बात नहीं कर सकते, लेकिन संक्षेप में कहें तो इस अवधि में समाज का भौतिक परिवेश, मनुष्य के आपसी संबंध, जीवन को बड़े फेमवर्क में रखकर देखने की प्रवृत्ति और बहुत-सी आश्वस्तियां और निश्चितताएं तेजी से छीजती जा रही हैं।ऐसे में, समाज को सामान्य बनाए रखने के लिए बाजार को हरदम छोटी-मोटी खुशियों और चमक-दमक का माहौल बनाए रखना होता है।साहित्य-उत्सव जैसे आयोजनों को ऐसी ही प्रायोजित खुशियों के अंग के रूप में देखा जाना चाहिए।
यह निश्चित है कि ऐसे आयोजनों का साहित्य-सृजन से कोई प्राथमिक संबंध नहीं होता।उन्हें साहित्य पर विचार-विमर्श के बजाय मूलत: साहित्य के इर्दगिर्द जुटाए गए मनोरंजन के एक शिष्ट किस्म के मंच की तरह देखा जाना चाहिए।
एक जेनुइन साहित्याकार अपने भीतरी आवेग के कारण लिखता है।सृजन की निरंतरता के लिए उसे ऐसे आयोजनों की जरूरत नहीं पड़ती।लेकिन, अगर कोई ऐसे आयोजन में जाता है तो इस पर बहुत थू-थू भी नहीं करनी चाहिए।आखिर व्यक्ति-साहित्यकार को यह निर्णय लेने का अधिकार होना चाहिए कि वह बाजार से खरीदार की तरह गुजरना चाहता है या एक दर्शक की तरह उसे केवल देखना चाहता है।
बी–९४, ग्राउंड फ़्लोर, पार्श्वनाथ पैराडाइज़, जेपी गार्डन, मोहन नगर, ग़ाज़ियाबाद–२०१००७ मो.९९५८९६८४१५
![]() |
राकेश रेणु संयुक्त निदेशक एवं प्रधान संपादक, ‘आजकल’ प्रकाशन विभाग सूचना और प्रसारण मंत्रालय। |
साहित्य उत्सव नए पाठकों को आकर्षित करने की जगह है
(१) आजतक के साहित्योत्सव में मैं आमंत्रित नहीं था।इसलिए वहां जाने का प्रश्न नहीं उठता, लेकिन सोशल मीडिया पर साहित्योत्सवों में लेखकों के जाने न जाने को लेकर अजीबोगरीब विवाद छिड़ा रहा है।विवाद आयोजकों की विचारधारात्मक स्थिति को लेकर है, उनके लक्ष्यों को लेकर है और इनमें शामिल होने वाले रचनाकारों की वैचारिक समझ को लेकर भी है।जहां तक आयोजकों के लक्ष्य की बात है तो इसके बारे में ठीक-ठीक तो वे ही बता पाएंगे।दरअसल इस तरह के साहित्यिक मेले बाजार तथा उदारीकृत और उपभोक्तावादी अर्थव्यवस्था की देन हैं जहां हर वस्तु, चाहे वह साहित्य ही क्यों न हो, एक उत्पाद है।हर व्यक्ति, चाहे वह लेखक या पाठक ही क्यों न हो, एक उपभोक्ता है।
मुझे लगता है कि ऐसे आयोजन के पीछे बड़ा उद्देश्य बाजार को साधना होता है।साहित्य का जो बाजार है, उससे जुड़े जो लोग हैं- लेखक, पाठक आदि, उनको अपने तथा प्रायोजकों और विज्ञापनदाताओं के उत्पादों तक खींचना मकसद होता है।यह मैं ‘साहित्य आजतक’ के संदर्भ में कह रहा हूँ लेकिन सभी साहित्योत्सवों का मकसद एक जैसा ही हो यह आवश्यक नहीं।
जीवन में हर प्रकल्प का एक मकसद होता है, होना चाहिए।साहित्य उत्सव आयोजित करने वालों का भी अनिवार्य रूप से कोई न कोई मकसद होगा।ये उत्सव भारत में पूंजीवादी संस्कृति की देन हैं।इसके ज्यादातर आयोजक-प्रायोजक पूंजीवादी व्यवस्था के पोषक और अंग होते हैं।जाहिर है कि उनका मकसद इन आयोजनों के मार्फत अपने उत्पाद बेचना और बाजार में उपभोक्ताओं में अपनी पैठ बनाना है।उन्हें इस बात की परवाह नहीं है कि लक्ष्य साधने की कोशिश में पाठकों की रुचि विकृत हो रही है या नहीं।संभव है, उनकी दिलचस्पी पाठकों की रुचि विकृत करने में ही हो ताकि नए पाठक गंभीर, समाजोन्मुखी, विचारधारात्मक साहित्य के बजाए साहित्य के नाम पर चलताऊ, लोकप्रिय और माल बेचू चीजों में रमे रहें।ऐसे में किसी गंभीर रचनाकार को हस्तक्षेप क्यों नहीं करना चाहिए।इसके अलावा, नई पीढ़ी के उन युवा पाठकों को जो अभी प्रायः विभ्रम की स्थिति में हैं, बेहतर रचनात्मक साहित्य की ओर आकर्षित करने की चेष्टा क्यों नहीं करनी चाहिए?
ऐसे मंच यदि किसी विचार संपन्न गंभीर साहित्यकार को सुलभ हो रहे हों तो उनके बीच जाकर अपनी बात कहने से क्यों बचना चाहिए अथवा किसी अन्य साहित्यकार को उसपर आपत्ति क्यों करनी चाहिए? खासतौर पर तब जब हम एक जनतांत्रिक व्यवस्था के नागरिक हैं।जनतांत्रिक मूल्य के आग्रही हमसे प्रतिरोधी विचारधाराओं की बात सुनने, बहस तलब मुद्दों पर बहस करने की अपेक्षा रखते हैं।क्या लेखक को इन मूल्यों से मुंह मोड़ लेना चाहिए? भारतीय जनतंत्र में ऐसा कौन-सा व्यक्ति अथवा दल है जो इन मूल्यों का सम्मान नहीं करता?
क्या विधानसभाओं अथवा संसद में बैठकर प्रतिरोधी विचारधारा के प्रतिनिधियों के साथ देश को और नागरिकों को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर बहस नहीं होती? फिर लेखकों की वैचारिक प्रतिबद्धता भी जनतांत्रिक मूल्यों के साथ चले, इसमें आपत्तिजनक क्या है? लेखक प्रतिरोधी विचारों के मंच पर न जाएं ऐसी अपेक्षा क्यों की जाए? क्या प्रतिबद्ध साहित्यकार अपने-अपने खोल में ही बंद रहें और विरोधी विचारधारा के लोगों के साथ संवाद न करें? या यह ज्यादा ठीक है कि उनसे संवाद करके अपनी बात रखने व मनवाने की चेष्टा करें? इन दोनों में आपको कौन सा विकल्प बेहतर लगता है?
मुझे तो दूसरा विकल्प ही उपयोगी जान पड़ता है।यह भी कि अतिरिक्त शुद्धतावादी होने का आग्रह आपको कहीं का नहीं रखेगा।जो भी उपलब्ध स्पेस या संभावनाएं हैं, वे निरंतर सीमित होती जाएंगी।राजनीति में ऐसा हुआ है।साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में भी इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।इसलिए जरूरी है कि हम हर उपलब्ध मंच का उपयोग करें, अपनी बात रखें और जनोन्मुखी साहित्य और विचार का प्रसार करें।
(२) यह लेखक पर निर्भर करता है कि वह अपनी स्वाधीनता की कितनी रक्षा करता है और कितना उसे गिरवी रख देता है।मुझे नहीं लगता है कि इस तरह के उत्सवों और मेलों में भाग लेने वाले लेखक-साहित्यकार पर किसी किस्म का अतिरिक्त दबाव होता है।उसे निर्भीक भाव से उपलब्ध मंच का इस्तेमाल कर अपनी बात कहनी चाहिए- वह बात जो सच्ची है, उसके हृदय के करीब है और समाज को दिशा देने वाली बात है।वह नहीं जो आयोजक या मंच उपलब्ध कराने वाले चाहते हैं या जिससे उनका प्रयोजन सिद्ध होता है।आखिरकार वे आपको आमंत्रित क्यों कर रहे हैं? इसलिए कि आप एक समर्थ लेखक हैं, साहित्य और समाज में आपकी जगह है और आपके आने से उनके कार्यक्रम को स्वीकृति और गरिमा हासिल होती है।फिर आप को अपनी बात कहने से कौन रोक रहा है? हां, जहां अपनी बात कहने में किसी किस्म का अवरोध हो या सीमाएं पहले से निर्धारित की गई हों अथवा आपको लगता हो कि अपनी बात कह नहीं पाएंगे तो वहां हरगिज न जाएं।
(३) एक चीज जो सहज ध्यान खींचती है वह है इनमें शामिल होने वाली भीड़ जिनमें युवाओं की तादाद सर्वाधिक होती है।आमतौर पर आयोजित साहित्यिक कार्यक्रमों में इसका दशांश भी उपस्थिति नहीं होता।ध्यान रखिए, मैंने भीड़ शब्द का प्रयोग है।जाहिर है, इनमें सब साहित्य के गंभीर पाठक या श्रोता नहीं होते।बहुतेरे निरुद्देश्य या मजे के लिए आए होते हैं।लेकिन उन्हें अपने विचार और साहित्य की ओर आकर्षित करना, प्रभावित करना साहित्यकारों का काम है।आपके लेखन और बात में इतना बल होना चाहिए कि इन युवाओं को अपने विचारों से प्रभावित कर पाएं, अपनी ओर आकर्षित कर पाएं।सबसे बड़ी जरूरत इन्हीं युवाओं को, साहित्य के नए पाठकों को अच्छे, विचार-संपृक्त साहित्य की ओर उन्मुख करने की है।
(४) यदि आप आयोजक-प्रायोजक नहीं हैं तो बाहर से इनके पूरे कलेवर को प्रभावित करने की गुंजाइश कम ही है।अधिक से अधिक आप अपने सत्र को दिशा दे सकते हैं, अपनी भूमिका में गंभीर हो सकते हैं।किंतु यदि इनके आयोजक साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन हैं तो अव्वल तो वे स्वयं इस बात का ख्याल रखेंगे कि आयोजन आग्रह-रहित और रचनात्मक हो, अग्रणी रचनाकार उससे जुड़ें।लेखकों की भूमिका भी इनमें तभी ज्यादा रचनात्मक हो पाएगी।यदि इन संगठनों के आग्रह हैं, जो आम तौर पर होते भी हैं, तो भी आप उनके पैकेज को बहुत प्रभावित नहीं कर पाएंगे।गुंजाइश भाग लेने वाले लेखकों के अपने सत्र में ही होगी, जहां वे अपनी बात रख पाएंगे।यह जरूर है कि इनमें लेखन से इतर लोगों की कम और लेखकों की भागीदारी अधिक होगी।इसलिए अपनी बात रखने, श्रोताओं को प्रभावित करने की गुंजाइश भी अधिक हो सकती है।
पुस्तक मेले और साहित्य उत्सव की प्रकृति में मुझे बुनियादी रूप से कोई फर्क नजर नहीं आता।दोनों ही जगहों पर किताबों के स्टॉल लगते हैं, नई किताबों के लोकार्पण होते हैं।किताबों, साहित्यिक प्रवृत्तियों आदि पर चर्चा-परिचर्चा होती है।रचना पाठ होता है।दोनों में एक किस्म की उत्सवधर्मिता होती है और प्रदर्शन की ललक भी।केवल दोनों के नाम के अनुसार कार्यक्रमों तथा बिक्री स्टॉलों की प्रतिशतता में फर्क आ जाता है ।
(५) साहित्य उत्सव के बारे में जो अति-क्रांतिकारी बयान दिए जाते हैं, उनके बारे में कुछ कहना चाहता हूँ।मुझे लगता है कि हमें इस अति-क्रांतिकारिता से बचना चाहिए।फेसबुक की क्रांतिकारिता और जमीनी क्रांतिकारिता में भारी फर्क होता है।जमीनी क्रांतिकारिता आसान नहीं होती।उसमें अनेक मुश्किलात और बड़े खतरे होते हैं।फेसबुकिया क्रांतिकारियों को जरा जमीन पर उतरकर देखना चाहिए।यह भी निगाह में रखें कि जिन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों का इस्तेमाल कर आप अपनी क्रांतिकारिता प्रदर्शित कर रहे हैं, उनका स्वामित्व किनका है? वे किन लोगों/संगठनों के करीब हैं? किनसे प्रेरणा और निर्देश लेते हैं? ऐसा नहीं है कि लेखक उनकी सच्चाई से अवगत नहीं हैं।सब जानते हुए भी हम वहां मौजूद हैं।
यदि ‘आजतक’ के स्वामित्व और विचारधारा वाले साहित्यिक आयोजकों से बचना जरूरी है तो क्या फेसबुक, ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों का बहिष्कार नहीं होना चाहिए? ऐसा कितने लोग कर रहे हैं और कितने लोग इसके लिए तत्पर हैं? मैं ऐसे किसी बहिष्कार के लिए नहीं कह रहा।केवल इसकी वकालत करने वाले लोगों के दृष्टि-भ्रम की ओर इशारा कर रहा हूँ।हमें चीजों, परिघटनाओं और अपने परिवेश को समग्रता में देखने की आदत विकसित करनी चाहिए।संभव है तब प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हुए आप अधिक संतुलित रह पाएंगे।
बी ३३९, केंद्रीय विहार, सेक्टर ५१, नोएडा–२०१३०१ मो.९८६८८५५४२५
![]() |
कुमार मुकुल पेशे से पत्रकार और मूलत: कवि।छह कविता-संग्रह प्रकाशित। ‘डाक्टर लोहिया और उनका जीवन-दर्शन’ नामक किताब प्रकाशित।आलोचना पुस्तक हिन्दुस्तान के १०० कवि’ एवं ‘सोनूबीती-एक ब्लड कैंसर सर्वाइवर की कहानी’ प्रकाशित। |
साहित्यिक उत्सव में निरुद्देश्य बोलने की कला हो रही है विकसित
उत्सवों में मेरी कभी रुचि नहीं रही।नोबेल रूसी कवि बोरिस पास्तरनाक की कविता पंक्तियां याद आ रही है :
उचित नहीं है शोहरत पा लेना।समारोहित होना प्रशंसा की बात नहीं।…/सर्जन वह है जिसमें तुम अपना सब कुछ करते हो उत्सर्ग/शोर सरापा ठीक नहीं और न छा जाना दूसरों पर ग्रहण बनकर ही/तुम्हारे होने का जब कोई अर्थ नहीं लगता/तब कितनी लज्जाजनक है चर्चा हर व्यक्ति के अधरों पर/चेष्टा मत करो झूठे अधिकार वाली ज़िंदगी के लिए/बल्कि अपने कार्यकलापों को ऐसे ढालो/कि दूर-दूर की सीमाओं तक तुम्हें प्यार मिले/और सुन सको तुम आने वाले वर्षों में होने वाली अपनी चर्चा।’
उन दिनों जयपुर था और शहर में साहित्योत्सव जैसा कुछ होने वाला था तो मेरे कवि मित्र आर चेतन क्रांति ने पूछा था – कैसा रहा साहित्योत्सव।मैंने कहा – उत्सव आदि में मेरी रुचि नहीं।यह सेलिब्रिटी लोगों के लिए है।फिर सोचा, अब सोशल मीडिया के चलते साहित्य में भी सेलिब्र्रिटी दिन-दूरी रात-चौगुनी दर से बढ़ रहे हैं तो मंच तो चाहिए।यूं सेलिब्रिटी का मतलब बिकाऊ है।इस तरह आज का लेखक बिकाऊ दिखने को प्राथमिकता दे रहा है।
पहले बिहार में आरा या पटना में साहित्यिक गोष्ठियां और सेमिनार आदि होते थे तो उनका अलग मिजाज होता था।वहां एक तरह की अंतरंगता और गंभीरता होती थी।दिखावा की जगह सरलता वहां के दृश्यों में सहज थी।आज वह दुर्लभ है।आज दिखावा मुख्य मुद्रा है।हर आदमी आज मंच पर है।उसके पास बोलने को कुछ है या नहीं, यह आज विचार की वस्तु नहीं है।
इसके उलट आज निरुद्देश्य बोलने की कला का विकास तेजी से होता दिख रहा है।हाल में एक ऐसी ही सभा में जाना हुआ।एक किताब का लोकार्पण था।मंच पर आधे दर्जन वक्ता थे, पर किताब किसी ने पढ़ी नहीं थी।बावजूद इसके मैं यह देखकर चकित हुआ कि बिना किताब को देखे ही उस पर लोग बोल रहे थे।वे लेखक की ख्याति के आलोक में अपने हृदय में बनी उनकी छवि के आधार पर उनकी पुस्तक के संभावित गुणों की चर्चा कर रहे थे।
पहले इस तरह का आयोजन संभव नहीं था।मुझे याद है पटना में एक नवतुरिया लेखक ने अपने कथा संग्रह पर चर्चा के लिए नामवर सिंह को किसी तरह बुला लिया था।कथाकार की कमजोरियों से हमलोग परिचित थे।तो हमलोग यह सोचकर गए कि देखें नामवर सिंह लेखक महोदय के किस गुण की चर्चा करते हैं।पर जो हुआ वह आत्मबल बढ़ाने वाला था।नामवर सिंह ने कुछ इधर-उधर की बातें करते हुए कहा कि बेटा पहले भाषा सीखो फिर कहानी लिखना।
तो यह जो दो-टूक कहने का साहस था पहले लेखकों में, उसे यह उत्सवता समाप्त करती दिख रही है।साहित्य उत्सवों में कथ्य और तथ्य अक्सर केंद्र में नहीं रहते, बल्कि मंच पर किस तरह दिखना है यह मुख्य बात हो गई है।
इधर किताब का प्रमोशन करना लेखकों के लक्ष्य में शामिल होता दिख रहा है।पहले यह काम प्रकाशकों का था।इस प्रमोशन वृत्ति ने भी इस तरह की उत्सवता को एक उड़ान दी है।आज लेखकों की चिंता यह नहीं है कि वे अपने लेखन को किस तरह समृद्ध करें।इसकी जगह वे यह बताने में लगे हैं कि अपने देश, अपने राज्य, अपने मुहल्ले या अपनी गली के वे कितने बड़े लेखक हैं।
इन साहित्य उत्सवों का उद्देश्य कोई लक्ष्य सिद्ध करना नहीं है।उत्सवता का लक्ष्य से कोई तालमेल भी नहीं है।यह तो लक्ष्य हासिल करने के बाद का आयोजन होता है।यहां सवाल है कि क्या लेखक होना अपने आपमें कोई लक्ष्य हो सकता है।
उत्सवों में कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता तो हो सकती है, पर स्वाधीनता का तो यहां लोप होते जाना ही दिखता है।
आभासी जगत के विकास के साथ जिस तरह माहौल बदला है, उसे दरकिनार भी नहीं किया जा सकता।सोशल मीडिया के विकास ने एक बड़ी जमात के लिए स्पेस पैदा किया है।बड़ी संख्या में लोग साहित्य की दुनिया का रुख कर रहे हैं।यहां कोई दिशा-निर्देशक नहीं है।इसका लाभ बाजार तुरत-फुरत उठा लेना चाहता है।उसी गहमा-गहमी का लाभ उठाने की जुगत में बाजार ने इस उत्सवता को जन्म दिया है।यह कोई स्थायी चरण नहीं है।यह तात्कालिक है और धीरे-धीरे सोशल मीडिया पर भी जिम्मेदार बढ़ रही है और गंभीर जमात का भी दखल बढ़ रहा है।आयोजन जरूरी हैं, पर उनमें तमाशे की जगह सकारात्मकता के तत्व किस तरह जगह पाएं, इसके लिए प्रयास होने चाहिए।छोटे-छोटे स्वतंत्र प्रयास हो भी रहे हैं।
पुस्तक मेलों की ओर आशा से देखा जा सकता है, पर आज ऐसे मेले भी उसी उत्सवता की राह पर हैं।वहां भी लेखक प्रमोटर की मुद्रा में दिख रहे हैं।
६/७, श्रीगंगानगर, ए जी कॉलोनी के उत्तर, पोस्ट – आशियाना नगर, पटना-८०००२५ (बिहार) मो. ८७६९९४२८९८
![]() |
मृत्युंजय प्रबुद्ध लेखक, रंगकर्मी और संस्कृतिकर्मी। |
साहित्य उत्सव साहित्य का धर्मांतरण कर रहे हैं
२१वीं सदी के आते-आते बाजार ने हर ठिकाने पर अपने दांत गड़ाने शुरू कर दिए थे।साहित्य, कला और संस्कृति भी अब उसके जबड़े में है।बाजार ने दुनिया भर में साहित्य और कला-संस्कृति का अब बड़े स्तर पर मीना बाजार सजाना शुरू कर दिया है।
लिटरेरी फेस्ट में साहित्य और कला को संपूर्णतः उत्पाद बना दिया जाता है।हर उत्पाद की एक एक्सपायरी डेट होती है।किताबें अब एफएमसीजी (त्वरित विक्रयार्थ उपभोक्ता पदार्थ) का अंग बनती जा रही हैं।ऐसी एफएमसीजी पुस्तकों का बाजार में सामयिक बोलबाला हो जाता है।ऐसी किताबें स्वाद में भी बोल्ड होती हैं।यह बोल्डनेस अब कथेतर पुस्तकों में भी है।लेखक अपनी बोल्डनेस तथ्यों को तोड़ने-मरोड़ने मे दिखलाता है।सच यह है कि फेस्टी लेखकों पर एफएमसीजी होने का दबाव गहरा होता है।वे बाजार के आगे लाचार और नतशिर होते हैं।लिटरेरी फेस्ट के माध्यम से लेखकों-कलाकारों को बाजार अपने टूल्स-किट का एक टूल बना लेता है।
बाजार की ओर से ऐसे पुस्तक-उत्पाद तैयार करने के लिए शब्दों के बाजीगर लेखकों की एक टास्कफोर्स तैयार की जाती है, जो बाजार में जलजला पैदा कर सके।बाजार में बूम की लहर उठ सके।बड़े-बड़े अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जब बूम को बल देने के लिए ही दिए जाते हों, तो बाजार की नीयत स्पष्ट हो जाती है।
ऐसे फेस्ट के माध्यम से साहित्य शब्द लेकर एक इतर दृश्य बनने लगता है।लेखक अपने लेखक होने से अधिक तमाशाई की भूमिका में होता है।कला एक कृति से अलहदा डिस्प्ले होती है।हालांकि ऐसा करते हुए बाजार अपने मूल अभिप्राय को एक रंगीन आवरण में सजा कर ऐसे पेश आता है, जैसे वह मरणासन्न साहित्य और साहित्य-सरोकार को जीवनदान दे रहा हो।
ऐसी भंगिमा से बाजार अपने विस्तार की संभावना तलाशता है।यह तलाश केवल पुस्तकों के बाजार की वृद्धि तक सीमित नहीं रहती, बल्कि दुनिया भर के साहित्य फेस्ट टूरिज्म उद्योग के भी उत्प्रेरक होते हैं।लिटरेरी फेस्ट बाजार इकॉनमी के ऐसे इवेंट हैं , जिनसे इकानमी का चक्का चकाचक चलता रह सके।कई देशों में ऐसे तीन-तीन सौ इवेंट हो रहे हैं।भारत भी उनमें एक है।
फिलवक्त ७३ देशों के १८० शहरों में ऐसे इवेंट हो रहे हैं।दुनिया के उत्सवीकरण की ग्लोबल-नीति का यह एक हिस्सा है।इन साहित्स उत्सवों के जरिए ज्यादातर अंग्रेजी और उसकी संस्कृति की मार्केटिंग होती है।कोलकाता जैसा शहर जिसकी इकोनामी हमेशा डिप्रेशन का शिकार रहती है, हर साल ऐसे पांच इवेंट करता है।ऐसे इवेंट में ‘इंटरनेशनल’ की माया छायी रहती है, जो कॉरपोरेट पोषित है।इसके लिए देश की सरकारें भी सहयोग देती हैं।
ऐसे इवेंट को लिटरेरी टूरिज्म एंड सिटी ब्रांडिंग प्रोजेक्ट कहा जाता है।सिटी ब्रांडिंग इसलिए कि शहर विशेष के व्यवसाय में एक उछाल आ सके।खासकर होटल, डेकोरेटर, ऑडिटोरियम, ट्रांसपोर्ट और विमान के व्यापार में।
दुनिया के बड़े-बड़े देशों के लिटरेरी फेस्ट में किताब सबसे सस्ता पदार्थ होती है।लिटरेरी फेस्ट में किताबों की तुलना में जंकफूड अधिक महंगा होता है।किताब के व्यवसाय की तुलना में बाकी का व्यवसाय बड़ा होता है।ब्रांडेड लिटरेरी फेस्ट अन्य पदार्थों के बम्पर सेल का महा अवसर है।
दरअसल स्पोर्ट्स टूरिज्म की तर्ज पर लिटरेरी टूरिज्म की अवधारणा बनाई गई है।यह धीरे-धीरे लग्जरी टूरिज्म बनता जा रहा है।यह एलीट शहरी नागरिकों की जरूरतों को पूरा करने का फलसफा है।इसकी सफलता का रहस्य भी लग्जरी-लाउंज में है।
बाजार अपने एकायामी उद्देश्य के लिए साहित्यकारों को लोकप्रियता का चस्का लगाता है।सोशल मीडिया भी उसका महारथ बन जाता है।यह मीडिया के लोगों को महारथी होने का अहसास कराता है।पहले के मंचीय कवियों की तरह ही यह फेस्ट लेखकों की एक पीढ़ी तैयार कर रहा है।इस चस्के के एवज में बाजार साहित्य की वह असली आंख फोड़ देता है, जिससे वह अपने प्रतिरोधी-स्वर के लक्ष्य को धूमिल कर सके और बाजार-हित उसका एकमात्र धर्म बना रहे।
इस तरह बाजार इन दिनों साहित्य का धर्मांतरण कर रहा है।बाजार का औजार बन जाने के बाद साहित्य बाजार और सत्ता के लिए चुनौती नहीं रह जाता है।साहित्य ‘क्रीम लोडेड’ नरम केक और नमकीन वैफर्स बन जाता है।कहना न होगा कि लेखक को लोकप्रियता का कच्चा ठर्रा खोखला कर देता है।लेखक के अपने चरित्र में ही परिवर्तन का जो कारक और आवाज होता रहा है, वह इन फेस्टों की आंच में पककर परिवर्तन-रोध का औजार और एक शोर बन जाता है।इसका अहसास जब तक उसे होता है, वह अपनी पारी खेल चुका होता है।बाजार उसे निगल कर उलट चुका होता है।
फेस्टिवल युग का टेस्टी साहित्य आज फैशन का हिस्सा है।साहित्य के किले पर बाजार दखल ले लेता है और ऐसे फेस्ट के माध्यम से लेखकों का अपने हिसाब से लजीज ब्रांड तैयार करता है।साहित्य के सामने यह एक नई चुनौती है, यह वैश्विक चुनौती है।लिटरेरी फेस्ट के नए दौर में साहित्यकार सेल्फी के साथी भर होते हैं।
बीसवीं सदी में लेखकों के मैंनेजमेंट के लिए राजनीतिक दलों से संबंधित लेखक संगठन हुआ करते थे।बाजार के नए आकार ने राजनीतिक पार्टियों की भूमिका सीमित कर दी है।अब लेखकों के मैंनेजमेंट के लिए, उन्हें नाथने के लिए लिटरेरी फेस्ट का तमाशा रचा जाता है।हर देश की सरकार और कॉरपोरेट घराने इस तमाशा में बराबर के स्टेकहोल्डर होते हैं।लिटरेरी फेस्ट के माध्यम से सत्ता की संस्कृति का प्रवाह नीचे तक पहुंच जाता है।
यह अकारण नहीं है कि छोटे-छोटे शहरों-नगरों में भी लिटरेरी फेस्ट का तमाशा उसी शैली के साजो-सामान के साथ लगाया जाता है।
नए युग में साहित्य की नई कहानी लिखने के लिए इवेंट मैनेजमेंट की नई रीति बनी है।इसके लिए मैनेजरों की कुशल टीमें सामने आई हैं।ऐसी टीमें साहित्य के मर्म को जानने-समझने से ज्यादा बाजार का गुर जानती हैं।बाजार में साहित्य का दोहन किया जा सके, इसके लिए कई कॉरपोरेट संस्थान बने हैं।भारत भी इस शैली में अपनी कहानी लिख रहा है।लिटरेरी फेस्ट के विश्व बाजार ने फ्रेंचाइजी पार्टनर और एसोशिएट पार्टनर के लिए द्वार खोल रखे हैं।
सभी लिटरेरी फेस्ट अपने सीने पर ‘फ्रीडम फॉर एक्सप्रेशन’ का तमगा लगाए फिरते हैं।लेकिन यह फ्रीडम उन्हें ही नसीब होता है जो यथास्थिति और बाजार के पोषक लेखक होते हैं।ऐसे किसी सवाल पर देर तक बहस की गुंजाइश नहीं होती, जो यथास्थिति और व्यवस्था से छेडछाड़ करता हो।हर फेस्ट में मुख्यतः ‘सबकुछ अच्छा-अच्छा है और खुशनुमा है’ का वातावरण पैदा किया जाता है।इस तरह लिटरेरी फेस्ट अम्यूजमेंट पार्क में तब्दील हो जाता है।
यह भी उल्लेखनीय है कि दुनिया के ऐसे इवेंट में साहित्यिक गतिविधियों की तुलना में प्रदर्शनकारी कला-माध्यमों की गतिविधियां अधिक होती हैं।इस तरह बौद्धिक अंतर्क्रिया के लिए व्यापक लोकतांत्रिक माहौल नहीं होता।
पाठक और साहित्य-रसिक लिटरेरी फेस्ट में आते हैं।लिटरेरी फेस्ट उन्हें उपभोक्ता में बदल देता है।किसी भी लिटरेरी फेस्ट का मिशन यही है।हम जानते हैं कि सदियों से साहित्य का मिशन इससे भिन्न रहा है।वह मनुष्य को ‘और अच्छा मनुष्य’ तथा ‘आत्मसजग मनुष्य’ बनाने की कोशिश करता रहा है।मगर ऐसी चीजों के लिए साहित्य उत्सवों में कोई अवसर नहीं होता।लिटरेरी फेस्ट से उपभोक्ता पाठक चमक-दमक देखकर केवल तृप्ति का अहसास लेकर लौटता है, जबकि साहित्य का मकसद बेचैन करना भी होता है- कभी अंतर में झांककर तो कभी अपने से बाहर झांककर।लिटरेरी फेस्ट ऐसी प्रेरणा नहीं देता।लिटरेरी फेस्ट संवेदनाओं का संवाहक नहीं बनाता।
भारत समेत दुनिया में पिछले दो दशकों से लिटरेरी फेस्ट का चलन बढ़ा है।मगर साहित्य और पाठक का रिश्ता घनिष्ठ हुआ हो, दुनिया पहले से अधिक संवेदनशील हुई हो, ऐसे लक्षण नहीं दिख रहे हैं।लिटरेरी फेस्ट उपभोक्ता संस्कृति का हिस्सा बना हुआ है।आने वाला समय ऐसा होगा कि लिटरेरी फेस्ट खुद ही उत्पादक शक्ति बन जाएंगे।इनके उत्पाद से बाजार में जो नई स्थितियां बनेंगी, वे समाज को उपभोक्ता-संस्कृति की गंदगी से भर देंगी।
यह जांच का विषय है कि लिटरेरी फेस्ट की वजह से क्या पुस्तक-उद्योग के सुनहरे दिन आने वाले हैं।लिटरेरी फेस्टों की वजह से क्या किसी भाषाई लेखक की पुस्तकें उस मात्रा में बिकी हैं कि उसका जीवन-स्तर पहले से ऊंचा हो गया हो? दुनिया के धनवानों की सूची में क्या अब तक साहित्य के किसी प्रकाशक का नाम आ पाया है या आने की संभावना है?
लिटरेरी फेस्ट में साहित्य और पुस्तक बहाना हैं, निगाह और निशाना कहीं और है।वह साहित्य के आवरण में बाजार के बंकर बनाता है।
बाजार के दखल-मिजाज ने लिट फेस्ट को साहित्य, कला और संस्कृति को रिड्यूस करने की सुपारी दे दी है।दरअसल २१वीं सदी बहुत से चीजों को विरूपित करने की सदी है।ताजा निशाने पर साहित्य है।
सी–११.३, एनबीसीसी विबज्योर टावर्स, न्यू टाउन, कोलकाता–७००१५६ मो.९४३३०७६१७४
संपर्क प्रस्तुतिकर्ता : एलपी-६१/बी,पीतमपुरा, दिल्ली-११००३४ मो.८५०६०१४९१७
जरूरी विषय पर सारगर्भित परिचर्चा के लिए सभी को बधाई।बाजार,सत्ता और पूंजी का यह गठजोड़ कला,संस्कृति और साहित्य के जेनुइन केंद्रों पर सेंध लगाने के फिराक में है।बची-खुची आदमियत और प्रतिरोध की आवाज को लिटरेरी फेस्ट के शोर में दबाने की पहल के तौर पर भी इसे देखा जाना चाहिए।चमक-दमक के जरिए प्रतिबद्धता और साहित्यिक गम्भीरता को विस्थापित किया जा सकता है।हमें ऐसे लिटरेरी फेस्ट को एक अवसर से ज्यादा संदेह की नजर से देखने की जरूरत है।