विजयश्री तनवीर, दिल्ली: मैं ‘वागर्थ’ के संपादक के पास यह शिक़ायत दर्ज़ कराना चाहती हूँ कि इसके अक्टूबर 2023 अंक में रजनी शर्मा बस्तरिया की कहानी ‘सेवती का ककवा गंधरु का रूमाल’  मेरी कहानी ‘जो डूबा सो पार’ की सौ फ़ीसद नकल है। मेरी यह कहानी 2020 में ‘अहा ज़िन्दगी’ के  फ़रवरी अंक में प्रकाशित हो चुकी है। इस साहित्यिक चोरी के लिए रजनी शर्मा बस्तरिया से सार्वजनिक माफ़ी अपेक्षित है।

रजनी शर्मा बस्तरिया, रायपुर: आदरणीय सर, ‘वागर्थ’ में छपी मेरी कहानी की समस्त घटनाएं जयश्री तनवीर की कहानी से प्रभावित हुई हैं और इसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ। इसका मुझे आजीवन खेद रहेगा।

प्रतीक्षा रम्य, कोलकता:‘वागर्थ’ सितंबर 2023 अंक में हंसा दीप की कहानी ‘टूटी पेंसिल’ पढ़ी। दांपत्य जीवन में बीमारी की एक छोटी सी आशंका हवा में उड़ते तिनके की तरह सब कुछ हिला कर रख देती है, ख़ासतौर से जब बच्चे हों और स्त्री बीमार हो। हमारे पीछे परिवार का क्या होगा, इससे ज्यादा तकलीफ़ ‘कैसे छोड़ कर मरूंगी’- इससे होती है। स्त्री को बनाते समय शायद ईश्वर ख़ुद मोह में पड़ गया था, इसलिए उसके भीतर मोह का अनुपात ज्यादा कर दिया। पति का बीमार होना और पत्नी का बीमार होना दो बिलकुल अलग बातें हैं। चाय पीना मुझे भी बहुत पसंद है, हाजमे की समस्या के बावजूद, लेकिन कमबख्त ये छूटती नहीं!

गुरमीत कड़यालवी, पंजाब :‘वागर्थ’ के सितंबर अंक की कहानी ‘टूटी पेंसिल’। इंसान को कितनी बार ऐसी परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। लगा, यह लेखिका ने मेरी कहानी ही लिख डाली है। आंखें भर आती रहीं। यह एक मनोवैज्ञानिक कहानी है। पात्र की भावनाओं को बड़ी कुशलतापूर्वक और कलात्मक सौंदर्य के साथ पेश किया गया है। कहानी पाठक को बांधकर रखती है।

रश्मि शर्मा, रांची: वागर्थ में प्रकाशित कहानी ‘टूटी पेंसिल’ पढ़ी। कहानी यथार्थ के बहुत करीब है और मुझे अच्छी लगी। परिवार में स्त्री की बीमारी की आशंका और पुरुष की प्रतिक्रिया, एकदम सच्ची है।

मोक्षेंद्र मनोज, नोएडा:‘टूटी पेंसिल’ कहानी शिल्प और कथ्य की दृष्टियों से पुख्ता है, यह एक गतिशील कहानी है। पूरी कहानी में जैसे कोई दौड़ते-दौड़ते अचानक से रुक गया हो। अंशु क्या चाहता था, यह भी एक सस्पेंस है। पर उसका अपना प्रदर्शन नाटकीय ज्यादा था। सब कुछ ठीक होते हुए भी पैंसठ की महिला को जबरन मेडिकल टेस्ट के लिए मज़बूर किया जाता है। डाक्टरों के पाखंड और अस्पतालों द्वारा जबरन मेडिकल जांच आज की चिकित्सीय व्यवस्था का मखौल उड़ाते हैं।

अशोक कुमार जोशी: आज के दौर की श्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिकाओं में एक नाम ‘वागर्थ’ का है। सितंबर अंक में प्रकाशित रचनाओं में परिचर्चा और राजेंद्र शर्मा की कविताओं ने विशेष ध्यान आकर्षित किया। शेष रचनाएं भी उम्दा हैं। पत्रिका अपने साहित्यिक संतुलन को बनाए हुए है।

अनिता वर्मा: सितंबर अंक में प्रकाशित रेखा राजवंशी की कहानी ‘वह अधूरी नहीं’ पूरे प्रवाह के साथ बहती जाती है और पाठक भी बिना रुके अंत तक उसे पढ़ते चला जाता है। चित्रात्मक कहानी!

सुधा थपलियाल: आज भी हमारे समाज में जाति, धर्म की जड़ें बहुत गहरी हैं। ये जड़ें युवा वर्ग की खुशियां लील रही हैं। इस ज्वलंत मुद्दे पर सशक्त कहानी ‘वह अधूरी नहीं’ लिखने के लिए रेखा राजवंशी को हार्दिक बधाई।

राज बोहरे: सितंबर अंक में हंसा दीप की  कहानी ‘टूटी पेंसिल’ बहुत अच्छी लगी। बिना किसी शिल्पगत ताम झाम के हंसा दीप ने सरल अंदाज़ में एक आम भारतीय महिला की कहानी लिख दी।

नितिन मिश्रा: सितंबर अंक में प्रकाशित अर्चना पैन्यूली की ‘उन्हें भी हमसफर चाहिए’ अद्भुत कहानी है। साहित्य का काम मानवीय संबंधों को प्रकट करना होता है। अर्चना पैन्यूली के साहित्य की यही विशेषता है।

अनुराग आग्नेय: सितंबर अंक में प्रकाशित राजेंद्र शर्मा की ‘औरतें ही बचाएंगी सृष्टि को’, ‘दलित’, ‘मां’ और ‘मां का दिपदिपाना’ कविताएं बहुत संवेदनशील तथा भावप्रवण हैं। ‘दलित’ कविता को बहुत तार्किक अंदाज में प्रस्तुत किया गया है। आज के उपभोक्तावादी समाज में केवल मां है जो अपने पुत्र के सहज मन को समझ सकती है।

रवि: सितंबर अंक में जर्मन कहानी ‘पांव का मोल’ (हाइनरिश ब्योल) जिसका मूल जर्मन से अनुवाद किया है शिप्रा चतुर्वेदी ने बहुत प्रभावित किया। अच्छा अनुवाद है। युद्ध में एक पांव खोने के बदले जूता चमकाने का काम मिलना दुर्भाग्यपूर्ण है।

रामभरोस झा, हरिहरपुर:‘वागर्थ’ अगस्त अंक। स्वतंत्रता, स्वाधीनता, आज़ादी जैसे शब्दों को परिभाषित करना मुश्किल काम है, क्योंकि ये शब्द मात्र नहीं हैं। हमारी संवेदनाओं में इन शब्दों की जड़ें बहुत गहरे तक व्याप्त हैं। भले ही आज हम-आप अमृतकाल मना लें, पर स्वतंत्रता का वह अर्थ आर्थिक रूप से विपन्न वर्ग के लिए नहीं है जो अर्थ धनाढ्य वर्ग के लिए है । मेरे विचार से आर्थिक विषमता से परतंत्रता को पोषण मिलता है। स़िर्फ आर्थिक विषमता ही होती तो कोई बात नहीं थी, लेकिन आज हर तरफ एक भय का माहौल है। समझ में नहीं आ रहा है कि भाई को भाई से लड़ाने वाला यह काल आज़ादी का अमृतकाल कैसे हुआ?

इतिहास को तोड़मरोड़ कर अफवाहों की आग में झोंका जा रहा है और सत्ता जिनके पास है वेे ज़हर बोने में लगे हैं! चारों तरफ़ अनीति और अत्याचार है, फिर भी यह अमृतकाल है!

बाज़ार ने हमारी निजता और स्वाधीनता छीनकर हमें गुलामी की चकाचौंध में ऐसा मदहोश कर दिया है कि हम आत्मरिक्तता का उत्सव मनाकर प्रसन्न हैं। कॉर्पोरेट संस्कृति ने नित नए प्रलोभन  देकर हमें हमारी स्वाधीनता से महरूम कर दिया है। सेवा और जिम्मेदारी जैसे शब्दों की जगह मुनाफा और अवसरवादिता शब्द आ गए हैं।

नासिरा शर्मा की कहानी हमारे एहसास में हलचल पैदा कर देती है। जब कहानी को पढ़ना शुरू किया तो पता नहीं था कि कहानी दिल की गहराई में उतरती चली जाएगी। रोजगार के अभाव में गांव की खूबसूरत ज़िंदगी को छोड़कर बड़े शहरों की ओर पलायन करने वाले लोगों की तादाद बहुत बढ़ती जा रही है। पर इस विषय पर हिंदी में बहुत कम ऐसी कहानियां आ रही हैं जो इस समस्या को गंभीरता से पेश करती हैं। गांवों में काम-धंधा नहीं मिल रहा है, पर इस तरफ ध्यान कौन देगा? महानगरों में कष्टमय परिस्थितियों को झेलते हुए जीवन की जरूरतों को पूरा करने की कोशिश में लोग नरक भोगते हुए भी डटे हुए हैं। नासिरा जी टूटे सपनों के रुदन की अनुगूंज को इस नफासत से बुनती हैं कि ‘आंचल के बीज’ से अनुभूतियों की लतर हृदय की मिट्टी को आच्छादित कर देती है।

‘वागर्थ’ सितंबर 2023 अंक के संपादकीय का शीर्षक ही कुछ ऐसा है कि मन सबसे पहले इसे ही पढ़ने को व्यग्र हो गया! जो भाषा समूची सभ्यता का प्रतिबिंब है उसे निर्मल रखना ही हमारा चरम अभीष्ट होना चाहिए। सार्वजनिक अभिव्यक्ति में अपशब्दों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए, अन्यथा विरूपता और भद्देपन से बच पाना मुश्किल है। जैसी हमारी भाषा होगी, वैसी ही हमारी रुचि होगी, वैसे ही हमारे विचार होंगे। 21वीं सदी में हम अपनी भाषा की सोंधी मिठास को भूलने लगे हैं और भाषा को घृणा, शत्रुता और गालियों की भाषा के रूप में इस तीव्रता से ढालते  जा रहे हैं कि हमारा अपना ही दम घुटने लगा है!

सुधा ओम ढींगरा की ‘उदास बेनूर आंखें’ कहानी पढ़ना शुरू किया तो लगा कि वाह क्या कहानी लिखी है लेखिका ने! इसका श्रेय जाता है सुधा जी की विलक्षण कहन शैली को। चर्च के जिस धर्मगुरु को सब आदर और सम्मान देते थे, वह लोगों की आस्था से खिलवाड़ करने वाला राक्षस निकला।

हम भारतीय खास तौर से हिंदी पट्टी के लोग खान-पान और रहन-सहन में चाहे जितने भी आधुनिक हो जाएं, पर बात जब जाति की आती है, तो हम पुरानी व्यवस्था को मानने वाले पुरातनपंथी-सा ही व्यवहार करते हैं। रेखा राजवंशी की कहानी ‘वह अधूरी नहीं’ भी रोचक और हैप्पी एंडिंग वाली है।

तेजेंद्र शर्मा की कहानी ‘सवालों के जवाब’ ने कोरोना काल में विविध संस्थानों से जो कर्मचारियों की छंटनी हुई दुनिया भर में उसके दर्द को भी समाविष्ट कर लिया है।

अजय प्रकाश, इलाहाबाद:‘वागर्थ’ का अगस्त 2023 अंक। नासिरा शर्मा की कहानी ‘आंचल के बीज’ अद्भुत कहानी है। कंचन की जिजीविषा कहानी के अंत तक है। नासिरा शर्मा जब इलाहाबाद आई थीं, उनकी यादें ताजा हो गईं। रीता मणि वैश्य की कहानी ‘मणिपुर एक प्रेम कथा’ मणिपुर की क्राइसिस की याद ताजा कर रही है।

कविता में चित्रा पंवार की पंक्तियां दिल को छू गईं। वास्तव में सुख क्षणभंगुर होता है और दुख अजगर की तरह पसरा रहता है। यह चिंता भी गौर करने की है कि मेधारोबो आ रहे हैं।

विवेक सत्यांशु, इलाहाबाद:‘वागर्थ’ का सितंबर 2023 अंक। इस अंक में प्रवासी कहानियों को पढ़ने का सुख मिला। पूजा गुप्ता द्वारा प्रस्तुत ‘हिंदी नवजागरण और महावीर प्रसाद द्विवेदी का युग’ पर परिचर्चा विचारोत्तजक है। द्विवेदी जी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका में नेहरू तक के लेख को अस्वीकृत कर दिया था। निराला की कविता ‘जूही की कली’ भी लौटा दी थी, जो लौटाए जाने से चर्चित हुई थी। निराला और द्विवेदी दोनों बैसवाड़ा थे। द्विवेदी जी को यह स्वतंत्रता ‘इंडियन प्रेस’ के मालिम चिंतामणि घोष ने दे रखी थी। इस अंक में अक्का महादेवी के अलावा नवारुण भट्टाचार्य और सुनील गंगोपाध्याय की कविताएं अच्छी लगीं।