हंसा दीप, कैनेडा : सितंबर 2021 का वागर्थ। नि:संदेह आने वाली पीढ़ियों को अपना भविष्य अंग्रेजी भाषा में नज़र आता है, परिणामस्वरूप हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी हिंदी सिर्फ बोलचाल की भाषा रह गई है। पालक अपने बच्चों को बचपन से ही अंग्रेजी स्कूलों में भेजकर उनके सुनहरे भविष्य को सजाने का अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं।

पुष्पांजलि दास : आजकल हिंदी अपने ही घर में दुबकती और संकुचित होती जा रही है। शिक्षा का पैमाना अंग्रेजी भाषा है। हिंदी केवल निर्धनों, कवि सम्मेलनों तथा हिंदी दिवस के आयोजनों तक ही सीमित न रह जाए। यद्यपि हर किसी को अनेक भाषाओं को सीखने का हक है, परंतु अपने-अपने राष्ट्र की परिचायक भाषा का तिरस्कार करने का साहस भी नहीं होना चाहिए। विकसित देशों की अपनी भाषा है। फिर क्यों  हम आयातित भाषा के गुलाम होते जा रहे हैं? आज अपने ही देश में हिंदी दूसरे पायदान पर धकेली जा रही है। इसके कारणों को जानकर इसका निदान करना आवश्यक है। ताकि शर्म से नहीं गर्व से हिंदी बोल सकें।

हरे राम पाठक : हिंदी की वर्तमान स्थिति को लेकर चिंता विभिन्न पहलुओं पर चिंतन करने के लिए आमंत्रित करती है। कुछ हिंदी प्रेमी ऐसे हैं जो विश्व में हिंदी बोलने वालों की बढ़ती संख्या पर पर खूब गौरवान्वित होते हैं। पर हिंदी की सिकुड़ती दुनिया उन्हें नजर नहीं आती। ऐसे लोगों को सचाई का आइना दिखाते हुए हिंदी की कमियों को गिनाया गया है एवं उस क्षेत्र में काम करने की प्रेरणा दी गई है। इस चिंतनपूर्ण आलेख के लिए हार्दिक बधाई।

पी. सी. कोकिला : संपादकीय में थोड़ा-सा जोड़ने की अनुमति मांगते हुए कहना चाहती हूँ कि हिंदी भाषा अपने व्यावहारिक रूप को तेज़ी से बदल कर अपनी संभावनाओं के कारण विश्व पटल पर अपना स्थान दृढ़ता से बना रही है। व्यावहारिक स्वरूप से भी किसी भाषा की अस्मिता उसके साहित्यिक रूप से अधिक जुड़ी होती है। यहां भी मुझे हिंदी का वर्तमान तथा भविष्य दोनों सुनहरे लगते हैं ।

कैलाश बनवासी : हिंदी जिस तरह से एक ओर मध्यवर्ग की भयानक उपेक्षा का शिकार है, वहीं दूसरी ओर दूषित, कुत्सित दंभी संकीर्ण राजनीति का। हिंदी की समावेशिकता जो ज्ञान-विज्ञान, सहृदयता और व्यापक मनुष्यता पर आधारित है, वह तलछट समारोही थोथेपन में गर्क होता चला जा रहा है। यह सुधीजन के बड़े, सघन और निरंतर अभियान से ही संभाली जा सकती है।

तेज प्रताप : वागर्थ का सितंबर अंक। अनुराधा जी की कविता संवेदना की सघन कविताएं होती हैं जिन्हें अलग ही अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया । बहुत बहुत बधाई!

निशि मोहन,  चंडीगढ़ : कुसुम खेमानी के धारावाहिक उपन्यास ‘मारवाड़ी राजवाड़ीएक परिश्रमी, कर्मठ नारी की कहानी है जिसने असंभव को संभव कर दिखाया। बहुत ही बारीकी से क्रमबद्ध ढंग से चित्रण करते हुए कहानी आगे बढ़ती है, पाठकों के समक्ष चलचित्र की भांति। सजीव ! जीवंत ! मानो लेखिका की स्वयं की अभिव्यक्ति हो। भावपक्ष के समान कला पक्ष उत्तम कोटि का है।

तुल्या कुमारी : ‘वागर्थ’ पत्रिका को बहुत धन्यवाद कि अफगान कविताओं से हमें रूबरू करवाया। कितना दर्द है इन कविताओं में, कितनी हिम्मत है इन कविताओं में, अनगिनत सवाल हैं -आखिर क्यों केवल स्त्री होने के नाते हमें कैद कर दिया जाता है बेहिसाब बंधनों में। रूह कांप जाती है आंखों से अश्रु स्वतः बहते हैं इन कविताओं के दर्द को महसूस कर। आखिर मैं भी तो एक स्त्री हूँ, एक-एक शब्द के साथ मैं जुड़ जा रही हूँ।

संदीप कुमार शर्मा : मैं स्तब्ध हूँ कि ‘वागर्थ’ मल्टीमीडिया में जो सुन रहा हूँ वह हमारी ही धरती पर घटित हो रहा है।  हमारी ही धरती पर उसे सृजित किया जा रहा है। कहीं आंसुओं का खारापन बेमानी है और कहीं उस खारेपन पर आत्मा चीत्कार कर रही है….। क्या कहूँ ‘वागर्थ’ और इसकी इस पूरी टीम के लिए… आप सभी का समन्वय, संजोजन, प्रस्तुतीकरण, चयन सब इतना उम्दा है कि हर बार लगता है कि हमें पूरा सुनना है और कई बार सुनना है, सुनते रहना है…लेकिन यह भी सोचता हूँ कि सुनने से कम से कम मैं मानवीय तो कहला ही सकूंगा, कोई कहे न कहे, मुझे लगेगा कि मैं उनके दर्द को जानता हूँ अपरिचित नहीं हूँ, हामी भरता हूँ कि हाँ हमारी इस दुनिया में रेत भी है और नमक भी और दोनों के सौदे क्रूरता से हो रहे हैं…पूरी टीम को बधाई…साधुवाद।