वेदप्रकाश आर्य : वागर्थ का जुलाई अंक।वे बुद्धिजीवी जिनमें स्वतंत्र चेतना शेष है, जिन्हें सामान्य जन के सुख दुख भीतर से आंदोलित करते हैं, वे अपने आपको विशिष्ट नहीं समझ सकते,समझना चाहिए भी नहीं। परंतु ऐसे बुद्धिजीवियों का इस समय भयानक अकाल पड़ा हुआ है। अब वे बुद्धिजीवी से ज्यादा सुविधाजीवी हो चुके हैं। कुछ कागज काले करना और फिर अपनी सुविधाओं के दायरे में सिमट जाना आज के बुद्धिजीवी का चरित्र बन चुका है। फिर भी कुछ लोग हैं जो अभी भी सचमुच सोचते हैं और पूरी ईमानदारी से अपने स्तर पर जितना हो सके उतना लोगों को जगाने का काम करते हैं। आज बड़े पैमाने पर किसी आंदोलन की आशा हम नहीं कर सकते, परंतु छोटेछोटे समूह बनाकर बौद्धिक विचार विमर्श जारी तो रख सकते हैं परंतु ऐसा भी देखने में नहीं आ रहा है। हम छोटेछोटे समूह बनाकर अपनी संस्कृति और अपनी परंपराओं से खाद पानी लेते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों को जिंदा रखने और एक मानवीय समाज की रचना का टिटहरी प्रयास तो कर ही सकते हैं।

‘औरत का घर’ कहानी के निष्कर्ष से सहमत नहीं हूँ। क्या स्त्री के बिना भी कोई घर घर होता है जो ऐसी निष्पत्ति ले ली जाए कि औरत का कोई घर नहीं होता। यह परिवार और समाज को विभाजित करने वाली बातें हैं। और इसी तरह की बातें करने के कारण सामान्य लोगों के बीच में तथाकथित बुद्धिजीवियों की कोई पूछ परख नहीं है। जो भी साधनहीन होगा उसे परेशानियां होंगी ही, ऐसे में स्त्री-पुरुष का भेद कोई बहुत अधिक अर्थ नहीं रखता। स्त्री और पुरुष को एक संयुक्त इकाई के रूप में देखने के बजाय उनको दो अलगअलग स्वतंत्र इकाइयों के रूप में देखा जाना सारे उपद्रव की जड़ है। मैं लेखिका की निष्पत्ति से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूँ।

प्रेमकुमार :  वागर्थ  के जुलाई 2021 अंक में हुस्न तबस्सुम निंहां की ‘अनबीता व्यतीत’ बेहद खूबसूरत कहानी है। स्त्री मन की अंतर्व्यथा और अंतर्द्वंद की सुंदर रचना। वे मजी हुई लेखनी का परिचय दे रही हैं। कहानी का अंत छाप छोड़े बिना नहीं रहता।

बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जिलिंग : वागर्थ के जुलाई अंक मेंजसिंता केरकेट्टा की कहानी ‘औरत का घर’न होने की बात सबके लिए सत्य नहीं है। मूलत: आदिवासी समाज में जो अशिक्षित हैं और आज भी अंधविश्वास के शिकार हैं, वहां औरत का घर न होने की बात यथार्थ ही है। मैं डुवर्स के ऐसे इलाके से आया हूँ जहां अस्सी प्रतिशत जनगण आदिवासी हैं। दारू हड़िया पीने की प्रथा है हर समय, शादियों में ज्यादा। उराँव, मुंडा, महली विभिन्न संप्रदाय की आदिवासी प्रथाएं थोड़ी भिन्न हैं, पर हड़िया पीने और पिलाने का चलन है। बेटियों या लड़कियों को शादी के नाम पर बेचने की परंपरा है। मैं छोटा था तो मेरा आदिवासी दोस्त एतवा ने जब बताया’दिदीकर सादी होयक बात चलथे, पैसि आवी तो मोय सायकिल किनबो….’ । दीदी की शादी हुई और उसने साइकिल खरीदी। अनब्याही लड़की जब पेट से होती है तो अजीबोगरीब पंचायत होती थी और अजीब सजा लड़की और दोषी लड़के को दी जाती थी लगभग पांच दशक पहले। पर आज ऐसी स्थिति नहीं है। पढ़ी-लिखी लड़कियां व्यवस्थित ज़िदगी यापन कर रही हैं। निचले स्तर की अनपढ़ लड़कियां दिल्ली-मुंबई काम करने जाती हैं तो अनेक जिंदगियाँ आज भी बर्बाद हो रही हैं।मेरा मानना है, औरत का घर होना चाहिए।यह धरती भी मां है, औरत ही है, सबका घर है। अधिकतर घरका नाम मां के नाम पर रखते हैं। मैंने मेरे घर का नाम ‘आमा खडकालय’ रखा है । विनोद शाही ने अपने लेख में छायावाद को सभी पक्षों के साथ प्रस्तुत कर और विश्लेषण करके छायावादी धारा की दिशा बताई है और दशा दिखाई है।

अखिलेश शुक्ल : संपादकीय विचारणीय है, आज के संदर्भ में समाज में बहुत कुछ बदलाव की अपेक्षा करता है। लेकिन यह बदलाव कितना संभव है? इसके बारे में कुछ कहना कठिन है।पत्रिका के इस अंक में तीन कहानियां प्रकाशित की गई हैंऔरवे प्रभावित करती हैं। हिंदी साहित्य जगत मे अब पूर्णतः स्थापित हो चुकी कवयित्री नीलेश रघुवंशी की कविताएं, उनकी अन्य कविताओं के समान प्रभावशाली हैं। यह नवयुग की कविताएं हैं। इनमें नएपन के साथ साथ जहां एक ओर समाज से संवाद है, विचार विमर्श है, वहीं दूसरी ओर कुछ अपेक्षाएं भी हैं। आजकल के पाठक कविताओं से ऊबने लगे हैं। लेकिन नीलेश जी की कविताएं आपको उब से बचाकर कुछ नया सोचने के लिए प्रेरित करेंगी। उभरते हुए समीक्षक, आलोचक आशीष मिश्र ने नीलेश जी की कविताओं के बारे में विस्तार से लिखा है। सच तो यह है कि नीलेश रघुवंशी ने जीवन में कविता को जिया है। उसे अपने जीवन में कहीं न कहीं महसूस किया है। यह लेख उनकी कविताओं के माध्यम से बहुत कुछ बयां करता है। पठनीय, विचारपूर्ण लेख। विश्वदृष्टि में अच्छी तथा पठनीय रचनाओं का प्रकाशन किया गया है।  हिंदी के पाठक के साथ यह परेशानी है कि वह अनूदित रचनाओं से तारतम्य नहीं बैठा पाता है। पत्रिका इसके लिए प्रयासरत है। यह अवश्य है कि हमें हिंदी के साथ साथ अन्य भाषाओं का साहित्य भी पढ़ना चाहिए। इस कार्य को वागर्थ पत्रिका बहुत अच्छी तरह से अंजाम दे रही है। सभी कविताएं सामाजिक परिवर्तन तथा बदलाव की अपेक्षा करती दिखाई पड़ती हैं। इन्हें अवश्य पढ़ें। लेखिका ने श्री प्रबोध कुमार पर लिखे गएसंस्मरण को भी कहानी के समान सरस बना दिया है।

तुल्या कुमारी: वागर्थ के जुलाई अंक में जसिंता केरकेट्टा की कहानी काफी अच्छी है । यह कहानी पढ़ते वक़्त यही लगा कि यह न केवल आदिवासी समाज की स्त्रियों की दशा को व्यक्त करती है अपितु गैर-आदिवासी स्त्री की भी कथा को व्यक्त करती है। कहानी कल्पना से दूर यथार्थ को प्रकट करती है।

वंदना : वागर्थ  के जुलाई अंक में जसिंता केरकेट्टा की कहानी में दिखाया गया है किस्त्री को केवल एक भोग वस्तु की तरह माना जाता है। यही सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी हो रहा है। यही कथा चंदो और उसकी माँ की है।इसपर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता था। सब ताने मारने में आगे चले आते हैं । सबसे अधिक दुःख इस बात का है कि एक औरत दूसरी औरत पर अत्याचार करती है।

सारंग उपाध्याय : आशीष मिश्र ने अपने लेख में नीलेश रधुवंशी के परिवेश औऱ उनके अनुभव संसार को गहरे से न केवल छुआ है अपितु समझा भी है। यह लेख कविताओं के माध्यम से स्त्री मन के भीतर की कई परतों की पड़ताल है। बहुत ही सधा और एक कवयित्री के रचना संसार को सामने लाता लेख है। पहली बार पढ़ा आशीष मिश्र को और इस तरह लिखे से अवगत और परिचित हुआ। बधाई।

विमलेश त्रिपाठी, हावड़ा :आशीष मिश्र ने अपने लेख मेंनीलेश की कविता की जमीन के साथ उनके मन की परतों की भी पड़ताल की है।स्त्री कवियों में नीलेश को अलग से पढ़ने की जरूरत को यह लेख रेखांकित करता है।स्त्री विमर्श की सीमाएं भी यहां झलकती  हैं।आपकी आलोचनात्मक दृष्टि के तो हम कायल रहे ही हैं, कविता और कवि के इतने करीब पहुंच कर उनकी गिरहें खोलना भी कम बूते की बात नहीं। आपको बहुत प्यार भाई। नीलेश जी को बधाई।

सत्य प्रकाश तिवारी, कोलकाता : ‘वागर्थ’ के जुलाई अंक में बहस तर्क एवं तथ्य पर आधारित है। सबसे अच्छा यह लगा कि किसानों के मुद्दे को भी इस बातचीत में स्वयं ही शामिल कर लिया गया है।

मंजु रानी सिंह, शांतिनिकेतन : ‘वागर्थ’का जुलाई अंक। जयशंकर प्रसाद के पुनर्मूल्यांकन की दिशा में बढ़ते नज़र आ रहे हैं विनोद शाही।उन्होंने कामायनी के माध्यम से प्रसाद की साधारण में छिपे असाधारण की परख बड़ी बारीकी से की है।उनकी यह समीक्षा अधिक से अधिक पढ़ी जानी चाहिए।

प्रदीप कुमार शर्मा : ‘वागर्थ’ के जुलाई अंक में शंभुशरण सत्यार्थी की लघुकथा ‘अंतिम दर्शन’। आज का पढ़ा-लिखा युवा आधुनिकता की दौड़ में इस कदर अंधा हो गया है कि नौकरी और प्रमोशन के चक्रव्यूह मेंउलझकर अपनी जन्मभूमि और जन्मदाता दोनों को भूलता जा रहा है। माता-पिता के अंतिम दर्शन के लिए भी उनके पास समय नहीं है। और तो और निर्लज्जता की सीमा पार करते हुए वे मां-बाप को भी बांट देते हैं। लानत है ऐसी शिक्षा-दीक्षा पर, जो बच्चों में कुसंस्कार पैदा कर रही है। हुस्न तबस्सुम निंहां की कहानी’अनबीता व्यतीत’की लेखन शैली विशिष्ट है।

महेंद्र नेह : ‘वागर्थ’ के जुलाई अंक में अतुल चतुर्वेदी की कविताएँ हमारे समय के यथार्थ को बेहद पैनी और संवदनशील भाषा में व्यक्त कर रही हैं। अतुल चतुर्वेदी ने अपने अंतस को बहुत तपाया है,उसी ऊष्मा से तपी हैं ये कवितायें। मैं उन्हें ह्रदय से बधाई देता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि समय-सत्य को उद्घाटित करने का यह क्रम अनवरत जरी रहेगा।