युवा लेखिका।विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित। दंत चिकित्सक

 

मोहन बाबू के लिए उनकी विश लिस्ट में पड़ी इच्छाओं का आउट ऑफ स्टॉक होना एक धीमी चलने वाली पीड़ादायक और अप्रिय प्रक्रिया रही। वे जिंदगी से चाहते बहुत कुछ थे, पर अब मौन में सब खत्म हो रहा था। भरा-पूरा परिवार होने के बावजूद गांव के इतने बड़े घर में वे अकेले ही रह गए।

हुक्का सुलगाते हुए वे बरामदे पर बैठे-बैठे सोच रहे थे, इस बार फसल अच्छी होनी चाहिए… मजदूरों को उनकी मजदूरी कल देनी है, पता नहीं जितना लगाया गया है, उतना निकलेगा या नहीं, ईश्वर जाने, बड़े लड़के के लौटते ही कल उसे याद दिला दूंगा कि मजदूरों को रुपए देने हैं… मुर्गियां भी अल्हड़ बनी घूमती फिरती हैं घर भर में, इनके मल साफ करते-करते मेरी हालत खराब हो जाती है, कोई अच्छा ग्राहक खोज कर बेच देना चाहिए इन्हें। मगर ये लड़का समझता ही नहीं, कहता है दिल नहीं करता इन्हें बेचने का, फिर लाया ही क्यों, मेरे लिए आफत बनाने को… तालाब में मछलियां भी भर गई हैं…। पता नहीं ये लड़का ध्यान क्यों नहीं देता। मैं अकेला भूत की तरह यहां कब तक पड़े-पड़े यह सब संभालूं आखिर, मुझसे अब होता नहीं। गांव की बस्ती की तरफ से भी कोई मिलने जुलने नहीं आता इधर, कम से कम घोष बाबू जब तक जीवित थे, आते रहते थे। मेरे चचेरे भाइयों के पास समय रहा ही नहीं मेरे लिए। मैं ही मिल आता उनसे, मगर पैदल चला नहीं जाता अब! यदि मेरे पास एक… लूना… नहीं नहीं, लूना चलाने में बहुत कष्ट होता है, स्कूटर ठीक रहेगा… मगर मुझे नया स्कूटर कोई ला नहीं देता, दोनों बेटों से कह-कहकर थक चुका… किसी को परवाह नहीं, अच्छा आज फिर से कहकर देखता हूँ, कमल के आते ही कहूंगा!

दूर तालाब के उस पार आहट हुई, लगता है कोई गाय घुस रही थी- हीरा… जा भगा के आ…जा जा!

जर्मन शेफर्ड हीरा सचमुच हीरे जैसा था। मालिक की आवाज सुनकर वह तेजी से गाय की ओर लपका और पलक झपकते ही मेड़ पारकर तालाब के उस पार पहुंच कर गाय के पास जोर-जोर से भौंकने लगा। गाय भयभीत होकर उल्टे पांव लौट गई। ऐसा लगभग रोज होता।

विजयी होकर हीरा चुपचाप वापस बरामदे में आया और मोहन बाबू की आरामकुर्सी की बगल में बरामदे के फर्श पर बैठ गया। उसे शाबाशी की न चाहत थी, न उम्मीद। उसके नहाने का समय हो चुका था। मोहन बाबू ने कभी हीरा को विलायती साबुन से नहलाने का बेड़ा नहीं उठाया। बोर चालू कर दिया और हीरा को दस रुपए वाले देसी लाइफ बॉय की टिकिया से मलमल कर नहलाने लगे। नहाकर हीरा बाहर आंगन में धूप सेंकने चला गया। मोहन बाबू ने तालाब में जाली फेंक कर मछलियां निकाल लीं। उन्हीं मछलियों को चूल्हे पर उबाल कर हीरा का भोजन तैयार होता था। हीरा के खा चुकने के बाद बचा खुचा खाना भूरी बिल्ली खा जाती थी।

मुर्गियों को चारा देने के बाद मोहन बाबू तालाबों में बारी-बारी से जाकर नाव की मदद से मछलियों को दाना फेंकते। फिर थककर लौटने बाद उसी बोर के पानी से नहा-धोकर खुद का भोजन पकाने चले जाते। उनके भोजन के बाद थाली का बचा-खुचा खाना मुर्गियां टप-टप कर खा जातीं। यदि कुछ बचता, उसे तालाब में फेंकते ही मछलियां चट कर जातीं। कुल मिलाकर दाने-दाने पर किसी न किसी खाने वाले का नाम होता।

शाम होते-होते बारिश होने लगी।

कमल ड्यूटी से लौट चुका होगा अब तक, मगर बारिश अधिक हुई तो गांव कैसे आएगा! कार है मगर… जंगल का रास्ता है। फोन लगाकर देखूं, नहीं… नहीं, वह परेशान न हो जाए…। राखी को फोन लगाता हूँ, वे सब पता नहीं क्या कर रहे होंगे, सुबह से किसी ने याद नहीं किया मुझे।

‘हेलो! हां, मैं पूजा घर में हूँ, बेटा-बहू गए ड्यूटी पर, राघव भी स्कूल गया है…’

‘खाना क्या बना है आज?’

‘पता नहीं, बहू बना गई है सवेरे।’

‘मेरे मन में कितना दुख है मैं क्या बताऊं और किससे कहूं, टीवी पर सिग्नल नहीं आ रहा है, फोन में नेटवर्क भी ठीक नहीं और बारिश शुरू हो चुकी है इधर। तुम्हारे पास मैं देख रहा हूँ कि समय ही नहीं मेरे लिए।’

‘तबीयत ठीक नहीं मेरी, पूजा भी देर से कर रही हूँ, खाना खाकर दवाई लेनी है मुझे।’

‘पता नहीं आज कमल आ पाएगा या नहीं, हल्की बारिश शुरू हो चुकी है।’

‘न आ सके तो जोर-जबरदस्ती मत बुलाना उसे फोन करके।’

‘तुम लोग कब आओगे यहां?’

‘…..’

‘निहाल की तबीयत ठीक है?’

‘हां ठीक है, बीपी बढ़ गया था बीच में।’

‘छोटी बहू से जम रही है न तुम्हारी? नहीं तो आ जाओ यहीं, क्या फायदा है वहां रहने का आखिर…।’

‘बक-बक करते रहने के बजाय खेत की ओर जाकर देख क्यों नहीं आते कि सब ठीक है या नहीं, लड़का बेचारा काम से थककर सीधे भागा-भागा गांव आएगा फिर वहां सब वही देखेगा, यह क्या बात हुई!’

‘ठीक है… ठीक है, रखता हूँ मैं’, कहकर मोहन बाबू ने फोन काट दिया। उसे वहीं बरामदे पर एक ऊंची जगह पर टांग दिया जहां नेटवर्क आ सके।

बारिश बढ़ रही थी, बाहर आंगन में पानी भर रहा था। मछलियां तालाब में उछलकूद करने लगी थी। मुर्गियां भागकर बरामदे में आ गई थीं। तालाब की मेड़ के किनारे सफेद गुलाब का एक गुच्छा खिल उठा। जून के अंतिम दिनों की बारिश थी यह। आंगन में खड़े आम के वृक्ष पर अब तक आम लदे पड़े थे। उन्हें खाने वाला कोई था ही नहीं। दो दो बेटे, दोनों बहुओं और दो पोतों के होते हुए भी ये सारे आम वृक्ष पर ही सड़ने को मजबूर थे।

मोहन बाबू ने अपने छोटे चचेरे भाई से कहा था कि आकर ले जाए आम, मगर उसके पास भी समय नहीं। उसे तो अपनी बूढ़ी मां की सेवा करने और खेती करने से ही फुर्सत नहीं। वह बेचारा आए भी कैसे!

मोहन बाबू लाठी की मदद से धीरे-धीरे चलते हुए गेट तक पहुंचे। रोड पार कर चलते हुए किराने की दुकान तक आ गए।

‘आइए मोहन बाबू। कैसे हैं, सब ठीक?’

‘हां, एक पाकिट सिगरेट चाहिए थी।’

‘भाभी जी कैसी हैं? आएंगी नहीं गांव वापस? दूर छोटे के पास जाकर रह गई हैं?’

‘नहीं, वहां भी जरूरत है न। पोता है, बहू-बेटा ड्यूटी चले जाते हैं। हम दोनों ही दो जगह कैद हो चुके हैं। मोहन बाबू ने गहरी सांस ली, ‘अब तो बस ऊपर वाले के बुलावे का इंतजार है!’

‘भाभी जी का मन नहीं करता क्या यहां आने का?’

‘नहीं, उसकी तबीयत ठीक नहीं रहतीं वहीं शहर में व्यवस्थित है, उससे अब कुछ होता भी नहीं। छोटे बेटे ने मुझे बुलाया बहुत बार, पर जाऊं कैसे ये सब छोड़कर, संभालेगा कौन? बड़ा लड़का ड्यूटी करेगा या इधर गांव में पड़ा रहेगा! वह पास के शहर में ही है न, फुर्सत मिलते ही चला आता है मुझे देखने। बड़ी बहू भी आती, मगर उसकी तबीयत खराब है आज कल। इलाज चल रहा है। अच्छा चलता हूँ’ कह कर मोहन बाबू लाठी टेकते हुए घर की ओर मुड़ गए।

सांझ ढल चुकी थी। रात गेट पर दस्तक हुई तो हीरा दौड़कर गया। कमल आ चुका था। उसने बाजार से लाई हुई सब्जियों का बैग और दाल मोहन बाबू के सामने रख दिए।

‘कल लेबर लोगों को…’

‘हां, पता है, मगर क्या करूं, पैसों की दिक्कत है फिलहाल। ऊपर से लोन भी कटना है कल। फिर कुणाल की फीस पटानी है, घर का काम शुरू करवाना है।’

‘……’

‘मैं ही करता हूँ कोई इंतजाम।’

मोहन बाबू को पता चला था,पिछले महीने ही बड़ी बहू के लिए सोने का एक नया सेट लिया गया था। मगर लोन वाली बात भी ठीक ही थी। कुणाल की फीस तो बहू के खाते में से… नहीं-नहीं, कुछ कहना ठीक नहीं होगा। घर बनवाना ही पड़ेगा शहर में एक… पर… कहना तो होगा ही…

‘बेटे वो, मेरे पैरों में दर्द रहता है बहुत, चलने में तकलीफ है।’

‘ठीक है, कल मैं मालिश वाला तेल लेता आऊंगा।’

‘वो, इस मोबाइल में नेटवर्क नहीं होता, कोई फोटो भी नहीं दिखाई देता…’

‘गांव में नेटवर्क कम है। अच्छा अब मैं चलता हूँ, आपकी बहू की तबीयत ठीक नहीं है। वह अकेली है घर पर।’ पूरे घर को ठीक से देख लेने के बाद कमल लौट गया।

मोहन बाबू की बात उनके गले में फंसी रह गई। वह सफेद कार में बैठे कमल को जाते हुए देखते रहे। फिर धीरे-धीरे जाकर गेट बंदकर उसपर ताला लगा दिया। हीरा उनके पीछे-पीछे चलता रहा।

उन्होंने अपनी पत्नी को फोन लगाया, ‘मैंने देखा, आज गांव के धनराम को लूना पर जाते, यदि मेरे पास भी होता तो मैं भी गांव में इसके-उसके घर घूम आता।’

‘अब जो है नहीं, उसपर मैं क्या कहूँ, अपने लड़कों से कहो न ये सब।’

‘लूना मैं चला भी नहीं पाता। वो जो लेडीज स्कूटर होता है, वही ठीक रहता मेरे लिए। मगर मेरे पास रुपए नहीं हैं इतने।’

‘कितने हैं?’

‘हैं’, मोहन बाबू की मानो चोरी पकड़ी गई हो, ‘दरअसल तीस हजार रुपए हैं। बहुत मुश्किल से जोड़े हैं मछलियां बेचकर।’

‘इतने रुपए कब जोड़ लिए! इतने में पुराना स्कूटर मिल सकता है शायद’, उनकी पत्नी राखी खांसते हुए बोली। उम्र और बीमारी से उनकी आवाज लड़खड़ा रही थी, ‘ठीक है, मैं कमल से फोन पर बात करती हूँ, वह थोड़े और रुपए जोड़कर आपके लिए गाड़ी खरीद ले तो बहुत अच्छा होगा।’

‘ठीक है’, कहते हुए मोहन बाबू ने फोन रख दिया। वे प्रफुल्लित होकर पूरे बरामदे में यहां-वहां फिरने लगे। हीरा पूंछ हिलाता हुआ उनके आगे-पीछे घूमता रहा। ‘अरे! क्या देखता है हीरा, अब मेरा स्कूटर आएगा। फिर तुझे उसी पर घुमाऊंगा’। मोहन बाबू झूमने लगे तो हीरा भी दमकने लगा।

अगली सुबह कमल के आने के ठीक पहले राखी का फोन आया, ‘सुनिए, कमल को पैसों की सख्त जरूरत है। आपके पास जितने हैं न, फिलहाल उससे लेबर लोगों का पेमेंट कर दीजिए। खेती का मुनाफा आते ही कमल आपके लिए गाड़ी खरीद देगा, मेरी बात हुई है उससे।’

कमल थोड़े गुस्से में आया था।

बाबूजी आपके पास रुपए थे तो कहा क्यों नहीं आपने, मैं कितना परेशान था!

ओह्ह! मुझे याद नहीं आया पहले।मोहन बाबू सकपकाए।

अब हैं तो दीजिए रुपए!कमल ने कहा तो मोहन बाबू कांपते हाथों से अपने कमरे में गए और पुराने टीन के बक्से में कपड़ों के भीतर लपेटकर रखे गए रुपए निकाल लाए। कमल रुपए लेकर सीधे खेतों में काम कर रहे मजदूरों के पास चला गया।

मोहन बाबू ने राखी को फोन लगाकर कहा, ‘लगता है, कमल को सचमुच रुपयों की बहुत जरूरत थी, तभी वह ले गया।’

‘चलो अच्छा हुआ, बुरे वक्त में रुपए काम आए।’ मोहन बाबू की पत्नी की आवाज आई, ‘अच्छा सुनिए, हम सब मंदिर जा रहे हैं। छोटी बहू का जन्मदिन है आज। हो सके तो फोन कर लीजिएगा उसे। मैं रखती हूँ।’

बारिश तेज होने लगी थी। जून खत्म होकर जुलाई का महीना चल रहा था। मध्य जुलाई का एक दिन था। हीरा कुछ खा-पी नहीं रहा था। चौदह बरस का हीरा बूढ़ा और बीमार हो रहा था। मोहन बाबू ने कमल को फोन किया था। शहर से जानवरों का डॉक्टर आया। उसने हीरा के गले के पास फोड़ा होने की बात बताई और इंजेक्शन लगा कर वहां से खूब सारा मवाद निकाला।  दवाइयां भी दीं। कहा कि रुपए कमल से ले लेगा।

बीमार हीरा बमुश्किल कुछ खा पाता। बस चुपचाप अपनी जगह पर पड़ा रहता। वह घर में तब आया था, जब मात्र दो महीने का बच्चा था। राखी ने एक मां की तरह उसे पाला। मोहन बाबू के अकेलेपन का वह एकमात्र साथी था।

मोहन बाबू हीरा के दुख से उबरने के लिए सारा दिन खेत में जाकर मजदूरों को काम करते हुए देखते। इससे फायदा यह हुआ कि मजदूर कामचोरी नहीं कर पाते थे। खेती अच्छी हुई तो उनका स्कूटर भी आ जाएगा। फिर बड़ी आसानी होगी।

मोहन बाबू रोज सुबह-सुबह खाना बनाकर खा लेते। बचा-खुचा हीरा और मुर्गियों को देकर खेतों की ओर रवाना हो जाते। वहां मजदूरों के बीच हँसी ठिठोली करते-करते उनके काम पर कड़ी नजर रखते।

धान की फसल अच्छी हुई। बिक्री का समय हो चुका था। मोहन बाबू दिन भर जूट के बोरों में धान भरवाने में व्यस्त रहे। शाम को सभी मजदूरों के चले जाने के बाद खुद के लिए एक कप बिना दूध वाली चाय बनाकर बरामदे पर पड़ी अपनी आरामकुर्सी पर आ बैठे। हीरा वहीं बगल में सो रहा था।

‘अब फसल ठीक हुई है। क्या लगता है हीरा, स्कूटर आएगा अपना?’

उनका हाथ हीरा की पीठ पर पड़ा। मगर वह नहीं हिला।

वह फिर कभी नहीं उठा। एक गहरा सन्नाटा पूरे बरामदे में और बरामदे से होता हुआ सभी कमरों में पसर गया।

‘हीरा नहीं रहा!’ मोहन बाबू ने बता दिया कमल को फोन पर।

‘मैं आता हूँ’, कमल ने कहा।

हवा मंद-मंद चल रही थी। मोहन बाबू को यकायक बिट्टू की याद आई। बिट्टू भी एक जर्मन शेफर्ड था जिसे बाद में सेना में दे दिया गया था।

‘चल हीरा, कल तुझे दफना देंगे। ओम शांति!’ मोहन बाबू उठे और अपने कमरे के बिस्तर पर सो गए। कमल उस रात आकर वहीं रुक गया।

सुबह गांव वालों के सामने हीरा को जंगल में ले जाकर पूरे सम्मान के साथ दफनाया गया। आखिर वह था भी इस लायक। मगर मोहन बाबू को मलाल था कि वह हीरा को स्कूटर पर घुमा नहीं पाए।

बरामदे में अब मोहन बाबू अकेले होते।

एक दिन राखी का फोन आया, ‘कुणाल का नए स्कूल में दाखिला होना है और कंपीटीशन की तैयारी के लिए अलग से फीस भरनी है। पता नहीं पढ़ाई में इतने रुपए क्यों लगते हैं। वह यदि गांव जाए तो उसे समझाइएगा कि मन लगाकर ठीक से पढ़ाई-लिखाई करे। मां-बाप कितनी मेहनत से रुपए जोड़कर पढ़ा रहे हैं उसे।’

‘कुणाल तो यहां आया नहीं दो साल से। न बड़ी बहू आई।’

‘बड़ी बहू की तबीयत ठीक नहीं रहती है।’

‘मगर ड्यूटी पर रोज जा रही है न?’

‘ड्यूटी मजबूरी है। कुणाल भी पढ़ाई में व्यस्त रहता है तो गांव कैसे आएगा बेचारा!’

‘हां, बात सही है। ठीक है यदि वह आएगा तो मैं उसे समझा दूंगा।’

शाम को कमल आया। सब्जियों का बैग लिए। उसने आते ही कहा, ‘ये लीजिए बाबूजी, मालिश का तेल। इसे लगाकर पैरों को थोड़ा आराम मिलेगा।’

मोहन बाबू ने धीरे-धीरे आकर सामान बेटे के हाथों से ले लिया और रसोईघर में रख आए। भूरी बिल्ली उनके आगे-पीछे मछली के लालच में चक्कर लगाती रही।

‘देखता हूँ, यदि कुत्ते का कोई छोटा बच्चा मिले तो लेते आऊंगा।’

‘खाना खाकर जाओगे?’

‘आपने क्या बनाया है?’

‘दाल-चावल है बस।’

‘ठीक है, खा लूंगा।’

दोनों बाप-बेटे खामोशी से भोजन कर रहे थे। किसी ने कोई बात नहीं की। बस खाना खत्म कर लिया।

कमल वहीं बरामदे पर पड़ी खाट पर सो गया तो मोहन बाबू ने अपने कमरे का टेबल-पंखा वहीं लाकर लगा दिया। मच्छरदानी भी टांग दी।

बेटा दिन भर पुलिस की नौकरी करता है। रात को सुकून से सो जाए तो अच्छा है।

मोहन बाबू ने अपनी पत्नी को फोन मिलाया, ‘कमल आज यहीं सो गया।’

‘पत्नी के साथ झगड़ा हुआ होगा, उसे पक्का मकान जो चाहिए अपना।’

‘ओह!’ मोहन बाबू फोन काटकर शून्य में देखने लगे।

उनकी विश लिस्ट में पड़ा स्कूटर आउट ऑफ स्टॉक होता नजर आ रहा था। शायद उनकी विश अब आउट ऑफ मेमोरी होती जा रही थी। वे अपनी आरामकुर्सी पर बैठ गए और हुक्का गुड़गुड़ाने लगे।

संपर्क : जुगल किशोर डेंटल क्लिनिक, आर.के. टावर, दुर्गा पेट्रोल पंप के समीप, न्यू मेडिकल रोड़, मलकानगिरी-764045 (ओड़िसामो.9770696893