संजय जायसवाल, नैहाटी : वागर्थ के अक्टूबर अंक में ज्ञानप्रकाश जी की सारी गजलें हमारे दिल की बातें हैं, लाजवाब| बहुत दिनों बाद लगा कि सच पढ़ नहीं देख रहा हूँ| शैलेय की तीनों कविताएं पठनीय हैं| बढ़ती दूरियों और खामोशियों पर एक सामीप्य और संवाद की गहरी बेचैनी|
पुष्पांजलि दास : इस संक्रमण काल में साहित्य, कला और संस्कृति की महान विरासत के वास्तविक रूप को वर्तमान और आने वाली ऑनलाइन पीढ़ियों तक सुरक्षित हस्तांतरित करने कि मुहिम छेड़ने की आवश्यकता है| आपके चेतना जगत से निकली साहित्यिक और पत्रकारीय चिंता समस्त बुद्धिजीवियों को सकारात्मक दिशा में सोचने के लिए आमंत्रित करती है| कहना न होगा कि आज की युवा पीढ़ी शार्ट कट, शोर और शोख चटक रंगों की ओर आकर्षित है| हर पल ऑनलाइन रहने के नशे की जद में है| इन्हें कालजयी बनने की घुट्टी पिलाने के लिए समाज के प्रबुद्ध, साहित्यकारों, पत्रकारों और कलाकारों और विद्वानों को बीड़ा उठाने की आवश्यकता है|
सच्चिदानंद किरण, भागलपुर : ‘वागर्थ’, सितंबर २०२१ अंक में प्रकाशित दिनेश विजयवर्गीय की कहानी ‘तीर्थयात्रा’ सचमुच में सुदामा-कृष्ण की दोस्ती की याद दिलाती है| राम मोहन अनजाना बनकर भी सुमरेश से बचपन की दोस्ती को न भुला सका|
बचपन की दोस्ती एक सजीव यादगार-सी होती है उसमें सीधा-सीदा प्रेम उमड़-घुमड़ जाता है| कई सालों बाद मिलने पर भी दोस्ती में दरार नहीं दिखती|
कमलेश कमल की कविता ‘स्त्री प्रेम में नदी हो जाती है’ एक बेहतरीन रचना है| प्रतिशोध की भावना में स्त्री पत्थर को भी तोड़ने की शक्ति धारण कर लेती है| रचनाकारों को हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं|
मधु प्रधान, कानपुर : अफगानिस्तान की कविताएं बहुत मार्मिक हैं| प्रतीत हो रहा है कि अफगानिस्तान की धरती का कण-कण दुबक रहा है| काश स्वर्ग-सी सुंदर धरती से पीड़ा के बादल छँट जाएं|
सीमा सिंह : सितंबर अंक में ‘शब्दों की आड़ में अर्थों का दुखांत’ लेख में उपमा ऋचा ने कमाल लिखा है| एक-एक शब्द, एक-एक उदाहरण करारा तमाचा जड़ता चला गया| ‘हम जैसे न कितने’ जो भाषा को कहां से कहां ले जा सकते थे कई ने अपनी भाषा को कहां से कहां गिरा दिया, वह भी बड़ी बेहयाई भरी शान से| आँखें खोल देने वाला आलेख है| आभार वागर्थ!
नवनीत कुमार झा, दरभंगा : यदि कोई भाषा अपनी आत्मपहचान खोती है तो उस भाषा को बोलने-बरतने वालों की संस्कृति भी अपनी पहचान खो देती है और जनता भाषिक दरिद्रता की शिकार हो जाती है| हिंदी की आत्मपहचान आज सुरक्षित नहीं है, क्योंकि आज हिंदी के स्वरूप को ही बदल देने के कुचक्र रचे जा रहे हैं| शुरू से लेकर आज तक हिंदी एक मिश्रणशील भाषा रही है जिसमें कितनी ही भाषाओं के शब्द सहज ही घुल-मिल गए| उन्हें शुद्धिकरण के नाम पर हटाया जाना हिंदी के लिए अहितकर होगा| ज्ञान-विज्ञान, सूचना तकनीक, इंजीनियरिंग आदि की पुस्तकों के लिए हम आज भी पूरी तरह से अंग्रेजी पर निर्भर हैं| हम आत्ममुग्धता के रंगीन दलदल में आकंठ डूबे हुए हिंदी का विरुद गायन अपने लोभ और लाभ के लिए करते हैं, पर अंग्रेजी के लिए हृदय से नतमस्तक हैं| ‘वागर्थ’ में हिंदी की आत्मपहचान के बहाने भाषा की महत्ता पर महत्वपूर्ण चर्चा है जिसे नज़रअंदाज़ करना हिंदी भाषियों के लिए आत्मघात से कम नहीं है|
आज जो चीज़ हमारे जीवन से और इस पृथ्वी से बहुत तेजी से लुप्त हो रही है, वो है प्रेम| तभी तो विजय सिंह नाहटा को कहना पड़ता है- ‘चीजों और चीखों से ठसाठस भरी इस दुनिया में चाहता हूँ बस, बचा रहे थोड़ा-सा प्रेम/विकट समय के लिए|’
हमारे जीवन में भौतिक वस्तुओं की कोई कमी नहीं है| फिर भी हमारे जीवन में अवसाद है और चीख-पुकार मची हुई है जो दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है| इसलिए कवि बस थोड़ा सा प्रेम बचा लेना चाहते हैं विकट समय के लिए| यह कविता न स़िर्फ अवसाद भरे वर्तमान से आहत है, बल्कि आगत भविष्य की भयावहता से भी आक्रांत है| कवि जानता है कि विकट समय में प्रेम से बड़ा संबल कुछ और न होगा| वैसे कवि जिस विकट समय की बात करते हैं वह समय तो कब का आ चुका है| उस ज़ख्मी और लहूलुहान समय की बानगी अनवर शमीम की कविता ‘सफेद खाली पन्ने’ में भी है|
हंसा दीप, कैनेडा : सितंबर २०२१ का वागर्थ| नि:संदेह आने वाली पीढ़ियों को अपना भविष्य अंग्रेजी भाषा में नज़र आता है, परिणामस्वरूप हिंदी भाषी क्षेत्रों में भी हिंदी सिर्फ बोलचाल की भाषा रह गई है| मामूली रोजगार वाले पालक भी अपने बच्चों को बचपन से ही अंग्रेजी स्कूलों में भेजकर उनके सुनहरे भविष्य को सजाने का अपना कर्तव्य पूरा कर रहे हैं|
पी. सी. कोकिला : सितंबर के संपादकीय में थोड़ा-सा जोड़ने की अनुमति मांगते हुए कहना चाहती हूँ कि हिंदी भाषा अपने व्यावहारिक रूप को तेज़ी से बदल कर अपनी संभावनाओं के कारण विश्व पटल पर अपना स्थान दृढ़ता से बना रही है| व्यावहारिक स्वरूप से भी किसी भाषा की अस्मिता उसके साहित्यिक रूप से अधिक जुड़ी होती है| यहां भी मुझे हिंदी का वर्तमान तथा भविष्य दोनों सुनहरे लगते हैं |
कैलाश बनवासी : हिंदी जिस तरह से एक ओर मध्यवर्ग की भयानक उपेक्षा का शिकार है, वहीं दूसरी ओर दूषित, कुत्सित दंभी संकीर्ण राजनीति का| हिंदी की समावेशिकता जो ज्ञान-विज्ञान, सहृदयता और व्यापक मनुष्यता पर आधारित है, वह तलछट समारोही थोथेपन में गर्क होता चला जा रहा है| यह सुधीजन के बड़े, सघन और निरंतर अभियान से ही संभाली जा सकती है|
निशि मोहन, चंडीगढ़ : कुसुम खेमानी के धारावाहिक उपन्यास ‘मारवाड़ी राजवाड़ी‘ एक परिश्रमी, कर्मठ नारी की कहानी है जिसने असंभव को संभव कर दिखाया| बहुत ही बारीकी से क्रमबद्ध ढंग से चित्रण करते हुए कहानी आगे बढ़ती है, पाठकों के समक्ष चलचित्र की भांति| सजीव और जीवंत! मानो लेखिका की स्वयं की अभिव्यक्ति हो| भावपक्ष के समान कला पक्ष उत्तम कोटि का है|
संदीप कुमार शर्मा : मैं स्तब्ध हूँ कि ‘वागर्थ’ मल्टीमीडिया में जो सुन रहा हूँ वह हमारी ही धरती पर घटित हो रहा है| हमारी ही धरती पर उसे सृजित किया जा रहा है| कहीं आंसुओं का खारापन बेमानी है और कहीं उस खारेपन पर आत्मा चीत्कार कर रही है| क्या कहूँ ‘वागर्थ’ और इसकी इस पूरी टीम के लिए आप सभी का समन्वय, संयोजन, प्रस्तुतीकरण, चयन सब इतना उम्दा है कि हर बार लगता है कि हमें पूरा सुनना है और कई बार सुनना है, सुनते रहना है| लेकिन यह भी सोचता हूँ कि सुनने से कम से कम मैं मानवीय तो कहला ही सकूंगा|