सुधीर सजल, भोपाल:‘वागर्थ’ अक्टूबर २०२२ अंक।आंचलिक गंध और ध्वनियों से पगी, रहस्य और रोमांच से भरी, स्वाभाविक नाटकीयता में गुंथी अवधेश प्रसाद सिंह की कहानी ‘तीजी’ बहुत संवेदित करती है।
पी. के. सिंह, पटना:‘वागर्थ’ का अक्टूबर २०२२ अंक प्राप्त हुआ।अद्योपांत पढ़कर प्रतिक्रिया दे रहा हूँ।अक्सर पत्रिकाओं को पत्र नहीं लिखता।लेकिन यह पत्र लिखने को मजबूर हो गया, क्योंकि यह अंक बेहतरीन है और वर्षों बाद किसी पत्रिका के एक अंक में इतनी सुंदर कविताएं, लेख और विशेषकर कहानियां पढ़ने को मिलीं।
इस अंक की सभी कहानियां उत्तम, सराहनीय हैं।विशेष रूप से विजयश्री तनवीर की ‘अजाब’।वर्षों बाद ऐसी सुघड़, प्रभावशाली, मन को स्पर्श करने वाली, यथार्थ को उजागर करने वाली कहानी पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।विजयश्री को बहुत-बहुत बधाई, धन्यवाद और साधुवाद।अवधेश प्रसाद सिंह की ‘तीजी’ और अख्तर आजाद की ‘छतरी’ भी बहुत अच्छी कहानियां हैं।
विश्वनाथ किशन भालेराव: वागर्थ अक्टूबर अंक में प्रकाशित ‘सभ्यता की हिंसा’ पर मेरे विचार हैं।हमारे देश में इस समय मनुष्य धर्म एवं जातियों के कटघरे से बाहर निकलने को तैयार नहीं है।भारतीय संतों ने धर्म एवं जातियों के कटघरे को तोड़ने को प्रेरित किया था।प्राचीन काल में बौद्ध और जैन दर्शन में मानवीय जीवन मूल्यों का निर्माण हुआ था।उनमें अहिंसा भी एक मूल्य थी।आज आधुनिकीकरण के दौर में हमने उन मूल्यों को तहस-नहस कर दिया है।यह ठीक कहा गया है, ‘हम देख सकते हैं कि आज बुद्ध और गांधी के देश में राजनीति हिंसा का फार्म हाउस बन गई है।’
अपने देशवासियों को गणतंत्र के महत्व को समझने की आवश्यकता है।नहीं तो भारतीय लोकतंत्र को खतरा हो सकता है।आज वैश्विक सोच रखना चाहिए।प्राचीन संदर्भ लेकर राजनीति की जा रही है।समाज में भेदभाव की स्थिति उत्पन्न कर सत्ता को पाना मुमकिन हो गया है।देश में स्त्रियों और दलित समाज की स्थिति बहुत भयावह हो गई है।दलितों पर होने वाले अत्याचारों की संख्या हजारों में है।यदि हर राज्य में दलित समाज का अध्ययन किया जाए तो हमारे सामने अनेक प्रश्न खड़े हो सकते हैं।खैरलांजी घटना दिन में पूरे गांव के सामने हुई है।एक दलित महिला और उसकी बेटी के साथ बलात्कार किया गया और उन्हें मार दिया गया।आज वे आरोप से बरी हो गए हैं।बिल्किस बानो का भी वैसा ही है।यह हमारे सभ्य समाज पर तमाचा है।देश में परिवर्तन हो रहा है, लेकिन यह परिवर्तन मूल्यों को नीचे गिरा रहा है।समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व- ये मनुष्य के उदारता से जीने के मूल मंत्र हैं।राजनीति में कूपमंडूकता स्थापित हो चुकी है।समाज पर भी इसका प्रभाव पड़ रहा है।मनुष्य को इस षड्यंत्रकारी प्रवृत्ति को समझना चाहिए।अन्यथा हमारे नैतिक मूल्यों को गिरने में देर नहीं लगेगी।
भूपेंद्र बिष्ट, नैनीताल: वागर्थ अक्टूबर अंक में अशोक वाजपेयी की ७ कविताएं प्रकाशित हुई हैं।इन कविताओं की जमीन कोरोना महामारी के परिदृश्य तक महदूद नहीं है, अपितु जीवन के समूचे कैनवास के कई बुनियादी रंग और जरूरी ध्वनियां इन कविताओं में प्रतिफलित हो रही हैं।
दो साल पहले लिखी गई अशोक जी की ही कविता ‘हम अपना समय लिख नहीं पाएंगे’ की ये पंक्तियां देखें : ‘पता नहीं यह हमारा समय है/यहां हम किसी और समय में बलात आ गए हैं/इतना सपाट है यह समय कि इसमें कोई सलवटें, परतें, दरारें नजर नहीं आतीं।’
ताज़ा कविताओं में छह – सात आदमी (१ तथा २) आपदा से भयभीत तो हैं ही, इसलिए कुछ ज्यादा सतर्क हो गए हैं अपनी पुरानी आदमियत और मनोजगत वाले गुह्य गुणा-भाग के चलते।पर कोई डोर बांधे भी रखती हैं इस पृथ्वी पर मनुज और उसकी मनुजता को।एकोऽहम् बहुस्याम की तीनों कविताएं कवि होने के लिए क्या आवश्यक है -यह बताने के लिए देवता की राह देखना, निरर्थक कुछ करते रहना; जैसे मनुष्य करते रहते हैं और फिर भूल जाना सब कुछ इसी जीवन में, को हौलनाक तरीके से निरूपित करती हैं : ‘…मैं किसी रागी द्वारा गाए जा रहे/पद की भूली गई पंक्ति था – मैं चुप्पी था/जो प्रणय अस्वीकार होने के बाद/पत्थर की तरह भारी थी।
‘इतना ही बचा है’ कविता अल्टीमेट की कविता है, लेकिन इसमें दृश्य का वैभव अक्षुण्ण बनाए रखा है कवि ने।हां, आत्मा की दुर्दशा पर कुछ ठीक सा कहने के लिए कवि की सीमा आड़े आ ही जाती है: ‘…आत्मा जिसमें इतना अंधेरा भर गया है/कि रोशनी का सपना देखने में भी हिचक होती है/इतना ही बचा है…’।
अज्ञेय के निबंध ‘कविता : श्रव्य से पाठ्य तक’ में जो यह विश्लेषण आता है कि वाचिक परंपरा की कविता कभी एक वस्तु नहीं होती, छपी हुई कविता वस्तु होती है।वाचिक परंपरा में संप्रेषण स्वयं सहकर्म है, छपी हुई कविता के साथ संप्रेषणीयता के लिए पहले सहयोग की स्थिति उत्पन्न करनी होती है। … इस विवेचना को समझना हो तो कविता ‘देवता बहुत हो गए थे’ को पढ़ा जाना चाहिए।कविता (एक) की यह पंक्ति : ‘देवता पहले से दिए हुए हैं/ प्रार्थना हम चुन सकते हैं…’ वास्तव में हालातों को कन्फेस कर लेने की विवशता के शब्द हैं।
पुष्पा तूर : ‘वागर्थ’ के नवंबर २२ अंक में प्रकाशित शशि बांयवाला की लघुकथा में मीता का पति सही चिंता कर रहा था, आज जीविका कमाने के आगे जीव हत्या से भी एक मां का हृदय नहीं कांपता, भविष्य तो उस नन्ही जान को धरती पर लाकर भी संवारा जा सकता था।बहुत खूब शशि जी!
सत्यमुदिता स्नेही : नवंबर अंक में प्रवीण पंड्या द्वारा प्रस्तुत परिचर्चा संस्कृतानुरागियों के लिए बहुत ही उपयोगी और महत्वपूर्ण है।
प्रवीण पंड्या : अक्टूबर मल्टीमीडिया का दृश्यांकन कविता के अर्थ को पूरी तरह खोलने में सहायक है।पाठ और वास्तविक संसार के सहज दृश्य इत्यादि समेत बहुत अच्छा दृश्य संयोजन किया है।
गुरी : ‘वागर्थ’ का नवंबर अंक।मल्टीमीडिया के अंतर्गत एकबार फिर अद्भुत प्रस्तुति देखने को मिली! मार्मिक स्वर!
मुकेश जैन:‘वागर्थ’ का नवंबर अंक।आदरणीय डॉ. सरोज कौशल का लेख वास्तव में ज्ञानवर्धक है कि देशभक्ति को प्रज्वलित करने के लिए संस्कृत का कितना महत्व है और यह भी कि अन्य भाषा के सभी महत्वपूर्ण खंडों का भी विद्वान समकालीन लेखकों द्वारा अनुवाद किया जा रहा है।
कन्हैया त्रिपाठी:‘वागर्थ’ नवंबर अंक में प्रकाशित संस्कृत पर परिचर्चा में बहुत उत्तम सामग्री है, विशेषतः संस्कृत-अध्येताओं के लिए।सभी को साधुवाद!