शत्रुसूदन श्रीवास्तव:‘वागर्थ’ के नवंबर 2024 अंक में सरिता कुमारी की कहानी ‘कंबल’ पढ़कर बहुत अच्छा लगा। शुरू से अंत तक पाठक एक सांस में बिना रुके कहानी का आनंद ले सकते हैं।

धीरेंद्र मेहता: नवंबर अंक में वीनेश अंताणी की गुजराती कहानी ‘वैसा ही घर’ गहराई से छूनेवाली कहानी है। सक्षम अनुवाद।

फ़रहत अली ख़ान:‘वागर्थ’ के अक्टूबर 2024 अंक में ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी ‘निहत्थी स्त्री’ छोटे-मोटे विरोधाभासों के बावजूद अपनी जज्बाती सघनता के साथ एक फजा कायम करती चलती है। देर तक यह जेहन पर असर डाले रहती है। कोई शक नहीं कि विवेक साहिब अच्छे शाइर होने के साथ-साथ एक अच्छे कहानीकार भी हैं।

राशिद जावेद अहमद की पंजाबी कहानी ‘जंगल में उगी चुप’ उम्दा कहानी है। रिवायती ट्रीटमेंट के साथ नई सी लगती। सुभाष नीरव के अनुवाद हमेशा अच्छे होते हैं।

नादिरा संधू साहिब से 5 साल छोटी हैं। संधू साहिब को रिटायर हुए कई साल हो गये। यानी नादिरा की भी उम्र इस वक़्त 60 के आसपास ही होगी। तो एक 60 साला औरत के बच्चे इतने छोटे हों कि स्कूल जाते हों, यह बात जरा गैर-यकीनी लगी। शशांक पांडेय की कविता का मर्म पाठक तक ब-आसानी पहुँचता है। साफ़-सुथरा, सहज कहन।

दिव्या माथुर: ज्ञानप्रकाश विवेक की ‘निहत्थी स्त्री’ अनूठी, सुंदर और संवेदनशील कहानी है, साधुवाद।

राजीव कुमार भारद्वाज:‘वागर्थ’ के अक्टूबर 2024 अंक में प्रकाशित राकेश रंजन की कविताएं एक से बढ़कर एक हैं। इन्होंने अपनी शाब्दिक विलक्षणता के साथ-साथ ऐसा समकालीन कथ्य व्यक्त किया जहां अन्य किसी की दृष्टि अब तक नहीं पहुंच पाई है। ‘बारिश’, ‘सारंगिये’, ‘जब मेरी खुदकुशी की वजह लिखी जाए’, और ‘मुझे विदा करना’ -ये सभी कविताएं मानवीय संवेदना को स्पर्श करती हैं और उनका वर्तमान सामाजिक स्थिति और परिवेश से सरोकार है।

कविताओं में व्यक्त अनुभूतियां मृतप्राय हो चुके मानवीय संवेदना को पुनः जाग्रत करती हैं।

वेद प्रकाश: अक्टूबर अंक में नंदा पांडेय ने सही लिखा है कि नदियां या तो कविताओं में मिलेंगी या लोगों की स्मृतियों में मिलेंगी। जिन लोगों ने नदियों के बारे में सोचा, उन्होंने ही नदियों को खत्म करने की साजिश भी रची। अच्छी कविता के लिए आपको साधुवाद।

नंदकिशोर तिवारी, वाराणसी: मैं ‘वागर्थ’ वर्षों से पढ़ता आ रहा हूँ। इससे एक साहित्यिक सूझ एवं विचार मिलते हैं जो बड़े जीवनोपयोगी होते हैं।

कभी-कभार अपनी अस्वस्थता के कारण ‘वागर्थ’ की समीपता से विरत हो जाता हूँ।  इतना होने पर भी मैं निकट बाजार से ‘वागर्थ’ की उपलब्धि करा ही लेता हूँ।

आधुनिक वैज्ञानिक साधनों का विकास हो जाने के कारण पत्र-व्यवहार पर गंभीर संकट उत्पन्न हो गया है, यह काफी कष्टपूर्ण लगता है।

मैं अपने विद्यार्थी जीवन से ही पत्रिकाओं में पढ़ी गईं कहानियों, कविताओं और संस्मरणों पर अपनी प्रतिक्रिया लेखकों, कवियों को पत्र के माध्यम से देता रहा हूँ। उनके जवाब भी मिलते रहे हैं, फलस्वरूप उत्साहवर्द्धन होता रहा है। इस संदर्भ में मैंने अपने पत्रों का एक संग्रह ‘स्याही की खुशबू’ नाम से कुछ दिन पूर्व प्रकाशित कराया है।

गोविन्द सेन, मनावर:‘वागर्थ’ का अक्टूबर, 24 अंक मिला। वैसे तो वागर्थ का हर अंक पठनीय होता है। इस बार का ‘गांधी प्रसंग’ पर केंद्रित अंक विशेष लगा। ‘हिंसा की अंधेरी गलियां’ सार्थक उपशीर्षकों में विभाजित है और आद्योपांत पठनीय है। हिंसा के हर पहलू को सरल शब्दों में गहराई से समेटा गया है। बतरस में भूटान पर ‘जहां सन्नाटा गाता है’ शीर्षक से बहुत सुंदर यात्रा वृतांत है। वाकई हमारा देश भूटान से बहुत कुछ सीख सकता है। कहानियां सभी अच्छी हैं। ज्ञान प्रकाश विवेक की ‘निहत्थी स्त्री’ कहानी ने अवाक कर दिया। कविताएं भी उतनी ही अच्छी हैं। इस अंक में छपी मेरी कविताओं पर अनेक प्रतिक्रियाएं मिलीं। इससे पता चलता है कि ‘वागर्थ’ खूब पढ़ा जाता है।

सेराज खान बातिश, कोलकाता:‘वागर्थ’ का नवंबर-2024 अंक। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पर बौद्धिकता के बाज़ार में नई खोज अपनी ताक़त दिखलाने के लिए बेताब हैं। अंक इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि नस्ल, धर्म, जाति और नफरत के साथ-साथ हर रोज वैचारिक द्वंद्व का प्रदर्शन हो रहा है, जिसका संकेत इस अंक में देखा जा सकता है। मुहम्मद नसीरुद्दीन की कहानी ‘मॉर्निग वाक’ ने हिंदी कथा जगत में एक नई जमीन की शुरुआत की है।

इस बार कविताओं में गजल को भी शामिल किया गया है। राम कुमार कृषक जी कई विधाओं में सक्रिय हैं, लेकिन हम उन्हें गजलकार के रूप में अधिक जानते हैं। उन्होंने अलाव का ‘गजल अंक’ निकाला था। उनकी इन पांचों गजलों में समय की आवाज है।

कविता खंड में मुख़्तार अहमद, दिनकर कुमार, रविशंकर सिंह, चाहत अन्वी, पल्लव और विनय सौरभ को पढ़ना अपने समय से दो-चार होना है।

परिचर्चा के तहत इस बार युवा लेखक राहुल गौड़ ने ‘साहित्य की जरूरत’ पर फोकस करते हुए अरुण कमल, विष्णु नागर, अवधेश प्रधान, संजय कुंदन, अच्युतानंद मिश्र और संजय राय के विचारों को बौद्धिक अदहन में ढाल कर मौजूदा साहित्य पर गंभीर संवाद प्रस्तुत किया है।

समीक्षा संवाद में प्रोफेसर आदित्य गिरी ने मज़ाक़ (कुमार अंबुज), पत्थलगड़ी (कमलेश) और नदी सिंदूरी (शिरीश) पर समकालीन कहानी की दिशा-दशा के संदर्भ में समीक्षा करते हुए अपनी टिप्पणी रखी है।

इस अंक में मैडम कुसुम खेमानी का लालित्यपूर्ण ‘बतरस’ बिना पढ़े यह अंक पूरा नहीं होता।