रंजीत कुमार पुष्पाकर, प्रयागराज:‘वागर्थ’ के सितंबर अंक में जानी मानी साहित्यकार कुसुम खेमानी जी के बतरस, ‘आकाश से झरा समुद्र में तिरा’ ने लघु भारत, मारीशस के बारे में बेहद महत्वपूर्ण जानकारी से हम सभी को समृद्ध किया। पर्यटन को लेकर वह चर्चा में रहता ही है पर वहां के लोगों में आज भी हम असल भारत को साकार पाते हैं, बल्कि वहां के नेताओं की सादगी से हम सीख ले सकते हैं, क्योंकि भले ही वह लघु है पर है तो भारत ही।

बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जिलिंग: सच में महादेवी की सृजनात्मक कहानी पुरुष के वर्चस्व के लिए प्रतिरोधात्मक आवाज ही बनी थी। बहुत लंबी लड़ाई उन्होंने लड़ी, लेखन-पथ पर विचार और व्यवहार को संभालकर। आज भी जब स्त्री-कल्पना भूमंडलीकृत बाजार- व्यवस्था की शिकार है तो यह कहना सर्वथा उचित होगा कि आज की स्त्री की तुलना में महादेवी ने अपने समय में विशाल और विकराल चुनौतियों का सामना किया होगा।

इस अंक की सभी रचनाएं स्तरीय लगीं। मूलतः  शंकर की कहानी ‘फरिश्तों का घर’ और आवरण पृष्ठ के पीछे छपी गोपाल कृष्ण अडिगा की कन्नड़ से हिंदी में अनूदित कविता ‘गहरी जड़ें’ में गहरे अर्थ, संवाद और संदेश हैं।

रामभरोस झा, हरिहरपुर: आज अपने हितों को देखते हुए ही कोई ‘न्याय’ या ‘अन्याय’ के साथ खड़ा होता है। समाज में सादगी, शांति और भाईचारे का दिनोंदिन अभाव होता जा रहा है। सबसे बड़ा मूल्य आज के युग में हो गया है – बेतहाशा उपभोग! हमारे सुख – चैन, संसाधन और स्वाधीनता सब बाजार की भेंट चढ़ गए हैं। आज का समय वैचारिक उपनिवेशवाद के ख़तरों को झेल रहा है, लेकिन उससे भी बड़ा ख़तरा है उपभोक्तावाद की गिरफ्त में जा रहा हमारा बुद्धिजीवी वर्ग। वह मानने लगा है कि अंधाधुंध विकास ही स्वाधीनता है। इसका ही परिणाम है कि आज बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तानाशाही बढ़ी है, पर्यावरण को खतरा बढ़ता ही जा रहा है, लेकिन इस तथाकथित ‘विकास’ को आज तक रेखांकित नहीं किया जा सका है।

हिंदी के सुपरिचित कथाकार सुभाष चंद्र कुशवाहा की ‘रिक्तता’ पढ़ी। कर्नल साहब की आपबीती, भीतर तथा बाहर के खालीपन तथा रिश्तों की व्यर्थता की जो दास्तां कथाकार ने सुनाई, उससे मेरी रूह कांप उठी! आज की नई पीढ़ी के ऊपर काम का इतना दवाब है कि वह बुजुर्गों के लिए थोड़ा भी समय नहीं निकाल पाती हैं।

अजय शाव, सिलीगुड़ी:‘वागर्थ’ का सितंबर अंक। अध्यापन तो एक पेशा है। शिक्षक साथियों की आज ऐसी दशा है कि उन्हें लगता है की नौकरी पाने के लिए वे बहुत पढ़ चुके हैं। अब नौकरी पाने के बाद भी पढ़ते रहें और काम से प्रेम करें, ऐसी मूर्खता वे क्यों करें? इस कारण भाषा और साहित्य-शिक्षण शैक्षिक संस्थानों में एक मजाक बनकर रह गया है।

शंभू शरण मंडल, धनवाद: छायावादी कविता में स्त्री विमर्श पुरुष एकाधिपत्य के विरुद्ध उसके प्रतिवाद को भली भांति उजागर करता है। अधिकांश पाठक अभी तक इसी गुमान में थे कि महादेवी पीड़ा की नायिका और वेदना की गायिका हैं, मगर अब यह मालूम हुआ कि उनकी यह गायिकी पुरुषवादी वर्चस्व का बुलंद प्रतिकार करती है। वे ‘आंचल में है दूध आंखों में पानी’ जैसी पंक्तियों को एक सिरे खारिज करती हैं। निश्चय ही मातृत्व स्त्री की अंतिम मंजिल नहीं है। प्रस्तुत अंक में सतपाल खयाल की ग़ज़लें, शंकरानंद की कविता ‘खेती की जमीन’ और शंकर की कहानी ‘फरिश्तों का घर’  सामयिक और विचारोत्तेजक लगी।

गांधी प्रसंग को समेटे वागर्थ का अक्टूबर 2024 अंक भी हस्तगत हुआ। इस अंक की परिचर्चा के अलावा ज्ञान प्रकाश विवेक की कहानी  ‘निहत्थी स्त्री’, रंजना जायसवाल की कविता ‘दरवाजे खुले हैं’, प्रवीण पारिक ‘अंशु’ तथा श्रवण कुमार सेठ की ग़ज़लें बेहद सामयिक तथा विचारणीय लगीं। निसंदेह पहले की तरह यह अंक भी पाठकों के लिए पठनीय और संग्रहणीय है।

रवींद्रनाथ तिवारी: अक्टूबर 24 का अंक पठनीय है। ज्ञान प्रकाश विवेक की कहानी सम्मोहित करती है। एक स्त्री के संघर्ष की कथा विचलित कर देती है। कथा में मानवीय संवेदना और परिवार की लाचारगी का लघु वाक्यों में जिस प्रकार का चित्रण है वह रोमंचित करता है। राकेश रंजन की कविताएं सीधे ह्रदय से जोड़ती हैं। जयश्री राय की कहानी भी मार्मिक एवं प्रेम की पराकाष्ठा को दर्शाती है।

गौरीशंकर वैश्य विनम्र, लखनऊ:‘वागर्थ’ पत्रिका का अक्टूबर अंक ऑनलाइन पढ़ने को मिला। पत्रिका इस संदर्भ में अनूठी लगी कि संपादकीय चिंतन में विविध विंदुओं पर विस्तार से तात्विक विवेचन प्रस्तुत किया गया है, जो सर्वथा मननीय है। कहानी, कविता, आलेख, बतरस आदि उपखंडों में स्तरीय एवं प्रभावी साहित्य प्रदान किया गया है। इसमें अनेक स्वनामधन्य रचनाकारों की उपस्थिति पत्रिका की उत्कृष्टता और गरिमा को प्रमाणित करती है। गांधी विषयक परिचर्चा का आयोजन सामयिक और धरोहर स्वरूप महत्वपूर्ण लगा।

चंद्रशेखर रामराव, बैंगलोर: मोहनदास करमचंद गांधी एक अमर नाम है। वे अहिंसा के अप्रतिम पुजारी थे। देसी पूंजी के सहारे अंग्रेजों को देश से बाहर करने में सफल रहे। जनमानस में वे हमेशा अमर रहेंगे। अक्टूबर अंक में प्रकाशित हेतु भारद्वाज, शुभनीत कौशिक, राजमोहन गांधी के लेखों के लिए आभार।

संदीप कुमार सिंह:‘वागर्थ’ के सितंबर अंक में मीरा जैन की लघुकथा ‘परवरिश’ पर्यावरण के प्रति जागरूकता को बयां करती है।

रेबा :सितंबर अंक में मीरा जैन की लघुकथा ‘परवरिश’ कुछ अटपटी लगी, मुझे ऐसा कोई मजदूर देखने को नहीं मिला जो ऐसी बात कह सके और न ही कोई ठेकेदार ही। लेखिका कहना क्या चाहती हैं, कुछ स्पष्ट नहीं हुआ, सिर्फ कहने के लिए कह देने जैसा लगा, दिल तक बात पहुंची नहीं।

पुष्पांजलि दास:‘वागर्थ’ के सितंबर 2024 अंक में पार्वती तिर्की की कहानी ‘अखड़ा’ में जशपुर अंचल जैसे उतर आया हो। ढेंकी कूटना, जटगी फूल, करमा करना, चूल्हे सुलगाना, हंसिया आदि शब्द गांव के जीवंत चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं। बहुत सही कहा, ये लोग जीवन जीने की कला जानते हैं। सुख और दुख की दाएं-बाएं से गोल-गोल घूमना जानते हैं। शायद इसलिए अभाव में भी मस्ती दिखाई पड़ती है। छत्तीसगढ़ के जशपुर जिला झारखंड से लगा हुआ होने के कारण चीन्हा जाना-सा लगता है।