मत-मतांतर

 

देवसबोध भदंत :

‘वागर्थ’ के ऑनलाइन दिसंबर 2020 के अंक में बालकृष्ण काबरा ऐतेश द्वारा अनूदित लैंग्स्टन ह्यूज की कविता ‘फ्रीडम ट्रेन’ में अनोखा काव्य तत्व मौजूद है। नस्लवाद पर इतनी शालीनता से प्रत्यालोचना पहले दिखाई नहीं दी।

बिर्ख खडका डुवर्सेली :

कोरोना काल में बाध्यतावश निकले ‘वागर्थ’ के डिजिटल अंकों का स्वागत करना उनके लिए कष्टकर ही होगा, जो आंख की बीमारी भोग रहे हैं। बाध्यता गले आ पड़ी है तो पढ़ना ही होगा, पर यहाँ ज्यादा समय टिक पाना मेरे लिए संभव नहीं हो रहा है। तकनीकी और प्राविधिक विकास की राह पर चलना होगा, सिर्फ इसलिए यह बाध्यता स्वीकार करनी पड़ रही है।

रमेश अनुपम :

दिसंबर 2020 का अंक विज्ञान विषय पर एक महत्वपूर्ण अंक है। सभ्यता के निर्माण में अकेले विज्ञान की भूमिका सर्वोपरि नहीं है, अपितु धर्म-कला-साहित्य सब की भूमिका  है। यह आकलन भी गौरतलब है कि विज्ञान कई बार विनाश का कारण बना है। ‘वागर्थ’ के हर अंक में जिस तरह  सवाल उठते हैं, वे आज के संदर्भ में बेहद जरूरी सवाल हैं। सुंदर अंक के लिए बहुत-बहुत बधाई।

विनय कुमार मिश्र :

वर्तमान समय में विज्ञान और जीवन के जटिल और बहुआयामी समीकरण को सहजता से प्रस्तुत करता है ‘वागर्थ’ का दिसंबर अंक। कॉमन सेंस (आवश्यक स्वाभाविक ज्ञान)से ही विज्ञान का सदुपयोग किया जा सकता है। इस क्रम में परसाई जी की टिप्पणी रोचक है और मारक भी।

संजीव बख्शी :

‘वागर्थ’ के दिसंबर 2020 के ऑनलाइन अंक में समीक्षा-संवाद के अंतर्गत ‘बिसात पर जुगनू’ की लेखिका वंदना राग पर अच्छी चर्चा है। इसका अपना अलग ढंग और शिल्प है। रमेश अनुपम को बहुत बधाई।

रागिनी प्रसाद :

‘वागर्थ’ नवंबर अंक। कोरोना बीमारी ने अर्थव्यवस्था को झकझोर कर रख दिया है। साथ ही हृदय की स्थिति को भी डावांडोल कर दिया है। दैनिक व्यवहार में अनचाहे परिवर्तन हो रहे हैं और कई नए बदलाव हो रहे हैं। वर्तमान युग की शिक्षा पर बहस महत्वपूर्ण है।

नरेन्द्र झा, रांची :

‘वागर्थ’ दिसंबर 2020। यह एक जरूरी पत्रिका के रूप में पाठकों, लेखकों एवं अनुसंधाताओं के बीच प्रतिष्ठित हो चुकी है। इस बार भी आपने आज के समय में विज्ञान के जो दुरुपयोग हो रहे हैं, उसके प्रति अपनी चिंता जाहिर की है। इस दुरुपयोग ने समाज में एक अलग तरह की मन:स्थति पैदा की है। इसकी वजह से आदमी अपने आत्मविश्वास की जगह अलग-अलग प्रकार के रूढ़ियों एवं अंधविश्वासों का शिकार होता चला जा रहा है! पाठकों के लिए साहित्य की अनेक विधाओं से जुड़ी हुई सामग्री का चयन गंभीरतापूर्वक किया गया है। कोरोना से त्रस्त व्यक्ति की मन:स्थिति को ध्यान में रखते हुए पत्रिका के ऑनलाइन प्रकाशन की निरंतरता ने पाठकों में आत्मविश्वास को बल प्रदान किया है। इसके लिए पत्रिका के प्रकाशन से संबंध रखनेवाले एक-एक व्यक्ति बधाई का पात्र है।

कैलाश बनवासी :

‘वागर्थ’ दिसंबर अंक। हर बार की तरह इस बार भी आपने जिस नब्ज़ को छुआ है, उसके प्रति हमारे बर्ताव  से ही भविष्य तय होनेवाला है। वैज्ञानिक तरीके से ज्ञान-विज्ञान के अवरोध के लिए जो उद्योग राजनीति, धर्म और बाजार द्वारा हो रहा है, उसी के चलते जनमानस वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दिनों दिन और मरहूम होता जा रहा है। ऐसे में बरबस नेहरू के सिवा और कोई व्यक्ति याद नहीं आता। बहुत बार लगता है, हम भाग्यशाली रहे जो सरकारी स्कूलों में भी विज्ञान का ऐसा पाठ पढ़ सके जो बृहत्तर मानवता के लिए है। आज इस दृष्टिकोण को भी विकलांग कर दिया गया है। भविष्य की पीढ़ियों के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती होगी कि कैसे प्रायोजित विज्ञान की चालाकियों, शोषण से बचा जा सके।