युवा कवि।असिस्टेंट प्रोफेसर,जे.एस. विश्वविद्यालय, शिकोहाबाद।

विदा होती बेटियां
डगमगा देती हैं उस धैर्य को
जिसकी उच्चता को देख
झुक जाती हैं आकाश की भी आंखें
दरका देती हैं धरती के उस अंतस्तल को
जिनको आंचल में समेट कभी
मिट जाती थी धरती के अंतर की तपन
पिघला देती हैं उन पत्थरों के भी हृदय
जिन पर नहीं पड़ता है कोई प्रभाव
बड़े से बड़े आघातों का

विदा होती बेटियां
जब देखती हैं चारों ओर
तो छूटती दिखाई देती हैं गलियां
जिनके साथ खेलते हुए गुजारे थे
जीवन के न जाने कितने बसंत

अनमना-सा दिखाई देता है
चबूतरे पर खड़ा वह नीम का पेड़
जिसकी छाया में सिमट मिट जाते थे
खेल-खेल में गलियों के साथ हुए
पुराने से पुराने गिले-शिकवे
सोचते हुए जायसी की यह पंक्ति
एहि नैहर रहना दिन चारी
उदास लुटा-पिटा सा दिखाई देता है घर
जिनकी उपस्थिति से खिलखिलाता रहता था हमेशा
उसका चेहरा

हमेशा के लिए छूटता दिखाई देता है
वह आंगन
जिसमें उठते-गिरते धीरे-धीरे बड़ी हुई थीं
जीवन की अनंत इच्छाएं
गला पकड़ बिलखती दिखाई देती हैं
घर की किलकारियां
जिन्हें देख सुबक उठती हैं
अनगिनत आखें

विदा हुई बेटियां विदा होकर भी नहीं होती हैं विदा
वे लौट आती हैं अचानक जुबान पर
जब मुंह लटकाए थका हारा दिन
रखता है कदम घर की चौखट पर
लिए अनबुझी प्यास

पुकार उठती हैं उन्हें अचानक
थाली में रखी रोटियां
देखकर थाली से
नमक और अचार को नदारद

वे उतर आती हैं सीने में
हाथों में लिए सुई और धागा
जब दिखाई दे जाती है सहसा
कमीज़ की उधरी हुई सीवन और टूटे हुए बटन

खींच ले जाते हैं उन तक अनायास
हैंगर पर टंगे उदास कपड़े
जिनके कोमल हाथों के स्पर्श से
निखर जाता था उनका सौंदर्य
वे छोड़ जाती हैं न जाने कितने निशान
न जाने कितनी स्मृतियां
जिन्हें याद कर
चली आती हैं वे अचानक विदा होकर भी।

संपर्क : मोहनपुर, लरखौर, जिलाइटावा-206130 (.प्र.) मो.9410427215