इलाहाबाद विश्वविद्यालय में तृतीय वर्ष के छात्र।
आख़िरी सफ़र में गलेगा तुम्हारा अंगूठा
तुम उस छोर चलो
जहां तुम्हारे पूर्वज चले थे
सभ्य समाज चलता है जहां
भविष्य में चलो तुम
वर्तमान में मैं –
प्रतीक्षित
कहो वह बात
भेदो सीना
यह कैसा प्रेम तुम्हारा
खुद में भी इतना सिमटा
कोई बिंब, कोई आवाज
तक नहीं लौटती
अपनी डायरी में लौटो
गिनो और बताओ
जब प्रेम चलना सीख रहा था
कितनी बार गिरा था
दुहराओ
प्रेम की जगह सागर लिखो
पानी ही पानी –
पर प्यास?
क्या अब भी
तुम्हारे शहर से
लौटते हैं लोग –
उदास?
दोषी कौन?
किसके माथे मढ़ा जाए कलंक?
या कहा जाए शापित थी जगह
इसलिए टूटी पुलिया
निर्माण के दौरान
आखरी सफ़र में गलेगा तुम्हारा अंगूठा।
दुख
मेरा दुख पर्वतों के समान था
जिसे डूबा दिया गया
समुद्र की गहराइयों में
बाहर से बिलकुल अदृश्य
मैं अकेला नहीं था, लाखों थे
लाखों वर्षों से
जिन्होंने बनाई होगी
अपने आंसुओं से
यह समुद्र
तुमलोग यहां मत आना
तुम्हारे आने से
बढ़ सकता है समुद्र का स्तर
डूब सकती है दुनिया।
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