कविता-संग्रह : ‘पूरा हँसता चेहरा’, ‘शून्यकाल में बजता झुनझुना’, ‘भीतर का देश’| शिक्षा विभाग, दिल्ली में कार्यरत|

अभिनय जारी है

समय की रोटी है चांद
जिसे स्याह रात में कुतरता है भूख का चूहा
पहाड़ का आंसू है नदी
जिसे गटकता रेत का अथाह समुद्र
खेत में खिले फूल
किसान के पसीने की बूंदें हैं
जिसे रौंद रहे नए जमाने के सौदागर
ठूंठ के नीचे बैठे बूढ़े की पीठ पर उभरी खरौंच
क्रूर समय की निशानी है
जिसे कुरेद रही है हवा अपने पैने नश्तर से
पेड़ से छूटा पत्ता
नदी की धार में बहता बार-बार किनारा छूता है
बहुत तेज है हवा
किसी अनिश्ट की आशंका में
आपस में बतियाते रहे पेड़
कर्ज की कठोर चट्टान-सी
किसान की छाती पर रखी रात
गहरी नींद में जाने से पहले
जाड़े में ठिुठुरते अंतिम सांस ले रहे किसान
क्रोनी पूंजीवाद का दुलारा है राजा
जिसकी सभा में किसानों की आत्महत्याओं का
हिसाब लगाया जा रहा
शोर बहुत है
मगर राजा के महल की दीवारें
ऊंची और घुमावदार है
कुछ तो हवा चले
पानी हिले
रात का पर्दा उठे
वक्त की डाल पर बैठे चहचहा रहे हैं परिंदे
राजा की सभा सजी है
और मुसलसल अभिनय जारी है|

धरती का गीत

दुनिया की वनस्पतियां
धरती पर गाती है हरियाली का गीत
समुद्र के आंगन में तैरती
मां की भरी परात-सी धरती
रोज उठाती
हमारे सुख-दुख का बोझ
अपने ही अंश को अपने ही ताप से
धरती को आलू-सा भून देना चाहता है सूरज
बादल रूठ गए या
सूख गईं झील की आंखें
बिवाई फटी एड़ी-सी फटने लगी धरती की देह
लू से झुलसते घसियारे का आश्रय बनता जंगल
सूखे के कंठ में
बूंद-बूंद गिरता जीवन बनकर बादल
पुलकित हो उठती
धरती की छाती
आजकल हवा की तरह नहीं चल रही हवा
पानी की तरह नहीं बह रहा पानी
धूप की तरह नहीं लग रही धूप
सच की तरह नहीं बोला जा रहा सच
हमारी करतूतें देख
चुपचाप कुढ़ रही धरती की आत्मा
और हम घड़ियाली आंसू बहाते
धरती का गीत गा रहे हैं
जबकि हमारे वास्ते
धरती रोज गाती जीवन का गीत
और हम साल में एक दिन
मस्ती में अलापते धरती का राग|

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