मध्यप्रदेश के मातृभाषा उन्नयन संस्थान और भारत संस्कृति न्यास से जुड़े। डिप्टी कमांडेंट, (गृह मंत्रालय भारत सरकार)।
औरत के चुप होंठों से
मुखर दुनिया में कुछ नहीं होता
उसकी चुप्पी से अधिक शोर का
नहीं है कोई प्रामाणिक दस्तावेज़
सब से बेधक अस्त्र होती हैं
स्त्री की कातर आंखें
और उसका प्रेम
कभी नहीं समाता तर्क की सीमा में
स्त्री प्रेम में नदी हो जाती है
बहती है कल-कल मोह में
और बीहड़ व्यस्तता में भी
आवेग में घासविहीन पहाड़ को भी
जकड़ती है स्त्री
तो कभी रेतविहीन नदी सी गहरी होती है प्रेम में
उपेक्षा होने पर
गुमसुम नदी सी ही निकल जाती है वह
लेकिन जब
आती है प्रतिशोध पर स्त्री
अडिग चट्टानों को तोड़ती हो जाती है विकराल
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वाह बेहतरीन रचना ‘स्त्री प्रेम में नदी हो जाती है’। प्रतिशोध की भावना में पत्थर को भी तोड़ने की शक्ति धारण कर लेती है।
वास्तव में आपकी रचना स्त्री को देवी मां कंकाली भी कहने का साक्षात दर्शन कराती है।
उन्हें एक बार आपको हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं ंं
सच्चिदानंद किरण भागलपुर बिहार।
अशेष आभार