प्रस्तुति : सुशील कान्ति
नाट्यकर्मी, वागर्थ के सहायक संपादक
आज हम गांधी-सोच विहीन भारत के निवासी हैं।हम बचपन में पाठ पढ़ते हैं- झूठ बोलना अपराध है, चोरी करना पाप है, सदा सत्य बोलो, अहिंसा परमो धर्मः।लेकिन इन सबका नतीजा पूरी तरह उलटा है।बस हम गांधी के चश्मे को याद रख पाए हैं।मगर उस चश्मे से भी अब हमें कुछ दिखाई नहीं पड़ता।
इसके बावजूद, लंबे समय बाद फिर बहुत तल्खी से महसूस किया जा रहा है कि आज गांधी की बेहद जरूरत है।यदि हम सब अपने भीतर उन्हें जीवित कर लें तो क्षण भर में अमीर हो जाएं।गांधी का कहना था, ‘प्रकृति सभी मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम है परंतु किसी एक व्यक्ति के लालच को पूरा करने में अक्षम साबित होगी।’ गांधी ने अपने जीवन में कई प्रयोग किए।उन सबका लक्ष्य था देश और संपूर्ण मनुष्यता का हित।वे भावी विपदाओं के प्रति, जिनसे हम रूबरू हो चुके हैं, बहुत चिंतित थे।उन्होंने दुनिया और देश के लोगों को बार-बार सावधान किया था और चेतावनियां दी थीं। ‘वागर्थ’ के इस अंक में उन्हीं मुद्दों पर चर्चा है।इसमें भाग ले रहे हैं- सुधीर चंद्र, रामशरण जोशी, निशिकांत कोलगे, विप्लव देबनाथ और राजीव रंजन गिरि।
रामशरण जोशी
वरिष्ठ पत्रकार और समाज विज्ञानी।अद्यतन पुस्तक ‘मीडिया विमर्श’ (5 खंडों में)’।
गांधी समाज को राज्य–मुक्त समाज में बदलने की कल्पना करते हैं
19 वीं सदी के अंत में दक्षिण अफ्रीका से शुरू और भारत में 30 जनवरी, 1948 को हिंसक अंत से समाप्त होनेवाली मोहनदास करमचंद गांधी उ़र्फ महात्मा गांधी की संपूर्ण यात्रा की अक्षत चुनौती रही है राज्य को संवेदनशील बनाना और अंततः समाज को ‘राज्य मुक्त’ करना।जहां कार्ल मार्क्स समाज को ‘वर्गहीन समाज’ (क्लास लेस) में रूपांतरित करने का स्वप्न देखते हैं, गांधी समाज को ‘राज्य मुक्त समाज’(स्टेटलेस सोसाइटी) में बदलने की कल्पना करते हैं।
वर्तमान समय में दोनों के विराट स्वप्न ‘यूटोपिया’ जरूर प्रतीत होते हैं, क्योंकि वर्ग और राज्य दोनों की शक्तियां बुलेटगति-सी बढ़ती जा रही हैं।ये मनुष्यता का हाशियाकरण कर रही हैं।राष्ट्र-राज्य द्वारा जनित व नियंत्रित संस्थाएं दिन-ब-दिन शक्तिशाली बनती जा रही हैं।ये व्यक्ति व समाज की स्वायत्ता का निर्बलीकरण कर रही हैं।इस प्रक्रिया में हर प्रतिरोध को अस्वीकार करने और उसे शत्रु के रूप में देखने का चरित्र बनता जा रहा है राज्य का।राज्य की महत्वाकांक्षाओं और व्यक्ति व समाज की आकांक्षाओं के बीच फासले चौड़े होते जा रहे हैं, साम्यता नहीं रह गई है।
गांधी जी के समक्ष जीवनपर्यंत यह चुनौती रही है- व्यक्ति व समाज के प्रति राज्य को किस प्रकार संवेदनशील बनाया जाए? राजसत्ता पर समाज का शासन रहे न कि समाज पर राजसत्ता का? इस विरोधाभास के समाधान के लिए मनुष्य को चिंतन व कर्म के उस उच्चतम समबिंदु पर ले जाने के लिए वे आजन्म प्रयोगधर्मी रहे, जहां राज्य यानी राजसत्ता स्वतः विलुप्त हो जाए।सत्ता व शासन का भाव समाप्त हो जाए।आत्म संयम और परस्पर निर्मल सहयोग का परिवेश हो।वे हमेशा राजसत्ता के प्रति निर्लिप्त रहे।इसीलिए जिन क्षणों में आजाद भारत के शासन की बागडोर भारतीय नेताओं को सौंपी जा रही थी, वे दिल्ली से हजारों मील दूर मानवता को सांप्रदायिक हिंसा से बचाने का संघर्ष कर रहे थे।गांधी ‘एक व्यक्ति सेना’ (वन मैन आर्मी) बन कर उन शक्तियों से अकेले लड़ रहे थे जो मनुष्यता को धार्मिक खानों में विभाजित करती हैं।
आज राज्य के संरक्षण में ऐसी ताकतों का वर्चस्व समाज में पसरता जा रहा है जो मनुष्य को निरंतर कमतर बनाती जा रही हैं।जब हिंसा राजसत्ता, धर्म, वर्ग-जाति और अर्थ सापेक्ष हो जाती है, तब नागरिक के साथ राज्य के संबंध संवेदनहीन बनने लगते हैं। ‘यूज़ एंड थ्रो संस्कृति’ फैलने लगती है।नागरिक एक वस्तु में परिवर्तित कर दिया जाता है।राष्ट्र के प्रति व्यक्ति और समाज निरंतर समर्पित रहे, ऐसे वातावरण से नागरिकों को घेरा जाता है।अतः ऐसी ताकतों को निस्तेज कैसे किया जाए, कैसे इनसे लड़ा जाए, समाज की नैसर्गिक भिन्नता में समरसता कैसे पैदा की जाए, गांधी ने यह ध्रुव चुनौती इतिहास के समक्ष रखी थी।
गांधी की सबसे बड़ी हिदायत यह है कि हिंसा और अहिंसा को राज्य सापेक्षता से मुक्त रखा जाए, क्योंकि यह अपने राजनीतिक-आर्थिक चरित्र के अनुसार इन दोनों का इस्तेमाल करता आया है।राज्य के नियंता अपने सत्ता-स्वार्थ को केंद्र में रख कर व्यक्ति व समाज को विभाजित करते हैं।गांधी हिंसा और अहिंसा को इस घिनौनी सापेक्षता से मुक्त रखना चाहते थे।आज सबकुछ इसके ठीक विपरीत हो रहा है।राज्य की घिनौनी सापेक्षता ने व्यक्ति और समाज को सघनता के साथ जकड़ रखा है।इस सापेक्षता का अंत कैसे किया जाए, यह नए भारत के समक्ष समय की सबसे बड़ी चुनौती है।
गांधी पर बात करते समय इस सचाई को भी चिंतन के केंद्र में रखना होगा कि क्या वर्तमान राष्ट्र राज्य 1917 की क्रांति (रूस) और 1949 की क्रांति (चीन) के समय जैसे रह गए हैं? आमूलचूल परिवर्तनवादी क्रांति में हिंसा अपरिहार्य रूप से निहित है।निश्चय ही वर्तमान राज्य पहले जैसे नहीं हैं।वे अकल्पनीय स्तर की बहुआयामी शक्ति से लैस हो चुके हैं।
हम राज्य द्वारा निर्मित प्रचंड विरोधाभासों की चपेट में इस समय जी रहे हैं।एक तरफ राज्य के कर्ताधर्ता पंचम स्वर में शांति का आलाप करते हैं, दूसरी तरफ तीव्रतम मारक शक्ति के शस्त्रों का निर्माण भी कर रहे हैं।उत्तर-शीतयुद्ध काल में भी क्षेत्रीय युद्धों या अशांति का सिलसिला जारी है।शस्त्रों का आयात-निर्यात बढ़ा है।परमाणु बमों के परीक्षण किए जा रहे हैं।अंतरिक्ष का उपनिवेशीकरण किया जा रहा है।प्रकृति-विजय की महत्वाकांक्षाएं कुलाचें भर रही हैं और पर्यावरण असंतुलन बढ़ता जा रहा है।
सच यह है कि वर्तमान युग में राज्य वाचाल होता जा रहा है।आपके निजी जीवन में राज्य की शक्तियां घुसपैठ करने में सक्षम हैं।जन क्रांति को कुचलने के लिए राज्य की प्रतिक्रांति हमेशा तत्पर रही है।अब राज्य कृत्रिम बुद्धिमता (आर्टिफिसियल इंटेलिजेंस) की शक्ति भी अर्जित कर चुका है।इसके माध्यम से यह आपके मन-मस्तिष्क को चीर सकता है और विचारों को नियंत्रित-अनुकूलित कर सकता है।राज्य द्वारा प्रायोजित आतंकवाद के बैरिकेड खड़े किए गए हैं।एक प्रकार से समाज राज्य और कॉर्पोरेट पूंजी के आतंकवादी दौर से गुजर रहे हैं।देश में चरम उत्पादन, निरंकुश उपभोक्तावाद और अपव्यय जीवन धर्म बनते जा रहे हैं।कृत्रिमता की संस्कृति हमारे जीवन को ढांपती जा रही है।इसके साथ-साथ ‘उत्तर सत्य’ की राजनीति और ‘उत्तर सत्य’ के मीडिया ने राज्य की शक्ति को अभूतपूर्व जुंबिशों से लैस कर दिया है।इस परिदृश्य में नागरिक गौण होता जा रहा है।सत्ता प्राप्ति की एक वहशियाना आपाधापी मची हुई है।इसने जीवन के आधार मूल्यों के खिलाफ जंग खड़ी कर दी है।इसलिए अहिंसक जुंबिशों से ही इस आतंकी जुंबिशों को शिकस्त दी जा सकती है।इसके लिए गांधी की चेतावनियों को समझना पड़ेगा।
गांधी का होना सभ्यता के लिए स्वयं में चुनौती है।गांधी के साथ सहमति-असहमति अपनी जगह है और होनी भी चाहिए।सहमति-असहमति और विमर्श इस बात के प्रमाण हैं कि एक सदी के बाद भी हमारे लिए गांधी की ललकारें यथावत हैं।इसकी वजह स्पष्ट है।इन ललकारों का विकल्प न चरम दक्षिणपंथी विकसित कर सके हैं, और न ही चरम वामपंथी दे सके हैं।किसी भी विचारधारा की चरमता या कट्टरता में हिंसा निहित होती है।हिंसा का प्रतिपक्ष अहिंसा है।जब विकल्प के रूप में अहिंसा को अपनाया जाएगा तब गांधी कुतुबनुमा के रोल में नजर आएंगे।एकल या खंडित दृष्टि से गांधी की सीमाएं जरूर दिखेंगी, लेकिन समग्रता में उनका रोल आज भी उतना ही प्रासंगिक लगेगा जितना उनके जीवन काल में था।गांधी की चुनौतियां जितनी राष्ट्र की जीवन शैली से जुड़ी हुई हैं, उतनी ही व्यक्ति की जीवन शैली को स्पर्श करती हैं।सारांश में, गांधी लघु और बृहत दोनों ही वृत्तों को नापते हैं।कल + आज़ + कल तीनों ही काल उनके सहयात्री हैं।इसका अर्थ यह है कि भविष्य में भी उनकी चुनौतियों की सार्थकता बनी रहेगी।
याद रखना चाहिए, गांधी का नित नए आविष्कार में विश्वास रहा है।उन्होंने हर चुनौती का सामना करने के लिए स्वयं को नए ढंग से गढ़ा है, गतिहीन या ठहराव का शिकार नहीं होने दिया है।
वर्तमान दौर का घटनाचक्र रॉकेट–रफ्तारी है।हर पल टेक्नोलॉजी अपनी चाल–ढाल बदल रही है।राज्य की राजनीतिक आर्थिकी एलीटवादी बनती जा रही है जिसमें गांधी के ‘अंतिम व्यक्ति’ के लिए स्पेस सिकुड़ता जा रहा है।हर क्षेत्र में ‘स्टार अपसंस्कृति’ का वर्चस्व फैलने लगा है।इसलिए गांधी की ओर लौटने का मार्ग शेष रह जाता है।
यह अटल सत्य है कि मानव सभ्यता की विलोम यात्रा नहीं होगी।हम गुफाओं, जंगलों और पहाड़ों की ओर नहीं लौटेंगे, और न ही खच्चर-ऊंट-हाथी की सवारी करेंगे।मानव सभ्यता की यात्रा आगे की तरफ ही बढ़ेगी।मूल प्रश्न है कि उसकी दिशा और दशा क्या होगी? कैसी होगी भविष्य की संरचना? क्या उस संरचना में मनुष्य अपनी गरिमा और समानता के साथ जीवित रहेगा? क्या वह न्यायपूर्ण संरचना होगी? आनेवाले कल की ये चुनौतियां ऐसी हैं जिनसे पलायन नहीं किया जा सकता, टकराना पड़ेगा।भावी मुठभेड़ों में गांधी की क्या भूमिका हो सकती है, इस सवाल पर मंथन जरूरी हो जाता है।
गांधी शैली पर चले 2020-21 के किसान आंदोलन में सत्याग्रह व निर्माण साथ-साथ चलते रहे हैं।स्त्री शक्ति जाग्रत हुई।संघर्षरत किसान विद्यार्थियों की ‘ऑन लाइन क्लास’ चली।मलिन बस्तियों के बच्चों को पढ़ाया गया।गुरुद्वारा से बाहर सामाजिक लंगर चले, जाति-धर्म-भाषा-क्षेत्र से ऊपर उठ कर किसान लोकसंगम हुआ।चमचमाते तथाकथित ‘ग्रेट इंडियन मिडिल क्लास’ का रुतबा टूटा और गांधी की चुनौतियां नवीन रूप में परिभाषित हुई हैं।
कहा जा सकता है कि वर्तमान परिदृश्य में गांधी की निम्न हिदायतों को रेखांकित किया जा सकता है- 1. मानव अस्तित्व की रक्षा, 2. मानव सभ्यता को दीर्घजीवी बनाना, 3. वर्तमान शक्ति+पूंजी +टेक्नोलॉजी केंद्रित संरचना की प्रति-स्थापना, 4. न्यायपूर्ण और समतावादी संरचना की स्थापना, 5. सामूहिक लोकशक्ति का निर्माण, 6. राजसत्ता को संवेदनशील बनाना और विकेंद्रीकरण, 7. व्यक्तिवाद के स्थान पर सहकारिता की संस्कृति का निर्माण, 8. ट्रस्टीशिप का पुनर्जीवीकरण, 9. आवश्यकता-आधारित उत्पादन-उपभोग, 10. जीवन के बुनियादी आधारों (आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, विकास अवसर आदि) का न्यायसंगत वितरण और एकाधिकारवाद का निषेध और विशेषाधिकारों की समाप्ति।
105, समाचार अपार्टमेंट, मयूर विहार फेज-1, दिल्ली-110091, मो.9810525019
सुधीर चंद्र
प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक और चिंतक।अद्यतन संपादित पुस्तक ‘वायलेंस एंड नॉनवायलेंस अक्रोस टाइम : रिलिजन, कल्चर एंड हिस्ट्री’।
ढेरे सारी चेतावनियां छोड़ गए ‘पर होना क्या है!’
हमारा विषय है ‘गांधी की चेतावनियां’।हम- हमारा देश ही नहीं वरन सारा संसार – जिस विकट संकट में आन फंसा है, उसका पूर्वानुमान हो गया था गांधी को।कहते थे : ‘मुझे भविष्य बहुत ही मनहूस दिखलाई पड़ता है।उसे बताते हुए मैं कांपने लगता हूँ।’ घबराते थे : ‘यह सब कहां जाकर रुकेगा।’ चाहते थे कि लोग समझें कि अंधे बनकर कैसे गलत रास्ते पर चले जा रहे हैं।पर लोग थे कि उनकी सुन ही नहीं रहे थे।गांधी देख रहे थे अपना न देखा-सुना जाना और कहने लगे थे कि मेरा तो ‘अरण्यरोदन’ चल रहा है।बाद के दिनों में, उनकी ही रहनुमाई में ख़ुदमुख़्तार हो जाने के बाद, लोगों ने दूध की मक्खी की तरह निकाल फेंका गांधी को।पर रूठ कर बैठ नहीं गए वह।बड़े ढीठ थे।चलाए रहे अपना अरण्यरोदन।बोलने से काम नहीं चला, करनी पर उतर आए।शेख़चिल्ली बन ज़िंदगी को ही दाँव पर लगा दिया उन बेबस आखिरी दिनों में।कुल जमा पांच महीनों में कर दिए दो आमरण अनशन।न चिंता की बुढ़ापे की, न ही न सुने जाने की।
हत्या न कर दी गई होती तो लगे रहते कहने और करने में।वैसे उन को विश्वास था कि जीते रहना जरूरी नहीं था कहने और करने के लिए।कि मौत उनका विकास नहीं रोक देगी।उनके बाद आने वाले लोग उनकी कथनी और करनी को आगे बढ़ाते रहेंगे।न भी आगे बढ़ाएं, कभी न कभी चेतेंगे कि सच वही है जो गांधी कह-कर गए।मारे जाने से ठीक साढ़े तीन महीने पहले उन्होंने कहा था, ‘मैं तो कहता-कहता चला जाऊंगा, लेकिन किसी दिन मैं याद आऊंगा कि एक मिसकीन आदमी जो कहता था, वही ठीक था।’
इन दिनों गांधी को जिस शिद्दत से याद किया जा रहा है, उससे जाहिर है कि थी सही उस दिवंगत मिसकीन की बात।उसकी चेतावनियों के सुमिरन का ‘वागर्थ’ का यह अनुष्ठान भी उसी प्रक्रिया का एक अंग है।
ढेर सारी चेतावनियां छोड़ गए हैं गांधी हमारे लिए।हर चेतावनी गवाह है उनके अनसुना हो जाने की।उनकी सुन ली गई होती तो उन्हें जरूरत ही क्यों पड़ती रहती चेतावनियां देने की?
हम तैयार हैं आज उनकी चेतावनियां सुनने को? आज जबकि वे सारे खतरे साकार हो गए हैं जिनकी सोच कर गांधी कांप उठते थे।एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल देने वाला सुनना नहीं।सुनने के बाद बात समझ में आ जाए तो उस पर अमल करने वाला सुनना।
कोई वजह नहीं दिखती यकीन करने की कि हम तैयार हैं सुनने को।पर न ही कोई वजह दिखती है उस उम्मीद पर थोड़ा भी भरोसा न करने की, जिसको मन में साधे गांधी लगे रहते थे अपने अरण्यरोदन में।उसी थोड़े भरोसे के चलते उनके अरण्यरोदन का कुछ हिस्सा यहां रख रहा हूँ।
गांधी की अनगिनत चुनौतियों, उनके समस्त चिंतन का नैतिक-तार्किक आधार है उनकी एक सूत्र चुनौती : ‘टेढ़े रास्ते से सीधी बात को नहीं पहुंचा जा सकता।’ इसको समझे बगैर गांधी पर कोई चर्चा करना वक्त की बर्बादी है।पर इस सीधी-सी बात को समझना आसान नहीं है हमारे लिए।चूंकि, गांधी के ही शब्दों में, ‘एक ऐसा सिलसिला-सा बंध गया है कि जिससे हमारी आंख हमेशा टेढ़ा देखती है।’ जब आंख ही टेढ़ा देखने लगे तो सीधा दिखाई कैसे देगा?
देख लीजिए अपनी-अपनी निजी और पारिवारिक जिंदगी के छोटे-छोटे मामलों से लेकर बड़े-बड़े सांसारिक मामलों तक में सतत चल रहा कार्य-चक्र।जो चाहा, उसे जैसे भी बन सके जल्दी से जल्दी हासिल कर लेना चाहता है ऊपर से लेकर नीचे तक हर फर्द।बेफिक्र कि आज का किया कल क्या विनाश ढाएगा।
पर गांधी की नजर सीधी बात पर टिकी रहते हुए टेढ़े रास्ते पर चलने के अनिवार्य परिणामों को देखने और दिखाने में कोई चूक नहीं करती।संसार को आज जिन भांति-भांति के संकटों ने ग्रस रखा है, उन सबके मूल में हिंसा है।गांधी ताउम्र उससे निजात पाने के उपायों की खोज में लगे रहे।बहुत कुछ कहा, लिखा और किया यह बताने और दिखाने को कि क्यों हिंसा के बजाय अहिंसा से काम करना चाहिए और ऐसा कैसे किया जा सकता है।वैसे तो इस ‘क्यों’ को लेकर बहुत कुछ कहा उन्होंने, पर इस समय मैं उनकी सिर्फ इस चेतावनी की याद दिलाना चाहता हूँ : ‘हिंसा का जवाब हिंसा से देने के कारण ही तो दुनिया ऐटम बम तक पहुंच गई है।’ इस बुनियादी स्थापना के अलावा उन्होंने भारत में चल रही मारकाट के संदर्भ में कहा, ‘मैं तो कहूंगा, दस नहीं एक के बदले सौ भी काटो, फिर भी शांति नहीं होगी।’
कार्य-कारण संबंध के इस सीधे-सच्चे विवेचन को झुठलाना असंभव है।मगर हमारे आचरण में या सोच में इसे जगह नहीं मिलती।पिछले कुछ बरसों से तो ऐसा लगने लगा है मानो हर समस्या का निदान ही हिंसा में है।एक अरसे तक तो राज्य की हिंसा में भरोसा करते रहे।कहीं किसी तरह की कोई गड़बड़ हुई नहीं कि पुलिस को याद करने लगे।मामला ज्यादा संगीन नजर आया तो फौज की मांग करने लगे।
इसी के साथ-साथ यह विश्वास भी गहरा होने लगा कि हमारे कानूनों को कड़ा करने की जरूरत है।मतलब पुलिस और फौज के सहारे होने वाली राज्य की हिंसा में क़ानून की हिंसा भी जोड़ दी।बस एक राग : चीजों के दाम बढ़ें तो कानून कड़े करो, काला धन बढ़ रहा है तो कानून कड़े करो, समाज में अव्यवस्था फैल रही है तो क़ानून कड़े करो, देश को कोई वास्तविक या काल्पनिक खतरा है तो कानून कड़े करो, बलात्कार की घटनाएं बढ़ती दिखें तो कानून कड़े करो।सब कुछ हिंसा के सहारे करो।जब कहा जाए कि समाज और व्यक्ति में वांछित बदलाव के बगैर कुछ भी कारगर नहीं होने वाला तो एक ही तर्क : वह जब होगा तब होगा, अभी तो यही करना पड़ेगा।दिखाई ही नहीं पड़ता कि हिंसा के नित बढ़ते इस्तेमाल से कुछ भला नहीं होता, उलटे समस्या और विकराल रूप धारण कर लेती है।
और अब हम वहां आ गए हैं जहां राज्य को बीच में लाने की दरकार भी नहीं रही।हम खुद ही समस्याओं से निबट लेते हैं।जिन्हें हम समाज या देश के लिए खतरा मानते हैं उन्हें स्वयं ही सबक सिखा देते हैं।सबक हिंसा से ही सिखाते हैं और सिखाते वक्त दूसरे के मान-सम्मान की क्या उसकी जान की भी कोई वक़त नहीं रहती।
अब सुनें गांधी को :
‘पुलिस या फौज की मदद मांगना गलती और कायरता है।इन फौजों से हमारा कुछ भी भला नहीं होने वाला है और उनके रहते हमारी आजादी की कोई कीमत नहीं रहेगी।’
गांधी के इस कथन में यदि समस्याओं को खुद ही निबटा लेने की प्रेरणा दिखाई पड़ रही हो तो इसी संबंध में कही गईं उनकी इन बातों पर भी विचार कर लीजिए :
‘हमें मिल कर ही रहना होगा।मिल कर रहने के लिए भी किसी के ऊपर आपको बल प्रयोग नहीं करना चाहिए।’
‘हम इतने बदमाश हो गए हैं कि एक दूसरे से डरने लगे हैं।’
‘कर्तव्य-पालन से ही हक पैदा होता है।’
इन दिनों भारत के विश्व गुरु होने के सपने देखे जा रहे हैं।गांधी ने कुछ और ही देखा था।१९४७ में हुए एशियाई सम्मेलन के अवसर पर भारत पधारे बर्मी प्रधान मंत्री से बात करते हुए गांधी ने कहा, ‘आप हमारे यहां आए, यह अच्छी बात है।हमारा मुल्क बड़ा है, हमारी सभ्यता प्राचीन है।मगर आज हम जो कर रहे हैं, उसमें आपके सीखने जैसा कुछ नहीं है।’
तब से अब तक टेढ़े रास्ते पर चलने की हमारी रफ्तार ज्यादा ही कंपाने लगी है।बहुत कुछ कर लिया है इस रास्ते पर चल कर हमने।इस किए में कुछ भी तो नहीं है जिसके खिलाफ हमें गांधी ने आगाह न किया हो।
उस किए में से केवल एक का ज़िक्र करूंगा।यह चलन तो गांधी के वक्त में भी रहा था, पर बाबरी मस्जिद के गैरकानूनी विध्वंस और सरकारी जजमानी में संपन्न हुए तथाकथित कानूनी भूमि पूजन के बीच के 28 सालों में उग्र रूप ले चुका है।आजादी हासिल होने के तीन महीने पहले ही गांधी ने चेताया था :
फर्ज कीजिए कि हमारी कमनसीबी से हमारे देश में एक हिंदू राज्य हो गया और दूसरा मुसलमानों का पाकिस्तान बन गया।अगर दोनों ही ऐसे बन जाएं कि वहां दूसरी कौम वाले सुख-शांति से न रह सकें, तो वह हिंदू राज्य नरक हो जाएगा और वैसा पाकिस्तान नापाकिस्तान हो जाएगा।
सरकारी जजमानी में हुआ भूमि पूजन किसी एक व्यक्ति या राजनैतिक दल का टेढ़े रास्ते चलना नहीं है।स्थिति उससे ज्यादा गंभीर है।उस स्थिति में अरण्यरोदन ही सही, एक और चेतावनी उसी मिसकीन की :
आप मस्जिद को क्या पाकिस्तान भेजोगे, या मस्जिद को ढाह दोगे या मस्जिद का शिवालय बनाओगे? मान लो कि कोई हिंदू ऐसा गुमान भी करे कि शिवालय बनाएंगे, सिख ऐसा समझें कि हम तो वहां गुरुद्वारा बनाएंगे।मैं तो कहता हूँ कि यह सिख धर्म और हिंदू धर्म को दफनाने की कोशिश है।
वाई-144, रिजेंसी पार्क II, डीएलएफ फेज खत, गुड़गांव–122002 (हरियाणा) मो. 8860153163
निशिकांत कोलगे विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस), दिल्ली में एसोसिएट प्रोफ़ेसर। ‘गांधी अगेंस्ट कास्ट’ नवीनतम पुस्तक। |
विप्लव देबनाथ त्रिपुरा विश्वविद्यालय के राजनीतिशास्त्र विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर। |
बेहतर समाज बनाने के लिए गांधी के सुझाए उपायों पर गौर करना जरूरी
अंग्रेजी से अनुवाद :तुषार कांत,स्वतंत्र पत्रकार।
गांधी ने कभी भी खुद को ऐसे दूरदर्शी के तौर पर नहीं पेश किया जो प्रमुख वैश्विक चुनौतियों के बारे में भविष्यवाणी करता हो।साथ ही, उन्होंने उन चुनौतियों के बारे में भी किसी तरह की भविष्यवाणी नहीं की, जिनका सामना भारत को आजादी मिलने के बाद करना था।हालांकि, गांधी का व्यक्तित्व बहुआयामी था और जीवन के विविध पहलुओं को लेकर उनका अपना नजरिया था।धर्म, नैतिकता, राजनीति, औद्योगीकरण, अहिंसा और यहां तक कि प्रेम विवाह और सेक्स को लेकर भी उनके अपने विचार थे।ऐसे में सवाल यह है कि मौजूदा समय में उनके कौन से विचार प्रासंगिक हैं? हमारा मानना है कि गांधी ने अपने दौर में मानवता से जुड़ी जिन अलग-अलग समस्याओं को लेकर सावधान रहने की चेतावनी दी थी, वे आज के दौर में भी बेहद प्रासंगिक हैं।गांधी ने इन समस्याओं से निपटने का समाधान भी सुझाया था और उनकी प्रासंगिकता भी बरकरार है।उनकी कुछ चेतावनियां और समाधान के तौर-तरीके आज भी उतने ही उपयोगी हैं, जितने उस दौर में थे।गांधी की ये बातें हमारे लिए ज्ञान के प्रकाश की तरह हैं।
यहां हम गांधी की 4 मुख्य चुनौतियों और उनके निदान के तौर-तरीकों के बारे में बात करेंगे।इनमें से दो चुनौतियां वैश्विक स्तर पर मौजूद हैं, जबकि बाकी दो भारतीय संदर्भ में ज्यादा प्रासंगिक हैं।इन चुनौतियों में पर्यावरण की समस्या, वैश्विक शांति, सांप्रदायिकता और जातिवाद शामिल हैं।
पर्यावरण संकट को लेकर गांधी की चेतावनी
भारत समेत पूरी दुनिया में गांधीवादी सिद्धांतों की सबसे ज्यादा जरूरत पर्यावरण के मामले में नजर आती है।गांधी अपनी सोच और व्यवहार के हिसाब से दुनिया के अग्रणी पर्यावरणविद थे, जिन्होंने आधुनिकीकरण और औद्योगीकरण की वजह से पर्यावरण को होने वाले नुकसान के बारे में चेतावनी दी थी।गांधी की मौत के काफी बाद इस मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन हुआ।इसके तहत 1972 में स्टॉकहोम सम्मेलन हुआ, जबकि रियो में 1992 में पृथ्वी सम्मेलन आयोजित किया गया।गांधी ने अपने समय में जो अंदेशा जताया था, उसके बारे में आज मौजूदा पीढ़ी के नेता भी चर्चा कर रहे हैं।इस साल ग्लास्गो में हुए 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में ऐसे ही मुद्दों पर चर्चा हुई, जिसमें कहा गया कि पर्यावरण की स्थिति लगातार बिगड़ रही है और नुकसान पहुंचाने वाले उद्योग हमारे जंगल, समुद्र और हवा के लिए लगातार खतरा बने हुए हैं।गांधी का मानना था कि तेजी से हो रहे औद्योगीकरण, उपभोक्तावाद की संस्कृति और गैर-इंसानी दुनिया में इंसानों के बढ़ते हस्तक्षेप और मानव-केंद्रित रवैये के कारण हमारा पर्यावरण खतरे में है एवं वायु, जल और ध्वनि प्रदूषण, सांस संबंधी बीमारियां, ग्लोबल वार्मिंग, परमाणु कचरा आदि समस्याएं पैदा हो गई हैं।उनका यह विचार भी बिलकुल सही है कि पर्यावरण संबंधी इन समस्याओं का समाधान सिर्फ वैज्ञानिक तौर-तरीकों से नहीं किया जा सकता।इन समस्याओं के दीर्घकालिक समाधान के लिए व्यक्ति के विचारों और प्रकृति के साथ उसके संबंध में बदलाव जरूरी है।
पर्यावरण को लेकर गांधी के विचारों से जुड़े अलग-अलग पहलुओं में नैतिकता, आध्यात्मिकता और अहिंसा शामिल हैं।उनके मुताबिक, किसी व्यक्ति के विकास का आधार भौतिकवाद या उपभोक्तावाद नहीं, बल्कि आध्यात्मिक चेतना है यानी किसी शख्स का ऐसा चरित्र जिसमें नैतिकता और अहिंसा जरूरी तौर पर शामिल हों।उनका ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ वाला जीवन दर्शन धरती पर मौजूद सभी प्राणियों के लिए उनके प्रेम को दर्शाता है।लिहाजा, अहिंसा को लेकर उनके विचार सभी जीवधारी के लिए थे।उन्होंने अपने इन जीवन मूल्यों को अपने विचार और कर्म का आधार बनाया।पर्यावरण को लेकर गांधी के विचारों ने कई लोगों को प्रेरित किया- भारतीय पर्यावरण आंदोलन के अगुआ जे. पी. कुमारप्पा, पारिस्थितिकी आंदोलन के पितामह अर्नी नीस के अलावा चिपको आंदोलन के कर्ताधर्ता चंडी प्रसाद भट्ट और सुंदरलाल बहुगुणा समेत कई लोग गांधी से प्रेरित हुए।साथ ही, बाबा आम्टे और मेधा पाटकर का नर्मदा बचाओ आंदोलन और जल, जंगल, जमीन के लिए लोगों का संघर्ष भी गांधी की विरासत से ही प्रेरित है।
विश्व शांति से जुड़े खतरों को लेकर गांधी चिंतित थे
गांधी विश्व शांति के सबसे बड़े पैरोकारों में से एक थे।गौरतलब है कि आज दुनिया के तमाम देशों के बीच हथियार (परमाणु हथियार समेत) इकट्ठा करने की होड़ मची है।विज्ञान और तकनीक ने विभिन्न क्षेत्रों में विकास का मार्ग प्रशस्त किया है।हालांकि विभिन्न देशों द्वारा हथियारों का जखीरा इकट्ठा करने का प्रचलन बढ़ा है, जिसे आधुनिकीकरण के गलत प्रभावों के तौर पर देखा जा सकता है।इतिहास गवाह है कि समय-समय पर युद्धों का सिलसिला जारी रहा है।हालांकि परमाणु युद्ध की आशंका खतरे की घंटी हो सकती है।मानवता के लिए इसके परिणाम विनाशकारी हो सकते हैं और ये युद्ध वैश्विक शांति को भंग कर सकते हैं।फिलहाल दुनिया में 13,400 परमाणु हथियार हैं, जिनमें अब तक 2,000 से भी ज्यादा के परीक्षण हो चुके हैं।विकसित देशों का सैन्य खर्च, उनके द्वारा विकासशील देशों को दी जाने वाली मदद का बीस गुना है।मौजूदा सुरक्षा उपाय परमाणु हथियारों का प्रसार रोकने में असफल रहे हैं और कई देशों के पास इन हथियारों का जखीरा मौजूद है।गांधी ने उसी वक्त परमाणु और अन्य हथियारों के खतरों को भांप लिया था, जब अमेरिका ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जापान के दो शहरों- हिरोशिमा और नागासाकी पर परमाणु बम गिराए थे।
गांधी का मानना था कि जब तक बड़ी ताकतें यानी दुनिया के बड़े देश खुद को हथियारों से मुक्त करने जैसा साहसी कदम नहीं उठाते, तब तक शांति का लक्ष्य हासिल नहीं किया जा सकेगा।उनके मुताबिक, शस्त्रीकरण या हथियारों की होड़ एक देश द्वारा अन्य देश के शोषण की भी अहम वजह है।
उनके मुताबिक, यह होड़ उस झूठी मान्यता पर आधारित है कि युद्ध, राजनीतिक व्यवस्था के विकास की स्वाभाविक प्रक्रिया है और परमाणु बम इसका अपरिहार्य परिणाम है।गांधी ने हमें युद्ध और सैन्य गतिविधियों के जरिए शांति हासिल करने के आइडिया के खिलाफ चेताया था।गांधी के मुताबिक, अगर मन के भीतर शांति नहीं है, तो बाहरी दुनिया में कभी भी शांति बहाल नहीं की जा सकती।उनका मानना था कि हिंसा के माध्यम से कभी भी शांति को हासिल नहीं किया जा सकता है।यह शायद गांधी की चेतावनियों का ही नतीजा है कि दुनिया के कई क्षेत्रों में परमाणु हथियार-मुक्त-क्षेत्र की स्थापना हुई और कई देशों ने परमाणु हथियार नहीं बनाने का निश्चय किया।हालांकि, मौजूदा समय में शांति स्थापना के उनके सभी सुझाव शायद व्यावहारिक न हों, लेकिन शांति के मकसद से किए गए युद्धों से कोई नतीजा नहीं निकलना हमें गांधी की चेतावनी पर गौर करने को मजबूर करता है।साथ ही, इससे सबक लेते हुए हमें दीर्घकालिक शांति के लिए वैकल्पिक समाधानों की तरफ देखना चाहिए।
सांप्रदायिक झगड़ों को लेकर गांधी की चेतावनी
धार्मिक कट्टरता हमेशा से सांप्रदायिक तनाव की वजह रही है।देश विभाजन (1947), महात्मा गांधी की हत्या (1948), इंदिरा गांधी की हत्या (1984), मेरठ का दंगा (1987), अलीगढ़ व मुजफ्फ़रनगर (1988) और भागलपुर (1989) के दंगों की मुख्य वजह धार्मिक कट्टरता और सांप्रदायिक तनाव को ही माना जा सकता है।बाबरी मस्जिद और रामजन्मभूमि विवाद और गोधरा की घटना ने सांप्रदायिक तनाव बढ़ाया और इस तरह हमारे देश की एकता के लिए खतरा पैदा हो गया।हाल के समय में देश के अल्पसंख्यकों पर हमले की घटनाएं बढ़ी हैं।इस साल सितंबर में, कट्टरवादी संगठनों के सदस्यों और कुछ अन्य लोगों ने गुरुग्राम में खुली जगह पर चल रही नमाज को बाधित करने का प्रयास किया।कुल मिलाकर कहा जाए, तो भारत में न सिर्फ सांप्रदायिकता में बढ़ोतरी हो रही है, बल्कि इसकी जड़ें पहले से कहीं ज्यादा गहरी हो गई हैं।
गांधी ने अपने राजनीतिक जीवन के शुरू में ही सांप्रदायिकता से जुड़े खतरों को लेकर आगाह किया था।उनका मानना था कि सांप्रदायिकता भारत में शांति और सौहार्द के लिए बड़ा खतरा है।उन्होंने आजादी की लड़ाई में सांप्रदायिक एकता और भाईचारे (खास तौर पर हिंदू-मुसलमानों के बीच) की जरूरत को महसूस किया।खिलाफत आंदोलन का समर्थन कर गांधी ने सफलतापूर्वक बड़े पैमाने पर मुसलमानों को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा था।गांधी का मानना था कि धर्म में ऐसा कुछ भी नहीं है जिसकी वजह से दोनों समुदायों के बीच अलगाव हो।उन्होंने कहा था, ‘मौजूदा समय की जरूरत किसी एक समावेशी धर्म की स्थापना नहीं, बल्कि अलग-अलग धर्मों के प्रति पारस्परिक सम्मान की भावना को विकसित करना है।’ सांप्रदायिक झगड़ों से निपटने के तौर-तरीकों को लेकर गांधी का मानना था कि हिंदू इस देश में बहुसंख्यक हैं, लिहाजा उन्हें मुसलमानों की मदद करनी चाहिए और उन पर कोई बात थोपने के बजाय उनका दिल जीतने की कोशिश करनी चाहिए।हाल में सोना चौक गुरुद्वारा और सदर बाजार गुरुद्वारा ने मुसलमानों को भी अपने अहाते में नमाज पढ़ने की सुविधा देने की पेशकश की।गांधी अगर होते, तो इस फैसले की वजह से आज उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता।
जातिवाद को लेकर गांधी की चेतावनी
भारत की एक और गंभीर समस्या जातिवाद का जहर है।यह समस्या भी गांधी की चिंता के केंद्र में थी।राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, 2009 से 2018 के दौरान दलितों पर होने वाले अपराध में 6 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और ऐसे 3.91 लाख मामले दर्ज किए गए।गांधी ने भारतीय समाज की जाति संबंधी चुनौतियों को लेकर हमें आगाह किया था।उन्होंने इस दिशा में अनोखा समाधान भी सुझाया था।उनके मुताबिक, जाति प्रथा ने जातीय असमानताओं और ऊंच-नीच की झूठी व्यवस्था खड़ी की है।इस वजह से न सिर्फ दलितों पर अत्याचार हुए, बल्कि इस व्यवस्था ने सवर्ण हिंदुओं को भी अमानवीय बनाया।उनके मुताबिक, ऊंच-नीच की झूठी बुनियाद का आधार शुद्धता और गैर-शुद्धता की धारणा है और इसकी प्रमुख वजह शारीरिक श्रम को खराब या हीन मानना है।अतः गांधी का पक्के तौर पर मानना था कि लोगों के दिमाग से शुद्धता और गैर-शुद्धता की धारणा को धीरे-धीरे खत्म कर और शारीरिक श्रम की गरिमा को बहाल कर ही जातीय विभेद और ऊंच-नीच की भावना को खत्म किया जा सकता है।
गांधी के लिए, जाति प्रथा को खत्म करना हर व्यक्ति के लिहाज से जरूरी था, चाहे वह किसी भी जाति का हो।उनका मानना था कि जाति प्रथा को खत्म करके ही जातीय पूर्वग्रहों से निकला जा सकता है।उन्होंने इसके लिए समर्पित कार्यकर्ताओं का समूह भी तैयार किया था जो गांव-गांव जाकर अपने कार्यों से शारीरिक श्रम के प्रति लोगों को जागरूक करते थे और अछूतों से मेलजोल बढ़ाते थे।
उन्होंने दो मोर्चों पर काम किया- पहला, उन्होंने सवर्ण हिंदुओं को बताया कि शारीरिक श्रम भी उतना ही अहम है, जितना बौद्धिक कार्य।दूसरा, उन्होंने सवर्ण हिंदुओं को इस बात पर शर्म और अपराधबोध का अहसास कराने का प्रयास किया कि वे दलितों को अपने बराबर मानने में नाकाम रहे।गांधी का यह भी कहना था कि छुआ-छूत की परंपरा सवर्ण हिंदुओं की नैतिक असफलता या पाप है और उन्हें इसका पूरी तरह से परित्याग कर खुद को शुद्ध करना चाहिए।आज के दौर में भी छुआ-छूत के मामले सामने आते रहते हैं।ऐसे में समतावादी और बेहतर समाज बनाने के लिए गांधी के जीवन दर्शन और उनके सुझाए गए उपायों पर फिर से गौर करना बेहतर होगा।
-निशिकांत कोलगे:29 राजपुर रोड, विकासशील समाज अध्ययन पीठ (सीएसडीएस), दिल्ली–110054 मो.96128 44327
-विप्लव देबनाथ: द्वारा अरुण कुमार देबनाथ, गांव : नुतन नगर, पोस्ट : एयरपोर्ट (अगरतला) वेस्ट त्रिपुरा–799009 मो.9436457476
राजीव रंजन गिरि
गांधी विचार से जुड़े लेखक। ‘अभिधा’ और ‘स्त्री काल के संपादन से जुड़े।राजधानी कॉलेज, दिल्ली में अध्यापन| अद्यतन पुस्तक ‘परस्पर : भाषा–साहित्य– आंदोलन’।
गांधी ने चेतावनी दी थी कि दुनिया उल्टी दिशा में जाती दिख रही है
‘गांधी की चेतावनियां’ शीर्षक पढ़ते ही जेहन में गांधी जी के एक खत का खयाल आया।वह खत 5 अक्टूबर 1945 का है, उनके राजनीतिक उत्तराधिकारी जवाहर लाल नेहरू के नाम।इस खत में चिंता है और चेतावनी भी।यह चिंता गांधी-विचार में पहले भी अनेक अवसरों पर देखी जा सकती है, पर इतनी साफ भाषा में चेतावनी कम अवसरों पर मिलेगी।चिंता पूरी सभ्यता को अधिक मानवीय और अहिंसक बनाने की है।इसके लिए सभ्यता की समूची सरंचना बदलने की दरकार पर बल है।अपने ‘चिरंजीवी जवाहरलाल’ को लिखे खत में कुछ बातें महज संकेतित हैं तो कुछ साफगोई से बयान की गई हैं।इसके अलावा, भविष्य में विस्तार से चर्चा की कामना भी है।गांधी और नेहरू की इस बाबत परस्पर चर्चा गति और आकार नहीं पा सकी।इसका क्या हश्र हुआ, फिलहाल इस टिप्पणी में उसकी आवश्यकता नहीं है।
वस्तुतः आवश्यक है इस खत में जाहिर चिंता और चेतावनी का विश्लेषण।गांधी जी लिखते हैं- ‘तुमको लिखने का तो कई दिनों से इरादा किया था, लेकिन आज ही उसका अमल कर सकता हूँ।अंग्रेजी में लिखूं या हिंदुस्तानी में, यह भी मेरे सामने सवाल रहा था।आखिर में मैंने हिंदुस्तानी में ही लिखना पसंद किया।’ तीन वाक्यों के इस अनुच्छेद का पहला वाक्य गांधी जी की तत्कालीन व्यस्तताओं के साथ अन्य कई उलझनों का परिणाम हो सकता है।दूसरा वाक्य दुविधा दिखा रहा है, दुविधा सवाल बनकर दरपेश थी।अंग्रेजी में लिखें या हिंदुस्तानी में? यह दीगर बात है कि उन्होंने उस पर शीघ्र ही निजात पा लिया।
गांधी और उनके शिष्य, दोनों ही व्यक्ति उपर्युक्त दोनों भाषाओं में दक्ष थे।फिर दुविधा क्यों? ‘भारतीय भाषा परिषद’ जैसी संस्थाओं के निर्माणकर्ताओं की चिंता से भी यह दुविधा जुड़ती है।आखिर में गांधी जी ने हिंदुस्तानी में ही लिखना पसंद क्यों किया? क्या उनकी चिंताएं, उनके मनोभाव अंग्रेजी में संप्रेषित नहीं होते?
गांधी जी की इस पसंदगी का वैचारिक आयाम है।यह उनके स्वराज के स्वप्न से जुड़ता है और भविष्य की चिंता से भी।आज हम इसे ज्यादा विकराल रूप में देख रहे हैं।गांधी जी की लेखन-कला से वाकिफ हर व्यक्ति यह बात भली- भांति जानता है कि अंग्रेजी में अपने मनोभाव दर्ज करने में गांधी जी भी पूर्णतया सक्षम थे।इसलिए कहा जाना चाहिए कि इसमें इसरार है मानसिक वि-उपनिवेशीकरण के लिए।भाषा के इस पहलू पर विचार हमारी प्राथमिकता में होना चाहिए।बगैर वि-उपनिवेशीकरण के स्वराज सच्चे मायने में संभव नहीं है।
गांधी जी ने कहा कि ‘हिंद स्वराज’ (1909) में जो मैंने लिखा है, उस राज्य पद्धति पर मैं बिलकुल कायम हूँ।उनके लिए यह बात महज कहने की नहीं थी।उन्होंने लिखा कि जो चीज मैंने 1909 साल में लिखी है, उसी चीज का सत्य मैंने अनुभव से आज तक पाया है।इसलिए वे इस जोखिम के लिए भी तैयार थे कि अगर मैं एक ही उसे मानने वाला रह जाऊं, इसका मुझको जरा-सा भी दुख न होगा।गांधी संसदीय-प्रणाली की तरफ इशारा कर रहे थे।इस प्रणाली के साथ केंद्रीकृत विकास का मौजूदा मॉडल भी जुड़ा है।विकास के इस मॉडल की जो स्वाभाविक परिणति हम आज देख और भोग रहे हैं, गांधी जी उसको लेकर गहरी चिंता में थे।
जिस विकास की तरफ दुनिया बढ़ रही है, इसने जो सभ्यता निर्मित की है, उसे ‘शैतानी सभ्यता’ कहने में गांधी जी को कोई गुरेज नहीं था।उन्होंने लिखा कि अगर हिंदुस्तान को सच्ची आजादी पानी है और हिंदुस्तान की मारफत दुनिया को भी, आज नहीं तो कल, देहातों में ही रहना होगा- झोपड़ियों में, महलों में नहीं।कई अरब आदमी शहरों में और महलों में सुख से और शांति से नहीं रह सकते, न एक दूसरे का खून करके – हिंसा से, न झूठ से – यानी असत्य से।सिवाय उस जोड़ी (यानी सत्य और अहिंसा) के मनुष्य जाति का नाश ही है।इसमें मुझे जरा-सा शक नहीं है।सत्य और अहिंसा का दर्शन केवल देहातों की सादगी में ही संभव है।
गांधी के लिए सच्ची आजादी का मतलब महज अंग्रेजी सत्ता की जगह भारतीयों की सत्ता नहीं है।अगर औपनिवेशिक सोच और राजसत्ता की वही संरचना बरकरार रहती है तो कैसी आजादी!
गांधी हिंदुस्तान की ‘सच्ची आजादी’ की मार्फत दुनिया की आजादी का ख्वाब देख रहे थे।इस दुनिया में वे राष्ट्र भी शामिल थे जिन्होंने दूसरे राष्ट्रों को गुलाम बना रखा था। ‘शैतानी सभ्यता’ की गिरफ्त में दोनों थे – शासक भी और शासित भी।एक दूसरे का खून करके, शोषण करके असीमित भोग के साथ महलों का जीवन गांधी-स्वप्न का ध्येय नहीं हो सकता था।वे इसमें मनुष्य जाति का नाश देखते थे।सत्य और अहिंसा में ही सबके लिए सुख है और शांति भी।सत्य और अहिंसा जिस संरचना के भीतर सहवास कर सकते हैं, वह गांव-केंद्रित, विकेंद्रित संरचना ही होगी।गांधी ने चेतावनी दी कि दुनिया उल्टी दिशा में जाती दिख रही है।औपनिवेशिक सत्ता संरचना के दौरान विकसित व्यवस्था को गांधी उल्टी दिशा मानते थे।गांधी ने सख्त शब्दों में चेताया कि पतंगा जब अपने नाश की ओर जाता है, तब आग के सामने सबसे ज्यादा चक्कर खाता है और चक्कर खाते-खाते जल जाता है।हो सकता है कि हिंदुस्तान इस पतंग के चक्कर से न बच सके।मेरा फर्ज है कि आखिर दम तक उसे और उसकी मारफत जगत को बचाने की कोशिश करूं।
क्या हिंदुस्तान और दुनिया ने गांधी की चेतावनी की परवाह की? विचार की दुनिया में भी क्या गांधी की बात को तवज्जो मिली? क्या मानव सभ्यता ने विकास के इसी मार्ग पर छलांग नहीं लगाई? तो क्या यह कहा जाना चाहिए कि दुनिया के मुल्क पतंगा की तरह फँसे हुए हैं?
हमारे दौर का युगधर्म विकास का केंद्रीकृत मॉडल है।धर्म को प्रश्नांकित करना आसान है, लोकतंत्र और संविधान को प्रश्नांकित करना सहज है, परंतु विकास को प्रश्नांकित करना जोखिम भरा विचार है।गांधी ने अपने राजनीतिक उत्तराधिकारी को लिखे खत में कहा था कि अरबों लोग महलों में, शहरों में सुख-शांति से नहीं रह सकते।इंग्लैंड की समृद्धि और उनके वहां के लोगों के विलासपूर्ण जीवन के लिए भारत सहित कई देशों को गुलाम बनाना पड़ा था।इनके संसाधनों पर अनैतिक कब्जा करना पड़ा था।भले ही इस असभ्य, अमानवीय और अनैतिक कार्रवाई को छिपाने के लिए कितने भी तर्क गढ़ लिए गए हों और लुभावनी भाषा और मोहक शब्दावली में उसे अब भी पेश किया जा रहा हो।
गांधी की चेतावनी को अपने देश-काल के संदर्भ में सोचें तो साफ दिखता है भारत जैसे विकासशील देश, जो दूसरे देशों के संसाधनों पर किसी तरीके से वर्चस्व स्थापित नहीं कर पा रहे हैं, अपने देश में हर ‘आंतरिक उपनिवेश’ बना लेते हैं।अर्थशास्त्र की सैद्धांतिकी इसे जायज साबित करती है और इस क्रम में होने वाले अन्याय को नजरंदाज करती है।
जल, जंगल, जमीन के अन्यायपूर्ण शोषण में आंतरिक उपनिवेश देखा जा सकता है।गांव और नगर के बीच बढ़ती खाई इसी का सहज परिणाम है।देश के गांव अपने ही देश के नगरों के लिए क्या वैसे ही नहीं हैं, जैसे लंकाशायर और मैनचेस्टर के लिए संपूर्ण भारत था।नगरों को ‘इंडिया’ और गांव को ‘भारत’ की शब्दावली में विभक्त कर सोचने पर क्या यह कहना गैर-वाजिब होगा कि इंडिया भारत के साथ उपनिवेश की तरह व्यवहार कर रहा है।यह अनिवार्य परिणति है उस आधुनिक सभ्यता की, जिसे गांधी ‘शैतानी सभ्यता’ कहते थे।
गांधी की चेतावनियों के आलोक में रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘हाऊ मच शुड अ पर्सन कंज़्यूम? थिंकिंग थ्रू दि इनवायरमेंट’ में सवाल पूछा था कि अमेरिका में जितने स्तर पर कार मालिक हैं क्या विश्व में यह मालिकाना मुमकिन है? क्या समूचे संसार में चार बिलियन कार मालिक हो सकते हैं? चीन में क्या 700 मिलियन कार मालिक हो सकते हैं? भारत में क्या 600 मिलियन कार मालिक हो सकते हैं? उन्हें चलने के लिए तेल और गैस कहां से आएगी? उन्हें बनाने के लिये धातु कहां से आएगी? उन्हें चलाने के लिए सड़क पर तारकोल कहां से आएगा? गुहा ने कार को उपभोग के कुछ प्रकारों के प्रतीकात्मक मापदंड के रूप में लिया।इन सवालों पर सोचते समय जेहन में बस यह याद रखना होगा कि वैश्विक आंकड़े बताते हैं कि उपयोग और उत्पादन का वर्तमान स्तर पृथ्वी की पारिस्थितिकी की क्षमता से पचीस प्रतिशत ज्यादा है।
गांधी ने इसका निदान देखा था, लोगों के उपभोग की मर्यादा में।इस मर्यादा के अभाव में संरचनात्मक हिंसा वैध और आवश्यक बुराई के तौर पर स्वीकार कर ली जा रही प्रतीत होती है।इस संरचनात्मक हिंसा के शिकार न सिर्फ कमजोर तबके हो रहे हैं, बल्कि प्रकृति के विभिन्न अंग भी।
प्रकृति और मनुष्य के मध्य का सहज साहचर्य समाप्त होता देख कर गांधी ने कहा था कि प्रकृति सभी मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम है, परंतु किसी एक व्यक्ति के लालच को पूरा करने में अक्षम साबित होगी।गांधी की चेतावनियां परस्पर संबद्ध हैं।उनकी चिंताओं में आवयविक रिश्ता है।वे सभी नाभि-नालबद्ध हैं।व्यक्ति से लेकर राष्ट्र और विश्व तक सभी आपस में गहरे जुड़े हैं।
प्रकृति के अंग-उपांग, गोचर- अगोचर के साहचर्य संबंध से मानव जीवन चल रहा है।गांधी इसे भंग होने देना नहीं चाहते।इसलिए कठोर भाषा में चेतावनी देने से नहीं हिचकते।क्या हमारे देश-काल में उनकी चेतावनी को सुनने का धैर्य शेष है?
हिंदी विभाग, राजधानी कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय), राजा गार्डन, नई दिल्ली-110015/ मो. 9868175601
संपर्क सूत्र प्रस्तुतकर्ता : रेलवे क्वार्टर न.185,4 न.रास्ता, फोरमैन कॉलोनी, कांचरापाड़ा–743145, उत्तर 24 परगना, पश्चिम बंगाल, मो.9748891717
ज्ञानवर्धक ,शोधपरक, गहन और महत्वपूर्ण आलेख गाँधी अध्धयन के विभिन्न पहलुओं को जानने, समझने और उद्घाटित करने में अत्यंत उपयोगी है।