ख़ास चिट्ठी : अनुपमा ऋतु, युवा लेखिका एवं अनुवादक

स्त्री के सवालों से संवाद करता सितंबर अंक विचार के लिए कई सशक्त बिन्दु थमाता है। कई सवाल पैदा करता है। कई जवाब सौंपता है। शक्ति, शोक और सशक्तिकरण की त्रयी को तमाम पहलुओं पर जाँचे जाने की ज़रूरत है। उदविकास की यात्रा स्त्री को सामाजिक माँ का दर्ज़ा देती है जो किसी दूसरे मादा जीव की तरह ही अपने समूह की रक्षक थी। लेकिन पूरे समूह की रक्षा कर सकने वाली वही स्त्री आज अपने संरक्षण और सुरक्षा के लिए भयभीत और दुखी क्यों है? जो कल तक शक्ति थी, शक्तिरुपा थी अचानक अबला और अशक्त कैसे हो गयी? बन गयी या बना दी गयी? कहीं यह स्थिति देवी, पूज्या और आदरणीया होने की कीमत में ख़ुद ही स्वीकार ली गयी तो नहीं थी?

संघर्ष और पीड़ा भी मनोवैज्ञानिक रूप से हमें मजबूत बनाती है। भारतीय स्त्री के संदर्भ में यह बात ख़ासतौर से कही जा सकती है। यहाँ स्त्री दमन का प्रश्न पाश्चात्य समाज की तुलना में ज्यादा उलझा हुआ है। देवी दुर्गा वहाँ स्त्री शक्ति का सशक्त प्रतीक हैं। हमारे समाज में जहाँ ‘शक्ति’ का मतलब ‘कार्य करने की क्षमता’ से लिया जाता है। वहीं भारत में ‘शक्ति’ का मतलब हो जाता है, ‘संघर्षों और मुसीबतों के बाद पायी गयी ऊर्जा।’ जब भारतीय पुरुष स्त्री को शक्ति कहता है तब उसका मतलब उस व्यक्ति से होता है जो तमाम दमन और शोषण को सहने के बाद भी उसकी सेवा को तत्पर है।’ भारत में सीता और सावित्री हैं। पत्थर बनी अहिल्या है। जौहर करने वाली पद्मिनी है। ये सब शक्ति की प्रतीक हैं। उनका जीवन पराकाष्ठा है पीड़ित कहलाए बगैर पीड़ा को सहते जाने की।

उसकी पीड़ा के पीछे आज कौन सा मनोविज्ञान है? क्या दमन की गाथाएँ उसे पीड़िता के रूप में प्रतिष्ठित कर रहीं है? या भ्रमित नारीवाद ने उकसाया है? या फिर बाजार दोषी है जो उसे सुंदरता और कुरूपता के द्वंद्व में उलझा रहा है? एक ओर चमकीले कवर वाली महिला पत्रिकाएँ हैं और दूसरी ओर दिन-रात रेल के डिब्बों की तरह धड़धड़ाते स्कीन पर दौड़ते सास-बहू टाइप सीरियल, जो गुपचुप दुखी स्त्री का सामूहिक मन तैयार कर रहे हैं। सिनेमा, फिल्म, मीडिया, शिक्षा और सूचना क्रांति के बाद आए परिवर्तनों ने कुछ चीज़ों को बहुत हद तक सकारात्मक बनाया है तो बहुत कुछ नकारात्मक भी परोसा है।

इसका सारा दोष बाहर नहीं खोजा जा सकता, न खोजा जाना चाहिए। अब समय है कि स्त्री कोरे ब्लेम गेम में उलझे रहने के बजाय, अपने दुख की जड़ें बाहर से लेकर अपने भीतर तक तलाशे, और उखाड़ फेंके… यह सशक्तिकरण की कहीं ज़्यादा उचित राह होगी। स्त्री के सवाल उठाने के लिए वागर्थ परिवार का आभार…

 

 

 

 

1- वागर्थ के नए अंक में मीरा विषयक आलेख चौंकाता है, हाथ पकड़कर एक-एक वाक्य और उसके अर्थ के बीच देर तक ठहरे रहने के लिए विवश करता है। हालांकि मीरा को नारीवाद के लेंस से देखने की परंपरा रही है, लेकिन यह आलेख उस लेंस का सिरा जिस एंगिल से पकड़ता है, वह मीरा के मनोविज्ञान को, उसके चरित्र को, उसके सृजन को, पुरानी व्याख्याओं से कई क़दम आगे ले जाकर रख देता है। फ़ेमिनिटी, फ़िज़ीकलिटी और फ़र्टिलिटी… तीन ‘एफ़’ के साथ मीरा के आँसुओं, राणा के विष और गिरिघर के रंग पर एक नई धूप पड़ी है। अच्छे लेख के लिए शुभकामनाएँ।

रागिनी ईश्वर
जयपुर

 

 

2- स्त्री के नए सवालों को आवाज़ देता वागर्थ का नया अंक पठनीय है, स्मरणीय है और विचारणीय भी… वास्तव में स्त्री के विरुद्ध किया गया कोई भी अपराध केवल एक स्त्री के को ही नहीं, एक परिवार को और पूरे समाज को प्रभावित करता है। किसी स्त्री का दैहिक शोषण समाज में समानता और स्वतंत्रता को नष्ट करने वाला एक भयावह कृत्य है। संस्कारों पर प्रश्नचिन्ह है। समाज के लिए धिक्कार है…. दुनिया भर में गूँजती पीड़िता और उसके परिवार की समवेत चीखेँ समाज और कानून से सवाल पूछतीं है, जवाब मांगतीं हैं….

आरिफ़ जमाल
गंज बसौदा