
पूनम सिंह, मुहफ्फरपुर: जून-नवंबर 21 अंक में वैभव सिंह की कहानी इस अंक के नागरिक परिसर में विमर्श के कई प्रश्न खड़े करती है| हिंदी लोकवृत की समस्याओं को लेकर अवधेश प्रधान, बसंत त्रिपाठी तथा अन्य सजग बौद्धिकों द्वारा की गई परिचर्चा ने इस परिसर में संवाद को बहुतस्तरीय और विचारणीय बनाया है| सभी स्तरीय रचनाओं के साथ ‘बतरस’ का अलहदा स्वाद है| बहुत दिनों बाद ‘वागर्थ’ को हाथों में लेकर पढ़ने का सुख अभिभूत कर गया| हार्दिक बधाई|
उदय राज, उत्तर 24 परगना: वैभव सिंह की कहानी की बुनावट बहुत सशक्त और रोमांचक है| सत्य की जटिलता की समझ के साथ यह कहानी पाठक को बांधे रखती है| अच्छी कहानी पढ़ने का अवसर देने के लिए आभार!
संजय जायसवाल, नैहाटी: नवंबर अंक उम्दा है| हमारे समय के सच की कथा है वैभव सिंह की कहानी ‘कायर’| धार्मिक कट्टरता, विवेकहीनता, अंधभक्ति के त्रिभुज को बेपर्दा करती कहानी| अंत में नायक की आत्मग्लानि और शक्तिशालियों के विरुद्ध अवमानना और विरोध प्रशंसनीय| बधाई वैभव भाई| छोटे-छोटे सरल वाक्यों में भी जीवन की बड़ी जटिलताओं को उकेरने का प्रयास प्रशंसनीय है|
राजेश कौशल:‘वागर्थ’ के नवंबर अंक में रीता कौशल ने इंसान के जीवन मे घटित होने वाले सबसे महत्वपूर्ण क्षण शादी एवं उस शादी में भी सबसे महत्वपूर्ण शुरुआत वरमाला के ऊपर लघुकथा लिखी, बहुत-बहुत बधाई| दादाजी का निर्णय वाकई काबिले तारीफ है|
सुब्रत लाहिड़ी, कोलकाता: नवंबर में मुक्तिबोध की रचना ‘चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन’ की मल्टीमीडिया प्रस्तुति समयोचित और सुंदर है| प्रस्तुति से जुड़े सारे साथियों को बधाई|
सदानंद शाही, बनारस: मल्टीमीडिया में ‘चाहिए मुझे मेरा असंग बबूलपन’ का एक बेहतरीन पाठ सुनने को मिला| ध्वनि-चित्र संयोजन भी शब्द-भाव के अनुरूप है| प्रस्तुति के लिए साधुवाद|
आनंद भारती:‘वागर्थ’ के नवंबर अंक में शामिल मुक्तिबोध पर मल्टीमीडिया प्रस्तुति बहुत श्रेष्ठ लगी| ऐसे प्रयासों से निश्चित रूप से पाठकों और श्रोताओं का रचनाकारों से परिचय होगा साधुवाद|
शैलेन्द्र चौहान, जयपुर: बहुत दिनों बाद ‘वागर्थ’ का छपा अंक दृष्टिगत हुआ| यूं डिजिटल और पीडीएफ अंक आते रहे हैं, लेकिन छपी हुई पत्रिका और किताब के होने का अलग ही महत्व है, सुख है| वह सिर्फ चाक्षुस ही नहीं बल्कि भौतिक अस्तित्व से पूर्णता में महसूस की जा सकती है, पहचानी जा सकती है| यह अंक जून 2021 से नवंबर 2021 तक का समन्वित अंक है| इसे मुख्यतः हिंदी लोकवृत्त पर केंद्रित किया गया है| कविताएं, कहानियां तो हैं ही, छिटपुट अन्य सामग्री भी है|
इस अंक में लोकवृत्त विषय पर विस्तृत परिचर्चा है| इसे अगर अन्यथा न लिया जाए तो यह कहना प्रासंगिक होगा कि असल में पत्रिकाएं संपादक के अपने रुचि-वृत्त और परिचय-वृत्त के आसपास घूमती हैं| यह स्वाभाविक भी है| ऐसे संपादक कम ही पाए जाते हैं जो अपने निज वृत्त से अलग होकर सामग्री चयन करते हैं| यह हिंदी साहित्य की संकीर्णता का उदाहरण है| ज्यादातर सामग्री इसी आधार पर चयनित होती है और कुछ जाने-माने नामों, प्राध्यापकों और चहेतों तक महदूद रहती है| यह भी एक विडंबना है कि साहित्यिक कारोबार पर कुछ कारोबारियों का वर्चस्व होता है जो साहित्य के लोकतांत्रिक विकास के लिए बड़ा खतरा है, फिर चाहे कितना भी लोकवृत्त विमर्श क्यों न किया जाए| व्यवहार में तो यह लोक को हीन, नासमझ मानकर उसकी उपेक्षा का ही कारण बनता है| इसलिए अकादमिक शिक्षा जितनी सतर्कता, समझदारी और संवेदनशीलता से दी जाए उतना ही बेहतर रहे|
कुलदीप मोहन त्रिवेदी, उन्नाव:‘वागर्थ’ अक्टूबर 2021 का रोचक पाठ्य सामग्री से भरा अंक पढ़ने को मिला| यह युगपुरुष महात्मा गांधी को समर्पित है| मिस्र देश के महाकवि अहमद शावकी, नागार्जुन और रघुवीर सहाय की कविताएं अच्छी लगीं| आतंकवाद और कट्टरपंथ से कराहती दुनिया के लिए गांधी जी के विचार और सिद्धांत आज भी प्रासंगिक हैं| भारत देश के नेताओं को गांधी जी का सर्वोदय और राम राज्य का सपना पूरा करना चाहिए|
रामविलास शर्मा के पत्रों पर लिखा उनकी पुत्रवधू संतोष शर्मा का आलेख अच्छा लगा| रामविलास शर्मा जी ने लगभग दस हजार पत्र लिखे, यह जानकर आश्चर्य हुआ| आज पत्र-लेखन विधा को पुनः जाग्रत करने की जरूरत है| लोग मोबाइल से ही पत्र का काम निपटा लेते हैं| प्रकाश कांत की लिखी कहानी ‘इजलास’ मन को छू गई| आज भी अधिकारियों के द्वारा सीधे-साधे लोगों का अपमान करने के समाचार सुनने को मिलते हैं| आजाद भारत में जनता की सरकार नौकरशाहों को यह बताने में नाकाम रही है कि वे सेवक हैं, शासक नहीं| अच्छे अंक संपादन के लिए सारी टीम को हार्दिक धन्यवाद|
प्रदीप कुमार शर्मा: अक्टूबर अंक का संपादकीय बहुत बेहतरीन| हो सकता है ऑनलाइन पत्र पत्रिकाओं पर पाठकों की नजर पड़ने में थोड़ा समय लगे, लेकिन वह समय भी दूर नहीं है|
सारंग उपाध्याय:‘वागर्थ’ के नवंबर अंक में आशीष मिश्र ने नीलेश जी के परिवेश औऱ उनके अनुभव संसार को गहरे से न केवल छुआ है आपने अपितु समझा भी है| यह लेख कविताओं के माध्यम से स्त्री मन के भीतर की कई परतों की पड़ताल है| बहुत ही सधा और एक कवयित्री के रचना संसार को सामने लाता लेख है| बधाई इस सुंदर लेख के लिए|
सौरभ सिंह: कविता संवाद में आशीष मिश्र की टिप्पणी सार्थक है| इस लेख को पढ़कर नीलेश रघुवंशी के काव्य को समझने में जितनी मदद हासिल होती है, उससे अधिक स्त्री-विमर्श के उन सूत्रों को समझने का भी अवकाश मिलता है जहां निम्नवर्गीय देशज स्त्री की दुनिया को उपेक्षित छोड़ दिया जाता है|
परम प्रकाश राय: हमारे समय के एक ज़रूरी कवि पर अच्छा आलेख लिखा है आशीष मिश्र ने| इस आलेख में हिंदी कविताओं के समकालीन दौर का एक ज्ञानवर्धक और स्पष्टकारी चित्र हमारे सामने उपस्थित होता है, हालांकि वह चित्र अधूरा और बहसतलब है|
आठवें और नवें दशक की कविता में घर, परिवार और स्थानीयता का जो छविमय आत्मग्रंथिल संसार था, उसे इस पीढ़ी के कवियों ने खोल दिया है| कुछ वैसे ही जैसे साठोत्तरी कविता ने प्रयोगवादी और नई कविता के आत्मबद्ध मुलायम संसार की सीमाओं को उद्घाटित कर दिया था| लेकिन जैसा कि लेखक कहता है, हम जैसे मटमैले लोग कालजयी सत्य की खोज करने का दावा नहीं कर रहे हैं| कवि पंकज चतुर्वेदी के शिल्प पर उदाहरण सहित कुछ और बात होती तो आलेख अधिक समृद्ध होता| बहरहाल, कवि और आलोचक को बधाई और शुभकामनाएं|