कवि, लेखक और संपादक।पोस्ट डॉक्टोरल फेलो, इलाहाबाद विश्वविद्यालय।कथा–आलोचना, साहित्यिक समीक्षा के अलावा ‘धवल’ उपनाम से कविताएं भी लिखते हैं।दूरदर्शन और आकाशवाणी, प्रयागराज से वार्ता प्रसारित।
इस आभासी संसार में लोक की बात करना सरासर अतीतजीविता की बात लगती है।आज जब हम एक ऐसे समाज में रहते हैं, जहां सब क्रेता और विक्रेता हैं और सबकुछ बाजार और विज्ञापन से तय हो रहा है, लोक के रंग फीके तो लगते हैं, लेकिन यह एक भ्रम है।लोकजन और मन की ज़मीन आज भी कोमल और सरल है।उसकी परिधि में मनुष्यता और सामुदायिकता का दायरा आज भी काफी बड़ा है।यह जरूर है कि नए समय के प्रभाव से लोक अछूता नहीं है।आज जिसे हम शहरी संस्कृति और विसंगति कहते हैं, उन सबसे लोक भी बुरी तरह प्रभावित है।
दरअसल मानव सभ्यता की विकासयात्रा में लोक-समाज की अपनी एक विशिष्ट भूमिका रही है।किसी देश को जब भी सांस्कृतिक जीवन-मूल्यों के दृष्टिकोण से देखा जाता है, लोक-समाज सामने आ खड़ा होता है।कहने का आशय यह है कि लोक-समाज को छोड़कर सभ्यता और संस्कृति के पैमाने तय नहीं किए जा सकते।२१वीं सदी में लोक-जीवन कई स्तरों पर बदल चुका है।लोक-जीवन के घटक, मसलन- लोक-संस्कृति, साहित्य, गीत-संगीत आदि में तेजी से बदलाव हुए हैं।जीविका के आधार और प्रवासन की दिशा में भी बदलाव स्पष्ट हैं।डिजिटल माध्यमों के प्रवेश से लोक-जीवन की रुचियां और दिशाएं बदली हैं।वैश्वीकरण के कारकों, जैसे- बहुराष्ट्रीय कंपनियां, मुक्त बाज़ार, उपभोक्तावादी संस्कृति और सूचना क्रांति ने भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है।इन सबका समेकित प्रभाव इतना सशक्त है कि आज शायद ही कोई अपने बच्चे को लोक-बोली और भाषा से परिचित कराना चाहता हो।लोक-बोलियां, भाषाएं और मनोरंजन के समस्त साधन गंवारपन और पिछड़ेपन के सूचक माने जाने लगे हैं।क्या यह चिंता का विषय है, क्या लोक-संस्कृति में सारवान कुछ भी नहीं, लोकजन आज किस चौराहे पर खड़ा है, ये सभी प्रश्न हमारे आपके सामने खड़े हैं।
यह परिचर्चा आयोजित करने का एक उद्देश्य यह जानना भी है कि क्या लोक की परिभाषा आज भी वही है, जो हजारी प्रसाद द्विवेदी बताते हैं, ‘‘लोक’ शब्द का अर्थ ‘जनपद’ या ‘ग्राम्य’ नहीं है, बल्कि नगरों और ग्रामों में फैली हुई वह समूची जनता है, जिनके व्यावहारिक ज्ञान का आधार पोथियां नहीं हैं।’ यह भी माना जाता है कि जो लोग संस्कृत या परिष्कृत वर्ग से प्रभावित न होकर अपनी पुरातन स्थितियों में रहते हैं, वे ‘लोक’ होते हैं।ऐसे में समझने की जरूरत यह है कि क्या उपर्युक्त परिभाषाओं की परिधि में इक्कीसवीं सदी का लोक है? आज लोक-जीवन में संकट और संभावनाएं दोनों विद्यमान हैं।दूसरी तरफ लोक की वर्तमान स्थिति न केवल विचारणीय है, बल्कि लोक को यह उम्मीद है कि उसे बचाने और बढ़ाने के उपक्रम अधिक प्रभावी रूप में प्रकट होंगे।इस परिचर्चा में लोक की दुनिया से गहरा ताल्लुक रखने वाले विद्वानों से उनकी राय जानने की कोशिश है।
सवाल
(1) 21वीं सदी में लोक की दुनिया और दुनिया में लोक किस रूप में मौजूद है?
(2) लोक संस्कृति में बाजार और उपभोक्तावादी संस्कृति का प्रभाव कितना है और किस तरह का है?
(3) लोक की दुनिया में आभासी संसार और तकनीक का असर कैसा है?
(4) लोकजीवन में खेती-किसानी और युवाओं की उपस्थिति को कैसे देखा जाए?
(5) लोकजीविका और प्रवासन की स्थिति को आप कैसे देख रहे हैं?
(6) सिनेमा की दुनिया में लोक स्थापित हो रहा है या प्रश्नांकित?
(7) मौजूदा समय में लोक-जीवन और लोक-साहित्य में प्रतिरोध की संस्कृति को कैसे देखा जाए?
(8) लोक-साहित्य, लोक-कलाओं और लोकगीतों को कैसे सहेजा जाए? लोक के विकास और विस्तार के लिए सरकारी संस्थाओं की भूमिका कितनी प्रभावी है?
लोक से जुड़े रहना स्वयं के होने की घोषणा है
धनंजय चोपड़ा पत्रकारिता और जनसंचार के क्षेत्र में विपुल कार्य।इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सेंटर ऑफ मीडिया स्टडीज के पाठ्यक्रम समन्वयक।हालिया प्रकाशित पुस्तक, ‘लोक गायन कजरी संचार, शोध और मीडिया’। |
(1) सूचना क्रांति के साथ प्रारंभ हुई 21वीं सदी, ज्ञान क्रांति से होती हुई टेक्नोलॉजी के बलबूते इन दिनों नवाचार क्रांति से गुजर रही है।संचार की दुनिया लगातार बड़ी होती जा रही है, साथ ही साथ पल-प्रति-पल नई होती जा रही है।यह टेक्नोलॉजी का ही कमाल है कि इंटरनेट की दुनिया से जुड़कर ऑगमेंटेड रियलिटी, रोबोटिक्स और चिप कम्युनिकेशन की ओर बढ़ चले हैं।ऐसे में जरूरी हो गया है कि हम अपनी लोक की थाती को मजबूती से थामे रहें, ताकि पीछे आ रही पीढ़ियों को आगे के जीवन का मजबूत आधार दे सकें।यह अनायास नहीं है कि लोक की दुनिया ने विस्तार लेती आभासी दुनिया में अपनी धमक बनाए रखी है।मेरा मानना है कि लोकजीवन कम्युनिकेशन के रिचुअल मॉडल पर टिका होता है।हमारी स्मृति परंपराएं लोकजीवन को बनाने, मांजने, बचाने और आगे बढ़ाने का काम करती हैं।यही वजह है कि इक्कीसवीं सदी में आ रहे तकनीकी उफान में भी हमारा लोकजीवन फल-फूल रहा है।हां, यह जरूर है कि उसका स्वरूप बदल रहा है, लेकिन उसकी मौलिकता बराबर बनी हुई है।उदाहरण के लिए आज बहुत से कलाकार सोशल मीडिया पर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे हैं।कोरोना महामारी के दौर में ऑनलाइन प्रस्तुतियों ने एक नए रंग-ढंग में लोक कलाओं और कलाकारों से जुड़ने का अवसर प्रदान किया।ढेर सारी वेबसाइट इंटरनेट पर उपलब्ध हैं, जिनके माध्यम से लोक कला व लोक साहित्य के साथ-साथ लोक कलाकारों से पूरी दुनिया परिचित हो रही है।सच तो यह है कि लोक कलाओं को वैश्विक मंच मिला हुआ है।कोशिश होनी चाहिए कि दूर-दराज के इलाकों में मौजूद लोक कलाकारों और उनकी प्रस्तुतियों और इस बहाने लोक जीवन के रस-रंग से दुनिया भर के लोगों को परिचित कराया जाए।यह भी देखना होगा कि टेक्नोलॉजी के प्रभाव में हमारे लोक जीवन का स्वभाव बदल न जाए।
(2) पिछली सदी के अंतिम दशक में जब हम खुली अर्थव्यवस्था का आनंद उठाना प्रारंभ कर रहे थे तभी यह तय हो गया था कि हम अपनी सामाजिकता और सांस्कृतिक सरोकारों के बरक्स उपभोक्तावादी संस्कृति को आगे बढ़ाने में शामिल हो गए हैं।यह भी तय हो गया था कि अब चाह कर भी देश और समाज अपने कदम पीछे नहीं खींच सकते हैं।इंटरनेट और सूचना क्रांति ने भूमंडलीकरण को ही नए रूप में देना शुरू कर दिया था।जाहिर है कि संस्कृति और साहित्य अपने को बचते-बचाते 21वीं सदी की देहरी पर ले आए थे।लेकिन, बाजार हावी होता चला गया।हमारा लोक-जीवन भी बदलते समय-समाज के आभामंडल में फंसता चला गया।इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि लोकजीवन के अभिन्न अंग हमारे लोक-रंग की प्रस्तुतियों के मंच और प्रदर्शनकारी कलाओं के ठीहे प्रायोजकों के पाले में चले गए।नतीजा यह हुआ कि कलाओं और कलाकारों के रंग-ढंग पर बाजार की छाप दिखाई देने लगी।बहुत से लोक कलाकार हाशिए पर चले गए और उनकी कलाएं लुप्तप्राय होने लगीं।भला हो इंटरनेट की दुनिया का, जिसने हाशिए पर पड़ी कला और कलाकारों को वैश्विक मंच देने का काम किया।
(3) लोकजीवन की छाती इतनी मजबूत और परंपरागत होती है कि वह आते-जाते परिवर्तनों की परवाह किए बिना आगे बढ़ती रहती है।सच तो यह है कि भाषाई, सांस्कृतिक, सामाजिक गतिशीलता का दर्शन करना हो तो हमें लोकजीवन की शरण में जाना पड़ता है।यही गतिशीलता की प्रवृत्ति अब तक हमारे लोकजीवन के अभिन्न माने जाने वाले अंगों यानी लोक भाषा, लोक आख्यानों, लोकगीतों और लोक संस्कारों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में पहुंचाती आई है।यही नहीं, ढेर सारे नए-नए प्रयोग भी हुए हैं।सच तो यह है कि तकनीक और आभासी दुनिया ने मिलकर लोक कला के क्षेत्र में नए-नए प्रयोगों की जमीन तैयार की है।कई प्रयोग सार्थक रहे हैं तो कई ने लोक कलाओं को बहुत हानि भी पहुंचाई है।उदाहरण के लिए लोकगीतों के नाम पर फुहड़ता के श्रोता और दर्शक तैयार करने की होड़ मच गई।यह सब हुआ अपने-अपने यू-ट्यूब चैनलों के दर्शक बढ़ाने या फिर सोशल मीडिया पर अपनी पहुंच का दायरा बढ़ाने के नाम पर।
अगर इन बातों को किनारे रखकर सार्थक प्रयासों और प्रयोगों की बात की जाए तो बहुत से संस्थानों, संगठनों और व्यक्तिगत कलाकारों ने लोक से उन लोगों को जोड़ने का काम किया जो अब से पहले उनसे नहीं जुड़े थे।लोगों में लोक के प्रति जागरूकता लाने में भी तकनीक और आभासी संसार ने बड़ा काम किया है।
(4) खेती-किसानी लोक जीवन का मूलाधार है।दरअसल पूरा लोकजीवन उस धरती से जुड़ा हुआ है, जो जीवन का पर्याय है।सीधे-सीधे कहा जाए तो लोकजीवन में खेती के बिना लोकजीवन अधूरा है।सामाजिक नैतिकताएं, सामाजिक संगठन शक्ति, सामाजिक नातेदारी, सामाजिक साहचर्यता और सामाजिक मूल्य पाठशालाएं खेती किसानी के रास्ते लोक जीवन का हिस्सा बनती हैं।बड़ी बात यह कि ये सब तभी संभव हैं, जब लगातार युवा पीढ़ी इसका हिस्सा बनती रहे।
(5) बदलती दुनिया और बदलते समय में शहरों का विस्तार हुआ है और टेक्नोलॉजी जमकर कुलांचे भर रही है।जाहिर है कि ऐसे समय में लोकजीवन से जुड़ी हुई चीजें हाशिए पर जाने को मजबूर हुई हैं।लोग चाह कर भी लोकजीविका के उस उपक्रम को नहीं अपना पा रहे हैं, जिनके भरोसे उनकी पीढ़ियां गुजारा करती आई हैं।कभी महात्मा गांधी ने कहा था कि लोकजीविका को छोड़ देना अपनी प्रकृति को छोड़ देने जैसा होगा।सच ही है कि आज हम अपनी प्रकृति से विरत हुए हैं, साथ ही हम सब की प्रकृति भी बदल गई है।वैसे यह तय है कि प्रवासन की गति कभी न कभी थमेगी और लोकजीविका के परंपरागत व नए उपक्रम सामने आएंगे।
(6) हमें यह भी समझना होगा कि बिना लोकसंगीत के हम अपनी मानव जाति की अनुगूंज की कल्पना ही नहीं कर सकते।कभी प्रख्यात शहनाई वादक भारतरत्न बिस्मिल्लाह खान ने यह बात कही थी कि लोकधुनों की खासियत यह है कि वह हर किसी के साथ सुरीला नाता जोड़ लेती है।क्षेत्र और भाषा की सीमा अगर संगीत लांघ पाता है तो इसलिए कि उसके विकास में लोकधुनों की बड़ी भूमिका होती है।यही वजह है कि हमारा सिनेमा अपने प्रारंभिक दिनों से ही लोकगीत और लोकसंगीत के प्रभाव में आ गया था।१०० साल से भी अधिक के हिंदी सिनेमा के इतिहास में ढेर सारी फिल्में ऐसी बनी हैं, जो लोक पर आधारित हैं।सच तो यह है बिना लोकजीवन और उसके भाव-संवाद को लिए सिनेमा लोगों के बीच में जगह ही नहीं बना सकता।
(7) यह किसी से छूपा नहीं है कि लोकजीवन और लोक साहित्य में प्रतिरोध की संस्कृति कुछ इस तरह रची-बसी होती है कि उससे किनारा नहीं किया जा सकता।वास्तव में लोकभाषा और उसकी लोक-लय व्यवस्था के नकारात्मक पक्ष को उजागर करने में अपनी उत्पत्ति से ही सक्षम रही है।यह अकारण नहीं था कि अंग्रेजों के खिलाफ आजादी के आंदोलन में लोकजीवन से जुड़ा लोक साहित्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में सफल रहा था।बहुत से आदिवासी समाजों ने अपने लोकजीवन और लोक साहित्य में प्रतिरोध को इस तरह रचा बसा लिया था कि वे अंग्रेजी हुकूमत के निशाने पर आ गए थे।यहां मैं झारखंड के टाना भगत आदिवासी समाज का जिक्र करना चाहता हूँ, जिसने अपने लोकजीवन की सादगी को ही प्रतिरोध का माध्यम बना लिया।यह समाज आज भी अपने घर के आंगन में तुलसी के बिरवा के साथ तिरंगे को भी जल अर्पित करता है।भोजपुरी समाज के बिरहा, कजरी जैसे लोकगीत या फिर बुंदेलखंड का आल्हा लोक गायन प्रतिरोध की संस्कृति के कई उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
(8) इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि यदि हमें अपने जीवन को सहज-सरल बनाकर चलना है तो हमें अपने लोक साहित्य, लोक कलाओं और लोकगीतों को सहेजना ही होगा।अपनी लोक की थाती को सहेजने का एकमात्र सरल रास्ता है कि हम संचार के रिचुअल कम्युनिकेशन मॉडल को अपनाएं।संचार का यह मॉडल सीधे-सीधे यह बात कहता है कि हम अपनी संस्कृति, अपने जातीय संस्कारों और अपने सामाजिक सरोकारों को तभी बचा सकते हैं जब हम उन्हें अमल में लाते समय अपने पीछे आ रही पीढ़ियों को साथ में रखते हैं।ये पीढ़ियां अपनी पूर्व पीढ़ियों से सीख कर ही अपनी संस्कृति, संस्कार और सरोकार को अपने पीछे आ रही पीढ़ियों को स्थानांतरित करती हैं।आज भी बहुत से लोक कलाकारों के घराने इसीलिए बच पाए हैं कि उन्होंने अपनी कलाओं को अपने पीछे की आ रही पीढ़ियों के साथ साझा किया है।यदि हम टेक्नोलॉजी के सहारे बदलते समय को साथ में रखते हुए अपने लोकजीवन से जुड़े लोक साहित्य और लोक कलाओं का संग साथ बनाए रखेंगे तो हमें अलग से इन्हें सहेजने का प्रयास करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।
लोक के विकास और विस्तार के लिए सरकारी संस्थाओं की भूमिका को अधिक उत्तरदायी और अधिक उपादेयी बनाने की जरूरत है।बहुत बार सरकारी संस्थाओं के प्रयासों को उनसे जुड़े लोग महज आनुष्ठानिक बनाकर संकुचित कर देते हैं।इससे बचने के रास्ते निकाले जाने की जरूरत है।
984/6ए, मीरापुर (इमली की ढाल, तिकोना पार्क के निकट) प्रयागराज– 211003
मौजूदा समय में लोक अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा है
सुभाष चंद्र कुशवाहा सुपरिचित कथाकार, संपादक और लोक–इतिहास के गंभीर अध्येता और लेखक। ‘लोकरंग’ वार्षिकी का 1998 से निरंतर संपादन।अद्यतन पुस्तक ‘भील विद्रोह’ (संघर्ष के सवा सौ साल), ‘टंट्या भील’ (द ग्रेट इंडियन मून लाइटर) । |
(1) इक्कीसवीं सदी में लोक की दुनिया उपेक्षित और भोथरी हो चली है।उसमें धार नहीं है।वह आधुनिकता की दौड़ में महानगरी संस्कृतियों की ओर ललचाई भाग रही है।उसकी आत्मनिर्भरता दम तोड़ रही है।मौजूदा प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर उन सत्ता प्रतिष्ठानों की चालों, कुचक्रों और चरित्रों में, साथ ही साथ उनकी कुटिल और अमानवीय केंद्रित नीतियों में तलाशा जा सकता है, जो लोक को अंदर और बाहर, दोनों ओर से प्रभावित कर रही हैं।अब लोक की संरचना में उतनी आजादी और सादगी मौजूद नहीं है जो जीवन-मूल्यों के लिए और उसकी स्थिरता के लिए जरूरी होती हैं।इसलिए जीवन मूल्यों को संवारने की प्रक्रिया ठहर गई है।अब तो सत्ताएं कार्पोरेट द्वारा और कार्पोरेट के लिए स्थापित हो रही हैं।मुनाफा और लूट उनके प्राणवायु हैं।मानवीय मूल्य, प्रकृति, संस्कृति और सभ्यताएं सामाजिकता का पैमाना नहीं रहीं।अब तो सामाजिकता को मुनाफे के अनुकूल ठस और बिकाऊ बनाया जा चुका है।इस बहुलतावादी कुसंस्कृति में अपवादों का कोई हस्तक्षेप नहीं? कोई प्रभाव नहीं।इक्कीसवीं सदी का लोक बाजार की गिरफ्त में है।बाजार उसे बिकाऊ बना चुका है, वह भी अपनी शर्तों पर।वह लोक को मूल्यहीन कर चुका है।लोक अपने रहन-सहन, अपने तीज-त्योहारों, अपने मनोरंजन और विषादों को अपनी इच्छा के अनुकूल आनंद और उल्लास योग्य नहीं बना पा रहा।वह सामूहिकता में मिल-बैठकर अपनी आपाधापी का मुकाबला नहीं कर पा रहा।आज की दुनिया में लोक गंवार और पुरातन जैसा है, गोया हर पुरातन उपेक्षित होता हो?
(2) लोकसंस्कृति कभी बिकाऊ नहीं थी और न उसका कोई बाजार था।उसके सर्जक, उसके उपभोक्ता थे।सामूहिकता और वाचिक परंपराओं द्वारा लोक संस्कृतियों का निर्माण हुआ था।आज सामूहिकता को ही गैर-जरूरी और अप्रासंगिक बनाने का काम नई तकनीकी ने किया है।नए समाज की सेवा शर्तें, जीवन-प्रणाली सामूहिकता की हत्या कर रही हैं।हर आदमी कंप्यूटरीकृत और उसी में समाहित हो चुका है।वह स्वयं में दुनिया है।जो थोड़ी-सी दुनिया इस कंप्यूटरीकृत संस्कृति से अलग है, वह गैर-जरूरी, अविकसित और असभ्य मान ली गई है।वह उपेक्षित है।उसका दोहन किसी भी रूप में किया जा सकता है।अपना मूल्य वह खुद निर्धारित करने की स्थिति में नहीं है।उसका कोई मूल्य, यह चहकती, ऐकांतिक दुनिया स्वीकार नहीं करती।अब कार्पोरेट की दुनिया ही उसका बिकाऊ मूल्य तय कर देती है।ऐसे में सामूहिकता को नष्ट कर, लोक संस्कृति को असभ्यता की पहचान घोषित कर, किनारे लगाया जा रहा है।उसके प्राण-तत्व को उपभोक्तावादी संस्कृति ने बाजारू बनाकर मुनाफा तो कमाया है, मगर उसमें जो सर्वजनहिताय का गुण था, जो लोकतांत्रिकता का गुण था, जो वंचितों की जिजीविषा को बचाए रखने का गुण था, उसको नष्ट कर दिया है।यही उपभोक्तावादी संस्कृति का दुष्प्रभाव है।
(3) आज का लोक, सूचना तकनीकी की बदौलत आभासी संचार से निश्चित तौर पर प्रभावित हो रहा है।उसपर तकनीकी का असर तो है या यों कहें कि उसपर आभासी संसार और आयातित तकनीकी का असर जड़ और ठस सा है, संवेदनात्मक तो कतई नहीं है।मानवीय भी नहीं।आभासी संसार की सूचनाओं का विस्फोट, स्मृतियों पर ठहर नहीं पा रहा और हर पल मन-मस्तिष्क को गड्ड-मड्ड कर रहा है।हमारा लोक, जीवन की आपाधापी में भी फुर्सत के पल निकालता रहा है।वहां बैठकी, गायकी, बतकही की तमाम सामाजिक संस्कृतियां रही हैं।कहानी कहने और सुनने, बाग-बगीचों, शादी-ब्याह से लेकर तीज-त्योहारों पर गायकी, प्रहसन, खेल-तमाशों का संसार जीवन को सुगम बनाता रहा है।रतजगा के लिए लोकगाथाओं का अद्भुत प्रयोग समाज ने किया हुआ था, जो वर्तमान समय में अप्रासंगिक बनाकर भुलाया जा चुका है।यह स्थिति लोक को ईर्ष्यालु, झगड़ालू और स्वार्थी बना रही है।सामाजिकता का लोप हो रहा है।संबंध छीज रहे हैं।
लोक में उम्र का लिहाज था।वरिष्ठता को महत्वपूर्ण स्थान मिला हुआ था।शादी-ब्याह से लेकर पंचायतों तक में, बुजुर्गों का स्थान प्रथम माना जाता था।अब स्थितियां बदल चुकी हैं।गांवों में फैला दी गई लंपटई की संस्कृति ने बुजुर्गों को किनारे लगा दिया है।युवाओं ने सामूहिकता को तार-तार कर दिया है।यह सब आभासी संसार और नई चहकती, आत्मकेंद्रित दुनिया का दुष्परिणाम है।
(4) जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, लोकजीवन में युवाओं की उपस्थिति आधिपत्य जैसी है।वे पारिवारिक आदेशों से ऊपर उठ चुके हैं।वे ‘मेरी मर्जी’ वाली दुनिया के अंग हैं।ग्रामीण जीवन की बढ़ती दुश्वारियों की वजह से गांवों से शहरों की ओर युवाओं का पलायन हो रहा है।गांवों में बुजुर्गों की संख्या अधिक है।खेती-किसानी की जिम्मेदारी बुजुर्गों पर है।युवाओं की एक बड़ी आबादी, हाथों में मोबाइल लिए चैटिंग में मशगूल है।वह खेती-किसानी से दूर जा चुकी है।उसे जो शिक्षा या संस्कृति परोसी गई है, उससे वे श्रम से दूर हट गए हैं।श्रम को हमारे यहां पहले भी बहुत सम्मान नहीं था, मगर लोकजीवन की सामाजिकता और संवेदनात्मकता के कारण बीसवीं सदी तक युवाओं की अच्छी-खासी संख्या अपने मां-बाप के साथ खेती-किसानी से जुड़ती थी।यहां तक कि पढ़ाई करते युवक भी खेती-किसानी से पूरी तरह दूर नहीं रहते थे।अब तो निठल्ले बैठे ग्रामीण युवक भी खेतों में नहीं जाते।यह स्थिति भविष्य में आने वाले खेती-संकट यानी लोक-संकट की ओर संकेत कर रही है।इस संकट का कारण आर्थिक भी है।खेती-किसानी का काम लाभप्रद न होने के कारण भी युवाओं का उधर से मोहभंग हुआ है।बुजुर्गों की तरह उनमें जमीन से लगाव नहीं है।
(5) लोकजीविका के परंपरागत काम, जैसे बढ़ईगिरी, लुहारी, धोबी, किसानी आदि केवल दो जून की रोटी तक सीमित थे।श्रम की वह संरचना स्वामी और चाकर जैसी थी जहां सामंत सुखभोगी था और बाकी लोकसमाज उसकी जीहुजूरी करता था।बाहरी दुनिया की खिड़कियां जैसे-जैसे खुलती गईं, परंपरागत काम बदलते गए।उनका बदल जाना बुरा नहीं कहा जा सकता।बुरा तो यह हुआ कि बदलती दुनिया के अनुरूप न तो लोक संस्कृतियां बदलीं और न लोकजीविका को आधुनिक और आर्थिक रूप से मजबूत किया गया।
लोकजीवन में जीवनयापन की कठिन होती परिस्थितियों की वजह से पहले भी पलायन होता था।पूर्वांचल का लोक जीवन ‘मनीआर्डर कल्चर’ से चलता रहा है। ‘लागल झुलनिया के धक्का, बलमु कलकत्ता पहुंच गए’ -यह गीत शादी के बाद पारिवारिक दायित्वों को निभाने, जीवनयापन के लिए घर से निकलने को दर्शाता है।लोकगीतों से प्रभावित फिल्मी गाना- ‘मेरे पिया गए रंगून, वहां से किया है टेलीफून, तुम्हारी याद सताती है’ या, ‘फेंक दिहले थरिया, बलमु गइले झरिया, पहुंचले की ना, उठे जिया में लहरिया, पहुंचले की ना’ गीत प्रवासन का वर्णन करते हुए, भूख और विस्थापन के साथ-साथ पारिवारिक रिश्तों, उनकी संवेदना को भी कुरेद रहे हैं।
मेहनत-मजदूरी कर दो पैसा कमाने वाले लोग, जब लंबे समय तक प्रवास में रहने लगे तब लोकजीवन में दूसरी समस्याएं सामने आने लगीं।रसूल मियां के नाटकों की कथावस्तु या भिखारी ठाकुर की बिदेशिया शैली, प्रवासन से उपजी है।आज भी लोकसमाज के युवाओं की बड़ी आबादी खाड़ी देशों या महानगरों में जाकर मजदूरी करने को बाध्य है।लोकजीवन के आर्थिक संबंध और आधुनिक तकनीकी ने केवल उन्हें बाजार निर्भर बनाया है, आत्मनिर्भर नहीं।ऐसे में रोजगार का अभाव सर्वत्र देखा जा सकता है।
उद्योग-धंधे नहीं विकसित होने से प्रवासन एक मजबूरी है।एक वह वर्ग भी है जो आधुनिक शिक्षा प्राप्त कर बाहर गया तो बेहतर नौकरी और आय के कारण वहीं बस गया।अब वह लोकजीवन को पिछड़ा और गैर-जरूरी समझ, उससे दूर हो गया है।सुरक्षा और सुविधा का अभाव भी लोकजीवन और प्रवासन को प्रभावित किए हुए है।
(6) लोकजीवन को यथास्थितिवादी रखने की आवश्यकता के बजाए, लोकजीवन के यथार्थ को सामने लाकर, परिवर्तन की चेतना का निर्माण करना, सिनेमा की जिम्मेदारी होनी चाहिए।लोकजीवन के यथार्थ को पहले भी विविध रूपों में सामने लाने के प्रयास हुए हैं। ‘गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो’, ‘दंगल’, ‘पार’, ‘अर्द्धसत्य’, ‘मदर इण्डिया’, ‘गंगा जमुना’, ‘तीसरी कसम’, ‘अछूत कन्या’ और ‘मधुमती’ जैसी फिल्मों ने लोक को समय-सापेक्ष फिल्माया।वर्तमान में ‘शूद्रा द राइजिंग’ या ‘कागज’ आदि फिल्मों ने लोकजीवन के वर्तमान को बेहतर तरीके से फिल्माया है।सिनेमा की दुनिया निश्चय ही एक बेहतरीन माध्यम है, लोकजीवन को प्रश्नांकित करने का, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि अब इस माध्यम को सत्ता के निरंकुश चंगुल में दबाया जा रहा है।कश्मीर फाइल जैसी फिल्मों से समाज को तोड़ने का काम किया जा रहा है।चेतना संपन्न और विरोधी विचारों को सामने लाने वाली फिल्मों का सफर ठहर गया है।इस माध्यम पर निरंकुशता का नियंत्रण है।
(7) मौजूदा समय में लोक जीवन, अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ रहा है।पूंजीवाद उसकी कमर तोड़ रहा है।बाजारवादी संस्कृति ने लोकजीवन को बिकाऊ बना दिया है, जबकि मूल रूप से वह गैर-बिकाऊ रहा है, सहयोगी और सहकारिता पर आधारित रहा है।पंइचा-उधार की संस्कृति में लोक पला है।नकदी से उसका कभी वास्ता न था।लोक अपने सामान के बदले सामान खरीदता, बेचता रहा है।जनपक्षधरता के अनुरूप इसमें बदलाव होता तो कोई बात नहीं, मगर हुआ यह कि इस लोक संस्कृति को तोड़कर, बाजारू मुनाफा के अनुकूल कार्पोरेट संस्कृति मजबूत हुई।उसके बाद लोकजीवन में स्वार्थ, लूट-फूट और झूठ, तीनों का समावेश देखा जाने लगा।सामूहिक प्रतिरोध की संस्कृति प्रभावित हुई।
इन सबके बावजूद, समय-समय पर लोकजीवन का प्रतिरोध, आमजन पर थोपी गई अमानवीयता के विरोध में उठ खड़ा दिखाई दिया।लोक संस्कृति में सिर्फ मनोरंजन नहीं होता, वहां स्व के बजाए आम का ख्याल रखने की परंपरा रही है।लोक संस्कृतियों ने कई बार संघर्ष की बुनियाद तैयार की है।कई बार इन्होंने अन्याय के विरुद्ध आम जनता को जगाया है, उन्हें गोलबंद किया है।जाहिर है, लोक संस्कृतियों, खासकर लोकगीतों का यह चरित्र शोषकों के विरुद्ध रहा है इसलिए उन्होंने लोकगीतों की धार कुंद करने के लिए इसे फूहड़पन की चासनी में डुबो कर, इसके मूल चरित्र को बदलने की कोशिश की है।इसे मदहोश करने वाला बनाया।आज भोजपुरी फिल्मी गानों में यही सब देखने-सुनने को मिल रहा है।
हम कुछ वर्षों से कोरोना काल में जी रहे हैं।लॉकडाउन और बाजारों के बंद होने से श्रमशील समाज के ऊपर जो आपदा आई, उसने बहुतों को तबाह किया।लोक ने उस काल में व्यवस्था की उपेक्षा देखी।अपने लिए दूसरों के घरों को बंद देखा और मजदूरों का पलायन भी, पैरों के छाले देखे।उन पीड़ाओं को तमाम कलाकारों ने अपने गीतों में गुनगुनाया।तमाम गीतों में मजदूरों का विस्थापन, कोरोना की पाबंदियों आदि का उल्लेख देखा जा सकता है।टीकमगढ़ के हरिचरण यादव गाते हैं-‘हालत बुरी भई मजूर की, मिट गए सब ठौर-ठिकाने’, उसी का एक उदाहरण है।
देश की आजादी के प्रारंभ से ही लोक साहित्य, जनपक्षधर आजादी न मिलने पर अपना प्रतिरोध दर्ज करता रहा है।रमाकांत द्विवेदी ‘रमता’ जी के गीतों में मुकम्मल आजादी न मिलने का दर्द अकारण नहीं दिखता- ‘हम त शुरूए में कहलीं कि सुलहा सुराज ई कुराज हो गइल, रहे जेकरा पे आशा-भरोसा उ नेता दगाबाज हो गइल।’
प्रतिरोधी लोक साहित्य को हम विजेंद्र अनिल और गोरख पांडेय जैसे गीतकारों की रचनाओं में देख सकते हैं। ‘जनता के आवे पलटनिया हिलेले झकझोर दुनिया’, गाने वाले लोक कवि गोरख पांडेय ने प्रतिरोधी लोक साहित्य को बदलाव का मुहावरा बनाया।उन्हीं का एक गीत, ‘समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई’, जन उपेक्षा की सत्ता पर, जन अपेक्षा का करारा व्यंग्य, लोक साहित्य का प्रतिरोधी तेवर है।विजेंद्र अनिल अपने तमाम लोकगीतों में प्रतिरोधी तेवर को जिंदा रखते हैं।वह कहते हैं- ‘रउरा सासन के ना बड़ुए जवाब भाई जी, रउरा कुरूसी से झरेला गुलाब भाई जी, रउरा भोंमा लेके सगरे आवाज करींला, हमरा मुंहवा पर डलले बानी जाब भाई जी।’ सूखा, बाढ़ या महंगाई पर लोक समाज अपनी प्रतिरोधी चेतना को लोकगीतों में व्यक्त कर, अपनी जिजीविषा को बचाए रखता है। ‘सखी सईयां त खूबे कमात हैं, महंगाई डायन खाय जात है’, उसी जिजीविषा का लोकगीत है, जो लोक समाज द्वारा सुना और सराहा जाता रहा है।इसलिए तमाम बंदिशों, उपेक्षा और खौफ के बावजूद, लोकजीवन और लोक साहित्य में प्रतिरोधी तेवर बने रहे और बने रहेंगे।
(8) बाजारीकरण के हस्तक्षेप से दिन-प्रतिदिन, लोक संस्कृतियों को विकृत किया जा रहा है।उनका मूल वजूद खतरे में है।ग्रामीण महिलाओं द्वारा अपनी वेदना, दुख-तकलीफ की अभिव्यक्ति को लोकगीतों के माध्यम से व्यक्त किया जाता रहा है।श्रमशील जीवन के बदलावों के कारण भी जंतसार, कहरवा, धोबिया, हुड़का, पखावज, गोंड़ऊ नृत्य जैसी लोक संस्कृतियां समाप्त हो चली हैं।दरअसल हर प्रकार के लोक साहित्य, लोककला और लोकगीत को सहेजा नहीं जा सकता।उनको संगृहीत किया जा सकता है, जिससे बदलते लोकजीवन के अनुरूप, लोक साहित्य और लोक कला का सृजन हो।जब कंहारी खत्म हो गई तो कंहरवा लोकगीत को लोक में गाया और सुना नहीं जा सकता।सरकारी संस्थाएं अधिक से अधिक इनको लिपिबद्ध कर सकें, इन गीतों और कलाओं को संग्रहित कर लिया जाए, यही बहुत है।ग्रामीण महिलाओं के पास, लोकगीतों की वाचिक परंपरा की जो थाती है, उसको अधिक से अधिक संग्रह कर प्रकाशित कर लेना चाहिए।जो पुराने वाद्ययंत्र हैं, उनका निर्माण कर, उपयोग में लाने के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए।जो लोक गीत, लोक कलाएं जिंदा हैं, उन्हें संवारने, बचाने के लिए, उनके प्रति सम्मानभाव पैदा किया जाना चाहिए।लोक कलाकारों को मंचों पर भरपूर सम्मान और सुविधाएं मिलें।उनका राजनीतिक उपयोग न हो।उनकी कला और प्रस्तुतियों को आजादी मिले, तभी बची-खुची लोक कलाएं लोक में स्थान सुरक्षित रख पाएंगी।
और यह सब बहुत जरूरी काम है।किसी भी समाज की संवेदनात्मक अनुभूतियों का विकास, लोक-संस्कृतियों के बिना संभव नहीं है।समरसता और भाईचारा को बचाए रखने के लिए भी लोक-संस्कृतियों का बचा रहना जरूरी है।अंग्रेजी कवि टेनीसन ने कहा है कि -‘जिस समाज में लोकगीत नहीं होंगे, उस समाज में पागलों की संख्या अधिक होगी।’ आज वैश्वीकरण के नए जमाने में जहां धनलोलुपता सामाजिकता, समरसता और भाईचारा के लिए खतरा बन चुकी हो, ऐसे समय में सामूहिकता को सहेजना, मिल बैठकर एक साथ गाना-बजाना, मनोरंजन करना, श्रम की थकान, भूख-प्यास और गरीबी के बीच जिजीविषा को बचाए रखना, साथ ही साथ लोक-संस्कृतियों को सम्मान देना बहुत जरूरी काम है।इसे किया जाना चाहिए।
बी 4/140 विशालखंड, गोमतीनगर, लखनऊ-226010
लोक की विरासत अभिलेखागारों में संरक्षित निर्जीव वस्तु नहीं है
विद्या बिंदु सिंह लोक साहित्य की गंभीर अध्येता एवं सुपरिचित कथाकार।लोक साहित्य, नाटक, उपन्यास, कविता और बाल साहित्य के क्षेत्र में दो दर्जन से अधिक रचनाएं प्रकाशित।पद्मश्री सम्मान। |
(1) 21वीं सदी में लोक की दुनिया और दुनिया में लोक उसी प्रकार व्याप्त है जैसे पहले था।अंतर यही है कि उसे देखने समझने का चाव कम हो गया है।उसका महत्व आंकने की कोशिश कम हो गई है।किंतु जब हम कोई बहुमूल्य संपत्ति खो देते हैं तो उसका मूल्य समझ में आने लगता है।इस दृष्टि से हम आज लोक की संपदा के संरक्षण, संकलन और मूल्यांकन के बारे में सोचने को बाध्य हुए हैं, क्योंकि परिस्थितियों ने समझा दिया है कि लोकहित के लिए यह कितना अपरिहार्य है।
(2) लोक-संस्कृति में बाजार और उपभोक्तावादी संस्कृति के प्रभाव का जो प्रश्न है उस पर मंथन आवश्यक है।आज बाजार और उपभोक्ता संस्कृति जीवन के हर क्षेत्र में हावी होती जा रही है।यहां तक कि मानवीय रिश्तों, पारिवारिक संबंधों पर भी यह कुंडली मारकर बैठ गई है।आज संबंधों में आत्मीयता का स्थान लाभ-हानि के गणित ने ले लिया है।लोक-संस्कृति जो कल्याणकारी उद्देश्य रखती है, वह सबके लिए हवा, पानी, प्रकाश की तरह सुलभ रही है।उसे अब क्रय-विक्रय से जोड़ दिया गया है।लोक की उदारता से सहज प्राप्त होने वाली संपदा का व्यापार होने लगा है।लोक-कलाएं, लोक साहित्य का प्रिंट मीडिया से लेकर फिल्मी परदे तक दोहन ही नहीं, उसका प्रदूषण भी हो रहा है।आकर्षक चमक-दमक लाने के लिए मनमाने ढंग से प्रयोग हो रहे हैं।उसकी मूल आत्मा या मूल भाव लुप्त हो रहे हैं।यह भी सत्य है कि लोगों की रुचि जगी है और वे लोक की शक्ति को जानने-समझने का प्रयास करने लगे हैं।
(3) लोक की दुनिया में आभासी संसार और तकनीक का प्रभाव बहुत पड़ा है।मन में, कंठ में या हाथों के हुनर में, व्यवहार में, रीति-रिवाजों, संस्कारों के अवसर पर जिस लोक-संस्कृति को देखने-समझने का अवसर मिलता रहा है, वह अब आभासी पटल पर विस्तृत समाज का ध्यान आकृष्ट कर रहा है।लोग अपनी रुचि, अपनी अभिव्यक्ति और आशा-आकांक्षा को प्रस्तुत करके आत्मसंतोष प्राप्त कर रहे हैं और विस्तृत समाज को अपनी प्रतिभा से परिचित करा रहे हैं।श्रव्य-दृश्य साधन, ध्वन्यांकन, फिल्मांकन से इस धरोहर को सहेजने और आगे की पीढ़ियों तक प्रसारित करने का अवसर भी मिल रहा है।पर इसमें भी सचेत रहने की जरूरत है कि यह लोक के स्वर को, उसकी साधना को सही पहचान दे रहा है या उसे विकृत रूप में प्रस्तुत कर रहा है. परिवर्तन समाज की आवश्यकता और स्वभाव है, पर वह किस दिशा में हो रहा है उसके लिए विवेक जरूरी है।
कहीं वह हमारी भारतीय संस्कृति के प्रति किसी दुर्भावनावश या व्यावसायिक प्रलोभन के दुश्चक्र में तो नहीं है, इसका सिंहावलोकन होते रहना चाहिए।परंपरा प्रगति का पीछे से आगे बढ़ता कदम है, उसमें जो छूट रहा है उसपर भी दृष्टि होनी चाहिए।जो आगे बढ़ा कदम है, वह क्या ग्रहण कर रहा है, उसे भी जांचने की जरूरत है।पीछे देखना अपनी पारंपरिक विरासत का मूल्य समझना है और आगे देखना समय की मांग है।
(4) लोकजीवन में खेती, किसानी और युवाओं की उपस्थिति देखने का प्रश्न आज की आवश्यकता है।आजादी के बाद युवा वर्ग की परिस्थितियों का अध्ययन किया जाए तो उसकी आकांक्षा, उसकी हताशा, उसका गांव से पलायन अपने पैतृक व्यवसाय या खेती बारी से अरुचि आदि स्पष्ट घटनाएं हैं।उसके लिए हमारी शिक्षा पद्धति, जो विदेशी शासकों द्वारा थोपी गई थी और आज तक ढोई जा रही है, वह उपर्युक्त घटनाओं के लिए बड़ा कारण है।आज शिक्षा पद्धति में लोक-अध्ययन को महत्व दिया जा रहा है।वह लोक-व्यवसाय के साथ-साथ लोक-कलाओं और लोक-साहित्य के प्रचार प्रसार के लिए आवश्यक कदम होगा।पहले लोक-संस्कृति को, लोक-भाषाओं को वैकल्पिक विषय के रूप में रखा गया था, पर उसे मुख्यधारा से और अनिवार्य विषयों में देने की पहल आज की आवश्यकता है।युवा वर्ग अपनी धरती के महत्व को समझे, अपने व्यवसाय के प्रति गौरव बोध मन में पाले और नई तकनीक का ज्ञान प्राप्त करके कृषि कार्यों से जुड़े तो यह शुभ संकेत होगा।
(5) लोक-जीविका और प्रवासन की स्थिति के विषय में यही कहना चाहूंगी कि जब लोक ज्ञान को रोजगार और शिक्षा से जोड़ा जाएगा तो लोक ज्ञान विज्ञान के प्रति जन सामान्य से लेकर प्रबुद्ध वर्ग तक की रुचि जगेगी।गांव से पलायन रुकेगा, देश से विदेश की ओर का पलायन और प्रवासन रुकेगा।प्रवासी भारतीयों का अपनी जड़ों की ओर लौटने का मोह है।उनके संस्मरण इस दिशा में सहायक होंगे।
(6) सिनेमा की दुनिया में लोक स्थापित हुआ है।अब छोटे परदे पर भी उसका साम्राज्य है।सिने जगत की मांग है लोक-संपदा, क्योंकि उसमें अपना नयापन है, अपनी महक है।उसमें मिट्टी के लोंदे के समान हर आकार में ढलने की सरलता है।पानी की तरह तरलता है, हरे बांस की टहनी की तरह लचीलापन है।उसे परदे की मांग के अनुसार सिने जगत या अन्य पटल पर डालने के लिए सभी स्वतंत्र हैं।इनपर कोई अंकुश नहीं है, क्योंकि वह लोक-संपदा है।इसपर किसी का एकाधिकार नहीं है।पर यहां बड़े प्रश्न चिह्न भी हैं कि कितना, कैसे और क्यों इसका उपयोग किया जाए? इसपर अंकुश लगाने के लिए लोक की आचार संहिता का पालन आवश्यक है।लोक की आचार संहिता लिखित नहीं है।यह लोक-व्यवहार में है, लोक-विश्वास में है, जिसका मूल भाव या लक्ष्य है लोक कल्याण या लोकहित।उसे गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में, ‘कीरति भनिति, भूति भलि सोई/सुरसरि सम सब कहँ हित होई’ कहा जा सकता है।हम लोक गंगा के प्रवाह को निर्बाध आगे बढ़ाने वाली शक्ति का अक्षय स्रोत बनाए रखें, वह मानसिकता सदैव बनी रहनी चाहिए।
(7) लोक-जीवन और लोक साहित्य परस्पर अन्योन्याश्रित हैं, उनके बीच कोई विभेदक रेखा नहीं है।लोक द्वारा सृजित लोक-साहित्य है।लोक-साहित्य का प्रतिरोध लोक से है ही नहीं।लोक की ओर से यदि प्रतिरोध का प्रश्न उठता है, तो वह लोक है ही नहीं।
लोक-चेतना का विस्तृत अर्थ है संपूर्ण चराचर सृष्टि में व्याप्त होने वाला लोक-मन।लोक का एक अर्थ विश्व भी है।विष्णु सहस्रनाम में एक नाम है विश्व।जो विष्णु है, ईश्वर के विराट स्वरूप में समाहित है वह लोक हैं।जो लोक-साहित्य का प्रतिरोध करता है वह हिरण्यकश्यप की भांति ईश्वर का द्रोही है।ईश्वर द्रोही का अर्थ है मानवता द्रोही।इसलिए इस ओर ध्यान देने की आवश्यकता है, ताकि मानवता और मानुष गंध बची रहे।
(8) लोक-विरासत को सहेजने के लिए आज चिंता हो रही है, प्रयास भी हो रहे हैं पर यह अभिलेखागार या संग्रहालय में संरक्षित करने वाली निर्जीव वस्तु नहीं है।आने वाली पीढ़ियों के लिए उसे सहेजना जरूरी है।यह जीवंत संस्कृति की संवाहक है।अत: इसे लोक-व्यवहार में प्रयुक्त होते रहना ही इसके संरक्षण का सही उपाय है।यह प्रयास केवल सरकारी संस्थाओं के आश्रित होकर ही नहीं किया जाना चाहिए।सरकारी प्रतिष्ठानों का, संस्थाओं का दायित्व तो है ही, परिवारों का, विद्यालयों का भी दायित्व है कि लोक-संस्कृति को संरक्षित करके अपने समाज, अपने परिवार को संस्कारित करने का प्रयास करें।
श्री वत्स 45, गोखले विहार मार्ग, लखनऊ–226001
लोककला और साहित्य संग्रहालय की वस्तुएं नहीं हैं
सदानंद शाही सुपरिचित कवि, आलोचक और ‘साखी’ के संपादक।बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में वरिष्ठ प्रोफेसर।हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘मेरे राम का रंग मजीठ है।’ |
(1) ऐसा नहीं है कि लोक में कभी कोई बदलाव नहीं होता था, बदलाव होता था।बदलाव के मूल में जीवन के सहज क्रम में घटित परिवर्तन थे।21वीं सदी में जैसे जीवन की सहजता गायब हो गई है।एक तेज रफ्तार रोशनी है जो सब कुछ बदल देना चाहती है।ऐसे में लोक की दुनिया उजड़ रही है।आज की दुनिया में लोक उत्पाद की शक्ल लेने को अभिशप्त है।इसे मुक्तिबोध ने कभी अपनी कविता में कहा था- सब बस्तियां दिल को उजाड़े डालता, करता, हमें वह घेर, बेबुनियाद, बेसिर-पैर, हम सब कैद हैं उसके चमकते ताम-झाम में।तो लोक एक उजड़ती हुई दुनिया है।
(2) उपभोक्तावादी संस्कृति ही वह तेज रफ्तार रोशनी है।रोशनी है पर आंखों को चौंधिया देने वाली।इसमें जोर उपभोग पर ज्यादा है, संस्कृति पर कम।बाजार की भी प्रकृति बदल गई है।पहले के बाजार में एक खास तरह की सामूहिकता होती थी, मिलना-जुलना होता था।यह मिलना-जुलना संस्कृति के प्रसार में सहायक होता था।लोक संस्कृति जैसी है, उसी रूप में उसका प्रसार।अब जोर मुनाफे और उपभोग पर है।अधिकतम उपभोग और अधिकतम मुनाफा।नए किस्म के बाजार के लिए ‘लोक संस्कृति’ भी एक उत्पाद की तरह है।उत्पाद से कितना मुनाफा कमाया जा सकता है, जोर इस पर है।मुनाफे के चक्कर में लोक संस्कृति की पैकेजिंग हो रही है।वह जैसी है बिलकुल वैसी नहीं, बल्कि उसे और चमकदार और भव्य और आकर्षक बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है।नतीजा लोक संस्कृति विरूपित हो रही है।
(3) लोक की दुनिया में तकनीक पहुंची है।जाहिर है, एक आभासी संसार भी निर्मित हुआ है।बावजूद इसके लोक की दुनिया पर अभी इसका वैसा नकारात्मक असर नहीं पड़ा है, जैसा पड़ सकता था।कारण यह है कि जिसे हम लोक कहते हैं उसकी वास्तविकताएं इतनी दुरूह हैं कि वे बहुत दूर या देर तक आभासी संसार में नहीं जा सकते।
(4) खेती किसानी की स्थिति दिनोंदिन खराब हुई है।इतनी कि हम भूल-से गए हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है।एक बात स्पष्ट होनी चाहिए कि खेती-किसानी के आज भी कई संस्मरण हैं।बड़ी जोत के किसान हैं, मझोली और छोटी जोत के किसान हैं।इसके अलावा, भूमिहीन किसानों की एक बहुत बड़ी आबादी है।इस आबादी को किसान कहना भी मुनासिब नहीं है।हालांकि ऐसे लोग अपनी आजीविका के लिए कृषि-आधारित श्रम से अपनी आजीविका चलाते हैं।इस हद तक कि शायद उनकी दक्षता या कुशलता का क्षेत्र कृषि से जुड़े रोजगार ही हैं।अनेक कारणों से ऐसे लोगों को आजीविका की तलाश में अपने मूल स्थान को छोड़कर नगरों की ओर जाना पड़ता है।वहां उनकी गिनती अकुशल मजदूर में होती है, जबकि वे खेती से जुड़े पेशों में पर्याप्त दक्ष होते हैं।ऐसा नहीं कि केवल भूमिहीन किसानों/मजदूरों की युवा पीढ़ी गांव और खेती-किसानी से विलग हो रही है।जिनके पास भूमि है, उनकी भी अगली पीढ़ी किसानी से अलग जीवन की तलाश में हैं।अगर कोई नौकरी या रोजी-रोटी मिल गई, तब तो वे खेती-किसानी से अलग हो ही जा रहे हैं।यदि कोई भिन्न रोजगार नहीं मिलता और उन्हें लौटकर वापस खेतीबारी में लगना पड़ता है तो एक तरह का दुचित्तापन उनके यहां मौजूद है।इसलिए लोक में युवाओं की उपस्थिति क्रमशः कम होती गई है।
(5) प्रवासन का इतिहास बहुत पुराना है।खास तौर से हमारे पूरबी हिस्से में प्रवासन का पुराना इतिहास रहा है।इस प्रवासन की जानकारी लोकगीतों में भी मौजूद है। ‘रेलियां न बैरी जहजिया न बैरी बलु पइसवा बैरी ना/पिया गइलें कलकतवा बलु पइसवा बैरी ना…।’ भिखारी ठाकुर के बिदेसिया के मूल में प्रवासन ही है।लेकिन इधर स्थिति और बदली है।स्थानीय स्तर पर आजीविका के अवसर कम हुए हैं और होते जा रहे हैं।उपभोक्तावाद के सांस्कृतिक आक्रमण से जीवन की लालसाएं बदल गई हैं।सहज नहीं, बल्कि कृत्रिम जीवन जीने की चाहत बढ़ी है।इस वजह से लोक से हमारी आत्मीयता खंडित हुई है।
(6) दोनों बातें हैं।सिनेमा की दुनिया की भोंडी प्रस्तुति हो रही है, लोक संवेदना के दोहन और विरूपण का काम हो रहा है।भोजपुरी सिनेमा उद्योग ने लोक के विरूपण का काम बहुत तेजी से किया है।फूहड़ और द्विअर्थी गायन की बहार रही है।ऐसे फूहड़ गायक लोक के और भोजपुरी के प्रतिनिधि बने हुए हैं -यह दुर्भाग्यपूर्ण है।लेकिन सिनेमा में लोक संवेदना का कलात्मक इस्तेमाल भी हुआ है।जहां-जहां कलात्मक इस्तेमाल दिखाई पड़ता है, वहां लोक की छवि सही ढंग से प्रस्तुत हुई है।इस बात को समझने के लिए भोजपुरी के तथाकथित सुपर स्टारों द्वारा गाए फूहड़ और द्विअर्थी गीतों को देख लें।दूसरी ओर ‘मोर सैंया तो खूबै कमात हैं/महंगाई डायन खाए जात है’ जैसे लोक धुन पर आधारित गीतों को देख सकते हैं।इनमें प्रतिरोध की झीनी-सी चेतना भी है और विषम परिस्थितियों का मजाक बनाने वाली लोक की अदम्य जिजीविषा भी।
(7) लोक जीवन में और लोक साहित्य में प्रतिरोध की सहज चेतना मौजूद है।तमाम तरह के अभाव के बीच और भौतिक जटिलताओं के बीच जीवन जीने का अभ्यासी लोकमन अन्याय और अत्याचार के ही नहीं, बल्कि दिखावे, झूठ और पाखंड के प्रतिरोध का वितान भी रचता रहा है।ध्यान से देखें तो यह प्रतिरोध किसी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा नहीं है; बल्कि लोकमन की सहज प्रतिक्रिया के रूप में आता है।लोक प्रायः ऐसे अवसरों पर व्यंग्य का इस्तेमाल करता है।जाने कब से लोक ने व्यंग्य को प्रतिरोध का हथियार बनाया है।इस बात को समझने के लिए हम कबीर की कविता का उदाहरण ले सकते हैं।
कबीर की व्यंग्यधर्मिता का लोक से गहरा नाता है।एक उदाहरण देखिए- ‘नून देबि मंगनी तेल देब मंगनी; सइंया के मंगनिया ना देबि/हमरो पियवा डंडी के जोखल; घटिहे त केकरा से लेबि।’ यह बिरहा है जो भोजपुरी इलाके में गाया जाता है।इसे सुनते हुए बरबस कबीर याद आते हैं-
‘परोसिनि मांगे कंत हमारा/ पीव क्यूं बौरी मिलहि उधारा॥ मासा मांगे रती न देऊं, घटे मेरा प्रेम तौ कासनि लेऊं/राखि परोसिनि लरिका मोरा, जे कछु पाऊं सु आधा तोरा/बन बन ढूंढि नैन भरि जोऊं, पीव न मिलै तो बिलखि करि रोऊं/कहै कबीर यहु सहज हमारा, बिरली सुहागिनि कंत पियारा॥’
कबीर के यहां लोक भरा हुआ है।लोक चेतना में मौजूद प्रतिरोध की सहज चेतना की अभिव्यक्ति जिस तरह कबीर के यहां है, वह हमारा रोल माडल हो सकता है या होना चाहिए।
(8) लोक साहित्य, लोक कला और लोकगीतों को सहेजने के कई मॉडल हमारे सामने हैं।रामनरेश त्रिपाठी, देवेंद्र सत्यार्थी, कृष्णदेव उपाध्याय जैसे मनीषियों ने एक रास्ता दिखाया है।मुझे लगता है कि लोक को सहेजने का सही मॉडल यही है।राजस्थानी के महत्वपूर्ण कथाकार विजय दान देथा ने रूपायन नाम की संस्था बनाई थी और उसके माध्यम से लोक साहित्य और लोक कलाओं का संरक्षण किया था।ऐसे और भी उदाहरण मौजूद हैं। ‘मड़ई’ पत्रिका के माध्यम से कालीचरण यादव, उधर बुंदेलखंड में बहादुर सिंह परमार जैसे लोग निरंतर लगे हुए हैं।लेकिन बात केवल संरक्षण की नहीं है।हमारे यहां एक दौर में वासुदेव शरण अग्रवाल जैसे साहित्य मनीषियों ने जनपदीय आंदोलन की अवधारणा प्रस्तुत की थी, जिसमें समूची जनपदीय ज्ञान संवेदना को संजोने की बात की गई है।हमें यह बात समझनी होगी कि लोक कला और साहित्य संग्रहालय में सहेजने की नहीं, बल्कि जीवन व्यवहार में बरतने की चीज है।समय की मांग है कि लोक संस्कृति और साहित्य का अध्ययन मात्र कुतूहल और मनोरंजन के लिए नहीं, बल्कि उसमें निहित भाव, कला, कौशल और सौंदर्यानुभूति का उपयोग जीवन को बेहतर बनाने के लिए किया जाए।
लोक के विकास में सरकारी संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है, बशर्ते लोक को समर्पित संस्थाएं उपयुक्त लोगों के हाथ में रहें।लेकिन ऐसा हो कहां पाता है! बहुत पहले प्रेमचंद ने अपनी एक कहानी में यह बात उठाई थी कि हमारे यहां सही लोगों को सही जगह पर नियुक्त करने का माद्दा नहीं रहा है।सरकारी तंत्र में यदि सही लोगों को पहचानने का विवेक आ जाए तो सरकारी संस्थाओं की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है।लेकिन बकौल रघुवीर सहाय ‘जो नहीं है, जैसे कि सुरुचि, उसका ग़म क्या!
साखी, एच 1/2 वी.डी.ए. फ्लैट, नरिया, बी.एच.यू. वाराणसी-221005 मो. 9450091420
क्या भविष्य में लोक के गुण बचे रहेंगे
महेश कटारे बुंदेलखंडी किसान परिवार के सुपरिचित कथाकार–नाटककार।साहित्य अकादेमी, म.प्र. का सुभद्रा कुमारी चौहान पुरस्कार, कथाक्रम सम्मान, श्रीलाल शुक्ल सम्मान आदि।हालिया प्रकाशित किसानों की आत्मकथा पर आधारित नाटक, ‘हे राम!’। |
(1) लोक का आशय केवल वनीय जनपद या मात्र ग्राम समूह नहीं है।आधुनिकता की आसक्ति में कुछ लोग लोक को ‘फोक’ में सीमित कर लेते हैं, यानी असभ्य, जंगली (वन्य)! यूं लोक शब्द- ‘लोक्यतेऽसौ लोक’, अर्थात विशिष्ट प्रतीति वाले किसी क्षेत्र, भूभाग को माना जाना चाहिए।इहलोक और परलोक भी होते हैं।पुराणों में त्रैलोक की परिकल्पना है।रघुवंश में भूभाग और उसपर बसने वाले जनसमूह को लोक कहा गया है- ‘स्वसुख निरभिलाष खिद्यसे लोकहेतो’।
तो यही मत ठहरता है कि प्राकृतिक साहचर्य में जीवन जी रहे जनसमूह वाला विशिष्ट भूखंड ही लोक है।२०वीं सदी में मशीनीकरण और असंतुलित दोहन ने लोक को विरूप तथा उसके प्रभुत्व को खंडित किया है।इससे आत्मनिर्भर लोक अपनी जड़ों से उखड़कर या तो प्रभुवर्ग का उपनिवेश बना है या रोजी रोटी की तलाश में चाकर होने की इच्छा लिए महानगरों में झुग्गी-झोपड़ियों, गंदी बंस्तियों तथा निर्माण स्थलों के आसपास छितराया हुआ है।इसे एक रूपक द्वारा समझा जा सकता है कि‘भारत’ या हिंदोस्तान लोक है जो ‘इंडिया’ के यहां झा़ड़ू-पोंछा तथा चौकीदारी और चाकरी का उद्यम कर रहा है।
(2) लोक संस्कृति का आधार है- सामूहिक आत्मनिर्भरता, सामूहिक उत्पादन, जीवनचर्या, उत्सव, भाषा गीत तथा कथाएं जैसे व्यवहार।बाजार ने इनमें सेंध लगाकर प्रवेश किया है और अब वह नियामक बन बैठा है।बाजार ने लोक को चमकीली वस्तुएं कुछ उपयोगी माल के साथ परोसीं और स्थानीय उत्पादन को प्रतियोगिता से बाहर निकाल दिया।फिर जो क्रम शुरू हुआ तो खान-पान, वेशभूषा से लेकर गीत, मंत्र तथा भाषा भी बेदखल कर दी।त्योहारों को नए दिनों ने घेर लिया।लोक में वस्तुओं के पुनरुत्पादन का प्रचलन था।घूरे से भी खाद बनाया जाता था।अब ‘यूज एंड थ्रो’ का प्रचलन बढ़ गया।
विडंबना यह है कि बात वस्तुओं से आगे व्यक्तियों तक जा पहुंची है।मानवीय संबंधों तक में बाजारी लाभ-हानि का गणित पांव पसारता दिखने लगा है।कभी लोग संबंधों और बात पर ‘बिना मोल बिक’ जाते थे।अब रिश्ते और उसूल मोलभाव से तय होने लगे हैं।हम जानते हैं कि भाषा या बोली (भी) अपनी खास संस्कृति का दर्पण होती है।बोलियाँ टूटने, छूटने से भाषा भी विपन्न होती है।उसे नए और अर्थशक्ति-संपन्न शब्द बोलियों से ही मिलते हैं, यहाँ तक कि छंद भी।लोक के विघटन से देश की भाषा और संस्कृति बाजार-प्रभुओं की उतरन पहनने लगती है।
(3)आरंभ में आभासी संसार ने लोक को चमत्कृत और आकर्षित किया था, पर अब इसके प्रभाव को पीढ़ियों के स्तर पर देखना होगा।जानकारी और मनोरंजन के स्तर पर यह उपयोगी भी है, किंतु युवा पीढ़ी इसकी बात में फँसती जा रही है।किशोरवयी भी इसकी गिरफ्त में है।गो कि इसके लाभ भी हैं, पर तकनीकी और इसका बाजारू पक्ष लालसा व भ्रम से घिरा है।आभासी संसार उपभोक्ताओं से उनके कार्य का समय तथा व्यक्तित्व का संकल्प छीनकर भीतर छूछापन भरता है।लोक अनुमान का अभ्यस्त रहा है।उसका इंद्रियबोध इतना प्रबल रहा है कि ध्वनि और गंध से ही वस्तु, दृश्य जीवन की उपस्थिति का अनुमान लगा लेता है, किंतु आभासी दुनिया की तकनीक ने जो कृत्रिम बोध विकसित किया है, वह लोक को पारंपरिक और प्राकृतिक ज्ञान-सरणि से अलगाकर चाबी का खिलौना बनने जैसी स्थिति की ओर धकेल रही है।
अभी तक उसे प्रकृति और परंपरा सिखाती रही है कि जहां कलकल ध्वनि है वहीं, प्रपात या प्रवाह है, जहां धूम्र है वहां आग भी होगी।गंध से फूल, फल, वनस्पति, जीव का अनुमान लग जाता था, अर्थात आभास लोक की एक आध्यात्मिक आदत है। आभास आदत और विरासत है लोक की।लोग जानते हैं कि पलक खोलने पर सामने एक संसार खुलता है और बंद करने पर वह तिरोहित हो जाता है।
(4) समय के साथ उपादान और व्यवहार बदल रहे हैं।अतः लोक का रूप भी बदल रहा है और उससे जुड़े तमाम कारक भी।चूंकि लोक का अस्तित्व ही प्रकृति से साहचर्य और उस पर निर्भरता से जुड़ा है तो खेती-किसानी तथा इससे जुड़े उद्योग ही उसकी आजीविका के प्रमुख साधन हैं।किंतु खेती अलाभकारी उद्यम बनते जाने से नई पीढ़ी में इसके प्रति स्पष्ट अरुचि है।कभी ‘उत्तम’ मानी जाने वाली खेती अब ‘अधम’ कही गई नौकरी से बहुत पीछे है।नौकर अर्थात कर्मचारी।अधिकारी के आगे किसान हाथ जोड़े ही खड़ा दिखता है, कभी-कभी तो घिघियाता झोली फैलाए भी।कोई युवा अपने भविष्य को होरी या हलकू की नियति से नहीं जोड़ना चाहता।यूँ भी मशीनों ने मनुष्य का स्थान खेती में भी लिया है तो हाथ खाली हुए हैं।युवकों की एक बड़ी संख्या फाजिल, अवांछनीय हुई है।पशुपालन के लिए चारागाह लुप्त हुए हैं या निहायत सिकुड़ गए हैं।फिर इनमें गर्मी, सर्दी, बरसात के साथ जोखिम भी सहनी होती है।नौकरी में आंधी, पानी, आग, ओले का कोई खतरा नहीं।अतः युवा उसी ओर दौड़ रहा है।ज्यादातर जरूरतें शहर से पूरी होती हैं तो युवा भी उसी ओर देख रहा है।
(5) हम सभी देख रहे हैं कि गांव अब सूने होते जा रहे हैं।बुआई और फसल कटाई के खास समय को छोड़ दें तो अंचल या गाव में अब काम नहीं है।बीमार होने पर कस्बे या शहर का रुख करना पड़ता है।मशीन ने मानव श्रम को अपदस्थ किया है।एक मझौला काश्तकार भी दिन-रात खपकर किसी चपरासी से कम कमा पाता है।मनरेगा का अधिकांश अधिकारियों, सरपंचों के पेट में जाता है।वनोपज और खदानें सरकारी अथवा ठेकेदारों के नियंत्रण में हैं, ऊपर से शहरी-चमक-दमक और ठसक का आकर्षण तथा टीवी., फिल्म, क्रिकेट, अपराध की दुनिया से छनकर आता रातोंरात करोड़पति बनने का सपना है। ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ जैसी मरीचिका के रंगीन दृश्य हैं।विलासपूर्ण जीवन का प्रलोभन है।गांव में कर्ज और विफलता की चुभन।मुख्यतः यही वे कारक हैं जो युवाओं को गांव, जनपद छोड़ने को प्रेरित करते हैं।
पुरानी पीढ़ी ‘यथा आय संतोष’ में जी लेती थी।नई पीढ़ी के लिए वैसा संभव नही रहा।यूँ नगरों-महानगरों के लिए कच्चे माल और जीवनोपयोगी जिंस, उपस्करण की पूर्ति लोक से होती है।शहर कुछ नहीं बनाता।वह तो आढ़त या एजेंट का दलाल का काम करता है, पर रोजगार गांव, जनपदों में नहीं, शहरों की दखलदारी तथा नियंत्रण में सृजित होते हैं।
(6) सिनेमा ग्लैमर और काल्पनिक यथार्थ का आभासी माध्यम है।यह अन्य दृश्य-श्रव्य माध्यमों में सबसे प्रभावी भी है।इसके सकारात्मक पक्ष से इनकार नहीं किया जा सकता। ‘पथेर पांचालि’, ‘चेम्मीन’, ‘दो बीघा जमीन’, ‘मदर इंडिया’, ‘पार’, ‘मुझे जीने दो’, ‘तीसरी कसम’, ‘बेन्टिड क्वीन’ जैसी यादगार लोक संपृक्त फिल्मों के जरिए लोक की खूबियों-खामियों को पूरी संवेदना और उत्कटता से सैल्यूलाइड पर उतारा गया है।खेद है कि अब लोक या देहात फिल्मों से ओझल है।फिल्में अब प्रवासियों की जेब को ध्यान में रखकर बनाई जा रही हैं।प्रायः हर फिल्म में नायक-नायिकाएं विदेशी धरती पर नाचते-कूदते, चिपकते दिखाई देते हैं।अधिकतर निर्माता निर्देशकों को लोक की समझ ही नहीं है।वे लोक से बिकाऊ तलछट उठा लेते हैं।सिनेमा लोक को न स्थापित कर पा रहा है न प्रश्नांकित, वह तो उसे विरूपित ही कर रहा है।
(7) लोक में प्रतिरोध अनुकूलन के लिए होता है और प्रतिरोध के सौंदर्य का उत्स भी वही है।यहां जीवन को सदैव नकारात्मक शक्तियों से लड़ते रहना होता है।अतः यह लोक का अस्त्र है साथ ही औजार भी है।लोक साहित्य में प्रतिरोध की कोपलें स्वतः फूटती हैं।1857 का स्वातंत्र्य काल प्रतिरोध के स्वरों से भरा पड़ा है।कुछ उदाहरण हैं-
‘जाहु पिया तुहू कुंवर (बाबू कुंअर सिंह)की लड़इया में, छोड़ देहु कदरहिया ए हरी/ लागे सरम लाज जो घर में बइठ जाहु, मरद से बनि के लुगइया ऐ हरी ई।(भोजपुरी)।
या बृजभाषा में है- ‘फिरंगी नल मत लगवावै/नल कौ पानी बहुत बुरौ मेरी तबियत घबराबै।’
बिरसामुंडा, गंगाधर गोंड, खज्या भील, भीमा नायक आदि के साहस और वीरता भरे गीत, किस्से प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं।किंतु लोक अब खंडित हो रहा है।सामूहिकता लोकजीवन के प्रतिरोध की शक्ति तथा पहचान थी, वह अब क्षीण हो गई है।
(8) पहले यह समझना होगा कि लोक परंपरागत मान्यताओं तथा जीवन का व्यावहारिक है।आक्रामक आधुनिकता से लोक की जीवनचर्या का अंतःसत्व विच्छेदित होता है।पारस्परिकता लोक-जीवन का सृष्टिगत विवेक है।अतः उसके गीतों की लय और छंद को प्राकृतिक साहचर्य के आलोक में आंकते- हेरते सहेजना पड़ेगा।लोक में कला और साहित्य जीवन के दाना-पानी की भांति हैं।वे जन-समूह की भौतिक तथा आध्यात्मिक रिक्ति को भरते हैं।फ्रायड भले कला को ‘दमित वासनाओं का उभरा हुआ स्वरूप’ कहे, किंतु हमारे यहां कला धरती की सांस तथा ईश्वरीय उल्लास मानी गई है- निष्कलुष और पवित्र।
लोककलाएं, लोक साहित्य ऐसी ही ठंडी, गर्म सांस और उल्लास की प्रतिकृति हैं।नागरी या कथित सभ्य समाज को चाहे वे अनगढ़ प्रतीत हों, पर उनमें आदिम सौंदर्य के साथ जीवन की धड़कन गुंथी हुई है।बाजार ने यद्यपि यहां भी प्रवेश पा लिया है, फिर भी इस कला और साहित्य में निष्पाप सौंदर्य की प्रतीति सांत्वना प्रदान करती है।सरकार ही नहीं, स्वयंसेवी संस्थाओं तथा सक्षम व्यक्ति/ समाज को भी इनका संरक्षण करना होगा।
टेक्नालॉजी की तीव्रता में हॉफते समय में देखते-देखते हजारों गीत, लोक कथाएं, शिल्प लुप्त हो चुके हैं, बोलियाँ छीज रही हैं।मध्य प्रदेश में शासकीय स्तर पर इनके संरक्षण, संवर्धन का स्तुत्य प्रयास हुआ था, किंतु अब साहित्य और कला को वोट के बाँट से तौला जाने लगा है।ऐसे में भय है कि भविष्य में न लोक का गुण बचेगा और न गुणी बचेंगे।
बिल्हैटी, ग्वालियर, मध्य प्रदेश–474006 मो.9425364213
संपर्क: धीरेंद्र प्रताप सिंहअहिलाद, मऊ (उ.प्र.) 275101 मो.9415772386
सभी चित्र साभार : Jamini Roy
लोक जीवन के संकट और संभावनाओं पर बहुत ही सारगर्भित लेख🌻✨
धन्यवाद।