
गंगा प्रसाद, कांचरापाड़ा:‘वागर्थ’ 2022 अगस्त अंक।संपादकीय के तहत ‘स्वतंत्रता के इन 75 सालों ने क्या दिया’ पढ़कर लगा कि अपनी बात रखी गई है।सुभाष चंद्र कुशवाहा का आलेख ‘1857 घुड़सवार सैनिक, मातादीन और उसके साथियों की बगावत’ दस्तावेज जैसा मालूम पड़ा।लघुकथा ‘कारण’ (मीरा जैन) मन को छू गया।उसी तरह ही ‘सरकारी आदमी’ (अरिमर्दन कुमार सिंह) भी भा गया।आखिर में यह भी कह दें कि आवरण पर गांधी जी की तस्वीर बहुत कुछ कहती है।परिचर्चा के ‘नया विश्व : लोकतंत्र की संस्कृति’ से राजनीति और संस्कृति के प्रति खासी समझ बनती है।
अरुण यादव:‘वागर्थ’ का अगस्त 2022 अंक।श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताएं महत्वपूर्ण होती हैं, चाहे रचना कौशल के हिसाब से देखें या फिर भाव या उसमें छिपे कारुण्य के हिसाब से।
ब्रज श्रीवास्तव: वागर्थ एक पूर्ण साहित्यिक जनरल है।इसका समावेश लोकतांत्रिक ज्यादा है।इसमें न कथाओं और न निबंधों का आधिक्य है, न कविताओं का फिलर की तरह चीन्ह चीन्ह कर छापने का तरीका।
सच ये है कि हमें लघु पत्रिकाओं ने ही सींचा है।ये ही हमें जगातीं, उकसातीं हैं और साहित्यिक दुनिया को भीतर जोड़े रखती हैं।जुलाई 2022 का अंक रूस-यूक्रेन युद्ध पर परिचर्चा और गीतांजलि श्री के चर्चित ‘रेत समाधि’ पर बहस के कारण भी पढ़ने योग्य है।
निशा नंदिनी भारतीय:‘वागर्थ’ के जुलाई 2022 में मंजु श्रीवास्तव ने रूसी कविताओं का बहुत सुंदर अनुवाद किया है।एक क्षण ऐसा लगा कि मैं रूसी कविताएं ही पढ़ रही हूँ।मैंने रूसी साहित्य कॉफी पढ़ा है।मुरीद हूँ। ‘वागर्थ’ एक अच्छी साहित्यिक पत्रिका है।
कमल:‘रेत समाधि’ की बहुत बढ़िया समीक्षा है।चूँकि मैं ‘रेत समाधि’ पढ़ चुका हूँ।इसलिए यह और अच्छी लगी।
विवेक सत्यांशु, इलाहाबाद:‘वागर्थ’ का जुलाई अंक पढ़ा।समग्रता में अंक अनूठा है। ‘रेत समाधि’ पर दो आलेख पढ़े।भले ‘रेत समाधि’ को अंतरराष्ट्रीय बूकर पुरस्कार मिल गया हो, पर यह उपन्यास अपठनीय है।इसलिए लोकप्रिय भी नहीं हो सका।फ्रांस का महान आस्तित्ववादी विचारक ज्यां पाल सार्त्र को नोबुल पुरस्कार मिला तो उन्होंने उसे अस्वीकार करते हुए कहा, ‘यह मेरे लिए आलू के बोरे के समान है’।यह होता है लेखक का स्वाभिमान।
अप्रवासी साहित्य काफी प्रभावशाली है।कविताएं ढेर सारी हैं।ध्रुव गुप्त, ज्योति चावला, सुधांशु मालवीय की कविताओं की संवेदना स्पर्श करती है।अरुण कमल से परिचर्चा विषय को व्यापक बनाता है। ‘वागर्थ’ समकालीन परिदृश्य में एक व्यापक पत्रिका है।गैर-हिंदी प्रदेश से निकलने के बावजूद ‘वागर्थ’ से मैं लंबे समय से रचनात्मक रूप से जुड़ा हूँ।
डॉ विभा ठाकुर : ‘प्रेमरंजन अनिमेष’ की मर्मस्पर्शी कहानी को पढ़कर निशब्द हूं ।आखिर दोष किसको दे ! बेटे को जो पत्नी की खुशी की खातिर मां बाप से दूरी बनाकर रखता है ? या पत्नी को जिसके जीवन में भोग विलास के आगे किसी का महत्व नही। आत्मविश्लेषण की जरूरत है । भौतिकतावाद की दौड़ में अंततः हम सबको अकेले ही जीने की आदत डाल लेनी चाहिए। संतानोत्पत्ति का मोह त्याग कर सिर्फ वासनापूर्ति के लिए विवाह करने की अनिवार्यता को भी खत्म कर देना चाहिए।
प्रदीप कुमार शर्मा : “इन दिनो हर आदमी के दिमाग में छोटे छोटे फासिज्म का घोसला है।” ऐसे कई विचारोत्तेजक बातें आपकी कलम से निकलकर सुन्न होते दिमाग की घ्राण शक्ति को उरजानवित करती है। मैं हमेशा संपादकीय पढ़ता हूं। आपके सारगर्भित लेख कुंद पड़ते सोच को फ्लैश कर देता है। आपके लेखों में शाश्वत सच्चाई है जो हर किसी प्रबुद्ध पाठक को पढ़ना चाहिए।
अरुण यादव : वैसे तो ‘श्री प्रकाश शुक्ल सर’ की कविताएं सब अति महत्वपूर्ण होती हैं ,चाहे वह रचना कौशल के हिसाब से देखें या फिर भाव या उसमें छूपे दारूण्य के हिसाब से देखा जाए,सर की कविताओं में मौलिकता फेंटेसी से परे , उच्च तार्किक होती हैं। बीएचयू में होते थे तो सर को सुनते रहते थे,अब तो बस पढ़ पाते हैं,,,,
प्रमोद कुमार : ‘संपादकीय अगस्त अंक’ हरबार की तरह गंभीर है । सच कहें तो प्रेमचंद को हम भूल ही गये हैं, वैसे ही जैसे गाँधी को भूल चुके हैं। उन्हें याद करने के नये संदर्भों की जरूरत है जिन्हें आपने चिह्नित भी किया है।
विजय मोहन शर्मा जी का आलेख रामविलास शर्मा को और पढ़ने की चाहत पैदा करता है । महत्वपूर्ण जानकारियां भी है इसमें। लेखक ने दृष्टि और मेहनत से इसे तैयार किया है।
डॉ विश्वनाथ किशन भालेराव, महाराष्ट्र: आजादी के 75 साल बाद के संदर्भ में संपादकीय पढ़ना शुरू किया और लगभग हर क्षण विचारों से प्रभावित होता रहा। बहुत ही विस्तृत वैचारिक लेख पढ़कर प्रभावित होता रहा। पिछले 75 सालों से हम सभी भारतीय जन्म से लेकर आज तक यह कह रहे हैं कि भारत मेरा देश है सभी भारतीय मेरे भाई बहन है , यह प्रतिज्ञा मुझे आज ढोंग, झूठ एवं असत्य लगने लगी है। क्योंकि हम सभी भारतीय इसका तिलभर भी अपने जीवन में प्रयोग नहीं करते।यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य ही है। यह संपादकीय पढ़कर बहुत अच्छा लगा। बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।
कपिल देव शास्त्री : मनीष वैद्य की कहानी ‘हांका’ बहुत बढ़िया लगी। सांड को प्रतीक बनाकर विकसित देशों द्वारा तीसरी दुनिया के देशों को मजबूर करके अपना व्यापारिक अधिपत्य जमा लेना व आर्थिक शोषण करना जैसी नीतियों पर बेहद समसामयिक कटाक्ष करती बेहतरीन कहानी।अंत मे स्थानीय लोगों का विदेशों से मोहभंग और एक क्रांतिकारी कदम उठाना कहानी का अच्छा समापन बिंदु है।
चित्रा पँवार : ‘समीक्षा संवाद’ के अंतर्गत बाकि बचे कुछ लोग पर अनिल करमेले जी से बातचीत पढ़ना सुखद रहा साथ ही कुमार अंबुज जी से हुई बातचीत भी रोचक लगी। दोनों प्रिय लेखकों को बधाई