अद्यतन कविता संग्रह,‘स्त्रीशतक खंड-एक’ और ‘स्त्रीशतक खंड-दो’। ‘नई दुनिया’, ग्वालियर के साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ का संपादन।

1-आपदा

अकाल में अन्न के अभाव में
हम बहुत सारे मारे गए
बीमारी में दवाइयों के बिना
हम खूब सारे जिंदा नहीं बचे
बाढ़ में, तूफान में, भूकंप में
हम ढेर सारे दुनिया में नहीं रहे
हमारे बड़ी संख्या में मरने से
आपदाएँ कहलाईं बड़ी
इस आपदा का बड़ा कहलाना भी
हमारे बड़ी संख्या में मरने पर टिका है
छोटे-छोटे घरों में अपने बड़े-बड़े
परिवारों के साथ बुरी तरह ठुसे हम
खाने के लिए सबके आगे अपने पेट
और अस्पतालों के सामने
दवाइयों के लिए अपने हाथ पसारे हम
हम.. हम.. हम.. हम.. हम

2 मैं उनके साथ हो लिया हूं

मैंने अपने किसान पुरखों को नहीं देखा
मगर जिन्होंने उन्हें देखा वे बतलाते हैं
मेरा चेहरा उनसे मिलता है
मुझे वे खेत भी देखने को नहीं मिले
जिनमें मेरे पुरखे खेती करते थे
जो आज होते तो मेरे कहलाते
मेरे अंदर गांव, खेत और अपने
किसान पुरखों को लेकर
हमेशा हूक उठती रही
मगर मुझे आज अचानक अपने
खेतों को बचाने के लिए लड़ते
सभी पुरखे मिल गए एक-एक कर
मैंने उन्हें पहचान लिया
मैं उनके साथ हो लिया हूं
मैं उनके जैसा दिख रहा हूं
मुझे अपने खेत और उनमें
खड़ी फसलें दिखाई दे रही हैं
अपने पुरखों के साथ धरने पर बैठे
और नारे लगाते हुए
आप भी मुझे पहचान सकते हैं।

3 रक्षाबंधन

लोहे के पुराने बक्से के भीतर
कागज के एक लिफाफे में रखे
उस रंगीन धागे को
मैं हर बरस बाहर निकालता हूं
छोटी बहनों से
उसे हाथ पर बंधवाता हूं अपने
कलाई पर बांधते हुए उसे मेरी
वे भी रोती हैं, और मैं भी
वह जीवित होती तो वे चार होतीं
जो अब तीन हैं, मुझ अकेले
भाई के साथ, याद करती हुईं उसे
हम सब चाहते थे कि उसे
नहीं जाना पड़े हमें छोड़कर
मगर उसकी छाती में
फैल चुके तपेदिक से
उसकी जिंदगी बनकर
नहीं लड़ सके हम
बिस्तर पर पड़े-पड़े
मेरे हाथ पर बांधते हुए जिसे
कहा था उसने
मुझे याद करते हुए हर बरस
इसे बंधवा लिया करना
कलाई पर अपनी
हो सकता है यह मेरी जिंदगी का
आखिरी साल हो।

4 जहांअफ़रोज ख़ानम

सुल्तान की बेटी होने का
ये मतलब नहीं
कि मुझे सब हासिल है,
मुहब्बत भी,
मुहब्बत शहज़ादियों के
जितने करीब दिखाई देती है,
उतनी होती नहीं
मर्द औरत को ही नहीं
उसकी मुहब्बत को भी
अपने कदमों में पड़ा देखना चाहता है
मुहब्बत करने के लिए बराबर से खड़ी औरत
मर्द को पसंद नहीं आती
फिर चाहे वह
मुझ सरीखी शहज़ादी ही क्यों न हो
मुहब्बत पाने के लिए मर्द की गिड़गिड़ाहट
औरत का जिस्म पाते ही
गुर्राहट में बदल जाती है
मैं एक जिंदा शहज़ादी हूं,
मैंने इस अहसास को
अपने भीतर हमेशा बनाए रखा
जिसके चलते मुझे अपने शौहर की आंखों में
मुहब्बत की जगह तख़्त पाने की चाहत
साफ-साफ दिखाई देने लगी
मेरे पास इसके अलावा कोई रास्ता न था
कि मैं इंतजार में मरती बेग़म की जगह
ठसक से जीती औरत की तरह रहूं
सल्तनत की निगाह मुझे,
जैसा मेरे बारे में जता दिया गया,
वह वैसा ही देखती
मर्द को बर्दाश्त नहीं होता
कि औरत की सोच
हाथ में थमी उसकी तलवार से
ज्यादा पैनी हो जाए
ये बात मुझ तक भी पहुंची कि गुमान
मैंने अपनी चोटी में बांध रखा है
और बेग़म हो जाने के बाद भी
शहज़ादी होने के गुरूर में खोई रहती हूं
मगर मैंने ख़ुद पर यकीन किया
औरत का ख़ुद पर यकीन
उसे औरत ही नहीं रहने देता
वह उसे वहां पहुंचा देता है
जहां से उसे ये जहां साफ-साफ
दिखाई देने लगता है,
उसे वह वहां से
ख़ुद को धुंधली नजर नहीं आती
जैसे वहां पहुंचकर
मैं खुद को दिखाई दे रही थी
मुझसे दूर होता जाता
मेरा सुल्तान शौहर
बौना होता जाता था,
मुझ पर यह आरोप भी बौना रहा
कि मैं कभी शहज़ादी होने से
अपना पीछा नहीं छुड़ा सकी
कि बेग़म होकर भी
बेग़म बनकर रहने में
कोई दिलचस्पी नहीं रही मेरी।

 

जहांअफ़रोज खानम : अलाउद्दीन ख़लजी की बेग़म। जलाउद्दीन ख़लजी की शहज़ादी बेटी। जिससे अलाउद्दीन के संबंध ठीक नहीं थे। सुल्तान की बेटी होने के नाते वह अपने शौहर अलाउद्दीन को दबाने की चेष्टा करती थी।

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