
विवेक सत्यांशु, इलाहाबाद – ठीक होली के १ दिन पहले वागर्थ का मार्च २०२३ अंक प्राप्त हुआ, आभारी हूँ।होली में इससे अच्छा उपहार कुछ नहीं हो सकता।
असहमति के विवेक से ही सर्जनात्मक आलोचना का विकास होता है।कहानियां तो सभी अच्छी हैं किंतु मनोरंजन व्यापारी की कहानी माननीय दशा का दुर्लभ यथार्थ प्रस्तुत करती है।कविताओं के लिए वागर्थ में काफी स्थान है, यह सुखद है और खुशी की बात है।जब वागर्थ के संपादक रवींद्र कालिया थे तब उन्होंने वागर्थ का इलाहाबाद विशेषांक निकाला था, जिसमें मेरी कविताएं भी छपी थीं।उससे पहले भी प्रभाकर श्रोत्रिय के समय ‘वागर्थ’ से रचनात्मक रूप से जुड़ा रहा हूँ।
इस अंक में ओरहान पामुक का साक्षात्कार काफी अच्छा लगा।खासकर उनका यह कहना, ‘मैं अंग्रेजी जानता हूँ पर तुर्की में लिखना मुझे बेहतर गुणवत्ता प्रदान करता है।पूरा जीवन मैं अपनी मातृभाषा में लिखना चाहता हूँ।’ यह हिंदी वालों के लिए प्रेरणाप्रद है।गांधीजी ने बीबीसी के साक्षात्कार में कहा था, ‘दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी नहीं जानता।’
मीनाक्षी पिरुकोडे का साक्षात्कार भी सार्थक है।कनकदास की कविताएं अंक को श्रेष्ठ बनाती हैं।मार्गरेट वाकर की भी कविताएं मानवीय संवेदनाओं को रेखांकित करती हैं।केदारनाथ सिंह पर संस्मरण रोचक है।ज्ञानपीठ पुरस्कार से पुरस्कृत होने पर यह कहने का नैतिक साहस उनमें था, ‘इस पुरस्कार के लिए मुझसे ज्यादा डिजर्व कृष्णा सोबती या और लोग करते हैं, यह सब नामवर जी की कृपा है कि उन्होंने मुझे यह प्रदान किया।’ नामवर सिंह चयन समिति में थे। ‘वागर्थ’ समकालीन परिदृश्य में एक अनिवार्य पत्रिका है।
अभिषेक कुमार सिंह-‘वागर्थ’ मार्च अंक।मेरा मत है, असहमति भी उपभोक्तावाद में बंधकर सीमित हो गई है।असहमतियों को कारपोरेट तंत्र द्वारा तात्कालिक बौद्धिकता में सीमित किया जा रहा है।इससे नई ज़मीन बनने से पहले ही बंजर हो जा रही है।
अजय कुमार सिन्हा – ‘वागर्थ’ मार्च अंक।१९७० और १९८० के दशकों के बाद मुझे लगता रहा है कि हिंदी आलोचना अधिकांशतः एजेंडा-आधारित बयानबाजी, विमर्श आदि भर रह गई हैं।लेकिन ‘वागर्थ’ के आलेख पढ़कर मुझे अहसास होता है कि अभी भी सामाजिक-सांस्कृतिक विषयों पर समग्रता में विवेचनात्मक/व्याख्यात्मक लेखन साहित्य-परिसर में किया जा रहा है।अद्भुत और ज्ञानवर्धक लेखन के लिए बधाई!
विश्वनाथ भालेराव– ‘वागर्थ’ में वैश्विक वैचारिकी को पढ़कर धन्य हो गया हूँ।वैश्वीकरण की आमराय पर सोच बहुत सटीक है।प्राचीन काल से ही आमराय की संकल्पना संस्कृति को पहचानने में सहायक रही है।
आपने जो लिखा है उसपर विचार किया जाना चाहिए।आज देश में बहुत कुछ भिन्नताओं को लेकर माहौल बनाया जा रहा है।आदर्श का दिखावा होता है।विचित्र स्थिति कर दी गई है।यह अविश्वासों और संदेहों से भरा हुआ समय है।यह कथन सही है कि असहमतियां हैं तो सत्ता-व्यवस्था से सच के लिए टकराव है।असहमतियां हैं तो हमारे पास ऊंचे आदर्शों को रूपायित करने की आकांक्षा है।असहमतियां हैं तो विविधता की ताकत है।असहमतियां हैं तो स्वतंत्रता का अहसास है।असहमतियां हैं तो हमारे मनुष्य होने का एक अर्थ है।
नए युग में मीडिया पर नियंत्रण करने के अलावा असंतोष-प्रबंधन के ऐसे तरीके अपना लिए गए हैं कि असहमति या प्रतिवाद की ज्यादा परवाह करना जरूरी नहीं रह गया है।हमारे सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक परिदृश्य पर आप गहरी चोट कर रहे हैं।
संजय वर्मा, रायपुर-‘वागर्थ’ का फरवरी अंक।स्तरीय रचनाओं का प्रकाशन करके पाठकों की रक्षा में ‘वागर्थ’ का कदम स्तुत्य है।
पन्ना त्रिवेदी की कविताएं देशकाल का एक्स-रे ही नहीं बल्कि सोनोग्राफी करती प्रतीत होती हैं, खासकर ‘घोड़ा’ कविता।यह समाज में व्याप्त एक खास किस्म की राजनीति की अंधभक्ति पर से परदा उठाती है।कविता यह भी दर्शाती है कि कवि कर्म केवल कागजी घुड़दौड़ नहीं है।इसका कर्तव्य समाज को सचेत करना भी है। ‘वागर्थ’ यह मिथक तोड़ता है कि कला कला के लिए है।इस हेतु वागर्थ को विशेष साधुवाद। ‘खेत’ कविता में धरती को बंजर करने की साजिश के साथ ही उसकी हरियाली को बचाए रखने के तरीके का सजीव चित्रण है।साथ ही जीवन की प्यास को जीवित रखने का संकल्प कविता को एक खास आकार देती है।
पी.के.सिंह, पटना-‘वागर्थ’ का जनवरी २०२३ अंक बहुत ही महत्वपूर्ण विषयों की गहरी और स्पष्ट जांच करता है।कई नए सत्य उजागर हुए हैं।कहानियों में उर्मिला शुक्ल की मार्मिक कहानी ‘पानी’ बहुत पसंद आई।हबीब कैफी की कहानी ‘भूख’ अच्छी है।अंक की एक अन्य अच्छी कहानी है शेखर मल्लिक की ‘मोमोवाली स्त्री’।इस अंक का विमर्श उच्चस्तरीय और गंभीर है।साहित्य की निरंतर सेवा के लिए ‘वागर्थ’ परिवार को साधुवाद।
चित्रगुप्त, बहराइच-‘वागर्थ’ दिसंबर २०२२।समकालीन पत्रिकाओं में यह पत्रिका ऐसी है जो शुरू से लेकर पाठक की टिप्पणियों तक पाठक को बांधे रखती है।प्रस्तुत अंक की सभी कहानियां बेहतरीन हैं, विशेषकर जयश्री रॉय की कहानी ‘मुझ जैसी कोई’ मन में उतर गई।रोशनी वर्मा और आशीष मोहन की कविताओं ने भी मन को छुआ। ‘भारतीय बुद्धिजीवियों का संकट’ विषय पर प्रस्तुत विचार सोचने पर मजबूर करने वाले हैं।बेहतरीन साज-सज्जा, रचना चयन और बुनावट के लिए पूरी संपादकीय टीम विशेष रूप से बधाई की पात्र है।
देवेंद्र कुमार पाठक, कटनी– फरवरी २०२३ का ‘वागर्थ’ मिला।बत्तीस पृष्ठों पर कहानियां, और इतने पर ही विमर्श, समीक्षा, पच्चीस पृष्ठों पर कविताएं प्रकाशित कर, विमर्शों के औचित्य, उन्हें जोड़कर वैचारिक तल से पुनर्जागरण करने की सुकूनदेह उम्मीद से लबरेज सात पृष्ठों का संपादकीय! गज़ब का संतुलन, अद्भुत।हर अंक में किसी सामयिक विषय पर परिचर्चा।इसी उम्मीद पर डटे हुए हैं हम।हर अंक पठनीय होता है।पर छंद कविताओं की कमी क्यों? शायद मुख्यधारा की कविताई को आप भी कुछ पत्रिकाओं की तरह बिरादरी बाहर कर चुके हैं।जब ग़ज़ल ग्रहणीय है, तो गीत, जनगीत, नवगीत आदि भी क्यों नहीं?
बैजू बावरा, भागलपुर-‘वागर्थ’ के फरवरी २०२३ में समीक्षा संवाद के वैचारिक पहलू प्रासंगिक हैं। ‘विश्वदृष्टि’ के अंतर्गत ‘पकी उमर का कीमती वक्त’ रचना यूनिवर्सल है।कहानियों में कीर्ति शर्मा की कहानी ‘उजाले की ओर’ स्वागतयोग्य है।इस रचना में दास्तानगोई की गुंजाइश दिखती है, जहां भाषा का कलकल निनाद है।कहानी आरंभ से अंत तक अपना प्रभाव छोड़ती है।इस पत्रिक में निष्पक्षता संग तार्किकता है, जिसमें निरंतर निखार आ रहा है।