दिव्या :‘वागर्थ’ के नवंबर अंक में सरिता कुमारी की कहानी ‘कंबल’ में एक पंक्ति है- ‘दादी की हँसी ढलती शाम का उजाला है।’ इस एक पंक्ति में मुझे पूरी कहानी का सार मिल गया। जिजीविषा से भरी एक मुस्कराहट जीवन को पार करने का साहस देती है। कहानीकार ने ‘कंबल’ में इस रहस्य को सहजता से पिरो डाला है। यह कहानी एक आईना है झांकें और मुस्कुराएं…!
राजेश पांडेय: सरिता कुमारी की कहानी ‘कंबल’ इतना प्रभावशाली संदेश ऐसे सहज अंदाज में! अत्यंत सराहनीय लेखन।
चितरंजन भारती, पटना:‘वागर्थ का नवंबर अंक निराशाओं के बावजूद अंततः कल्पना यानी आशावादिता की दिशा है।
सरिता कुमारी की कहानी कंबल से आश्वस्ति मिलती है। वहीं कमलेश का करुण व्यंग्य कहानी ‘राजा बनोगे तो क्या खाओगे’ में प्रत्यक्ष हुआ है। ‘मॉर्निंग वाक’ करते मुहम्मद नसीरुद्दीन में ए.आई. को लेकर गहरी चिंता दिखाई पड़ती है।
कृष्ण कुमार अस्थाना, लखनऊ:‘वागर्थ’ का नवंबर अंक पढ़ा। ‘मॉर्निंग वाक’ में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के तकनीकी विकास से उत्पन्न यथार्थ अत्यंत डरावना है। रोबेट सामान्य मानव से काफी भिन्न होते हैं, फिर भी देखने-सुनने में सामान्य आदमी लगते हैं। कहानी ‘मॉर्निंग वाक’ में मुहम्मद नसीरुद्दीन ने रोबोट के बारे में खासी जानकारी दी है।
कहानियों में प्रभावित किया ‘कंबल’ ने। दादी-पोते का संबंध हमारी सांस्कृतिक विरासत है।
रमेश यादव की कविता ‘मेरे बेटे’ बहुत अच्छी लगी। कवि ने मनुष्य में संवेदना की उपस्थिति को आवश्यक बताया है। वर्तमान वस्तु-स्थिति पर अनंत आलोक की कविता ‘अखबार’ एक अच्छी रचना है। अमेरिकी कवयित्री गैरी लैमंस की कविता ‘साथ’ ने भी प्रभावित किया, ‘सांप’ का प्रतीक अत्यंत सार्थक है।
पार्थ शांडिल्य, दरभंगा :आज एक मित्र के यहां से ‘वागर्थ’ का सितंबर अंक मिला, जिसमें शंकर की ‘फरिश्तों का घर’ कहानी दिखाई दी, जिसे पढ़ने का मन हुआ। ऐसी कहानी हर कोई नहीं लिख सकता। शहर के अनाथालय से निकलकर एक बच्चा अपनी ऐसी दुनिया रचने निकलता है जो संघर्षों, हताशाओं और अनिश्चितताओं से भरी है। कहानी को एक सुखद अंत दिया है कहानीकार ने।
रामभरोस झा, हरिहरपुर :‘वागर्थ’ का अक्टूबर 2024 अंक। हम शिक्षा और व्यापार में विस्तार के कारण अधिक शांतिपूर्ण जीवन जी रहे हैं, पर यह शांति अधूरी है, क्योंकि इस ‘विकास युग’ में अपराधों और हिंसात्मक घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है। मनुष्य और मनुष्य के बीच की खाई बढ़ी है। कहां तो हम ‘ग्लोबल विलेज’ का सपना देख रहे थे और कहां हमारे मानवीय संबंधों की नींव ही दरकने लगी है।
अहिंसा परमो धर्मः के विचार से सदैव अनुप्राणित रहने वाला समाज आज पतन के अंधेरे में गुम हो जाने को उताहुल है। बड़े पैमाने पर पूरे विश्व में हिंसा को बढ़ावा मिल रहा है। प्रेम, न्याय और शांति की जगह दूसरों का उत्पीड़न और अमानवीय व्यवहार बड़े आदर्श हो गए हैं। आज सत्य क़ैद में सिसकने को विवश है और असत्य ताल ठोक कर अट्टहास कर रहा है। अपराधी अगर अपनी जाति-बिरादरी, धर्म या पार्टी का है, तो उसे बचाया जाता है। 21वीं सदी के भौतिक विकास ने हिंसा के अत्याधुनिक, विध्वंसक और निर्मम हथियारों से लैस कर दिया है।
कैलाश केशरी :‘वागर्थ’ के ऑनलाइन संस्करण पर हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं! यह कदम न केवल साहित्य के प्रसार में सहायक सिद्ध होगा, बल्कि नई पीढ़ी के पाठकों को साहित्य से जोड़ने का एक सशक्त माध्यम बनेगा।
आपकी पत्रिका ने वर्षों से साहित्यिक जगत में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है, डिजिटल मंच पर इसकी उपस्थिति से इसकी पहुंच व्यापक होगी।
शंभू शरण सत्यार्थी, औरंगाबाद: आज हर तरफ साहित्य का संकट है। किताबें छप रही हैं। लेखकों द्वारा ये मुफ्त में अपने परिचितों को दी जा रही हैं। लोग किताबें ले रहे हैं। लेकिन मुफ्त में मिली किताबों को पढ़ने का जहमत नहीं उठा रहे हैं।
एक समय मध्यम और ऊंचे घरानों में पढ़ने की परम्परा थी। आज हर जगह हर हाथ में मोबाइल है। इसलिए ‘साहित्य की जरूरत’ विषय पर परिचर्चा का आयोजन काबिले तारीफ है। लेखक संगठनों को इस विषय पर अभियान चलाकर पढ़ने की परंपरा को पुनः स्थापित करने की जरूरत है। सुझाव है, हर अंक में विलुप्त हो रही लोकसंस्कृति पर एक रचना प्रकाशित की जाए।
तीर्थराज शर्मा, सारण:‘वागर्थ’ के नवंबर अंक में वरिष्ठ कथाकार कमलेश की कहानी ‘राजा बनोगे तो क्या खाओगे’ बेहद अच्छी लगी। यह कहानी देश के किसानों की जद्दोजहद और संघर्ष को वैश्विक पटल पर रखती है तथा हमें यह सोचने को विवश करती है कि सरकारी तंत्र और अफसरशाही के बीच किसानों के जल, जंगल और जमीन बचाने के संघर्ष को किस तरह दमनकारी शासन व्यवस्था निगल लेती है।
केदारनाथ सविता, मीरजापुर: मैं ‘वागर्थ’ पत्रिका का आजीवन सदस्य हूँ। दिसंबर 2024 के अंक में प्रेमचंद के ‘रंगभूमि’ उपन्यास के चरित्र सूरदास (अंधे व्यक्ति) के चरित्र को याद करते हुए आज के संदर्भ से जोड़ दिया गया है। आज खेतों में कंक्रीट के जंगल खड़े हो रहे हैं, अनाज कहां से आएगा?
अनुराधा ओस, शशिकला त्रिपाठी और अनिरुद्ध सिन्हा की कविताओं ने प्रभावित किया।
आशीष: नवंबर अंक में चाहत अन्वी की कविताएं पढ़ते हुए लगा कि दुख को दुख की तरह जीने, फिर दुख के उस अनुभव को व्यक्त करने से अधिक मुश्किल शायद ही कुछ हो।
पारुल अग्रवाल: नवंबर अंक के मल्टीमीडिया में (नीतू सिंह भदौरिया द्वारा पठित कविता) बहुत सुंदर रचना है। अलग ही सोच और कल्पना। एक-एक पंक्ति कल्पना जगत में ले गई।
धनेश दत्त पांडेय, देहरादून: कहानी पढ़ने-सुनने में जी अघा जाए, आंखें भर आएं, मन बाबला होने लगे तो कहानी, नहीं तो बेमानी। ‘एक मां धरती-सी’ इतनी रोचक कि शुरू करते ही पकड़ लिया गया और देखते ही देखते कहानी कैसे खतम हो गई, पता नहीं चला। जीवन की अनुभूतियां इतनी छोटी-सी कहानी में भी इतना बढ़िया से पिरोई जा सकती है! जुबानों बयान ने कमाल कर दिया। लगा कि उमर खैयाम की रुबाइयां पढ़ रहा होऊं। कौन-सी कलम से लिखती हैं, कहां से ऐसी कलम लाती हैं कुसुम खेमानी जी! बधाई इस लेखन के लिए।