युवा आलोचक। और साहित्यिक-सांस्कृतिक रूप से निरंतर सक्रिय।

हिंदी कविता के इतिहास में दो प्रवृत्तियां लगातार दिखाई पड़ती हैं। पहली प्रवृत्ति, कविता को कवि-कौशल से अर्जित बहुमूल्य कलात्मक वस्तु मानने की और दूसरी, कविता को जीवन का स्वाभाविक कलात्मक विकास तथा सार्वजनिक संपत्ति समझने की। पहली प्रवृत्ति के लोग इसे अभिनय और अदा मानते हैं। दूसरी प्रवृत्ति के लोग इसे अपने, अपनों और अपने-जैसों को देखने, समझने और बदलने की कोशिश मानते हैं। कबीर, नज़ीर, निराला, नागार्जुन, त्रिलोचन और रघुवीर सहाय सरीखे कवि दूसरी धारा के कवि थे। उनके लिए कविता कला की महीन कतरन न होकर जीवन का स्वाभाविक हलचल थी। पवन करण इन्हीं कवियों के वंशज कवि हैं।प्रस्तुत है एक संवाद…

पवन करण के लिए कविता जीवन-चेष्टा होकर ही कला-चेष्टा है। वे अपनी क्षमता भर युगबोध की जांच-परख, उसका उद्घाटन एवं उसकी अभिव्यक्ति को कविता का दायित्व मानते हैं। इसलिए उनकी कविताओं का आस्वादन आंख मूंदकर लोकोत्तर आनंद की तैयारी नहीं है। बल्कि सुबह-सुबह दाढ़ी माजकर, मोटा-झोटा लंच लेकर, खचाखच बस में सीट जुगाड़ते, जीवन में चपे हुए उस व्यक्ति का आस्वाद है, जो कविता में नितांत सांसारिक किस्म की छोटी-मोटी स्मृतियों, दुख, प्रेम, देह कामना और अपनी कशमकश को पाना चाहता है।

पहली बार पवन करण की कविताएं ‘वर्तमान साहित्य’ के कविता विशेषांक में छपीं। यह विशेषांक बीसवीं और इक्कीसवीं सदी की युगसंधि पर, 1992 में राजेश जोशी के संपादन में प्रकाशित हुआ था। इसमें छपी दो कविताओं ने साहित्यिक समाज को एक महत्वपूर्ण कवि से परिचित करवाया। और सुखदेव सिंह जैसे ख्यात विद्वान ने इन कविताओं पर टिप्पणी की। कविताओं के पहले प्रकाशन से आठ वर्ष बाद 2000 में पवन करण का पहला कविता संग्रह ‘इस तरह मैं’ छपा। यह संग्रह भी साहित्यिक समाज में समादृत और पुरस्कृत हुआ।

पहले संग्रह की कविताओं का रंग, प्रसंग, दृश्य, सब कुछ नई सदी के दहलीज पर खड़े उत्तर भारतीय कस्बों और छोटे शहरों के निम्न मध्यवर्गी जीवन के प्रवाह, सौंदर्य, दुविधाओं, नैतिक संघर्षों, खुशियों और दुखों का भाव संसार रचता है। इस संग्रह के कविता शीर्षकों- चूल्हा, देहरी, पिता, नीम, कैंची, ताला, चिट्ठी, नाई, गेहूं, चाकू, बैलगाड़ी, बिजली के खंभे, चौकीदार, चना, पर्दे, अमरूद, चौराहा, संग्रहालय, खत, घूस, नजरबट्टू, डॉलर को एक जगह रख देने भर से पिछली सदी के अंतिम दशक के छोटे शहरों या बड़े कस्बों का एक पूरा कोलाज बन जाता है। उनके मनोजगत का भूगोल कस्बों से शहर तक की स्मृतियों, सपनों और संघर्षों में फैला है। उनके काव्य का भाव जगत इसी भूगोल का सूक्ष्म विस्तार है।

कवियों के अनुभव संसार के स्वरूप तथा भंगिमाओं को शैली के माध्यम से समझना वस्तुनिष्ठ एवं आसान होता है। हम शैलियों की तुलना करने पर कवि के काव्य-विकास और प्रस्थानों को समझ सकते हैं। पहले संग्रह की कविताओं में पवन करण दो प्रकार का तार्किक विन्यास अपनाते हैं। पहले में किसी कथन की पुष्टि के लिए तथ्यों और उदाहरणों तक जाते हैं। तथा दूसरे में तथ्यों से निष्कर्ष तक जानेवाला तार्किक विन्यास अपनाते हैं। यह शैली तार्किक और अन्वितिपूर्ण होने से सहज एवं संप्रेषणीय तो है, परंतु युगसंधि पर खड़े कवि के बहुवर्णी और अंतर्विरोधी अनुभूतियों को काव्यवस्तु में ढालने के बजाय यह उसका संपादन करने लगती है।

इसके लिए ‘संदेश’ शीर्षक कविता की क्षमता और सीमा देखिए- ‘धरती के कानों में/बीज फुसफुसाए/पानी/पेड़ों के कान में/धरती बोली/पानी/पक्षियों के कान में/पेड़ों ने कहा/ पानी/आसमान के कानों में/पक्षी चिल्लाए/पानी/ संदेश कानोंकान पहुंचा/पानी दौड़ा-दौड़ा आया।’

यह कविता अपनी संसक्ति, अन्विति और संयम से प्रभावित करती है। पृथ्वी के नीचे दबे पर्युत्सुक बीजों का संदेश धरती-वृक्ष-पक्षी-आसमान के कानों में गूंजता है-पानी! पानी! पानी! पाठक के चित्त पर एक सुस्पष्ट और विराट चित्र बनता है। कविता की एक-एक कड़ी तार्किक विन्यास का अनिवार्य हिस्सा है। यह एक स्मरणीय और उद्धरणीय कविता है। लेकिन ये उपलब्धियां संवाद की उलझी हुई प्रक्रिया के सरलीकरण से ही मिल सकती थीं। अर्थात इस शैली का संकट यह है कि अनुभूतिगत अस्पष्टता, द्वंद्व और अंतर्विरोध काव्यवस्तु में बदलने की प्रक्रिया में इकहरा और द्वंद्वहीन हो जाता है। इसका जोर अनुभूतियों को उसकी मौलिकता में पकड़ने के बजाय सफाई और उनकी अदायगी पर होता है। जैसे एक जाति के छंद के कई प्रकार होते हैं उसी तरह इस शैली के भी अनेक प्रकार हैं। यह हिंदी कविता की लोकप्रिय शैलियों में से एक है।

‘इस तरह मैं’ की अधिकांश कविताएं इसी शैली की हैं। समीक्षक इन्हीं कविताओं का उल्लेख करते हैं। परंतु पवन करण इसे तोड़कर ही पवन करण हैं। हिंदी के कुछ वरिष्ठ कवि ताजिंदगी इसी शैली की कविताएं लिखते रहे हैं। जबकि पवन करण पहले ही संग्रह में साधकर और फिर तोड़कर आगे बढ़ गए।

आगे की काव्यायात्रा में पवन करण जीवन को किसी पूर्वनिर्धारित आदर्श और प्रारूप में देखने के बजाय प्रवाह, प्रक्रिया और द्वंद्व में देखते हैं। इसके चलते तार्किक अन्विति की शैली टूट गई और संवेदनात्मक अन्विति की गतिशील और संवाद-मुखर शैली ने आकार लिया। इस शैली ने अपना श्रेष्ठ रूप ‘स्त्री मेरे भीतर’ और ‘अस्पताल के बाहर टेलीफोन’ संग्रह की कविताओं में ग्रहण किया। परंतु इसका सूत्र प्रथम संग्रह की कुछ अच्छी कविताओं में भी देखा जा सकता है। कलारी, त्योहार मनाने घर जाता आदमी, दो दिन, टेम्पो आदि इस तरह की कविताएं हैं।

पवन करण इन्हीं दूसरी तरह की कविताओं से पहचाने जाते हैं। खासकर ‘स्त्री मेरे भीतर’ की कविताओं से। हिंदी समाज में उनके कवि-व्यक्तित्व का कैरीकेचर इसी संग्रह से बना। ‘स्त्री मेरे भीतर’ संग्रह में पवन करण ने पुरुष मन की उस जमीन को कविता में जोड़ा, जिसे आजादी के बाद स्त्री-सशक्तिकरण के प्रयासों और विमर्शों ने बनाया था। यह स्त्री-विषयक नई युग-संवेदना, नए प्रश्न, नई नैतिकता, मूल्यबोध और सौंदर्यचेतना की जमीन है। यह इतिहास प्रवाह में निक्षेपित अदृश्य संसार है, जिसे कविता में खोलने का श्रेय पवन करण को जाता है। न सिर्फ हिंदी समाज ने इसकी महत्ता को समझा और स्वागत किया, बल्कि मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, बांग्ला, उर्दू सहित कितनी ही भारतीय भाषाओं के पाठकों ने इसे अपनी युगसंवेदना के करीब पाया। यह संग्रह कवि-प्रतिक्रिया भर न होकर एक ऐतिहासिक अनिवार्यता का परिणाम था। जब कभी कवियों की स्त्री-विषयक दृष्टि पर बात होगी तो इस संकलन को नए प्रस्थान की तरह देखा जाएगा।

वर्गांतरण की जो बेचैनी मुक्तिबोध के यहां दिखाई पड़ती है, पुरुष के आत्मसंघर्ष और बदलाव की कुछ वैसी ही प्रक्रिया पवन करण की कविताओं में है। बेटियों को लेकर संरक्षणवादी नजरिएवाला ‘एक खूबसूरत बेटी का पिता’ बेटी की उनमुक्तता, न्याय-कामना और उसके चुनाव-विवेक से टकराता है। पिता आत्म-जिरह में जाता है। खुद से प्रश्न करता है। आत्मसंशय से जूझता है। और धीरे-धीरे बदलता हुआ दिखाई पड़ता है। अंतिम पंक्तियों में कहता है- ‘यदि इस सबके बावजूद कोई गलती होती है तो हो जाए/उसके पीछे उसे उबारने के लिए मैं खड़ा हूँ तत्पर।’ पूरी कविता नई सदी के पिताओं की शुभेच्छा, नैतिक संशय, संघर्ष और बदलाव की प्रक्रिया की विश्वसनीय बानगी बन जाती है। ‘बहन का प्रेमी’ कविता की प्रेम करती बहन का भाई उसे काबू करने की अपनी मर्द आकांक्षा से संघर्ष करता, कभी अपने को डिफेंड करता कभी अपने ही खिलाफ दलील देता, सामान्य भाई का रूपक बन जाता है। और धीरे-धीरे हारकर मुक्त होता है-

धीरे-धीरे प्रेम करती बहन
और उसका प्रेमी
घर और दिनचर्या में
होता गया शामिल
और मेरे भीतर का भाई गलकर
घर के फर्श पर टपकता रहा।

बदलाव की यह प्रक्रिया सामाजिक है, जो व्यक्ति के मन में झलकती है। ‘पुरुष के बिना रह भी सकती हो तुम’ शीर्षक कविता प्रेम और कामुकता की राजनीति को बिना किसी घोषणा के खोलती चलती है। विवाहित पुरुष अपने पक्ष में सारे तर्क देता हुआ बेपर्दा होता जाता है। ‘प्यार में डूबी हुई मां’ हिंदी कविता की नैतिकता में अट नहीं सकती थी। इसके लिए पवन करण ने जगह बनाया। ‘स्त्री मेरे भीतर’ शीर्षक कविता की स्त्री लंबे विमर्श के बाद पुरुष मन में पैदा न्याय, मनुष्यता, समानता और मुक्ति की चेतना का पर्याय है। यही चेतना पवन करण के दो खंडों में प्रकाशित ‘स्त्री शतक’ की कविताओं तक जाती है। स्त्री शतक में वे मिथक और इतिहास के भीतर के स्त्री चरित्रों की स्त्रीवादी चेतना का पल्लवन करने की एक बड़ी जिम्मेदारी लेते हैं। यह अलग बात है कि ये कविताएं कथा का पल्लवन बनकर रह जाती हैं, कथा संवेदना का उद्भास नहीं करा पातीं।

पिछली सदी में आजादी के ठीक बाद स्त्री की जीवन-दशाओं को रचने का श्रेय रघुवीर सहाय को है। तो नई सदी में उसकी स्थितियों को रचने में वही भूमिका पवन करण की है। परंतु दोनों का ऐतिहासिक संदर्भ एक-सा नहीं है, इसलिए मनोरचना और काव्य निष्पत्ति भी एक-सी नहीं है।

रघुवीर सहाय ने उन स्त्रियों को विषय बनाया जो उन्हें सड़क पर, ट्रेन में, बस में, रात में ग्राहक खोजती हुई मिलती थीं। उन्हें सती सावित्री बनने का पाठ पढ़ाया जाता था और ज़ाहिल से ब्याह दिया जाता था। वेे देह-जर्जर, सुलगती हुई, भात पसाते हुए जिंदगी काटती थीं। वे अपने बेटे को कमर पर चिपकाए हक मांगती ख़ब्ती औरतें थीं। वे तेज रफ्तार गाड़ियों के बीच जुल्म की शक्ल बतातीं पागल नंगी स्त्रियां थीं। रघुवीर सहाय की ये कटी, पिटी, जर्जर, सुलगती, घुटती हुई औरतें थोड़ी दूरी से मानवीय दृष्टि से देखी गई औरतें हैं। अपनी कविताओं में स्त्रियों के पक्ष से सिर्फ रघुवीर सहाय ही बोलते हैं। उनकी कविताओं में उन्हीं की दृष्टि और उन्हीं की अनुभूतियाँ हैं। कविताओं में बेचैनी, करुणा व आकुलता के बावजूद यह कवि का ही भाव संसार है, स्त्री का नहीं।

पवन करण के कविता की स्त्री उनके अगल-बगल और संबंधों के दायरे की स्त्री है; सहकर्मी है, बेटी है, पत्नी है, प्रेमिका है, मां है, दोस्त है। ये सभी स्त्रियां निम्न मध्यवर्गीय और सहगामी स्त्रियां हैं। कवि उनसे लगातार संवादरत है और संवाद की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया में स्वयं भी बदल रहा है। ऐसी सभी कविताएं एक गति, प्रवाह और प्रक्रिया में हैं। इनमें बहस है, तर्क-प्रतितर्क है, प्रेम है, दैहिक कामनाएं हैं, दुख है, पीड़ा, नाराजगी और उपालंभ हैं, लेकिन करुणा नहीं है। करुणा के लिए उस स्त्री और पुरुष के बीच जो दूरी चाहिए थी वह कविता में नहीं है।

इसलिए पवन करण जहाँ भी स्त्री को अपने से दूर रखकर, ‘ऑब्जेक्टिफाई’ करके, उसे करुणा तक ले जाने की कोशिश करते हैं, वहां असफल होते हैं। शालिनी माथुर ने उनकी ‘स्तन’ शीर्षक जिस कविता को चर्चा के लिए ‘कथादेश’ में हिंदी समाज के सम्मुख रखा था, वह ऐसी ही कविता है।

आज यह दुहराने की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए कि वैश्वीकरण, उदारीकरण और बाजारवाद ने छोटे-छोटे शहरों और कस्बों तक के जीवन को बेतरतीब ढंग से बदल दिया है। चीजों में कोई सुसंगति और सूत्र खोजना दुर्लभ है। लेकिन कवि की एक जिम्मेदारी सुसंगति और सूत्र खोजना भी है। इसके लिए पवन करण ने बहुत खुली हुई नाटकीय शैली का पुनराविष्कार किया। इसके पहले भी कविता में संवाद, आत्मालाप, मुद्राओं, वचन भंगिमाओं का उपयोग होता रहा है, लेकिन इतना खुला हुआ और अनौपचारिक इस्तेमाल पहली बार पवन करण ने ही किया। जो भाषिक कसाव और संसक्ति पवन करण ने अपने पहले संग्रह में हासिल किया था, उसे तोड़कर उन्होंने बेहद अनौपचारिक और अतिभाषी बना दिया।

‘कोट के बाजू पर बटन’ संग्रह की ‘चम्मच’ शीर्षक कविता ऐसे शुरू होती है- ‘चम्मच से मेरे संबंध शुरू से ही अच्छे नहीं रहे/शुरू से मेरा आशय अपने होश संभालने से है/इस संबंध में अपने से होने वाली एक चूक/जो मुझसे हर बार होती है आपको बताता हूँ।’ हिंदी कविता के अभ्यासी को यह विश्वास ही नहीं होगा कि कोई कविता इस तरह भी शुरू हो सकती है। इस अनौपचारिकता से विश्वसनीयता आती है। पाठक को किसी काव्यात्मक मूड में छलांग लगाने की जरूरत नहीं पड़ती। वह अपनी भाषा में अपने जीवन-संबंधों को देखता और महसूस करता है। पवन करण की कविताएं अपनी अनौपचारिकता और विश्वसनीयता के दम पर ही मार्मिक प्रभाव पैदा करती हैं। इसके बल पर ही वे अपने आसपास के जीवन को इतने निर्भार ढंग से देख और अभिव्यक्त कर पाते हैं।

पिछले दशकों में इस देश ने लोकतांत्रिक-सेक्युलर चेतना के दमन और मीडिया द्वारा जन-आकांक्षाओं को भटकाने का जो सत्ता-चालित  भयानक खेल देखा है, वह इस सदी की नई वास्तविकता है। इसकी कल्पना डिजिटल माध्यम के विस्तार से पूर्व नहीं की जा सकती थी। इस परिघटना ने पवन करण सरीखे कवियों के सामने जनचेतना को संस्कारित करने और अभिव्यक्ति के प्रभावी तरीकों की खोज की दोहरी अनिवार्यता पैदा की। सभी जनपक्षधर कवियों ने इस सभ्यता को अपनी तरह से देखा। इन स्थितियों ने पवन करण में भी नई दिशाओं में प्रस्थान करने की विकलता पैदा की। पवन करण कविता का संसार बहुत जनतांत्रिक रहा है। वे ‘मैं-तुम’ या ‘हम-वे’ की बाइनरी नहीं बनाते। और अगर बनाते भी हैं, तो लगातार संवाद की प्रक्रिया से उसे भरते रहते हैं। इससे उनके बीच कोई अगम्य विरोध बचता ही नहीं। परंतु 21वीं सदी के दूसरे दशक में पवन करण के जो संग्रह प्रकाशित हुए हैं, उनमें चीजें बदलती हुई दिखाई पड़ती हैं।

इनमें शुरुआती संग्रहों का ‘मैं-तुम’ वाला द्वित्व विरल है। यहाँ ‘हम-वे’ की बाइनरी मजबूत होती दिखाई पड़ती है और संवाद के बजाय विवादी तल्खी उभरने लगती है। इनका ‘कहना नहीं आता’ नामक संग्रह  2012 में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की  कविताएं एक बार पुन : आसन्न संकट के क्षणों में शिकारी जानवरों की तरह अपने भाषिक विस्फार को समेटकर उसे नोक देने की कोशिश करती हुई देखी जा सकती हैं।

इस परिवर्तन की ऐतिहासिक जरूरत समझना कठिन नहीं है, क्योंकि यही जरूरत उन्हें और आगे ले जाती है। वे बुंदेली में जनगीत लिखते हैं। ‘उद्भावना’ में छपे अपने जनगीतों में पवन करण हिंदी कविता की चेतना को बोलियों तक और बोलियों की ताकत को कविता के व्यंग्यात्मक शिल्प में साधने का प्रयास करते हैं। इस तरह आप देखें तो पवन करण गोल चक्कर के कवि नहीं हैं; वे राही हैं, मंजिलों पर पहुंचते और छोड़कर आगे बढ़ते हुए।

पवन करण उन कवियों में हैं जो मानवीय अस्तित्व की इतिहास-निरपेक्ष दार्शनिक उद्भावना में नहीं जाते। वे मनुष्य के अस्तित्व को ऐतिहासिक गतियों के भीतर देखते हैं। इसलिए समय के साथ उनकी दृष्टि, प्राथमिकताएं और अभिव्यक्ति का स्वरूप बदलता जाता है। उनके भावबोध और रूपविधियों में बदलाव होता रहा है, लेकिन हर चरण में उनकी कविताओं का इतिहास-भूगोल एकदम स्पष्ट समझ में आता है। उनमें न कोई अतीत मोह है, न यूटोपिया। वे घटमान समय की गतियों को पकड़ने की कोशिश करते हैं। वे न ग्रामीण समाज की चटक उत्फुल्लता से कविता को सजाना चाहते हैं, न महानगरी यथार्थबोध के नाम पर कविता को तनाव, उदासी, अकेलापन, मॉर्बिडिटी से भरते हैं। वे कस्बों से लेकर छोटे शहरों तक के उस भूगोल के जीवन को पकड़ते हैं, जो उनका वास्तविक अनुभव-संसार है। इसलिए उनका यह काव्य संसार विश्वसनीय, मार्मिक और प्रभावक्षम लगता है।

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