१८ दिसम्बर को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया के सभागार में प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ‘परिकथा’ के १०० वें अंक का लोकार्पण हुआ।इस अवसर पर ‘परिकथा’ के सौ अंकों की लंबी यात्रा, लघु पत्रिकाओं के समक्ष उपस्थित समस्याओं और चुनौतियों तथा साहित्यिक पत्रिकाओं के डिजिटलीकरण विषय को केंद्र में रखकर गंभीर बौद्धिक चर्चा हुई।इस समारोह में दिल्ली के महत्वपूर्ण साहित्यकार, पत्रकार और बौद्धिक श्रोता तथा साहित्य प्रेमी उपस्थित हुए।उनमें हैं- ममता कालिया, चंचल चौहान, अब्दुल बिस्मिल्लाह, जानकी प्रसाद शर्मा, शक़ील सिद्दिक़ी, राकेशरेणु, हरियश राय, महेश दर्पण, देवशंकर नवीन, सूर्यनाथ सिंह, गौरीनाथ, रामचंद्र, प्रेम तिवारी आदि।आमंत्रित साहित्यकारों में संजय कुंदन, प्रज्ञा, संगीता सिंह तँवर, सरिता कुमारी, अखिलेश श्रीवास्तव ‘चमन’, गजेंद्र रावत, मीना झा, वंदना यादव, हीरालाल नागर, अशोक मिश्र आदि के साथ-साथ ‘परिकथा’ के संपादक-मंडल के सदस्य अब्दुल बिस्मिल्लाह, हरियश राय, महेश दर्पण और अनुज सहित प्रधान संपादक शंकर उपस्थित थे।अन्य बुद्धिजीवियों में पत्रकार अरविंद कुमार सिंह, रूबी अरुण, राजीव श्रीवास्तव, राजेश कुमार, पूनम भाटिया, आभा कुलश्रेष्ठ आदि कार्यक्रम के अंत तक बने रहे।कार्यक्रम का संचालन ‘परिकथा’ के संपादक मंडल के सदस्य कथाकार अनुज ने किया। ‘परिकथा’ के १०० वें अंक का लोकार्पण अपने आपमें एक महत्वपूर्ण साहित्यिक संदेश बनकर उपस्थित था।

कार्यक्रम का आरंभ करते हुए कथाकार अनुज ने लघु पत्रिकाओं के समक्ष आने वाली चुनौतियों के बारे में बताया।उन्होंने ‘परिकथा’ की विशेषता बताते हुए कहा कि इसने बहुतेरे नए रचनाकारों को मंच दिया है।आज वे साहित्यकार अपनी-अपनी विधाओं में स्थापित हैं।उन्होंने अपनी साहित्यिक पत्रिका ‘कथा’ और ‘कथानक’ के अलावा साहित्यिक पत्रिकाओं के परिदृश्य के बारे में बताया।

‘परिकथा’  के संपादक शंकर ने पत्रिका की यात्रा से उपस्थित लोगों का परिचय कराते हुए कहा, ‘परिकथा के १०० वें अंक के लोकार्पण का अवसर यह समझने का अवसर है ‘परिकथा’ और इस तरह की पत्रिकाएं किस तरह साहित्य और संस्कृति के एक नए रूप की परिकल्पना सामने रखती हैं और सामाजिक परिवर्तन में भूमिका निभाती हैं।१९६० के दशक से शुरू हुए और १९९२ में कलकत्ता के राष्ट्रीय सम्मेलन में पुनर्संयोजित लघु पत्रिकाओं के आंदोलन को आज नई पहचान और नई परिभाषा की जरूरत है।यह भी समझा जाता है कि यह आंदोलन कई रूपों में आज भी जारी है।शंकर ने आगे कहा कि १०० वां अंक दस्तावेजी रचनाओं का अंक है।ये रचनाएं लंबे समय तक स्मरण और चर्चा में रहेंगी।

परिचर्चा में भाग लेने वाले पहले वक्ता राकेशरेणु ने लघु पत्रिका आंदोलन पर प्रकाश डालते हुए इस बात पर बल दिया कि लघु पत्रिकाओं को मिलकर एक साझा प्रयास करना चाहिए, ताकि चुनौतियों का सामना किया जा सके।

चर्चा में भाग लेते हुए जानकी प्रसाद शर्मा ने शंकर के ‘परिकथा’ निकालते रहने के जज्बे को मेटाफर में बोलते हुए कहा कि उन्होंने आग में हाथ डालकर उस आग को अपनी चेतना में उतार लिया है।लखनऊ से आए शक़ील सिद्दिक़ी ने इस अवसर पर शंकर और उनके साथियों अभय तथा नर्मदेश्वर की प्रारंभिक पत्रिका ‘अब’ का उल्लेख किया, साथ ही लघु पत्रिका के वैचारिक लक्ष्य को याद किया।अब्दुल बिस्मिल्लाह ने लघु पत्रिका की तुलना सूई से की और कहा कि तलवार से अधिक कारगर सूई होती है।इसलिए ‘परिकथा’ को लघु नहीं बल्कि बड़ी पत्रिका कहना चाहिए।चंचल चौहान ने शंकर के ‘अब’ के दिनों को याद किया और कहा कि उन्होंने अपने निजी संसाधन इस पत्रिका के लिए लगा दिए, इसलिए यह पत्रिका निकल पाई है।यह एक विरल उदाहरण है।ममता कालिया ने कार्यक्रम का समापन भाषण देते हुए कहा कि ‘परिकथा’ से उनका लंबा संबंध रहा है।शंकर जी ने एक पतनशील समय में प्रगतिशील मूल्यों की रक्षा की है।

हरियश राय ने उपस्थित लोगों के प्रति आभार व्यक्त किया और ‘परिकथा’ के साथ अपने संबंध की बात बताई।उन्होंने ऑनलाइन पत्रिका की आवश्यकता पर बल दिया।महेश दर्पण ने बताया कि लघु पत्रिका विचार को लेकर प्रारंभ किया गया आंदोलन था और शब्द और उसके अर्थ को जीवन से अलग नहीं किया जाना चाहिए।

सूर्यनाथ सिंह ने कहा कि शंकर कहानियों के प्रति प्रतिबद्ध व्यक्ति हैं।पत्रकार अरविंद कुमार सिंह ने शंकर एवं ‘परिकथा’ टीम को शुभकामनाएं देते हुए लघु पत्रिका आंदोलन पर संक्षेप में बात की।कहानीकार प्रज्ञा ने उनको शुभकामनाएं दीं और बताया कि उनकी पहली कहानी ‘परिकथा’ में प्रकाशित हुई थी।उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें लेखक बनाने का श्रेय ‘परिकथा’ को जाता है।चर्चा को आगे बढ़ाते हुए प्रो. प्रेम तिवारी ने सवाल उठाया कि आजादी के तेरह वर्ष बाद ही लघु पत्रिका आंदोलन की शुरुआत हो गई थी और आज भी हमसब लघु पत्रिकाओं से उम्मीद लगाए बैठे हैं।उन्होंने डिजिटल पत्रिका शुरू करने की बात की।

जेएनयू के प्रो. रामचंद्र सौवें अंक की महत्ता के बारे में बताया और कहा कि ‘परिकथा’ ने एक बड़ी पीढ़ी तैयार की है।गौरीनाथ ने कहा कि लघु पत्रिका निकालना एक नशे जैसा होता है।अशोक मिश्र और हीरालाल नागर ने बड़े भावपूर्ण वक्तव्य दिए और शंकर जी को शुभकामनाएं प्रेषित  कीं।जेएनयू के प्रोफेसर देवशंकर नवीन ने इस बात पर चिंता व्यक्त की कि आज लोग पत्रिकाएं पढ़ते नहीं हैं।छोटे-छोटे स्वार्थों को लेकर बहुत सारी पत्रिकाएं निकल रही हैं।इनका उद्देश्य पैसा कमाना रह गया है।संजय कुंदन ने छपे हुए शब्दों को स्थायी प्रभाव वाला बताया और कहा कि डिजिटल साहित्य का प्रभाव अस्थायी होता है।इसलिए प्रिंटेड पत्रिकाओं का बाजार कभी खत्म नहीं होगा।

कार्यक्रम की समाप्ति पर हरियश राय ने धन्यवाद ज्ञापन किया।कहना न होगा कि ‘परिकथा’ के १०० वें अंक पर चर्चा एक दीर्घ साधना को याद करना रहा है।इसमें यह आशा छिपी हुई थी कि चूंकि लघु पत्रिकाएं साहित्य के बचे हुए अंतिम मुकम्मल मंच हैं तो भविष्य में कुछ हिंदी लेखक उसी तरह आगे आते रहेंगे, जिस तरह शंकर आए।संकल्प हो तो कुछ भी संभव है।

प्रस्तुति :अनुज