दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई में शोधार्थी।

उन दिनों की बात ही कुछ और थी
जब छतें मिला करती थीं
एक छत से दूसरी छत की महक
अपनेपन की आया करती थी

सुबह से कोई व्यायाम करता
तो कोई तुलसी पर जल
चढ़ाता दिखाई देता था
किताबें लेकर कोई
रटता चक्कर काटता नजर आता था

चैत्र की धूप में हर छत पर पापड़
बड़िया सूखती दिखाई पड़ती थीं
नए रिश्तों की गवाह छत हुआ करती थी

जेठ की शामों में हर छत की शोभा बढ़ाते थे
पतंगों के पेंच
लड़कियां मुंडेरों पर बैठीं
ठिठोली कर छतों की शान बढ़ाती थीं

गर्म छत महक उठती
जब पानी की छींटों से
उन्हें शीतलता दी जाती थी
रात के सोने की तैयारी शाम से ही की जाती थी

शाम को छतों पर किस्से कहानियां
दिल भर के सुनाए जाया करते थे
कतारें बिस्तरों की लगाई
और पंखों के साथ रेडियो की
महफिल सजाई जाती थी

गर्मियों में छत पर होते थे रत जगे
एक रोशन दुनिया
छतों पर गुंजायमान होती
दादी नानी की कहानियां
और डांट जीवन का स्वाद बढ़ाती थीं

मानसून की फुहारें
छतों के साथ तन-मन को
भिगो जाती थी
पकवानों की खुशबू छतों तक चली आती थी

जाड़ों की गुनगुनी धूप में
रेशमी बालों की लटें सुखाई जाती थीं
छतों पर बैठ दिन भर की
बातें धूप में निबटाई जाती थीं
स्वेटर के फंदों से निकलकर
रिश्तों की मर्यादाएं छतों पर सुलझाई जाती थीं

छतों से एक घर से दूसरे घर में
आने को अपनेपन का नाम दिया जाता था
रिश्तों से ज्यादा छतों को
महत्व दिया जाता था

खाने की अदला-बदली
कटोरियों में होती थी
खुशबू मेहंदी की छतों पर ही बिखेरी जाती थी
शादियों की रौनक में
छतें ही अहम होती थीं

वे भी क्या दिन थे जब
छतों से प्यार के पैमाने छलकते थे और
रस्सी पर सूखते कपड़ों की ओट से
नजरों के इशारों से
खामोशियां बोला करती थीं

दिलों में रिश्तों को तोड़ने की नहीं
जोड़ने की बातें हुआ करती थीं
यह बात उन दिनों की है
जब छतें हर दिल में हुआ करती थीं।

संपर्क: द्वारा श्री कैलाश चंद्र चिहार
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