युवा कवयित्री। अद्यतन साझा काव्य संकलन वंदे भारती। सरकारी सेवा में।

 

मैं अगर इंसान नहीं होती
तो क़िताब होती
तुम्हारे तकिये के नीचे हिफाजत से रखी हुई
या सीने से लग के सोई हुई
कुछ कॉटेशन्स को अंडरलाइन की हुई
कोई पसंदीदा किताब
तुम पढ़ते मुझे अनगिनत बार
हर बार तुम्हें लगती नई-सी
मैं घुल रही होती तुम्हारी सोच में
तुम्हें उड़ने देनेवाली किताब बन कर
मैं अगर किताब नहीं होती
तो तुम्हारा चश्मा होती
जिसके बिना तुम्हारी सुबह न होती
मुझे आंखों में सजा के तुम्हें
मिलता हुनर सब स्पष्ट देखने का
मेरे दूर होते ही, बगावत कर देतीं
तुम्हारी आंखें
किताब को पढ़ने के लिए भी
तुम्हें मेरी जरूरत होती
लेकिन सोते वक्त तुमसे दूर पड़ी मैं
क्या कर रही होती
नहीं, मुझे नहीं होना कोई किताब
मुझे नहीं होना कोई चश्मा
मुझे बन जाने दो ऐसा ख्वाब
जो बने जुनून दिन के उजाले में
और दे सकूं तुम्हें रातों की तन्हाइयों में
मैं अगर इंसान नहीं होती
तो जरूर तुम्हारा ख्वाब होती।

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