रामदुलारी शर्मा: भानुप्रकाश रघुवंशी की कविताएं ‘वागर्थ’ पत्रिका में प्रकाशित होना वाकई सुखद संदेश है। वह समय के एक सजग रचनाकार हैं। एक तरफ राजनीतिक-सामाजिक विद्रूपताओं पर पैनी नजर रखते हैं तो दूसरी ओर उनकी रचनाएं संवेदना में बेहद मार्मिक और नम होकर गहराई में उतरती चली जाती हैं। उनकी रचनाओं का कैनवास बृहद है।
राजेश पाठक, गिरिडीह :‘वागर्थ’ के जुलाई 2023 अंक में भानु प्रकाश रघुवंशी की कविता, बेटियां, मन के तारों को झंकृत कर गई। बेटियों को केंद्र में रखकर रची गई इस कविता को पढ़ने के बाद बेटियों पर लिखी गई कोई अन्य कविता पढ़ने का मन बनाना दुष्कर है। भाव, शिल्प व शैली से सशक्त कविता के लिए उन्हें बहुत बधाई!
सुशील स्वतंत्र की कविता, ‘अब तानाशाह यातना गृह नहीं बनाता’, काल के मस्तक पर खींची गई वह लकीर है जिसे समय रहते मिटाने की जरूरत है। आज के दौर में पृथक कंसंट्रेशन कैंप सचमुच नहीं बनाए जा रहे। पहले के तानाशाह मानव को यातना गृह भेजा करते थे, अब स्वरूप बदला है, यातनाएं ही स्वमेव चलकर मानव गृह में शरण लेने लगी हैं।
विवेक सत्यांशु:‘वागर्थ’ का जून 2023 अंक प्राप्त हुआ। यह दुर्भाग्यजनक है कि आज लेखन के बल पर जीवित रहना असंभव हो गया है। पत्रिका में सभी कहानियां, कविताएं पठनीय हैं। अनिल गंगल की ‘गठरी’ और ‘राख’ कविताएं अद्भुत संवेदना की हैं। ब्राजील की कविता ‘मेरी आत्मा अधीर है’ अद्भुत जिजीविषा की कविता है। परिचर्चा के अंतर्गत ‘साहित्य की विविधता पर खतरे’ को समग्रता में देखा जाए तो कविता, कहानी हाशिये पर हैं। संस्मरण एक महत्वपूर्ण विधा के रूप में स्थापित है। इसका कारण संस्मरण की अंतर्वस्तु में निहित वह मानवीय संवेदना है, जो अछूते संदर्भों की है, किंतु संस्मरण बहुत कम लिखे जाते हैं।
पहले पृष्ठ पर कबीर की कविता और अंतिम पृष्ठ पर यूक्रेनी कविता अंक को विशिष्ट बनाती है। समीक्षा संवाद महत्वपूर्ण पुस्तकों पर सार्थक विश्लेषण है।
कुलदीप सिंह भाटी:‘वागर्थ’ के जून 2023 अंक में प्रकाशित राजहंस सेठ की कविताएं बहुत अच्छी हैं। जहां आजकल लंबे गद्य में कविताएं लिखी जा रही हैं, वहां राजहंस सेठ द्वारा अपनाए मध्यम मार्ग में भावों की अनूठी और दार्शनिक अभिव्यक्ति हुई है।
जितेन ठाकुर: जून अंक के संपादकीय में आज के साहित्यिक परिदृश्य का बहुत ही सटीक विश्लेषण किया गया है। स्थितियां बिलकुल यही हैं और निकट भविष्य में किसी चमत्कार की आशा नहीं है। प्रायोजित रचनाएं, प्रायोजित चर्चाएं, प्रायोजित पुरस्कार और इन सब के लिए लेखकीय स्वाभिमान की चढ़ती हुई बलि देख-देख कर दुख होता है। साहित्य में बहुत अच्छा समय देखा है। कभी पाठक और पाठक की प्रतिक्रिया ही लेखक का लक्ष्य हुआ करता था। टापुओं में बंटा हुआ हमारा लेखक समाज अब एक-दूसरे की पीठ खुजलाने तक सीमित होकर रह गया है। अपवाद रहे लेखक तेजी से नेपथ्य में जा रहे हैं। पर कलम पकड़ी है तो उम्मीद बनाए ही रखनी होगी, वरना लेखक कैसे लिख पाएंगे।
रामभरोस झा, हरिहरपुर: आजकल आत्मविमुग्धता की स्थिति में व्यक्ति अपने पुनर्निर्माण की सारी संभावनाओं को कुंद करके अपने को सबसे श्रेष्ठ समझता है। आत्मनिरीक्षण जोखिम भरा है, क्योंकि श्रेष्ठता बोध से मुक्त होने में कष्ट होता है। ‘मैं’ से मुक्त होना आसान नहीं है। दूसरों को नसीहत देने में और अपनी नसीहतों पर खुद अमल करने में बड़ा फर्क है। आदर्श झाड़ना और बात है, पर उन आदर्शों पर खुद को परखना कठिन है। आत्मग्रस्त मानसिकता के कारण आज हम जरा-सी भी आलोचना बर्दाश्त नहीं कर सकते, लेकिन दूसरों पर दोष मढ़ने के किसी भी अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहते! ये बातें पाठक को अपने गिरेबान में झांकने को प्रेरित करती हैं।
नेहा महेंद्रू:‘वागर्थ’ के मई 2023 अंक में प्रकाशित शशि बाँयवाला की लघुकथा ‘नया भाई’ समाज की दकियानूसी सोच का अद्भुत उदाहरण है। भले ही खुद को आधुनिक और विकसित कहते हैं लोग, परंतु सोच उनकी अभी भी पिछड़ी ही है। कई बार एक मजबूत कदम उठाने से पहले खुद के सगे-संबंधी ही मुंह फेर लेते हैं।
राजेंद्र पटोरिया, नागपुर:‘वागर्थ’ का मई 2023 अंक मिला। इसका मुखपृष्ठ बहुत सुंदर है। स्त्री कथाओं पर केंद्रित यह अंक सचमुच बहुत अच्छा है। आजकल की हिंदी साहित्यिक पत्रिकाओं में वह सब पढ़ने को नहीं मिलता, जो ‘वागर्थ’ में मिल जाता है। विद्याभूषण, राधेलाल विजघावने, मेघाली बैनर्जी, प्रकाश देवकुलिश, जया पाठक श्रीनिवासन की कविताएं अच्छी लगीं। कुसुम खेमानी ने सीताराम सेकसरिया के बारे में बहुत सुंदर ढंग से लिखा है। सेकसरिया जी के व्यक्तित्व एवं कृतित्व का कैनवास बहुत बड़ा था। समाज के लिए समर्पित ऐसे लोग विरल होते हैं।
‘नई कहानी के दौर में शेखर जोशी’ पर परिचर्चा करवाकर बहुत अच्छा किया। इस प्रकार की परिचर्चाएं आगे जारी रहने दें, ताकि पाठकों तक कुछ नया पहुंचता रहे। इसके सभी लेख पठनीय और ज्ञानवर्धक हैं। ‘आज का मध्यवर्ग कैसा है’ टिप्पणी बहुत उत्तम लगी। ‘वागर्थ’ साहित्यिक मूल्यों की एक अपूर्व पत्रिका है।
प्रखर गर्ग:‘वागर्थ’ के मई 2023 अंक का संपादकीय। सिद्धांत में खुलेपन और पुनर्गठन के लिए स्पेस नहीं है तो वह एक जेल है। मैं इसे एक अलग दृष्टिकोण से परखना चाहता हूँ। आज की पीढ़ी खुद को ज़ेन-जी या मिलेनियम के नाम से संबोधित करने में खासी रुचि रखती है। इस पीढ़ी का भविष्य और वर्तमान दोनों ही बहुत असमंजस में पड़े हुए लगते हैं। लेकिन चिंता की बात यह है कि इस दुनिया में, जिसे वैश्वीकरण, आर्थिक लोभ और तकनीकी क्रांति ने एक खूबसूरत नरक में बदल दिया है और इसमें सिद्धांतों के लिए जगह नहीं है। क्या इस पीढ़ी के लिए वर्तमान समय विचारों के खुलेपन और उनके पुनर्गठन का समय है?
चुनांचे सवाल यह भी है कि इस दुनिया में रूढ़िवादियों की हुकूमत का बोलबाला है और बहुत कम सभ्यताएं ऐसी हैं जो इन रूढ़िवादी हुकूमतों के खिलाफ लड़ रही हैं, या जीत भी रही हैं। आपसे निजी सवाल है, आने वाली पीढ़ियां हुकूमतों के खिलाफ, एक बोधक के रूप में कैसे सोचेगी और लड़ेगी? क्या आपको इस अंधेर नगरी में कहीं कोई उम्मीद की रोशनी नजर आती है?
यहां जिस ‘आत्म संकट’ की ओर इशारा किया गया है उससे सिर्फ यही पीढ़ी नहीं, बल्कि औपनिवेशिक युग के ‘हम और वे’ ने हर पीढ़ी के लोगों को जानवर बना दिया है। सुविधावाद ही आज के समाज का आधार है और उत्तर-आधुनिक विमर्श जो ‘सबका क्रंदन’ नहीं पहचान पा रहा है, चिंतित होने का विषय बन जाता है, क्योंकि यहां भी किसी विचार या विचारधारा का बीज फूटता नहीं दिख रहा है। सुविधावाद ने हमारे समाज में रहनेवालों की सोच पर प्रहार किया है, सब शॉर्टकट में लगे हैं। मंगलेश डबराल के शब्दों में कहूँ तो ‘हरेक चाहता है किस तरह झपट लूं, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार’!
रमाकांत यादव, रायबरेली: आपके संपादकीय को कई बार पढ़ा। यह समझने के लिए आखिर आप कहना क्या चाहते हैं। सब कुछ साफ साफ कह रहे हैं या कुछ छिपा रहे हैं। आत्मनिरीक्षण पर आपने कुछ ज्यादा ही जोर दिया है। इतना ज्यादा कि बाहरी निरीक्षण को भूल ही गये।
आपकी यह चिंता वाजिब है कि हर कवि लेखक को आत्मनिरीक्षण करते ही रहना चाहिए। पर बाहरी दुनिया का जो अत्याचार, शोषण और पीड़ा है, उस पर आपकी चिंता इस संपादकीय में करीब करीब नदारद रही। आप जानकार और प्रबुद्ध लेखक हैं। निश्चित ही आपको दलित और स्त्री विमर्श से शिकायत है। क्यों? दलित साहित्यकारों ने अपनी पीड़ा ही तो कही है! वे कैसा आत्मनिरीक्षण करें? वे अन्यायियों, अत्याचारियों, शोषणकर्ताओं से कैसा पुल बनाएं? जैसा कि आप चाहते हैं। जब आप किसी दलित को अपनी तरह का मनुष्य मानने को तैयार नहीं तो एकतरफा बात क्यों नहीं होंगी? होंगी ही!
आपको लगता है कि दलित विमर्श और अन्य अस्मितावादी विमर्श पटरी से उतर गए हैं। आप सिद्धांत को विचारों के लिए जेल मानते हैं। यह कैसे? माना कि सिद्धांत का एक व्यावहारिक पक्ष होता है, पर वे विचार के लिए जेल कैसे हो सकते हैं? मेरे जाने तो सिद्धांत की पृष्ठभूमि में ही कोई विचार टिकाऊ और प्रभावी हो सकता है। क्या नहीं? मैं वैचारिक खुलेपन का निश्चित ही समर्थक हूँ और यह भी जानता हूँ कि वैचारिक खुलापन आत्मनिरीक्षण में कहीं भी बाधक नहीं है।
मुझे यह भी लगा कि धर्म, जाति और प्रांतीयता को आप सही से विश्लेषित नहीं कर सके। आखिर इन प्रवृत्तियों का आधुनिक स्वरूप क्या है? और इनके लिए क्या किया जाना चाहिए?
विमर्श और विमर्शवाद को भी आपने एक-दूसरे का दुश्मन बना दिया है, जबकि ऐसा है नहीं। विमर्शवाद वस्तुतः आपका गढ़ा हुआ शब्द है। इतना तो आप मानेंगे ही कि विमर्श को किसी विमर्शवाद की जरूरत नहीं। और है भी तो आप बताइए कि विमर्शवादी विमर्श के खिलाफ कैसे हुआ?
क्रिटिकल सेल्फ होना ठीक है, पर अपने ऊपर या किसी अन्य पर हुए अन्याय, भेदभाव पर क्रिटिकल होना क्यों नहीं ठीक? एक साहित्यकार की असली दुनिया बाहरी है, भीतरी नहीं। आपके ‘आतम दर्शन’ से मुझे कोई शिकायत नहीं, पर यहां आप पौराणिक उपदेशक से जान पड़ रहे हैं। आप विद्वान हैं। आपके पास शब्द हैं तो चीजों को घुमाना-फिराना आपकी कला का ही हिस्सा है। कृपया आप वैदिक कलाकार न बनें। साहित्यकार के बाहरी उद्घाटन पर नज़र रखने वाले ईमानदार आलोचक ही बने रहें।
सोनू शर्मा ‘अनुरागी’, वाराणसी:‘वागर्थ’ जून अंक। वह दिन दूर नहीं, जब साहित्य के नाम पर सिर्फ लुग्दी साहित्य ही बचेगा और मनुष्य विचार और विवेकशून्य होता जाएगा। इस संपादकीय ने हिंदी के शोधार्थियों को भी आगाह किया है कि शोध की गुणवत्ता से समझौता नहीं किया जाना चाहिए। ऐसा करने से हिंदी के साथ ख़ुद का भी नुकसान होगा। वास्तव में, शोध एक श्रमसाध्य कार्य है। अतः श्रम से भागकर और केवल पिष्ट-पेषण करके शोध-प्रबंध लिख देने से डिग्री और नौकरी तो जरूर मिल जाएगी, लेकिन इससे न तो साहित्य का भला होगा और न ही स्वयं को संतुष्टि मिलेगी। हिंदी समाज में अपनी भाषा और अपने साहित्य के प्रति रागात्मकता बढ़नी चाहिए। लोग चेतस होंगे और जिम्मेदारी के साथ अपने कर्तव्यों का निर्वहन करेंगे, तभी कुछ होगा।