युवा कवि।अब तक तीन कविता संग्रह ‘दूसरे दिन के लिए’, ‘पदचाप के साथ’ और ‘इंकार की भाषा’।संप्रति-अध्यापन।

अंतराल के बाद

मिलने की इच्छाओं का
कुछ कहा नहीं जा सकता
वे भूसे के ढेर की तरह होती हैं
जमा और इतना अधिक कि
उनकी गिनती संभव नहीं
फिर भी मिलना
असंभव होता जा रहा है
स्थगित होता योजनाओं में लगातार
इतना कि मिलने की इच्छा
खत्म हो जाती है कब
इसका एहसास तक नहीं होता
इस तरह मिलना
धीरे-धीरे खत्म होता जाता है
खत्म होती जाती है
उठ कर चल देने वाली
बेचैन करती इच्छा
इस तरह इच्छाओं का भी अंत होता है
बिल्ली की तरह दबे पांव
आती है धीमी मृत्यु
इतने एकांत और सघन अंधेरे में कि
कोई तहखाने में घुस कर भी
पता नहीं लगा सकता
यह आदमी कितना अकेला था!

बादलों के भरोसे

पानी के लिए प्रार्थना की नहीं
प्यास की जरूरत होती है
आसमान इसकी गवाही कभी नहीं देगा कि
किस कंठ में कितनी प्यास है
रात के अंधेरे में
सुबह की धूप के बाद
कोहरे के धुंधलके में या फिर
वसंत की हरियाली के दिनों में
बादलों को कभी समझ नहीं पाया मैं
जब स्वप्न भुरभुरी मिट्टी में बदल गए
तब भी नहीं
मेरा दुख दूर की परछाई है
वह कोई पक्षी नहीं जो
उड़-उड़ कर अपना होना बताए
मेरी लालसाओं में बारिश की जगह तय है
लेकिन यह भी तय है कि धोखा मिलेगा
मैं जब बादलों का इंतजार करूंगा
ठीक तभी आसमान नीला हो जाएगा
इतना साफ और सुंदर कि
वहां बादल का एक धब्बा खोजना मुश्किल होगा
बादलों के भरोसे मुझे कुछ हासिल नहीं होगा
मैं उन्हें खीझ से भरा हुआ
तब उड़ता देखूंगा आसमान में
जब मुझे उसकी जरूरत बिलकुल नहीं होगी!

स्वप्न के बीच

पैरों के पास आंखें होतीं तो
वे स्वप्न में पहले ठोकर खाते
बाद में उसकी टीस
नींद की तह तक बेचैन कर देती
कुछ भी असंभव नहीं होता स्वप्न के बीच
कहीं भी जाना और साबुत घर लौट आना
पहाड़ों पर चढ़ाई की थकान
रेत के बवंडर
बारिश में फूस के घर का चूना
और कुछ नहीं गलना
कोई फूल लाल हरे नीले पीले रंग में
सूखी मटमैले रंग की टहनी पर
जीने के लिए अथाह समय है
पीने के लिए घूंट भर पानी
रोटी और नींद का जलना एक ही है
एक सी होती है दोनों के जलने की गंध
उंगलियों पर हिसाब लगाते हुए
बीत जाती है उम्र
लालसा किसी कोने में दबी मिलती है
मजबूरियां असंख्य हैं जो
एक-एक कर सारे स्वप्न निगल लेती हैं
फिर भी बच जाता है कुछ न कुछ
कोई चिंता करे तो किस बात की करे
सांस की करे तो दम घुट जाए
नींद की करे तो
कई-कई रात आसमान की छत
टकटकी लगाकर देखती हैं आंखें
भूख की चिंता में गलती देह
धान कूटती हुई
भूसे के ढेर में बदल जाती है
एक वही दुर्दिन के बीच से
लौटने की अकेली राह है
इसीलिए स्वप्न के बीच
बचना बहुत आसान है
इसके बिना बहुत मुश्किल
ये समय ही ऐसा है कि
यहां जीने की जिद पर भारी हैं
दुनिया के तमाम दुख यातनाएं
और बीमारियां
उम्मीद के अंतिम सिरे को छोड़ देने और
स्वप्न पर भरोसा नहीं रहने की बजह से
मुंद गई हैं असंख्य आंखें सदा के लिए
जिन्हें अभी बहुत जीना था
करना था बहुत कुछ
लेकिन सब आधा अधूरा छोड़ कर
वे विदा हो गए हमेशा के लिए
उनके हिस्से की नींद भी
स्वप्न की तरह
भटकती होगी इसी पृथ्वी पर आवारा!

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