भूपेन्द्र सिंह, लखीसराय: दुनिया की भीड़ से हटकर ‘वागर्थ’ पत्रिका पढ़ना बहुत ही सुखद लगता है। वैचारिकी और साहित्य सृजन को यह अनूठी पत्रिका बहुत प्रोत्साहित करती है। बहरहाल मैंने बड़े चाव से ‘वागर्थ’ के अक्टूबर अंक को पढ़ा। इसका आवरण पृष्ठ बहुत ही आकर्षक लगा।
एक नई पहल बहुत अच्छी लगी। संपादकीय आलेख की जगह संपादक द्वारा रची बहुत ही भावपूर्ण कविताओं को प्रकाशित किया गया। अहिंसा पर केंद्रित तमाम कविताएं आज उन लोगों के मार्गदर्शन का कार्य करती हुई लगती हैं जो बुद्ध और गांधी से विमुख हो रहे हैं।
महात्मा गांधी पर केंद्रित हितेंद्र पटेल का आलेख एक महत्वपूर्ण तथ्य को उजागर करता है। सचमुच महात्मा गांधी के सिद्धांतों को हिंदुस्तान के तमाम राजनीतिक दलों द्वारा साबुन की टिकिया की तरह इस्तेमाल किया गया है।
नरेश सक्सेना की कविताएं बहुत ही सारगर्भित लगीं। आज की दुनिया की विद्रूपताओं पर आधारित उनकी सभी कविताएं संवेदना से भरी हुई हैं। राजेंद्र नागदेव की कविता ‘लेखक की मृत्यु’ बहुत ही प्रेरक है। देवेंद्र आर्य की लंबी कविता ‘सिद्दीकी बाबू’ समाज के दुर्लभ होते सज्जनों पर सुंदर विमर्श है।
विश्वदृष्टि के स्तंभ ने बहुत ही आकर्षित किया है। मंजु श्रीवास्तव ने स्पेन के शीर्ष कवि लोर्का की कविताओं का बड़ा सुंदर अनुवाद किया है।
इस अंक की कहानियों की विविधता ने भी सहसा मेरा ध्यान आकृष्ट किया। ज्ञानप्रकाश विवेक ने पारिवारिक रिश्ते के बदलते स्वरूप को लेकर बहुत सार्थक संवाद करने का प्रयास किया है। तेलुगु कथाकार जी. लक्ष्मी की कहानी ‘विरासत’ ने भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति पर एक संवेदनशील चिंतन पेश किया है। इस कहानी के अनुवादक शिवकोटि को साधुवाद।
हम आभारी हैं कि आपने इस पत्रिका को गंभीर विमर्श का रूप देने का प्रयास किया है।
गुरबख्श सिंह मोंगा, मोहाली:‘वागर्थ’ के अक्टूबर अंक में बद्री नारायण की कविताएं पाठक को भीतर तक झकझोर जाती हैं। ‘मेरे मनुष्य के भीतर/उग रहा है एक रीछ’। वर्तमान के विषैले माहौल को उद्घाटित करती आवाज है। ‘मौसम’ का क्या मिज़ाज है, इसे कवि ने सही परिलक्षित किया है। इसी तरह ‘समय’ कविता में – ‘हिटलर, मुसोलिनी, तोजो, जार/फिर से आकर/उसके टूटे अंगों को/जहां मन करे वहां से दबाते रहते हैं।’
उपर्युक्त लाइनों को जोरदार ढंग से कहते हुए बद्री नारायण एक सवाल के साथ कविता समाप्त करते हैं- ‘इस घायल समय की/सबसे बड़ी टूटन क्या है/और कहां है?’
इसी तरह ‘ईर्ष्या’ कविता में कवि आम जनता का आह्वान करता नजर आता है कि तानाशाह द्वारा फैलाई जा रही इस आग से स्वयं को और पूरे समाज को बचाओ। ‘नया भजन’ और सुख-दुख’ समेत सभी कविताएं शानदार हैं। बद्री नारायण को साधुवाद।
रामशंकर भारती, झांसी:‘वागर्थ’ अक्टूबर 2023 में वैचारिक कविताएं पढ़ने का सौभाग्य मिला। वस्तुतः इन कविताओं के माध्यम से समय, समाज और जिंदगी की जिजीविषाओं को बखूबी निरूपित किया गया है। इनमें अराजकता और असहिष्णुता के काले अंधेरे कोठरों में बंद हो गई मनुष्यता को कैद से बाहर निकालने के लिए एक सुरंग दिखाई गई है, जहां से हम रोशनी की उजली लकीर पर चलते हुए उजालों के विशाल मैदान में पहुंच सकते हैं।
पुष्पांजलि दास: अक्टूबर अंक में ज्ञानप्रकाश विवेक की बेहद मार्मिक कहानी ‘बर्फबारी’ रिश्तों को खंगालने के लिए मजबूर करता हुआ खुदगर्ज जमाने का आईना है।
कुलदीप सिंह भाटी:‘वागर्थ’ का अक्टूबर अंक। नरेश सक्सेना जी को पढ़ना हमेशा सुखद रहा है। कितनी ही बार पढ़ी जाए, हरदम कविताओं से ताज़गी महसूस होती है। गर्व है मुझे, हिंदी पाठक के रूप में जो मुझे सक्सेना जी को पढ़ने का अवसर मिला। ‘वागर्थ’ को शुक्रिया।
राजेश पाठक, गिरिडीह:‘वागर्थ’ के अक्टूबर अंक में वरिष्ठ तथा चर्चित कवि चंद्रेश्वर की कविता वर्तमान समय पर तंज कसती उत्कृष्ट कविता। आज ज्यादातर लोग सत्ता के ‘डिक्टेटेड पीस’ होकर रह गए हैं। पंछी के पर कतरे जा रहे हैं। वे उड़ नहीं सकते, बस रेंगने को मजबूर हैं, तथापि उन्हें आभास हो रहा है कि वे उड़ ही तो रहे हैं।
शिरोमणि महतो की ‘कोचिंग के लड़के’ एक उत्कृष्ट व समसामयिक कविता है। अनुराधा ‘ओस’ की कविता ‘उतना ही दूर होना चाहती हूं’ निश्छल प्रेम की अद्भुत बानगी है। इनकी इस कविता की हरेक पंक्ति सहज प्रेम को इस तरह परिभाषित कर रही है जैसे कोई नादान बच्चा समझना चाहता हो प्रेम का मर्म।
किंशुक गुप्ता: वागर्थ मल्टीमीडिया के अंतर्गत ‘सिल्विया प्लाथ’ की प्रस्तुति बहुत सुंदर है, भारतीय भाषा परिषद को सलाम।
हालांकि कविता के हिंदी अनुवाद से असहमत हूँ। ‘मेड गर्ल्स लव सांग्स’ मेरी पसंदीदा कविताओं में से एक है। ‘थंडरबर्ड’ का अनुवाद पपीहा कर दिया गया है। हालांकि थंडरबर्ड का हिंदी अनुवाद संभव न भी हो तो उसे वैसे ही छोड़ दिया जाना चाहिए था, क्योंकि मूल कविता की अगली पंक्ति जो प्रेम के आवेग को चित्रित करने के लिए प्रयोग की गई है, वह अनुवाद में वसंत की सौम्यता में बदल दी गई है।
महेश प्रजापति, शाहजहाँपुर: वागर्थ नियमित पढ़ता हूँ। मई 2023 अंक में प्रतीक्षा काम्य की कहानी प्राप्ति और जाहिदा हिना की कहानी ‘तितलियाँ ढूंढने वाली’ ने झकझोर दिया। इसके अन्य स्तंभ भी रोचक हैं। समस्त वागर्थ टीम को हार्दिक बधाई।
संतोष कुमार प्यासी, मुंबई:‘वागर्थ’ के अक्टूबर अंक में प्रकाशित ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी ‘बर्फबारी’ बेहद मार्मिक कथा है यह आज के भोगवादी समाज में सर्द होते ख़ून के रिश्तों की सच्चाई बयां करती है। लेखक को साधुवाद!
प्रेमा झा की कविताएं नयी सोच, नयी दृष्टि लिए हुए हैं।
धनेश दत्त पांडेय, देहदादून:‘वागर्थ’ के नवंबर अंक में हेनरिका वांदा लाज़वारतोवना की कविता काफी चुभने वाली है और जाँन फॉसे की कविताएं भी संवेदनाओं को कचोटने वाली हैं, जबकि दोनों कवितायें दो-दो बार अनुवाद के बाद हमारे सामने हैं। मौलिक कविता कितनी गहरी होगी, उसमें पैठ सके पाठक ही जानते हैं। साहित्य ऐसी ही रचनाओं से समृद्ध होता है न कि नएपन के बहाने नकली रचनाओं से ।