पुष्पांजलि दाश: ‘वागर्थ’ के दिसंबर 2023 अंक में बाप बेटी के पवित्र रिश्ता को शर्मशार करने वाली, अमर्यादित कुकृत्य पर बेबाकी ढंग से कलम चलाने की ताकत रखने के लिए ‘झोपड़पट्टी की नायिका’ कहानी की लेखिका पिंकी कांति को साधुवाद। दिलो दिमाग को झकझोर देने वाली घटना का फैसला जब मनुष्य नहीं कर पाता तो वक्त उस पर फैसला सुना देती है। निःशब्द हूँ।

विवेक सत्यांशु, इलाहाबाद:‘वागर्थ’ के नवंबर 2023 अंक की कहानियां अच्छी लगीं। संवेदना के धरातल को नीरज नीर की कहानी ‘समाधान’ अधिक स्पर्श करती है। ‘एक सुंदर स्त्री’ (बोडो) गहरे सौंदर्यबोध को अभिव्यक्त करती कहानी है। पहले पृष्ठ पर छपी गोरखनाथ की कविता का दर्शन आज के समाज की समस्या का सार्थक समाधान है। कविताएं सभी पठनीय हैं, लेकिन चर्चित नामों से ज्यादा नए हस्ताक्षर की कविताएं प्रभावशाली हैं। कविताओं के लिए काफी पृष्ठ हैं, यह अच्छी बात है।

पोलिश कविता ‘नन्हा चोर’ भी अच्छी कविता है। विश्वदृष्टि के स्तंभ में जॉन फॉसे से बातचीत उनके बारे में नई जानकारी देती है।

2047 के भारत के संदर्भ में प्रसिद्ध रचनाकारों की परिचर्चा सार्थक है। लेकिन 2047 के भारत को समझने के लिए पहले आज के भारत को समझने की जरूरत है। समीक्षा संवाद में नए उपन्यासों पर सरोज सिंह ने विस्तार से प्रभावशाली समीक्षा प्रस्तुत की है। अंक अपनी समग्रता में पठनीय है। समकालीन परिदृश्य में ‘वागर्थ’ एक अनिवार्य पत्रिका है।

अमन पांडेय, लखीमपुर:‘वागर्थ’ के अगस्त अंक में प्रकाशित सुरेश सौरभ की कहानी ‘रैली’ बहुत मार्मिक लगी। यह कहानी जहां आज के समय की सचाइयों को उजागर करती है, वहीं वर्तमान समय की धूमिल हो रही पत्रकारिता को भी कटघरे में खड़ी करती है।

भूपेंद्र सिंह, लखीसराय:‘वागर्थ’ का अक्टूबर अंक। राजेंद्र लहरिया की कहानी ‘रूप विरूप’ पढ़कर असीम आनंद का अनुभव हुआ।  कहानी कला जगत की विद्रूपताओं से तो परिचय कराती है, विमर्श के लिहाज से भी पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है।

रामभरोस झा, हरिहरपुर:‘वागर्थ’ का अक्टूबर अंक। शांतिकामियों के प्रेरणास्रोत गांधी का विरोध और आलोचना जितना आसान है, उतना ही कठिन है उन जैसा व्यक्तित्व विकसित करना। हिंसक होना बड़ा आसान है, पर सत्य और अहिंसा के मार्ग पर चलना बेहद कठिन है, क्योंकि सत्य और अहिंसा जैसे ऊंचे आदर्शों को अपने जीवन में अपना कर कोई भी आज के समाज में दो पल भी जीवित न रह सकेगा।

आज पूरा विश्व सत्य और अहिंसा की विचारधारा के विपरीत चल रहा है, क्योंकि हिंसा और धर्मांधता ने विश्व राजनीति को बीभत्स रूप दे दिया है! ऐसे विध्वंसकारी परिदृश्य में गांधी जी की विलक्षण विचारधारा ही विश्व को हिंसा की आग में जलने से बचा सकती है। हितेंद्र पटेल का आलेख छोटा है, पर सारगर्भित है।

कुलदीप सिंह भाटी, जोधपुर:‘वागर्थ’ का नवंबर 2023 का अंक प्राप्त हुआ। इस अंक में भारतीय ज्ञान परंपरा को तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों द्वारा भारतीय ज्ञान पद्धति के रूप में प्रचारित करने पर तंज काबिले-तारीफ है। यह भारतीय वैचारिकी और आत्मिक तत्वों से गहरे जुड़ाव का बोध कराता है। इसी संपादकीय में आज के वैचारिक द्वंद में विवाद के उलट संवाद को भारतीय परम्परा का महत्वपूर्ण गुण बताया गया है, जिससे पूर्णतया सहमत होना चाहिए। हमें सचेत करते हुए कहा गया है, ‘भारतीय ज्ञान परंपरा में सबकुछ हरा-हरा नहीं है, काफी मुरझाए पत्ते भी हैं।’ इसमें चावल और कंकड़ से विवेकपूर्ण चयन पर बल दिया गया है।

अजय प्रकाश, नैनी:‘वागर्थ’ के अक्टूबर 2023 अंक की कहानियों में ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी ‘बर्फबारी’ संवेदना के स्तर पर झकझोर देनेवाली कहानी है। घनशाम का भाई आया है और वह ठंड से कांप रहा है, लेकिन घनशाम पर कोई असर नहीं हो रहा है। दीपू घर की सारी समस्याएं बताता है, पर वह पीने में व्यस्त है। भाषा के स्तर पर भी कहानी सहज और सरल है। राजेंद्र लहरिया की कहानी ‘रूप विरूप’ छद्म लेखकों की पोल खोलती हुई अच्छी कहानी है। यह एक सांस्कृतिक ठग की कहानी है। कविताओं में शंभुनाथ और नरेश सक्सेना की कविताएं तो अंक में सबसे अलग हैं और अद्भुत हैं। इसके बाद अनुराधा ओस की कविता भी दिल का छू गई। ‘वागर्थ’ नए और पुराने लेखकों को मंच दे रहा है, यह बहुत बड़ी बात है जबकि कई अन्य पत्रिकाएं गुटबंदी की शिकार हो गई हैं।

जीतेश्वरी द्वारा आयोजित परिचर्चा ‘धर्म, स्त्रियां और आज के विमर्श’ आज भी प्रासंगिक है। आज भी स्त्रियों को धर्म का अफीम चटाया जा रहा है। बाबाओं की बाढ़ आ गई है। कितने बाबा तो जेल में बंद हैं। फिर भी स्त्रियों की ही सबसे अधिक भीड़ होती है। वे आज भी पुरुष सत्ता के अधीन रहने को बाध्य हैं।

हितेंद्र पटेल का आलेख ‘गांधी : प्रेम और शांतिकामियों के चिरी संगी’ विचारोत्तेजक आलेख है। ‘वागर्थ’ में अगर लघुपत्रिकाओं का भी स्तंभ चालू हो जाए तो अच्छा रहेगा।

गीता चौबे, बेंगलूरु:‘वागर्थ’ नवंबर, 2023। बारह दिनों की विदेश-यात्रा से आज ही स्वदेश लौटी तो ‘वागर्थ’ का नवंबर अंक आया हुआ था। रात्रि-भोजन से निवृत हो, सोने से पहले कुछ-न-कुछ पढ़ने की आदत है। इसी आदत से वशीभूत ‘वागर्थ’ को हाथ में लेकर खोला तो आंखों के सामने जो पन्ना आया उस पर ‘समाधान’- नीरज नीर की कहानी थी। आज यथार्थ यही है। एकल परिवार के चलन की वजह से दूरियां बढ़ती जा रही हैं। फेसबुक पर मित्रों की बड़ी संख्या एक मृगमरीचिका साबित होती है। 

शंभुशरण सत्यार्थी जी की लघुकथा ‘गंदगी’ जाति भेद की संकीर्णता पर चोट करती है। संतोष सुपेकर की लघुकथा ‘भयतंत्र में एक शाम’ भी पढ़ी। सच है जब एक अकेली औरत सुनसान रास्तों पर चलती है तो उसके साथ डर की एक पूरी बारात चलती है। एक और लघुकथा पसंद आई- ‘दरारें’ जाफर मेहदी जाफरी की। भावना शेखर की ‘इज्जतदार आदमी’ की कहानी भी मुझे पसंद आई। पकंज मित्र की टिप्पणी ‘कृत्रिम मेधा अपना वर्चस्व बढ़ाती जाएगी’ ने प्रभावित किया।

इतनी रचनाएँ पढ़ने के बाद जब घड़ी की तरफ नजर गई तो देखा रात्रि के एक बज रहे हैं, परंतु सुबह की प्रतीक्षा में प्रतिक्रिया लिखना दिमाग से उतर न जाए उसे तुरंत कलमबद्ध भी कर लिया। वागर्थ मैं नियमित रूप से पढ़ती हूँ।