युवा लेखिका। रांची विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक (हिंदी) के तौर पर कार्यरत।

‘नौर! जल्दी बाहर आओ, चलो नृत्य करने चलें।’ मांझो ने आवाज दी।

नौर अपने जूड़े में बगुले का पंख सजा रही थी। घुटने तक अपनी साड़ी कसकर बांधी। हाथ में बांस का पंखा डोलाते हुए बाहर निकली।

उसे देख मेरखा ने कहा- ‘संगी! तुम्हारे जूड़े का सिंगार खूब शोभ रहा है।’

वह मुस्कुराई और समूह में शामिल हो गई। रीझ की जगह पर साड़ी बाधा न बने, इसलिए समूह की लड़कियों ने घुटने तक साड़ी पहनी थी। जवान लड़कियों का झुंड अखड़ा की ओर बढ़ रहा था। गांव के लोग खुशी मना रहे थे। खद्दी त्योहार का उत्साह था।

सखुआ के जंगल में पहान पूजा करके लौटा था। वहां ‘चालाटोंका’ था, जिसपर गांव के लोगों को विश्वास था। वह उनकी प्रार्थना के लिए निश्चित की गई जगह थी। सखुआ के पेड़ से भरा एक पूरा जंगल था। पहान ने वहां सामूहिक प्रार्थना की अगुवाई की। पहान ने सखुआ के जंगल में पुरखों से गुहार की-

‘ओ पुरखे!
तुम्हें हम गांव के लोग गोहारते हैं,
मां और पिता!
इस वर्ष अच्छी बारिश भेजना
फसलों के लिए अच्छी वर्षा देना।’

‘पहान’ उस रुंजा गांव का अगुवा था, जो सर्वसहमति से इस काम के लिए चुना गया था। सखुआ पेड़ के नीचे उसने दो मटके रखे, जिनमें आधा पानी और आधा फूल था। आधे पानी और आधे सखुआ फूल से भरे दो मटकों को उसने पेड़ के नीचे रखा, फिर पुरखों का स्मरण करने लगा। पुरखा प्रकृति ने उसकी प्रार्थना सुन ली।

मटका पानी से लबालब भर गया। यह अच्छी वर्षा का संकेत था। उसने बांस का सूप उठाया। उसमें सखुआ के फूल रखे थे। फूल आसपास के लोगों में बांटे। चालाटोंका से पूरा समूह गांव के अखड़ा की ओर निकला। गीत गाते और नाचते हुए वह समूह बढ़ रहा था। नाचते हुए यह उनका साझा संवाद था-

‘पुरखे! इस धरती पर हम
साझा श्रम करेंगे।
वर्षा और गर्मी मौसम का संतुलन
बनाने के लिए…’

इस वर्ष अच्छी वर्षा का संकेत मिला। जंगल में सखुआ के फूल खूब फूले थे। सखुआ के फूलों की गंध इतनी मादक थी। उसकी खुशबू से हवाएं मात चुकी थीं। वे पेड़ की टहनियों के आसपास से खूब इतरा कर बह रही थीं। फूल झड़ रहे थे। फूल झड़कर जमीन पर गिर रहे थे। सखुआ फूल ने लोगों को भी झुमा दिया था। लोग खूब झूम-झूमकर नाच रहे थे।

चालाटोंका से समूह गांव के केंद्र अखड़ा पहुंचा। गांव के केंद्र में खुली जमीन थी। वहां से आसमान साफ दिख रहा था। हँसी-खुशी, दुख-विपत्ति, लड़ाई-झगड़ों में लोग यहां जुटते थे। यह उनके बतियाने की अच्छी जगह थी। बच्चे यहां खेलने आते थे। अखड़ा के पास धुमकुड़िया बना था, एक छोटा कमरा जहां कोई कहानी सुनाता या कोई गीत सुनाता, कभी कोई काम भी सिखाया जाता था।

लड़कियों का एक झुंड अखड़ा में पहले से मौजूद था। चालाटोंका से अखड़ा पहुंचा समूह उत्साहित था। अखड़ा पहुंचते ही समूह रीझ से पूरी तरह भर गया था। खुशी में लोग दिन-रात के फर्क को भुलाकर खूब नाचने वाले थे। लोग अपने जूड़े और कान में सखुआ का फूल सजा रहे थे। इससे वे खुद सखुआ का जंगल लग रहे थे। स्त्रियों का समूह गीत गा रहा था-

‘कौन सा फूल जंगल में खिला है
जंगल बहुत सुंदर लग रहा है’

इस गीत के जवाब में लोगों ने गीत गाया-

‘जंगल में सखुआ का फूल खिला है
जिससे जंगल बहुत सुंदर लग रहा है’

स्त्रियों का झुंड नाचने लगा। उनके नाच से अखड़ा दिलक रहा था, उनके पैरों के स्पर्श से अखड़ा की जमीन नाच रही थी। नौर ने पहान से सखुआ से भरा सूप ले लिया।

‘लाओ दादू! मैं लोगों में फूल बांट देती हूँ।’ -उसने कहा। फिर वह सबके जूड़े में फूल खोंसने लगी। फूल बांटते हुए खूब रीझ रही थी। बचपन से गीत और मांदर की ताल में खूब रीझती थी।

रीझ में उसके खिलते चेहरे को देख उसके दादू ने कहा- ‘नौर। जुगनू की तरह..!’ नौर का अर्थ था – सखुआ का फूल। उसके दादू दोहरे आंगन में बैठकर मांदर बजाते थे। वह दादू के सामने अपनी बोली में गीत गुनगुनाती थी और सिर डोलाती थी। डोलाती हुए जब उसका आसमान डोलने लगता, आंगन में बैठ जाती। तब दादी ने गीत गाया था- ‘आंगन में कौन सा फूल खिला है/आंगन सुंदर लग रहा।’

वह ताली बजाती और दादी का हाथ पकड़ अपने पैर आगे-पीछे लेते हुए नाचने की कोशिश करती। उस वक्त ही दोरहे ने गाया- ‘आंगन में सखुआ का फूल खिला है, आंगन सुंदर लग रहा।’

लोग किसी को देखते, बतियाते और खुश होते यूं ही गीत रच देते थे। संवाद की भाषा में गीत थे।

नौर ने सबको फूल बांट दिए। वह अपने सखियों के पास गई। उनके साथ शामिल होकर नृत्य करने लगी। अखड़ा में नाचता लोगों का झुंड सखुआ का जंगल लग रहा था। वे धरती में कंपन पैदा कर रहे थे। मांदर और नगाड़े की ध्वनि दूर तक जा रही थी। उस ध्वनि में लोगों को रिझा देने वाली ताकत मौजूद थी। लोग रीझ से मात रहे थे। रीझ महुआ के फलों में भी घुल रही थी। जंगल में कहींकहीं महुआ के पेड़ फैले थे। वे पत्तों से खाली और फलों से भरे थे। महुआ धरती पर गिर रहे थे, उससे धरती शोभ रही थी। उसकी सुंदरता को देखकर लोग गा रहे थे। लोग नएपुराने गीत गा रहे थे।

अखड़ा को सब गीत और नाच की जननी कहते थे। अखड़ा उनके अंतर्मन को गीतों से सुंदर बना रहा था और बाह्य शरीर को नाच की कला से काढ़ रहा था। रुंजा गांव के बीचों-बीच यह अखड़ा था। जैसे वह धरती की कोख हो। उसमें से गीत, राग, धुन, लय, ताल आदि सब जन्म लेते थे।

नाचते लोग पूरी धरती में फैल रहे थे। अखड़ा की धूल आसमान में उठ रही थी। धूल से सूरज धुंधला रहा था। सांझ हो रही थी। गीत के नशे में सूरज डूब गया था और चांद आसमान में निकल आया था, उसे भी लोगों के साथ अखड़ा में शामिल होना था। जब वह अखड़ा आया। लोगों ने उसके लिए गीत गाया-

‘कौन सा चांद आसमान में खिला है/आसमान सुंदर लग रहा है/ख़द्दी के मौसम का चांद/आसमान में खिला है/इसलिए आसमान सुंदर लग रहा है। -गीत सुनकर चांद रीझा।

लोग हर मौसम के चांद के साथ अलग-अलग राग में बतियाते थे और चांद सचमुच रीझता था। रुंजा गांव का आसमान जंगल की तरह समृद्ध था। गांव के नाम पर ही जंगल का नाम पड़ा था- रुंजा जंगल। सभी तरह के औषधीय बूटी से जंगल भरा था। जंगल के बीच छोटी पगडंडियां थीं, जिनसे लोग जंगल से बाहर जाते थे। फिर लौट आते थे।

धीरे-धीरे लोग लौट रहे थे। अखड़ा थक चुका था। उसने अपनी पीठ से कुछ लोगों को उतारा। नौर अपने मां-बाबा, दादू और दादी के साथ लौट रही थी। अखड़ा से थोड़ी दूर पर घर था। सारे कबूतर सो चुके थे। चांद सोते कबूतरों को झांककर देख रहा था।

लोगों का घर मिट्टी से बना था। दीवारों में सफेद मिट्टी से चित्रकारी की गई थी। घर की दीवारें ऊंची थीं। ऊंची दीवारों में मटके टंगे थे। जिनमें कबूतरों ने अपना डेरा डाला था।

अखड़ा से उठते गीत को तारों ने सुना। वे अखड़ा में इकट्ठे हुए। कुछ लोग रातभर नाचते हुए बिहान करने वाले थे। दिन में काम में जुटे हुए लोग रात का भोजन कर अखड़ा में प्रवेश ले रहे थे। वे अखड़ा में घुस रहे थे, उनके सिर का फूल और बगुला पंख किसी तारे के समान दिखाई पड़ रहा था। वे जो दिन के काम को निपटाने में व्यस्त थे, रीझ को उन्होंने अपने कमर में कोंयछाए हंसिया की तरह रखा था। उसको रात को नृत्य के लिए बचाया था। मिंजुर, सनियारो, सोनो, फूलो और कुछ युवतियों का झुंड खिलखिलाती नदी की तरह अखड़ा में प्रवेश लिया। सनियारो ने कहा-

‘कांतो! मांदर बजाओ। हमारी रीझ नहीं मिटी है।’ कांतो ने मांदर को अंगुलियों से धुन दिया- धतिंग.. धतिंग.. धतिंग

उसके ताल के साथ बाकी मांदर टांगे लड़कों ने बजाना शुरू किया। उन लड़कियों के हमउम्र लड़के मांदर बजा रहे थे। झुंड एक दूसरे का हाथ थामे अखड़ा में परिक्रमा करने लगा। ऐसा करते हुए वे नदी जैसे लग रहे थे। मांदर बजाता हुआ पुरुषों का झुंड स्त्रियों के सम्मुख झुका हुआ था। स्त्री और पुरुषों का झुंड अखड़ा की परिक्रमा करने लगा। जैसे उनके आसमान का चांद! गहराती रात के साथ वे पृथ्वी पर लहर की तरह उठ रहे थे। एक चक्रवात का निर्माण कर रहे थे। चक्रवात दाहिने से बाएं की दिशा में उठ रहा था।

उस चक्रवात में इतनी ताकत थी कि नाच से छूट गए लोग अपने घरों से खिंचते अखड़ा की ओर आने लगे। बचे हुए लोग जैसे समुद्र की चाह में अंधेरे की दुर्गम पहाड़ियों से अपना रास्ता खोज रहे थे। वे अखड़ा में मिल रहे थे। उन्हें देख लग रहा था जैसे कि अखड़ा समुद्र हो गया है।  वह अनंत नदियों से भर गया है।

देर रात जब समुद्र शांत हो गया। आसमान से तारे लौट गए।

सुबह हुई!

‘सुखु! बैलों को गोहार घर से निकालो।’

-दोरहे ने आवाज दी। कल रातभर के नाच से सुबह अलसायी नहीं। बाकी दिनों की तरह ही जागी। लोग चरवाही करने जा रहे थे। अखड़ा से गुजरते बैल-बकरियों का झुंड निकल रहा था-

रदबद रदबद… रदबद रदबद…रदबद रदबद..!!

बकरियों के पैरों की टाप धरती से उठ रही थी। सूरज भी हर दिन की तरह अपने काम में जुट गया। वह आसमान में टिका हुआ था। जैसे लोग खेत-जंगलों और चारागाहों में टिके हुए थे।

चांद ने कई मौसमों का रास्ता नाप लिया। आसमान में अभी आषाढ़ के मौसम का चांद खिला हुआ था। जैसा पहान ने अनुमान लगाया था- जेठ के अंतिम में बारिश जंगलों में घुसी। बारिश की अच्छी शुरुआत हुई। सखुआ के जंगल में जब बारिश होने लगी। गाय-बैल चराने गए लोग गुंगु ओढ़कर लौटने लगे।

बारिश आसमान से जंगल में उतर रहा था। बारिश की तरह ही लोग पहाड़ से उतरने लगे। उनकी दिशा जंगल से घर के ओर थी। सुखु बकरियों को हांक रहा था। सखुआ के पत्ते चाबती बकरियों को उसने कहा – ‘लि:!’

चरती बकरियों को उसने नीचे उतरने के लिए आवाज लगाई। बारिश की बूंदें सखुआ के पत्तों पर उतरने लगीं। पत्तों पर जैसे-जैसे बारिश की आवाज तेज होने लगी, जहां-तहां से छोटे झरने पेड़ की जड़ों के पास से फूटने लगे। सुखु ने सखुआ के कुछ पत्ते तोड़े थे।

बारिश से बचने के लिए उसने अपना पत्तों से बना मोटा रेनकोट गुंगुओढ़ा। गुंगु बारिश और ठंड दोनों से उसके शरीर को बचा रही थी। वह घर की ओर बढ़ रहा था। बाकी चरवाहे भी लौट रहे थे। बकरियों के गले में घंटी टंगी थी। वह घंटी समय के कांटे की तरह बज रही थी। जीवन की गति को गांव के लोगों ने सूरज की गति के साथ बांधा था। कुछ देर बाद सूरज की धुंधली रोशनी ढिबरी की रोशनी जैसे होने लगी। नौर की मां इंजोर ने बैलबकरियों को गोहार घर में घुसाया।

‘लो! गरम तेल अपने शरीर में माख लो।’ -कहते हुए इंजोर ने सुखु को तेल की कटोरी थमाई। फिर चूल्हा जोरने लगी। चूल्हे से धुआं उठ रहा था। आसमान की ओर जा रहा था और धुएं की ताप से रात के तारे टिमटिमा रहे थे। रात सखुआ के जंगल में फैल चुकी थी। जुगनू रात के अंधेरे में लुका-छिपी खेलने को निकल रहे थे। रात को पहाड़ दूर से गहरे नीले आकाश की तरह दिख रहा था, जिसमें जुगनू तारों की तरह टिमटिमाने लगे।

‘सुखु! ढेकी घर से भूसा ले आओ।’

-चूल्हा जोरते हुए उसकी पत्नी इंजोर ने आवाज लगाई। उसके घर में लकड़ी का बना हुआ ढेकी था। ढेकी से धान कूटा जाता था। जहां ढेकी था, उस कमरे को ढेकी घर कहते थे। उस ढेकी घर से सुखु ने थोड़ा भूसा उठाया। चूल्हे में लगे दो लकड़ियों के बीच रख दिया। इंजोर एक पतली टहनी से भूसे को अंगोर की तरफ ठेल रही थी। ऐसा करते हुए लग रहा था जैसे वह चूल्हे को हांक रही है। भूसे से लकड़ी और चूल्हा जल रहा था। चूल्हे में भात पक रहा था।

नौर अपने हाथ-पैर धोकर घर के भीतर आई। उसकी दादी सखुआ के पत्तों को सिल रही थी। पत्तों से दोना बना रही थी। वह अखड़ा से खेलकर लौटी थी, बारिश में भीगकर बच्चे खेल रहे थे। दादी के पास बैठकर वह भी पत्तों में अपने हाथ नचाने लगी।

‘दादी देखो! मैंने कितना सुंदर दोना बनाया है’ -नौर ने कहा।

हँसते हुए दादी ने कहा- ‘हां! इसमें मैं करम त्योहार का हंड़िया पीयूंगी।’

बदलते मौसम के साथ सब लोग काम की जगह बदल चुके थे। सबने मिलकर रोपा किया। सबके खेत में जब तक काम पूरा नहीं हो गया, तबतक मदैत करते रहे। यह उनके सामूहिक तरीक़े से काम करने की प्रविधि थी। सब एक-दूसरे के खेत में रोपा कर रहे थे। सबके खेत में रोपा का काम पूरा हो गया।

आषाढ़ के मौसम का काम पूरा हुआ। धान बढ़ने लगे। खेत में नन्हें धान लहलहाने लगे थे। आसमान में भादो के मौसम का चांद चढ़ा। फसल अच्छे से बढ़ी, इसके लिए भी लोगों ने अपने पुरखों को याद किया। बारिश का धन्यवाद किया। अखड़ा में करम का त्योहार मनाया। धान के बढ़ने तक अखड़ा में नृत्य किया।

रुंचा गांव में धान के मौसम में करम का त्योहार मनाया जाना था। बढ़ते धान को देख वे खुशहाली मना रहे थे। लोग जंगल जा रहे थे। करम पेड़ की टहनी लाने जंगल जा रहे थे। नौर के दादू सिलयारी के घर मांदर की मरम्मत के लिए सुबह ही निकल चले थे। नौर अपनी दादी के साथ अपना साज-सिंगार निकाल रही थी। वह शाम के नृत्य के लिए अपने को सजा रही थी। दिन के ग्यारह बज चुके थे। सुखु और इंजोर जंगल की ओर निकल पड़े थे।

‘सुखु! करम की टहनी तुम खेतों में गाड़ दो। मुझे झपकी आ रही है।’ -इंजोर ने कहा।

सुखु एक-एक टहनी लेकर खेत के बीचों बीच गाड़ने लगा। दोपहर की धूप तेज थी। दो बज चुके थे। उनके खेत के बगल में एक पहाड़ी नदी बहती थी। भादो के इस मौसम में वह खूब खिखिलाकर बह रही थी। इंजोर थक कर वहीं लेट गई।

सुखु ने अपने सारे खेत में टहनी गाड़ दी। एक लंबी पूंछ वाली चिड़िया उस टहनी पर आकर बैठ गई। उसने बड़ी तेजी से अपनी गर्दन मटकाते हुए पंख खोला और उड़कर दूसरे खेत की टहनी में जा बैठी।

ढिंचुआ! यह उस लंबी पूंछ वाली चिड़िया का नाम था। पुरखे ने जब किसानी शुरू की, उन्होंने ढिंचुआ से दोस्ताना बढ़ाया था। फिर वह उनके खेतों की रखवाली करने लगी। लोग जब भी धान बोते और धान की फसल में दूध भर रहे होते, तब वे करम मनाते। जंगल से टहनियों को लाकर खेत में गाड़ देते और ढिंचुआ उन टहनियों पर बैठती।

‘इंजोर उठो!’ -सुखु ने उसे जगाया। ‘चलो!’

अब ढिंचुआ धान को बढ़ने तक देख लेगी।

‘अभी घर चलते हैं।’ पी-फिड़िको…पी-फिड़िको -सिर पर छोटे पंख फूटे हुए थे, उस ढिंचुआ पक्षी की आवाज आई।

उसकी आवाज सुनकर इंजोर जागी। उसने हंसिया और कुल्हाड़ी उठाई। वे घर की ओर निकल पड़े। गांव में धान के बढ़ने तक फिर उत्सव मनाया जाना था। लोग अपने काम में लगे हुए थे। घरों से ढेकी की आवाज़ आ रही थी- ढाकुर.. चुर, ढाकुर.. चुर, ढाकुर चुर!!

लोग धान कूट रहे थे। लड़कियां ढेकी से चावल कूटने का काम कर रही थीं। उन्होंने अपने पैर में पईंड़ी पहना था। पईंड़ी काम करते हुए बोल रहीं थीं – रुनू.. झुनू.. रुनू.. झुनू.. रुनू..झुनू!!

बरगद के पेड़ के नीचे लोगों का झुंड इकट्ठा हुआ था। अपने मांदर की मरम्मत के लिए सब इकट्ठा हुए थे। वाद्ययंत्रों को ठीक करने के लिए नीमा पास गांव से आ गया था। बरगद की छांव के नीचे वह खजूर की चटाई पर बैठा था। नौर के दादू दोरहे यहीं बैठे थे। एक कटोरी में काले रंग का पदार्थ रखा था। उसको नीमा मिट्टी के बने मांदर में लगाया। मांदर में लगे मोटे तार जैसे चमड़े को खिंचा। फिर वहीं रख दिया।

कुछ मिनट बीतने के बाद दोरहे ने मांदर उठाया। उसपर थाप दी – दांक ता तिंग … दांक ता तिंग…द दंग..दांक ता तिंग.. दांग ता तिंग… द दंग..!!

करम त्योहार में मांदर की यही धुन बजाई जाती थी। मांदर की धुन स्पष्ट थी। त्योहार में कहानी सुनाए जाने की परंपरा थी। लोग अखड़ा में इकट्ठा हुए। उन्होंने मांदर और नगाड़े को जमीन में रखा। पहान ने कहानी शुरू की। लोगों ने पीले जटंगी और जावा के फूल आपस में बांटे। लोगों ने अपने जूड़े और कानों में फूलों का सिंगार किया।

फूलों का सिंगार उन्हें सबसे अधिक पसंद था। हर त्योहार में वे अपने आप को फूलों से सजाते थे। फूल से सजे लोग कभी सखुआ का जंगल लगते थे। भादो के इस महीने में धान खेत लहलहा रहे थे और लोग अखड़ा में सुंदर जटंगी फूल की तरह खिल रहे थे।

सबसे आगे स्त्रियों का समूह एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए कतारबद्ध था। पुरुष उनके सामने मांदर की ताल के साथ झुका हुआ था। गीत गाती स्त्रियों के पीछे जवान युवतियां थीं। अखड़ा के चारों तरफ जवान युवक एक दूसरे का हाथ थामे गोल आकार बनाते हुए घेरे की तरह था। वे अपनी एक पैर को आगे और हाथ को ऊपर की तरफ स्त्रियों के गीत के साथ डोला रहे थे। समूह गीत गा रहा था –

बाबा का बोया धान कितना सुंदर है
मां का बोया हुआ धान कितना सुंदर है
यह धान कितना बढ़ गया है
उनका बोया हुआ धान कितना बढ़ गया है

अखड़ा में सब खूब नाचे। गांव-गांव में कार्तिक माह तक सबने उत्सव मनाया। अखड़ा में उन्होंने बढ़ते धान को देखकर गीत गया। धान खूब अच्छे से बढ़े। खद्दी त्योहार के समय पहान ने बारिश का ठीक अनुमान किया था। फसल के बढ़ने तक बारिश रुकी। कार्तिक के महीने तक धान खूब अच्छे से पक चुके थे। लोगों ने अपना नाचना रोका। वे अब धान काटने के लिए अपने खेत जा रहे थे…

सुखु, इंजोर, पुनी और दोरहे पहान अपने खेत में धान काट रहे थे। धान को खलिहान लेकर जा रहे थे। वहां धान को मीसा गया। धान से बीज निकल रहे थे।

धान से धान..
गीत से गीत और
नाच से नाच

पूरी धरती उनके लिए जीवन का अखड़ा थी। जिसका उत्सव वे लोग मना रहे थे। कभी जूड़े में बगुला पंख सजाते, कभी वे सरई फूल, जटंगी फूल और जावा फूल का सिंगार करते। पूरे वर्ष अपने जूड़े को अलग-अलग फूलों से सजाते, उत्सव मनाते और श्रम करते। मौसम के अनुसार काम में लगते।

धान जब बढ़ गए, काटने गए। हाथ में हंसिया लिया और कमर में कुछ गीत कोंयछाया। गीत और हंसिया से उन्होंने धान की कटाई की। धान मिसाई की। खेत से अखड़ा तक, अखड़ा से जंगल तक, जंगल से अखड़ा और अखड़ा से चरागाह तक वे घूमते रहे।

जीवन में बड़े सुंदर तरीके से वे गोल-गोल घूमते रहे! जैसे वे त्योहारों में अखड़ा में घूमते थे गोल-गोल। वे अखड़ा में घूमने की कला जानते थे। वे जीवन को जीने की कला जानते थे- दाएं से बाएं! यह पृथ्वी के घूमने की दिशा थी, नाचते हुए यह उन लोगों की अखड़ा में घूमने की दिशा थी।

संपर्क : असिस्टेंट  प्रोफेसर (हिंदी), राम लखन सिंह यादव कॉलेज, कोकर, रांची विश्वविद्यालय, रांची-834001 मो. 9262235165