कविता संग्रह  ‘पेड़ों पर मछलियाँ’। न्यायाधीश, बिहार न्यायिक सेवा।

कविता – एक

वे आगे बढ़ते गए
उन्होंने रास्ते में आई हर एक चीज़ का
अपने हिसाब से रूप बदलना चाहा
और बदल डाला
वे और आगे बढ़े
उन्होंने अपने समूहों को सर्वश्रेष्ठ कहा
खुद को किया ईश्वर घोषित
नियम विनियम बनाए
जिन्हें तोड़ने की चाबी रखी अपने पास
वे और आगे बढ़े
उन्होंने नदियों को अपने हिसाब से मोड़ा
पर्वतों के सिर उठाए रखने को गुस्ताखी माना
और तोड़ दिए कई सिर और शाखाएँ
वे और आगे बढ़े
उन्होंने प्रकृति को दुत्कारा और ललकारा
और जंगलों को कर दिया आग के हवाले
पहाड़ को खाई और खाई को पहाड़ बनाने लगे
वे और आगे बढ़े
वे श्वेत को काला और काले को श्वेत करना
कला का हिस्सा मानने लगे

सुना है
अब वे दिमाग बनाने वाले हैं
ऐसे दिमाग़ जो उनके इशारों पर चलें
ऐसे दिमाग़ जो समय से पहले बताए
किसी आने वाली मुसीबत के बारे में
और जो दूसरे दिमाग़ों को पढ़ने की कला जानते हों।

कविता – दो

मौन पांचवीं दिशा का दरवाजा है
खोजती फिरी सारी उम्र
फिर भी अबूझे रहे उसके रास्ते
काश कोई सांप आकर डँस लेता मुझे
मैं हो जाना चाहती थी चेतनाविहीन
पर मस्तिष्क दौड़ता ही रहा
एक खालीपन लिए हुए अपनी गोद में
मैं आकाश में खोदे गए गड्ढों में
आकाश भरती रही एक-एक अंजली भर
मौन की तलाश में
बुद्ध ने जिसे तलाश लिया था अंतिम दिनों में
जिसे महावीर ने ढूंढा तेइसवें पाले में
बड़े-बड़े संतों ने लगा दी जीवन की तमाम सांसें
मैं वरदान नहीं मांगती
मैं उस मौन से तादात्म्य बिठाना चाहती हूँ बस
सारे ब्रह्मांड का कोलाहल है इसमें
मेरा मौन जोर से चीखता है।