रांची विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक (हिंदी) के तौर पर कार्यरत।

आषाढ़ की धनरोपनी का समय आ चुका था।धान के बीज रोपा के लिए निकाले जा रहे थे।लोग अपने बैलों को तैयार कर रहे थे।खेतों में डोभा का काम किया जा रहा था।सोसो गांव में धान की रोपाई लगभग शुरू हो चुकी थी।बिनको खेत की ओर जा रही थी।नानी ने उसे सखुआ के पत्ते में उरद का चखना और तुंबा में पानी भरकर दिया।वह आगे-आगे चल रही थी।नानी उसके पीछे चल रही थी।नानी के सिर पर हंड़िया से भरा घड़ा था।रोपा के दिनों में काम में हाथ बांटने दूसरे गांव से लोग आते थे।इसे मदैत कहा जाता था।सोमरा के खेत में रोपा रोपते हुए स्त्रियां गीत गा रही थीं-

‘धान की बोवाई पूरी हो गई है,
देखो, अब बारिश होगी या नहीं!
हे धरमेस! बारिश भेज देना।’

धरमेस, उन गीत गाने वाले लोगों का देवता था।धान के महीनों में अक्सर ऐसे ही गीत गाए जाते थे, जिसमें लोगों की प्रकृति से अर्ज़ियां शामिल होती थीं।

‘नाना…’

बिनको ने आवाज़ लगाई।

बिनको सबकी नतनी थी।गीत गाने वाली सभी औरतें उसकी नानी समान थी।उसे देखकर सबने ख़ुशी में और जोर से गीत गाना शुरू कर दिया।जैसा कि अक्सर गांव में होता था, बुजुर्ग बच्चों से इसी भाषा में बात करते थे।बिनको उनसे जरा लजाती हुई मासूम तितली जैसी हरकतें करने लगी।भाग कर नाना के पास आई।उनको चखना थमा दिया।खेत के समीप एक बूढ़े जामुन का पेड़ था।सभी उसके नीचे आकर बैठ गए।चखने बांटे जा रहे थे।हुसनी नानी सबके लिए हंड़िया निकाल रही थी।काम करने वाले सभी स्त्री और पुरुषों ने हंड़िया पिया।हंड़िया की मादकता ने उन लोगों के कंठ में और मिठास घोल दी।सब एक सुर में गाने लगे-‡

‘आषाढ़ आ गया है

गाय बैलों को काम पर निकालो’

उनका गाना-पीना जल्दी ही खत्म हुआ।उन्हें दूसरी जगह भी जाना था रोपा में हाथ बांटने के लिए।

खरवागड़हा नदी के किनारे सबके खेत थे।उसकी दूसरी ओर चरागाह था।गाय-बैल उधर चर रहे थे।सोमरा के खेत का काम पूरा हो चुका था।अब बैलों को सोझाना था।उन्होंने बिनको से कहा कि वह जाकर बैलों को घर के रास्ते की ओर सोझाए, वरना वे भटक जाएंगे।ऐसा होता था कि पशु भी रास्ता भटक जाते थे, जैसे इंसान रास्ता भटकते।बिनको गई।उसने बैलों को नदी की ओर सोझाया, बैल नदी में उतरकर पानी पी रहे थे।वापस, बिनको बूढ़े जामुन की छांव में बैठ गई।बैठते हुए यूं ही उसने पूछ लिया- नाना! क्या आपके पास गाएं थीं, जब आपने खरवागड़हा नदी खोदी थी!

‘बिनको! जब मैं तुम्हारी उम्र का था, तभी मैंने इन बैलों के साथ ही हल का भार उठा लिया था, उन्होंने कहा।

और गाएं…

एक समय थीं।

जब धान के मौसम में नदी किनारे खेत पर धान लहलहाते।तब खेतों की ख़ूबसूरती पर बादल ख़ूब मोहित होता था।पहाड़ से नदियां भी खूब उछल- कूद करते हुए पहाड़ी रास्ते से खेत तक आती थीं।बारिश के दिनों में वे पहाड़ी नदियां खरवागड़हा की संगी होती थी।खरवागड़हा नदी से चारों ओर हरियाली रहती थी।इस नदी में जंगल भी पानी पीने को उतरता था और सिंगरीली भी..।जंगल, जो भिनसरिया जागकर सबका भोजन तैयार करता था! हर सांझ यहीं पानी लेने को उतरता था।’

खरवागड़हा मानव निर्मित नदी थी।बिनको के नाना सोमरा ने इसे खोदा था।यह नदी गांव वालों के लिए ईश्वर थी।१९६२ का समय था।आजाद भारत का पंद्रहवां वर्ष।बांध बनाने की कई परियोजनाएं आई थीं।तेलेया नदी को भी बांधा जा रहा था।सारू पहाड़ से तेलेया नदी निकलती थी।पहाड़ी इलाका होने के कारण कई नदी पहाड़ से नीचे उतरती थी।लेकिन कहीं ठहरती नहीं थी।

ऐसा ही खरवा क्षेत्र के साथ भी था।यहां से नदी गुजरती थी, पर रुकती नहीं।सोमरा की प्रार्थना पर उस समय नदी रुकी थी। ’६२ का ही वर्ष था।सोमरा ने दिन और रात एक करके लंबा-गहरा गड्ढा खोद डाला था।थककर चूर अपने शरीर का जल धरती को समर्पित किया था।उसकी प्रार्थना सुनी गई।तेलेया नदी रुकी।उसने खरवा क्षेत्र को अपना पानी दिया।फिर इस नदी का नाम पड़ा खरवागड़हा।इस नदी से धान की पैदावार बढ़ी।इसके बाद ही सोसो गांव में संपन्नता आई थी।वर्षों पहले यहां सूखी – चट्टानी जमीन थी।पूर्वजों ने दिन-रात कोड़-कोड़कर यहां अपने खेत तैयार किए थे।वर्षों तक अपने शरीर के नमक से जमीन को सींचा था।इस उपजाऊ जमीन से कुछ दूरी पर लोगों के घर थे।

सोमरा के दोनों बैल नदी से पानी पीकर लौट चुके थे।वे बूढ़े पेड़ के नीचे सुस्ता रहे थे।सांझ हो चुकी थी।सबके घर लौटने का समय हो चुका था।पंछी कतारबद्ध लौट रहे थे।बैलों को हांकते हुए नाना और बिनको भी खेत से लौटने लगी।घर की ओर उनके कदम विस्तार ले रहे थे।इसके साथ ही उनकी किस्सागोई भी अपना विस्तार लेने लगी

नाना ने कहा-‡

जंगल की गोदी में.. सिंगरीली गाय के बच्चे खेलते थे।

वह जंगल का अंतस्थ होता था, जहां मनुष्य का जाना मुश्किल होता था।वहां सिंगरीली गाय रहती थी।खूब सुंदर दिखने वाली सिंगरीली।उसकी लंबी और झबड़ूदार पूंछ थी।उसकी सफेद पूंछ चमकदार दिखाई पड़ती थी।वर्षों पहले उसकी झलक किसी ने देखी थी..।

आगे कुछ चमत्कारी ढंग से नाना कहने लगे-

सिंगरीली की खूबसूरती इन दो आंखों से भी अधिक थी! वह जो सारा आकाश इन आंखों में अंट जाता, जो सारा पहाड़ इन आंखों में अंट जाता, जो सारी नदी इन आंखों में अंट जाती।सिंगरीली की एक झलक ही नजरें आंक पाई थी।एक सांझ वह खरवागड़हा नदी में पानी पीने को उतरी थी! उसकी पूंछ किसी ने देखी थी!

कुछ समय पहले इस क्षेत्र में ‘दईत’ रहते थे! जंगल का देवता।जंगल, नदियों का इलाक़ा उनका था।खरवागड़हा नदी के पास सारे खेत उनके हिस्से की भूमि थी! पुरखों ने उनसे यह ज़मीन उधार माँगी थी।कहते हुए कि हमें जीविका के लिए ज़मीन दो! हम इसे आबाद रखेंगे।पुरखों ने सबसे पहले दईतों से साहचर्य बनाया ।

दईत!

बिनको से रहा न गया, उसने बीच में टोका।बिनको की उत्सुकता नाना समझ गए और बोले-

वो देखो! आसमान के तारे।चींटियों के समान दिख रहे।आसमान की अनगिनत चिटियां, क्रमबद्ध होकर संपूर्ण आकाश को ढकी हुई हैं।ऐसे ही होते हैं ‘दईत’।धरती पर अनगिनत दईत हैं।बिलकुल तारों जैसे।उन्हें आंखों से देख पाना जरा मुश्किल है।

‘तारों जैसे?’

बिनको ने कहा।

‘फिर तो उनका भी समय होगा..जब वे दिखाई देते होंगे!’

बिनको की बात में सघनता थी! बिलकुल उस रात जितनी, जो उन्हें घेरे हुई थी! बिनको की इस बात पर नाना जरा शांत हुए।फिर गंभीर स्वर में बोले-

हाँ!

उनका भी समय होता, जब वे दिखाई देते!

कुछ रुककर उन्होंने कहा –

विस्तार…

इन आंखों को विस्तार चाहिए।चींटियों के समूह जितना विस्तार…

‘यह कैसे सम्भव है?’

बिनको ने कहा।

बिनको की रात आज सर्र से हवा की तरह बीत गई थी।अंधेरा छंट रहा था।सुबह के चार बज रहे थे।मुर्गे की बांग हुई।

कुकुड़ुकु!

हुसनी नींद से जाग चुकी थी।वह देखती है कि नाना-नतनी की बातों से आज रात छोटी हो चुकी थी।सोमरा को बीच में टोकते हुए बोली-

‘त्योहार का दिन है, मेरे लिए एक कईलगा गांथ दो!’

गांव में करम का त्योहार था।घर का थोड़ाबहुत काम निपटा कर नानानतनी खेत की ओर चल दिए।रास्ते में खेत दोन घूमते हुए सफेद पंखों को चुनने लगे।इस मौसम में बगुला अपने पंख गिराता था।इन पंखों से लोग सुंदर कईलगाबनाते थे।स्त्रियां अपने जूड़े में इसका सिंगार करती थीं।

नाना और बिनको ने ढेर सारे सफेद पंख इकट्ठे किए।जल्दी घर लौट आए।नाना उन पंखों से कईलगा गांथने लगे।बिनको उनकी मदद करने लगी।चूंकि वह इंतजार में थी, इस बीच उसका मन भी कुछ गांथ रहा था।उसके मन में कौतूहल और उत्सुकता थी।

शाम होते ही, मांदर की आवाज घर तक आने लगी।

धातिंग तांकतांक तांक..

धातुंग…

हुसनी तैयार होकर आई।उसने वह कईलगा अपने जूड़े में खोंसा।खोंसते हुए कहा-  ‡

‘अब मैं अपने कदमों को नहीं रोक पाऊंगी।’

ऐसा कहते हुए मांदर की धुन की ओर चल पड़ी।जनसमूह से अखाड़ा सजा हुआ था।आज रात्रि का चंद्रमा नानी के जूड़े के सिंगार से अपनी रोशनी पा रहा था।कईलगा के सफेद पंखों की आभा से अखाड़ा खूब शोभ रहा था।रात्रि की प्रार्थना खत्म हुई।जनसमूह ने आयताकार पंक्ति बनाई… उनके कदम थिरकने लगे।वे एक-दूसरे का हाथ थामे हुए मांदर की थाप पर ताल बैठाने लगे।उनके सम्मुख मांदर बजाने वालों का समूह था, फिर नगाड़ा बजाने वालों का समूह था।स्त्रियों की पंक्ति के पीछे बिनको ने अपनी सखियों के साथ एक पंक्ति बनाई।नृत्य की अगुवाई करने वाली स्त्री ने एक गीत गाया फिर उस गीत को मांदर बजाने वाले पुरुषों ने दोहराया।इसके बाद पूरा जनसमूह उस गीत को दोहराते हुए पृथ्वी की ओर अर्धोन्मुख होकर नृत्य करने लगा।

रात आधी हो चुकी थी।जनसमूह अपनी संपूर्णता में था और अखाड़ा थिरक रहा था ..आसमान के अनंत तक थिरकन पहुंच रही थी।तारेगण समूह में नाच रहे थे।नदियां और मछलियां चंद्र रोशनी में मचल रही थीं।हवा में गीत का विस्तार था।पहाड़ों के कान में गीतों की मधुरता थी।चांदी की रोशनी से नदी का पानी सफेद हंड़िया हो चुका था।उसकी मीठी खुशबू सूंघते हुए पहाड़ नदी में उतर रहा था।वह हल्का झुका हुआ दिखाई दे रहा था।पहाड़ और खरवागड़हा एकदम आमने-सामने हो चुके थे।

सभी रीझ के मीठे नशे में सरोबार थे।मांदर की ध्वनि मद्धिम होने लगी थी.. नाचने वाला जनसमूह थक चुका था।वह अब लौटने वाला था, जैसे अब तारों का लौटना था।बिनको अपने नाना-नानी के साथ लौटने लगी.. तारे आपने रास्ते थे, नर्तकों का समूह अपने रास्ते था.. और, रास्ते में  नदी थी।सिंगरीली थी।वह नदी का पानी पीकर लौट रही थी कि लौटते जनसमूह को उसने देखा।देखते हुए उसने सिर हिलाया और तुरंत जंगल की ओर बढ़ गई।चमकदार झाड़ू तारे के समान वह बिनको की नजरों से पार हो गई।

जनसमूह, तारे, पहाड़, जंगल, दईत, सिंगरीली सभी अपनी जगह पर वापस लौट आए।

भिनसार!

सूरज अपने घर से काम पर निकलने वाला था।पहाड़ों ने भी चिड़ियों को छोड़ दिया।बैलों की आवाज कानों में आ रही थी..।दिनचर्या सामान्य थी और अब बिनको को आश्वस्ति थी! वह गाय-बैलों को चरवाही के लिए निकाल रही थी।गाय, बैल और बकरियों का झुंड बढ़ते सूरज की तरह अपने रास्ते की ओर बढ़ रहा था।

संपर्क : सोसो मोड़, कार्तिक नगर, गुमला८३५२०७ (झारखंड) मो.९२६२२३५१६५