ओड़िया कहानी

 

 

ओड़िया और हिंदी में एक जानापहचाना नाम।कई पुरस्कारों से सम्मानित पारमिता की रचनाएं देश और विदेश की अन्य भाषाओं में भी प्रकाशित हुई हैं।

‘मौसी, सिर्फ तीन फूल चाहिए, पूरा एपार्टमेंट घूम आई यह फूल कहीं नहीं मिला।आज व्रत है।आप तो जानते हो इस व्रत में कनेर का फूल लगता है।एक लक्ष्मी माता को चढ़ाऊंगी, एक पूजा के थाल में रखूंगी, और एक फूल के अंदर चावल दूर्वा के साथ रखकर देवी को समर्पित करूंगी।तोड़ लूं क्या?’ मेरी समस्या वे समझें और विश्वास करें, यह सोचकर मैंने इतनी सारी बातें एक सांस में कह दी।

वे स्थिर होकर सुनती रहीं और एकाएक बोलीं, ‘नहीं, नहीं दे सकती।’

‘नहीं’, इस एक शब्द ने मेरे स्वाभिमान को ठेस पहुंचाया, पूजा के लिए तीन फूल नहीं दिया।मैंने उनकी ओर पैनी निगाह से देखा और वापस आ गई।जब मैं वापस आ रही थी, तो वे घर के अंदर खिड़की के उस तरफ किसी से कह रही थीं, ‘उसने फूल मांगे, मैंने नहीं दिए।’ मैंने सुन लिया।

उन्होंने एक सफेद साड़ी पहनी थी।कान, बाहें और माथे पर चंदन का लेप, गर्दन पर तुलसी की माला और बिना ब्लाउज के साड़ी पहनी हुई थीं, जिसमें से उनके शरीर की नसें बाहर झांक कर उम्र को साफ-साफ बता रही थीं।सूर्य को जल चढ़ाने के लिए मुंह फेर लिया तो मैं भी वापस आ गई।

अस्सी बयासी की होंगी जरूर। ‘इस उम्र में इतना लालच ठीक नहीं है।’ मैं कहना चाहता थी, लेकिन मैं नहीं कह सकी।

‘हे भगवान! आठ बज चुके हैं, प्रसाद बनाऊं कब, पूजा करूं कब! काश! कहीं से यह फूल मिल जाता।’ होने वाली दुर्दशा के बारे में सोच कर खुद ही कांप गई।

ठीक उसी वक्त, ‘हो! मां, फूल ले लो।पूजा व्रत के दिन फूल के लिए भोर से उठना पड़ता है, नहीं तो फूल नहीं मिलते।’ वहां के चौकीदार ने मेरे हाथ में फूल रखते हुए कहा, रात की ड्यूटी खत्म कर कुछ फूल अपने घर लेकर जा रहा था कि आपकी बातें सुनकर रुक गया ।

‘ओह, भगवान तुम्हारा भला करे।’ मेरे मुंह से आशीर्वाद जैसे कुछ शब्द निकल गए, जैसे मैं भी एक बूढ़ी हूँ।

मन किया, वापस जाऊं और उनको बोलूं, ‘आपने नहीं दिया तो क्या, देखिए मेरे भगवान की पूजा भी बिना फूल की नहीं होगी।इतना पूजा पाठ करने का क्या फायदा, अगर किसी को मदद नहीं करेंगी तो!

नहीं, इन सबके लिए अब समय नहीं है।वैसे भी कितना समय हो चुका है।फिर पांचदस मिनट लेट क्यों करूं! अभी टिफिन पैक नहीं हुआ है।बाप बेटे दोनों बोलेंगे, इतने समय तक क्या कर रही थी? स्कूल और ऑफिस पहुंचने में देर हो जाएगी।

कभी-कभी तो शांतनु खूब सुना देते हैं। ‘रितू, टिफिन ठीक समय में तैयार हो जाना चाहिए।तुम्हारी वजह से देर नहीं होनी चाहिए।दूसरों को समय पर आने के लिए बोलने वाला खुद देर से पहुँचे तो कैसे चलेगा!’

‘मामा जल्दी मोज़ा ठीक करो, पानी की बोतल भरी नहीं है, कहीं स्कूल बस न छूट जाए।’

‘रितू, वोर्ड मीटिंग है,जल्दी करो, कहीं देर न हो जाए।’

‘हां, हां, जितनी भी घटना-दुर्घटना घटती है सब मेरे कारण।’ कौन झिकझिक करे, चुपचाप टिफिन पैक किया, पानी का बोतल भी।नहीं तो दिन की शुरुआत उसके ऊपर ऐसे आक्षेपों के भिन्न-भिन्न रूपों से होगी।पिछले दस मिनट के कारण सिर में दर्द शुरू हो गया था।पता नहीं उनके फूल न देने की बातों को मैं स्वीकार कर नहीं पा रही थी।घर के काम के साथ-साथ अपने आप को शांत करने की कोशिश कर रही थी।एक बार ये बाप बेटा अपने अपने काम में घर से निकलें तो मैं शांति से पूजा करूंगी।

पता नहीं, शायद उम्र बढ़ने लगी है, इसलिए स्वभाव में चिड़चिड़ापन बढ़ गया है या यहां के हवा-पानी में कुछ ऐसे तत्व हैं जो मुझे सहन नहीं हो रहे हैं।रियाद में ऐसा नहीं था।न पूजा करनी थी या पूजा न करने की वजह से अपने आपको दोषी जैसा कुछ महसूस करती थी।वहां तो वक्त ही वक्त था।कभी कभी कुछ न करने के कारण बोरियत सी महसूस होती थी।

दीर्घ बारह साल वहां रहने के बाद जब ओडिशा वापस आई तब ससुराल में कुछ दिन बिताए।वहां पता चला देवरानी तो कितना व्रत, उपवास कर एक्स्ट्रा पुण्य जमा कर रही है और मैं पहले के पुण्य को रियाद में घटा कर यहां आई तो खुद पर गुस्सा आना स्वाभाविक था।नहीं, अब ऐसा नहीं चलेगा।भुवनेश्वर में घर लेने के बाद सब पूजा-पाठ शुरू करना पड़ेगा और कुछ पुण्य को खाते में जमा करना पड़ेगा।अचानक मस्तिष्क में सुप्तावस्था में पड़े मां के संस्कार जागने लगे।

भुवनेश्वर तेजी से बदल रहा था।हमने एक अपार्टमेंट में घर खरीदा और यहां शिफ्ट हो गए।मैं भी अपने घर में मंदिर की स्थापना कर ईश्वर की आराधना नियम से करने लगी।सच कहूँ तो पूजा करना अच्छा लगने लगा था और सुकून भी महसूस कर रही थी।

अब बाप बेटा दोनों ही अपने-अपने काम में घर से निकल गए हैं।पूजा का थाल तैयार कर उसमें अक्षत, सफेद धागा, कनेर के फूल, दिया रख कर, प्रसाद बनाने लगी।काफी समय से ओडिशा से बाहर रहने के बाद भी सारी विधि याद थी।इसका श्रेय मां को ही दूंगी।डांट-डांट कर समझाई थी, ‘ऐ लड़की उठ, कितनी देर तक सो रही है।ससुराल में मेरा ही नाम ख़राब करेगी… नहा के आ।देख, कैसे पूजा होती है… जब देखो फुदकती रहती है।एक जगह बैठती नहीं, कैसे सीखेगी?’

मां की याद आ रही थी, घंटी बजा रही थी… आंखें नम हो गईं।काश! आज वह होतीं तो…!

पूजा खत्म होते ही चाय की तलब लगी …भूख भी।थोड़ा प्रसाद लेकर, चाय बनाने लगी।कुछ देर में चाय की प्याली लेकर बालकनी में बैठ गई और चारों ओर देखने लगी।मन किया, कोई तो देखे और पूछे, नए हो, कहां से आए हो? पतिदेव क्या करतें हैं? इत्यादि।मैं बताना चाहती थी कि मैं विदेश में रहकर आई हूँ।मगर यहां तो किसी को फर्क ही नहीं पड़ता है।गांव अच्छा था।वहां सबने आदर से स्वागत किया, ढेर सारे सवाल पूछे, उत्तर देते-देते मुझे थोड़ा-सा गर्व महसूस हुआ।’

अचानक एक फ्लैट के किचन से कुकर की सिटी बजने की आवाज सुनाई दी।बिलकुल मेरे सामने का फ्लैट था।सबकुछ साफ-साफ दिख रहा था।किचन में एक औरत जल्दी-जल्दी सब्जी काट रही थी।शायद कोई खाना खाकर घर से निकलेगा।काश! वह मेरी तरफ देखती तो इशारे से घर आने का निमंत्रण देती, दोस्त बनते, कुछ बातें होतीं।मगर उसकी नजर गैस के चूल्हे के ऊपर रखी कड़ाही में थी।मैं निरंतर उनको देख रही थी उम्मीद की नजर से, तब कुछ कबूतर के उड़ने के फड़..फड़ शब्द, मेरा ध्यान  हटाकर नीचे की तरफ ले गए।

वही बूढ़ी औरत, नीचे कुछ फेंक रही थी, कबूतरों के लिए।जरूर बासी भात होगा, और नहीं तो क्या, ईश्वर को फूल देने के लिए जो मना कर दे वह किसी को खाना खिलाए, कहां यकीन होता है।मैंने उनको चिढ़ाने के लिए और अपनी महानता जताने के लिए आवाज दी, ‘ओ मौसी, ऊपर आओ, फ्लैट नं ३०४ में, नाश्ता कराऊंगी।’ वह मेरी तरफ देख कर मुस्कराई।हाथ को आशीर्वाद मुद्रा में दिखा कर चलने लगी।उनका ऐसा बर्ताव मुझे नकली लगा।

इस बीच दो चार दिन बीत चुके थे।शांतनु एक फूल वाले को बोले थे रोज़ फूल देने के लिए।मुझे नीचे नहीं उतरना पड़ा, इसलिए उनसे मिलने का मौका नहीं मिला।मेरा गुस्सा भी कम हो गया था।सच कहूं तो यहां मुझे अच्छा लगता था।सब अपना लगता था।पांव के नीचे जानी पहचानी मिट्टी, सांसों में इस मिट्टी की खुशबू।पर एक बात है जिससे दिल को ठेस पहुंची थी।मुझे लगा था यहां सब आदर करेंगे, विदेश के बारे में पूछेंगे, चाय नाश्ता पर बुलाएंगे, मगर यहां तो किसी के पास वक्त ही नहीं या किसी को फर्क नहीं पड़ता है कि कोई नए लोग आए हैं।

फिर से मन उदास हो रहा था कि अचानक  वाशिंग मशीन के रुकने की आवाज मुझे खुद की दुनिया से वास्तविक दुनिया में वापस ले आई।कपड़े सुखातेसुखाते घड़ी पर नज़र पड़ी तो दस बज रहे थे।दो बजे शांतनु खाना खाने आएंगे।फ्रिज़ का दरवाजा खोल कर वेजिटेबल बास्केट निकाली तो पता चला सब्जी कम है।लाना पड़ेगा।इस अपार्टमेंट के मेन गेट के पास सब्जी वाले बैठते हैं।अभी जाऊंगी तो शायद ताजा सब्जियां मिल जाएंगी।

ड्रेस निकाल रही थी, फिर लगा साड़ी पहनती हूँ।यहां साड़ी पहने कुछ लेडिज को फूल तोड़ते, मार्निंग वॉक करते, सब्जी खरीदते देखा है।साड़ी पहन कर जाऊंगी तो शायद किसी से दोस्ती हो जाए।

मुझे लगा अपनी ओर आकर्षित करने के लिए एक नई थियरी मिल गई।साड़ी पहने हुए निकल पड़ी सब्जी खरीदने के लिए।सोचा, अगर कोई बात करेगी तो शाम को चाय पर बुला लूंगी।

‘अरे, मौसी! कम से कम पाव किलो तो ले लो, दो परवल को कैसे वज़न करूं?’ दुकानदार चिल्ला कर बोला।

ओहो, यह तो वही बूढ़ी औरत है।

‘धत्, सब्जी अच्छी हो तो पाव किलो लेने में दिक्कत नहीं है।यहां तो नरम और सड़ी हुई सब्जियां हैं।ऐसे सब्जियों के लिए पैसे क्यों ख़र्च करूं? पैसे क्या पेड़ पर उगते हैं!’ खूब ऊंचे स्वर में बोल रही थी वह।

‘वहां से मत लो न, वह तो दो दिन पुरानी सब्जी है, यहां से लो, ये ताजा है।’

‘नहीं नहीं, यहां से नहीं, कितना महंगा देते हो.., मैंने जितना चुनकर रखा है उसे वजन करो।दो परवल, एक आलू, एक टमाटर और हां, वहां जो कद्दू का एक टुकड़ा पड़ा है, वह भी दे दो।’ बूढ़ी मौसी ने कहा।

‘ठीक है, पंद्रह रुपए दो।’ थैली में सब्जी भरते हुए सब्जी वाले ने कहा।

‘पंद्रह रुपए? इतनी सी सब्जी के लिए, लूट रहे हो।ये लो।’

‘क्या अम्मा! दस रुपए दिए, और पांच रुपए दो।’

अब बूढ़ी की होंठों पर तड़ित एक हँसी खिल गई।वह बोली, ‘उतना रखो, सब्जी फेंक दोगे पर दाम कम नहीं करोगे।ग्राहक कैसे आएंगे, हां!’

‘नहीं नहीं, और पांच रुपए दो’ सब्जी वाले ने जिद किया।

‘ही…ही…, देखो! मेरे पास और पैसे नहीं हैं’,  वह अपना आधा फटा और बिना जिप के बटुआ दिखा रही थी।सचमुच उसमें पैसे नहीं थे।मैंने उनकी तरफ देखा, मुझे उनकी हँसी नकली लग रही थी जैसे एक अनाड़ी चित्रकार के द्वारा बनाया गया चित्र।

उनके और दुकानदार के बीच नोंकझोंक में मैंने सब्जियाँ छांटीं, वज़न किया और पैसे देकर वापस आ रही थी कि पीछे से एक आवाज सुनाई दी, ‘तुम यहां नई हो?’

मैंने पीछे मुड़कर देखा तो वही मौसी थी।तीव्र गति से चल कर मेरे पास आ गई।मैं खड़ी हो गई।उनके पास आते ही ‘हां’ बोल कर चलने लगी।

‘पहले कहां रहते थे?’

‘रियाद में।’

‘वह कहां है? ओडिशा में कि ओडिशा के बाहर?’

‘भारत के बाहर, माने साउदी अरब में।’

वहां गाय का मांस खाया क्या?’

पता नहीं कितना, शायद तीन चार किलो चिड़चिड़ापन मेरे पांव से शरीर को कंपकपाती माथे पर चढ़ गई।क्या सोच रही हैं वह मेरे बारे में।अनपढ़ तो हैं, अभद्र टिप्पणी भी करने में संकोच नहीं है उन्हें।मैं कुछ भी खाऊं, तुम्हें क्या… पूजा के लिए तीन फूल नहीं दिए और अब बातें तो देखो.. कैसे पूछ रही हैं! बहुत कुछ बोलना था पर, मैंने सिर्फ ‘नहीं’ कहा।

‘फूल नहीं दिया, क्या उस दिन से गुस्सा हो?’ उन्होंने पूछा ।

‘नाराज तो अपनों से होते हैं, मैं तो आपको जानती नहीं।’ अब मैं नहीं कह कर भी नाराजगी जताई।

‘कितने बच्चे हैं?’ मैं समझ गई कि वह बात बदलना चाहती हैं।शायद मेरे भाव को नाप लिया था।

‘एक बेटा।’

और… एक…’ उनकी बातों को काटते हुए मैंने कहा, ‘नहीं रे बाबा, एक ही काफी है।मैं नहीं चाहती थी कि वह मेरे पर्सनल बात पर कोई और टिप्पणी दें।

‘एक कैसे काफी होता है? अभी उम्र है, कहीं ऐसा न हो कि बाद में पछताना पड़े।’ उनके होंठों से हँसी गायब हो चुकी थी और आंखों के किस छिद्र से पानी जैसा कुछ बाहर आने को तैयार था।ईश्वर न करें कभी भी तुम किसी के लिए गैर-जरूरी हो जाओ, अपने घर का चौकीदार बन जाओ, न अपनी मर्जी से जी सको, न और कहीं ठिकाना हो।’ इतना बोलते ही वह चलने लगी।

मैं खड़ी थी स्तब्ध।वह क्या कहना चाहती थी, मेरा भविष्य दिखा गई क्या? खुली आंखों से मैं देख रही थी कुछ दृश्य, ठीक चलचित्र में चलते हुए- बहू का उंगली दिखाकर बोलना, खबरदार कोई चीज टूटी तो… घर छोड़कर कहीं भी नहीं जाना, अकेले खाने वाली हो तो अपने लिए इतना सब्जी क्यों लाती हो? ध्यान रखना कोई भी फूल न तोड़े।मुझे चक्कर आने लगा।अब समझ में आया, उनके फूल न देने की असमर्थता।

मूर्तिवत मैं खड़ी थी।हवा के झोंके से पत्ते हिलने की आवाज आ रही थी।एक कुत्ता रास्ते में सोते हुए हांफ रहा था, तभी कोई स्कूटी हार्न मारती हुई गुजर गई।वह धीरे-धीरे चल रही थीं।मैं देख रही थी, जाते हुए एक औरत को पत्थर में बदलते हुए।

…रिश्ते अलग-अलग तरीके से अपनी-अपनी पहचान जताते हैं, अब समझ में आया।

(ओड़िया से अनुवाद : स्वयं लेखिका)

संपर्क : द्वारा एस. के. मिश्रा, २ डी २०४, सनसिटी फेज-१, ठाकुर विलेज, कांदीवली ईस्ट मुंबई-४००१०१ मो.९८६७११३११३

Painting : Abrar Ahmad