युवा कवि।
अभी भी
अभी भी लकड़ी का हल चलता है यहां
अभी भी हजारों जोड़ी बैलों से
खेतों को जोता जाता है
अभी भी गन्ने के खेतों में
बहुत रस बचा हुआ है
अभी भी जंगलों में
जंगली हाथी गरजते हैं बादल से भी तेज
अभी भी एक प्राचीन कवि
कविता की पत्थलगड़ी करता है
जंगलों से जमीनों से
खदेड़े जाने के बाद भी
अभी भी सिंगार करती हैं
आदिवासी स्त्रियां वनफूलों से
अभी भी प्यार करती हैं
रेलगाड़ियां परदेसिया मज़दूरों से
अभी भी हम साइकिल चलाते हुए
जाते हैं लंका बैगन बेचने
अभी भी बिहार में
तंबाकू की खेती में टाटा का फरुहा चलता है
अभी भी भारत के झारखंड में
बहुत खंड बचा हुआ है
अभी भी सात बहनों का राज्य
जल जंगल ज़मीन
नद-नदी दीप-समूह से घिरे हुए हैं
अभी भी हमारे सपनों में एक कपिली नदी बहती है
जिसके ऊपर पुराना पुल
थोंग नोक बे के नाम से है
उस पर से अभी भी
सैकड़ों असमिया,कार्बी लड़कियां
मस्तकों पर असमी गमछा बांधे हुए
हर रोज जाती हैं धान रोपने
घास काटने अभी भी
अभी भी गांव के सामने वाली मड़ई में
पिसुआ मड़ुवा पर नमक लगी लिट्टी गमकती है
अभी भी ब्रह्मपुत्र में लकड़ी की नावों पर
मछलियां पार होती हैं
अभी भी डिब्रूगढ़ और तिनसुकिया में
चाय बगान लहराते हैं
अभी भी हम नदियों के किनारों पर
बांस की बंसी बजाते हैं
अभी भी हम आदमी को
तांबूल-पान से स्वागत करते हैं
अभी भी हमारी पचास लाख साल पूर्व पृथ्वी का
निजीकरण नहीं हुआ है
अभी भी हम
निजीकरण के सरदारों से सत्ता छीन सकते हैं
अभी भी यह देश हम श्रमिकों का है
हम अभी भी इस देश के सदियों पुराने पंछी
देश के बचे-खुचे खेतों में से
फसलों के तिनके बीन सकते हैं
अभी भी।
मैं किसान हूँ, कवि नहीं हूँ कि
कल्पना से काम चल जाएगा!
इससे पहले कि मैं जमीन पर से उठ जाऊं
लेकिन क्या करूं,हाय!
मेरी कृशकाय आत्मा की पीली पत्तियां
गल रही हैं
बर्फ के निर्जन बियाबानों की तरह!
जहां पर हमने रो-रो कर बहाया था खून-पसीना
वहां कुदरत ने दे दिया – हाय! हाय!
रीढ़ की हड्डिटूट गईं फसलों के
कटने से पहले!
ब्याहने को थीं तीन चार चिड़ियाँ
इसी वसंत में
हाय! चारों तरफ है
धुआं-धुआं!
कुछ दिख नहीं रहा
सिर्फ दिख रही हैं
पृथ्वी पर पसरी हुई निचाट नंगी
मरी पड़ी असंख्य गेहूं की देह!
ओ! नहीं चाहिए रे सरकार
तुम्हारा सांप जैसा यह स्नेह
मीडिया वालो! सामने से हट जाओ
वरना तुम्हारा माइक चबा जाऊंगा
ईश्वरो दूर रहो,गोदाम वालो दूर रहो
सावधान रहो तमाम पेटो!
जो संबंध रखते हो खेतों से
बेवफा कुदरत, जा रे जा!
मैं किसान हूँ, क्या करूं
कवि नहीं हूँ कि कल्पना से काम चल जाए
दाएं-बाएं अंतहीन सवालों के वृक्ष खड़े हैं
मेरा खेत देखो न!
बर्फ के पत्थरों की बारिश से बिछा पड़ा है
सामने गहरी नदी है
सदियों से पुरखों के पुराने बक्से में रखी हुई
सल्फास की गोली है
आत्महत्या करने के उपाय हैं बहुत
लेकिन क्या करूं
हाय! मैं किसान हूँ
मर जाऊंगा
तो मर जाएगा देश!
संपर्क: असम, जिला :कार्बी आंगलोंग -782448, पोस्ट ऑफिस–खेरोनी, मो.9365909065 ईमेल – chandramohan909065@gmail.com
वाह्ह्हह्ह्ह्ह! एक से एक बेहतरीन कवितायें 🌹🌹बधाई 🌹🌹