योगेंद्र, रांची:‘वागर्थ’ का अगस्त, 24 अंक। मैंने पहले सुभाष चंद्र कुशवाहा की कहानी ‘रिक्तता’ पढ़ी। उनकी कहानी पढ़ते हुए उषा प्रियंवदा की कहानी ‘वापसी’ और अनुज की कहानी ‘बोर्डिंग पास’ की याद आई। जिस युग में हमलोग हैं, उसमें परिवार बिखर गया है। हम अंधे विकास की दौड़ में प्रेम, करुणा और मानवीयता खोते जा रहे हैं।
अंक की एक कहानी- रेखा राजवंशी की ‘सचाई’ के केंद्र में, ट्रांसज़ेंडर है। अच्छी तरह से बुनी हुई कहानी है। शहंशाह आलम की कहानी ‘बस्ती आने वाली है’ भी मैंने पढ़ी और युवा कहानीकार रितेश पांडेय की कहानी ‘बंद खिड़कियां’ भी। रितेश की संवेदना प्रभावित करती है।
अंक में सुबोध सरकार के वक्तव्य को हर वैसे लोगों को पढ़ना चाहिए, जो कविता से प्यार या नफरत करते हैं। कविताएं क्यों महत्वपूर्ण हैं, उनका वक्तव्य इसपर भरपूर रोशनी डालता है।
‘महानगर : ऐश्वर्य और विध्वंस’ का इबरार खान का संयोजन महत्वपूर्ण और आज के दौर में जरूरी है। बहुत दिनों के बाद जितेंद्र भाटिया को पढ़ना अच्छा लगा। इस संदर्भ में हितेंद्र पटेल और विजय कुमार के विचार भी समीचीन हैं। कुसुम खेमानी के अज्ञेय पर संस्मरण भी पढ़ा और सचमुच स्मृतियों की सुगंध से भर गया। सभी कविताएं पढ़ गया। निर्मल सैनी की कविता मां पर है जो पूरा सच नहीं है। इसी अंक में ‘रिक्तता’ कहानी की मां की कराह या गोलेंद्र पटेल की कविता ‘मेरा दुख मेरा दीपक है’ की माँ को देखिए। कुल मिलाकर अंक बहुत बढ़िया बन पड़ा है।
अमित कुमार चौबे:‘वागर्थ’ के अगस्त 2024 अंक में प्रकाशित रेखा राजवंशी की कहानी ‘सचाई’ में रमा की मानसिक स्थिति और परिवारिक संबंधों के जटिल पहलुओं को बहुत संवेदनशीलता से उकेरा गया है। कहानी भावनात्मक और मानसिक संघर्ष को अच्छी तरह से चित्रित करती है।
ज्योति खरे:‘वागर्थ’ के अगस्त अंक में शहंशाह आलम की कहानी ‘बस्ती आनेवाली है’ में यथार्थ का प्रभावी कल्पनाशील चित्रण है। कहानी में कहीं भी रिद्म नहीं टूटता।
सेराज खान बातिश, कोलकाता: अगस्त 24, का अंक बहुत मुश्किल से प्राप्त हुआ। कमला दास की कविता का हिंदी अनुवाद प्रकाशित है। यह वही कमला दास हैं, जिनकी आत्मकथा पढ़कर हमलोग वक्त से पहले जवान हुए थे। कई लोग तो उनसे मिलने के लिए बेताब भी हो हो गए थे। ‘माई स्टोरी’ का अंग्रेजी संस्करण आज भी मेरे पास है। आश्चर्य है कि अपनी रचनाओं से तूफान मचा देने वाली कमला दास अपनी मृत्यु से कुछ वर्ष पूर्व इस्लाम धर्म अपना कर अपना नाम सुरैया रख लिया था।
इस अंक की कई कहानियों, कविताओं तथा परिचर्चा में देश के चर्चित लेखकों को पढ़कर महानगरों की समस्याओं व सहूलतों की नई थीम का एहसास हुआ (तुम्हारे गांव का क्या हाल होगा/ सभी शहरों में आए जा रहे हैं) इबरार खान की भूमिका कम लाजवाब नहीं है।
इस अंक में एक गद्यकवि (शहंशाह आलम) के किस्सागो हो जाने को देख कर खुशी हुई! चौदह पृष्ठों की इस कहानी में ‘कफ़न’ जैसे बाप-बेटे के बेलिहाज संवाद खटकते हैं। लेखक ने कहानी को कहां-कहां से जोड़ा है, यह भी एक प्रयोग है।
इस अंक में संजय जायसवाल की परसाई की जीवनी पर बहुत सधी हुई पठनीय समीक्षा है। हम यह पढ़कर बहुत कुछ जानकारी हासिल कर सकते हैं।
सुधांशु कुमार मालवीय, प्रयागराज :‘वागर्थ’ मार्च अंक में ‘स्त्रीवाद और स्त्री सशक्तिकरण’। पहली बात, जो मैं गहराई से महसूस कर रहा हूँ, इसमें जितनी महत्वपूर्ण बातें कही गई हैं और जितने जरूरी बिंदुओं को रेखांकित किया गया है, उन्हें पाठकों के बीच व्यापक चर्चा का विषय बनना चाहिए था, जो देखने में नहीं आया। महत्वपूर्ण बात यह है कि आज के समय में स्त्रीवाद और स्त्री विमर्श की जो बहुत ही चिंताजनक सीमाएं हैं, उन्हें उठाया जाना चाहिए।
रवि रंजन:‘वागर्थ’ सितंबर अंक। भाषा शिक्षण वह बुनियाद है जिसके बगैर साहित्य का सार्थक पठन-पाठन असंभव है।
दुर्भाग्यवश हिंदी विभागों में अब ऐसे शिक्षक कम रह गए हैं जो हिंदी के शब्दों का सही उच्चारण कर पाते हों, हिंदी मुहावरों का सम्यक ज्ञान रखते हों और जिनके पास स्वाभाविक वाक्य विन्यास की समझ भी हो। आए दिन फेसबुकीय लेखन में हिंदी अध्यापकों एवं छात्रों की गलतियों के मद्देनज़र स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती। साहित्य के अध्ययन-अध्यापन के क्रम में रचनाओं के मूल पाठ से गुजरने की प्रवृत्ति कम होती जा रही है, यह चिंताजनक है।
अमरनाथ:‘वागर्थ’, सितंबर अंक। आनंद के कुमारस्वामी के लेख के अंग्रेजी से अनुवाद में देवराज की भाषा इतनी प्रवाहमयी है कि मूल पुस्तक पढ़ने जैसा आनंद मिल रहा है। आज जब भारत के लोग पूरी तरह पश्चिम की नकल करने में लगे हैं, यह लेख आंखें खोलने वाला है।
मंजु महिमा भटनागर:‘वागर्थ’ के सितंबर अंक में गोविंद भारद्वाज की लघुकथा ‘घोंसला’। आने वाली पीढ़ी में पशु-पक्षियों के प्रति संवेदनशीलता का होना बहुत बड़ी बात है। इस कहानी में इसी भावना को उजागर करते हुए लेखक ने बताने का प्रयास किया है कि बच्चे भी बड़ों को कुछ सिखा जाते हैं।
वीरेंद्र भारद्वाज:‘वागर्थ’ के सितंबर अंक में प्रकाशित मीरा जैन की लघुकथा ‘परवरिश’। छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देना साहित्यकारों का गुण-धर्म होना चाहिए। इस कहानी में कुछ खास कहा गया है, जिसमें एक मजबूत बचपन से लेकर, एक मजबूत वातावरण-पर्यावरण सब कुछ है। कमाल की दृष्टि है लेखिका के पास।
दिनेश परिहार: सितंबर अंक में लघुकथा ‘परिवरिश’ धन से अधिक पर्यावरणीय महत्ता को प्रतिपादित करती है। यह मालिक और कर्मचारी के आपसी सोहार्द की द्योतक है! कलम और भावनाओं का इतना सुंदर सामंजस्य विरल है।