वरिष्ठ कवि और बलरामपुर में प्रोफेसर।कविता संग्रह अब भी’, ‘सामने से मेरेऔर डुमरांव नजर आएगा

चापलूस किसी समाज
या संस्था में होते हैं
मँगरा कीड़े की तरह
जो साबुत लकड़ी
या हरे-भरे पेड़ के स्वस्थ मोटे तने
या टहनी को भी कर डालते हैं खोखला

चापलूसी से क्षति पहुंचती है इनसानियत को
इनसानी संस्कृति में
विकृतियां ही नहीं पैदा होतीं
नष्टप्राय हो जाती है वह पूरी तरह
एक तरह से मरणासन्न

चापलूसी इनसान को
चौपाया से भी बदतर बनाती है
वह पांवों से ही नहीं
हाथों से भी शुरू करवा देती है चलना

चापलूस इनसान की बड़ी खासियत है
हर मौके पर पगुराता है वह
उसका पगुराना सच को
दबाने-छुपाने की कला मान लिया जाता है
इसी के दम पर वह होने लगता है
पदासीन बाज़दफ़ा पुरस्कृत भी
देखते-देखते उसके पीछे
उग आती है एक लंबी झबरीली पूंछ
चापलूसों ने दुनिया में
पैदा किए सिर्फ तानाशाह
जगजाहिर है उनकी बेवकूफ़ियां

चापलूस और गदहे या बैल में
कोई साम्य नहीं सभ्य लोग!
चापलूसों से करना इनकी तुलना
है इन निरीहों का घोर अपमान

चापलूसों की बातों से चढ़ जाता
दिमाग़ अच्छे-अच्छे शासकों-प्रशासकों का
विवेक का हो जाता अपहरण
वे समझने लगते अपने को खुदा से ज्यादा

उनकी अंतरात्मा बदल जाती है अंततः
ऊसर-टांड़ और परती में
उस पर उगाना मुश्किल है हरियाली

सच तो यह है कि
एक समय के बाद
वे गिर ही जाते नीचे बहुत-बहुत नीचे
सबकी निगाह में!

संपर्क :631/58, ज्ञानविहार कॉलोनी, कमता226028 लखनऊ मो.7355644658