संस्कृति कर्मी। लंबे समय तक मजदूर आंदोलन और कुष्ठ रोगियों के मध्य कार्य।  अद्यतन कविता संग्रह, बीच दिसंबर

आवाज – 1

तुम्हारी आवाज इस वक्त भी बराबर गूँज रही है
तुम इस वक्त भी वैसे ही पुकार रही हो
जैसे दो बरतन खटकते हैं घर में
और साथ-साथ रहते हैं
अब घर चलाने को
दो बरतन तो चाहिए ही चाहिए
खटकना अगर स्वभाव में है
तो क्यों न इसे
घर की परिभाषा में लिया जाए
किंतु जब घर में
कोई एक नहीं होता है तब?
तब उदासी खटकती है और
किसी गूँज की तरह ही भीतर उतर जाती है
मैं इस गूँज में तुम्हें पकड़ता हूँ और
अपने ही घुटनों में सिर दे देता हूँ
मेरी प्रतीक्षा है कि
मेरी पुकार में भी तुम्हारी आवाज हो।

आवाज – 2

एक बहुत पुरानी फिल्मी धुन पर
मैंने तुम्हारा ताजा नृत्य देखा
हालांकि तुमने यह नृत्य
कोई मेरे लिए नहीं किया था
नृत्य तुम्हारा अपना भी शौक है
तो भी इसने
हमारे बीच के प्रेम को बढ़ाया और
हम दोनों ही बाहों में आ गए
पार्श्व में धुन अभी बज रही है
संगीत की एक-एक लहरी
गीत का एक-एक बोल
अभी भी जैसे पुकार रहा है
और
हम हैं कि इतना थक चुके हैं कि
बूढ़ी कथाओं-सा निढाल पड़े हैं।

सन्नाटा

एक कठिन शोर बह रहा है मेरे बाहर
एक शोर भीतर भी
दोनों के बीच
एक सन्नाटा बराबर गूँज रहा है
बाहर का शोर
भीतर आना चाहता है
भीतर का शोर
फट-फट कर बाहर
किंतु
सन्नाटा कहीं नहीं जाना चाहता
जैसे कि कोई अपना बहुत नाराज हो और
दोनों के बीच
हर हाल एक सफल संवाद चाहता हो
मगर
यह सरासर धोखा है
सबसे खौफनाक
सबसे संगीन
यों कभी-कभी सबसे करामाती है सन्नाटा।

संपर्क: जी2, मेट्रोपोलिससिटी, रुद्रपुर263153, उत्तराखंड, मो. 9760971225