अमित कुमार चौबे:‘वागर्थ’, जनवरी 2025। परिधि शर्मा की कहानी ‘मोहन बाबू का स्कूटर’। कहानी की बड़ी ताकत इसका वास्तविक और सरल चित्रण है, लेकिन कहानी में मोहन बाबू के मनोविज्ञान को अधिक विस्तार से दिखाया जा सकता था। इसका प्रभाव पाठक के दिल पर गहरी छाप छोड़ता है।

परदेशी राम वर्मा :‘वागर्थ’, जनवरी अंक। परिधि शर्मा की ‘मोहनबाबू का स्कूटर’ अच्छी कहानी है। मनुष्य के जीवन के एकाकीपन में पशु से मिलने वाला संबल। दूसरी ओर समय के आगे विवश परिजन। बूढ़ा बाप जो एकाकीपन के खिलाफ जांबाजी से खड़ा है। बूढ़े निरुपाय लोगों के जीवन के संध्या काल पर मार्मिक कहानी है।

प्रतिमा शर्मा: परिधि शर्मा की कहानी ‘मोहनबाबू का स्कूटर’ मनुष्य के अकेले हो जाने की कहानी है जो परिस्थिति जन्य है। अधूरी इच्छाएं किन परिस्थितियों की वजह से अधूरी रह जाती हैं, परिवार किन परिस्थितियों में उलझा रहता है, पालतू जीव जंतु का साथ मनुष्य को किस तरह संबल देता है और मनुष्य उनसे किस तरह जुड़ा रहता है- इन सारी घटनाओं को यह कहानी बड़े सुंदर और मार्मिक ढंग से सामने रखती है।

जगत सिंह बिष्ट : ‘वागर्थ’ के जनवरी अंक में सिद्धार्थ बाजपेयी की कहानी ‘जल्लाद’ अत्यंत मर्मस्पर्शी है। कहानी का प्रवाह शांत और कल-कल बहता हुआ है। बाबू और आदिवासी दोनों के प्रति सहानुभूति का एहसास होता है। कहानी मन में करुणा का भाव जगाती है। सब यथार्थ के बहुत करीब है, कल्पना से गढ़ी हुई कहानी नहीं है।

हेमंत तारे: जनवरी अंक की कहानी ‘जल्लाद’ में क्या शानदार ताना- बाना है! पढ़ते समय पूरा घटनाक्रम चलचित्र के मानिंद आंखों के सामने जीवंत चल रहा था।

पुष्पा तूर: जनवरी अंक में शशि बायंवाला की लघुकथा ‘भूख’ में भूख के दो अद्भुत उदाहरण हैं। सच है, भूख मिटाने की चाह सबकी अलग-अलग है, दिल की भूख असीमित है जो कभी नहीं मिटती और पेट की सीमित संसाधनों में ही तृप्त हो जाती है।

रवींद्र तिवारी, पटना:‘वागर्थ’ के जनवरी अंक की सभी कहानियां प्रभावित करती हैं। ‘आसमान में सुराख’ पढ़ कर मन तृप्त हुआ। धनेश दत्त पांडेय की कहानी की भाषा एवं कथानक इसे विशिष्ट बनाती हैं। ग्राम्य अंचल के हाशिये पर रहने वाले जीवन का अदभुत चित्रण हैं एवं आंचलिकता के दृष्टिकोण से रेणु की कहानियों के समान अपना स्थान बनाती है। अन्य कहानियों में भी गहरी संवेदनशीलता है। 

आर चंद्रशेखर, बेंगलुरु:‘वागर्थ’ का दिसंबर 2024 अंक। पत्रिका और इसकी संपूर्ण प्रस्तुति आनंददायक है। हर माह समय पर पत्रिका प्राप्त हो जाती है। इस अंक में ॠषभ तिवारी, तथागत तथा प्रमोद बेड़िया की कविताएं मन को लुभा गईं। धीरेंद्र कुमार पटेल की कविता ‘गांधारी’ स्मृतिपटल पर छाप छोड़ती है। निर्मला तोदी की कविताएं मन को झकझोरती हैं। बतरस की कहानी ‘एक मां धरती सी’ रोचक लगी।

बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जीलिंग:‘वागर्थ’  के दिसंबर 2024 अंक की परिचर्चा में सवाल उठाया गया है ,‘क्या भारतीय मध्यवर्ग विलुप्त हो रहा है’ जीतेश्वरी के सवालों के जवाब में मध्यवर्ग के आंदोलनों की चर्चा करते हुए वैश्वीकरण की चमक-दमक में उलझी मानसिकता से परिचय कराया गया है। सोशल मीडिया, टीवी और प्रिंट मीडिया जैसे संचार माध्यम की मार झेलकर भटके मध्यवर्ग के अस्तित्व पर छाए संकट को भी उजागर किया है।

गांव और बस्तियों की गलियों से निकलकर  बड़े-बड़े शहरों तक दौड़ लगाने की बाध्यता मध्यवर्ग के आगे है। मेरा मानना है, मध्यवर्ग का एकांश विलुप्त हो रहा है तो निम्न वर्ग संघर्ष करके मध्यवर्ग तक पहुंचने की कोशिश में जोर लगा रहा है।

विश्वप्रताप भारती, अलीगढ़:‘वागर्थ’ नवंबर 2024 की परिचर्चा के अंतर्गत ‘साहित्य की जरूरत’ वर्तमान और भविष्य की नई और गंभीर जानकारियां प्रस्तुत करती है। यह सच है कि साहित्य के पाठकों की संख्या दिनों दिन घटती जा रही है, पर संसार की किसी भी भाषा में साहित्य की जरूरत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता! साहित्य समाज और विचारधाराओं को इसे स्वीकारना ही पड़ेगा।

साफ तौर पर कहा जाए तो लोगों का बौद्धिक स्तर कम होता जा रहा है। ज्यादातर छात्र पाठ्यक्रम की जरूरी पुस्तकों को न पढ़कर गाइड या यू ट्यूब वाले टीचर से काम चलाते हैं। अध्ययन और अध्यापन में व्यवहारिकता के अभाव ने साहित्य की परंपरा को आगे नहीं बढ़ने दिया।

अशोक आकाश, बालोद: वागर्थ का फरवरी 2025 अंक पढ़ा। उक्त अंक में छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध साहित्यकार परदेशी राम वर्मा की कहानी ‘पानी’ पृष्ठभूमि की विशिष्टता और प्रस्तुतिकरण की शैली के कारण रोचक और पठनीय है। छत्तीसगढ़ के ग्रामीण परिवेश का अक्षरसः चित्रण करती इस कहानी में सामाजिक समरसता का संदेश बड़ी सहजता से दिया गया है। यह कहानी जाति एवं वर्ग भेद की खाई से समाज को होने वाले नुकसान के प्रति सचेत करती है।