दो कविता संग्रह, चार व्यंग्य संग्रह प्रकाशित। ‘व्यंग्योदय’ व्यंग्य वार्षिकी का संपादन।
सौदागर
जी हां !
सौदागर हैं वे
खरीद लेंगे मुस्कान फेंक कर विश्वास
शब्द बिखेर कर भोलापन
स्वप्न दिखाकर ईमान
पूंजी की चकाचौंध बताकर
खुद्दारी खरीद लेंगे
लंबा तजुरबा है उन्हें
किसे बेचकर क्या खरीदना है
और कैसे मारनी है भावुकता में उलझाकर
सौदे में डंडी
तिजारत और सियासत
उनके लिए एक ही सिक्के के दो पहलू हैं
मुनाफा और वोट बैंक
रखते हैं एक-सा ही अर्थ
उनके लिए
थोड़ा सा रक्तपात
और भारी मिलावट
कानून की उपेक्षा
और चौकीदार की सीटी
में कोई फर्क नहीं
सौदागर हैं
खाली हाथ नहीं जाएंगे
आ गए हैं तो बिकना ही होगा तुम्हें
किसी भी कीमत पर ।
सहमी हुई लड़की
सहमी हुई लड़की
देखती है हर मुस्कान को संदेह की नजर से
ढूंढती है सुरक्षित किनारा
और जल्दी घर पहुंचने का साधन
उसके लिए कोई रिश्ता नहीं है विश्वसनीय
न उसे है कोई उम्मीद
नून की लचर धाराओं में
सिकुड़ती है स्वयं में
पूछती है सवाल अपने आपसे
सौदा लेने पास तक जाती है
छोटे भाई की उंगली पकड़
रात-बिरात निकलती है मुंह ढांपे
पहचान छुपाने के सारे जतन करके भी
बेफिक्र नहीं है मासूम लड़की का जीवन
जीभ लपलपाते हैं भेड़िए
ताजा गोश्त की गंध तलाशते नर पिशाच
सहमी हुई लड़की को
काबू में रखनी है उन्मुक्त हँसी
पसंदनापसंदऔरइच्छाएंदफनकरनी है
समाज के वैचारिक कब्रिस्तान में
उसे पीना है उतना ही पानी
और सोना है उतना ही
जितना कहें पिता और शास्त्र
उसे संभल-संभल कर चलना है आजीवन
सड़कों और गलियों के किनारे-किनारे
और जल्दी घर पहुंच
परिजनों के आशंकित दिलों में
जलानी है दिलासा की ढिबरी ।
डरना जरूरी है
डरो
मजलूमों की बददुआओं से
जाने-अनजाने की गई गलतियों से
अहंकार में उछाले गए शब्दों से
धरती का हरापन हड़पने से
भरपूर डरो
सपनों की तिजारत करने से पूर्व
विज्ञापनों में झूठ बेचते हुए
शब्दों की बाजीगरी से
आत्मा को चुपचाप दफ़न करने से पहले
बार-बार डरो
हर उस कदम से
जो ले जाता है अंततः तुम्हें
आत्मग्लानि की ओर
जो बनाता है तुम्हारा चेहरा
और भी अधिक हिंसक और भयावह।
सच की तलाश में
कई बार
सच वहां छिपा होता है
जहां तनिक भी संभावना नहीं होती उसकी
मसलन वह छिपा होता है हमारे मंतव्यों में
जबकि हम महज उसे
शब्दों में खंगाल रहे होते हैं
सच बिलकुल सिरहाने रखा होता है पार्थ-सा (?)
जबकि हम निकल पड़ते हैं
खोजने उसे दुनिया के इबादतखानों में
और जंगलों में
सच इतना मासूम, उपेक्षित
और इकहरा होता है इन दिनों
कि झूठ और आडंबर की चकाचौंध में
कोई नहीं पूछता उससे
कब आए? कैसे हो? कुछ लिया कि नहीं
सच को लेकर हो रहे हैं इतने दावे
कि स्वयं भ्रमित है सच
अपने भविष्य को लेकर
झूठों का है इतना बड़ा जखीरा इतने प्रचारक
कि सच के पक्ष में एक भी गवाह नहीं
सच छिपा है मिट्टी में
हम उसे विदेशी घास में तलाश रहे हैं
वह हमारी देह में थिरक रहा है
सहज संगीत-सा
हम उसे खोज रहे हैं
गूढ़ श्लोकों और आप्त वचनों में
सच है पांव में लगा गोबर
हाथ में लगी कालिख
शर्ट पर लगा कत्थे का दाग
झूठ है तमाम कोशिशें उम्र छिपाने की
हल्के से मुस्कराने की
और एक्सक्यूज मी कह कर खिसक जाने की
हर संभावित मुठभेड़ से पहले।
राजा
हर राजा के अपने
तर्क होते हैं शासन चलाने के
अपने सलाहकार
अपनी जिदें
और अपनी मूर्खताएं
प्रत्येक राजा
खींचना चाहता है बड़ी लकीर
अब यह बात अलग है
कि बहुधा इस जुगत में
छिल जाते हैं घुटने भी
घिस जाती हैं हथेलियां
और नहीं बचता मुंह भी दिखाने के काबिल
लेकिन राजा अहसास नहीं होने देता जनता को
हर राजा की कांख में दबी होती हैं कामनाएं
शब्दों में छुपे होते हैं मायावी अर्थ
उसके दरबार में नाचती रहती है चाटुकारिता
कानाफूसी की थाप पर
वाह-वाह करते घूमर लेते हैं कलावंत
सफल राजा होने के लिए जरूरी है
बहुरूपिया होना
चालाक और मौकापरस्त होना
बोलना बेवजह
और चुप हो जाना जरूरी वक्त पर
अपने घाघपने में वाकचातुर्य मिलाकर
बजवाना ताली खबरनवीसों से
उसके लिए धीरोदात्त
दूरदर्शी और संवेदनशील होना कतई जरूरी नहीं!
संपर्क: 380 ,शास्त्रीनगर, दादाबाड़ी–कोटा-324009 (राज.) मो. 9414178745 / Email –achatchaubey@gmail.com
अतुल चतुर्वेदी की कविताएँ. अपने समय के सत्यान्वेषण का महत्वपूर्ण दस्तावेज हैं ।
आदरणीय आपके ये शब्द मेरे लिए अपार ऊर्जादायक हैं
“..वह छिपा होता है हमारे मंतव्यों में…”
” बार बार डरो
हर उस कदम से
जो ले जाता है अंततः तुम्हें
आत्मग्लानि की ओर ….”
हर एक के अन्तर्मन को अपने सुकोमल शब्द पुष्पों से टटोलकर अपनी समर्थ लेखनी से प्रकट करके आप सुधी पाठकों को भाव प्रवाह से झकझोरने में प्रवीण हैं।
ये कविताएं पढकर लगता है, हमारी ही अन्तरात्मा अभिव्यक्त हुई है।
आपकी गहन सोच जनमानस को अविरल प्रेरित करती रहे।
शुभकामनाऐं एवं साधुवाद।
प्रकाश विजयवर्गीय
बहुत बहुत आभार आदरणीय
बेहद ही प्रभावशाली कविताएं, न केवल मन को छू जाती है. बल्कि समाज की नंगी सच्चाई से रूबरू कराती है. सौदागरों के आगे विवश हम कैसे वस्तु में तब्दील होकर रह गए हैँ.
राजा, कविता अद्धभुत है. सचमुच बोलना बेवजह और चुप हो जाना जरुरी वक्त पर…… शानदार…..
शुक्रिया शरद जी इस उत्साहजनक प्रतिक्रिया के लिए
*प्रिय श्री अतुल चतुर्वेदी*
साहित्यक पत्रिका वागर्थ में आप की कविताओ का प्रकाशन ही उसकी गुणवत्ता व स्तरीय की परिचायक हैं l
आप की कविताएं पाठक के लिए सहज पठनीय है l कविता पढ़कर जल्द ही समझ आती है और मन को आनंदित करती है l
आपकी कविता के लिए चिंतन और बेहतरीन
शब्द चयन के लिए बधाई l आशा है आगे भी आनंदाई कविताएं पढ़ने को मिलती रहेंगी l
दिनेश विजयवर्गीय बूंदी
Mob-9413128514
दिनांक-5 जुलाई 2021
दिनेश विजय जी आत्मिक आभार
पाँचों कवितायें गहन व्यंजना में अपने समय और समाज का प्रतिबिम्ब दर्शाती हैं | अतुल जी को बधाई |
आदरणीय कैलाश जी बहुत बहुत धन्यवाद कविताएं पढ़ने और उस पर ऊर्जावान कमेंट के लिए
भाई अतुल चतुर्वेदी की ये कविताएँ जीवन को अपने मौलिक अंदाज में व्याख्यायित करती हैं।जहाँ इनकी भावभूमि अनुभूत, अपनी-सी लगती है वहीं भाषिक शिल्प भी भीतर ही भीतर जुंबिश पैदा कर जाता है।बधाई बहुत-बहुत, असीम मंगल कामनाएं बंधुवर
जी , हार्दिक आभार
बढ़िया कविताएं भाई जी
थैंक्स बहना …💐
ये कविताएँ हमारे समय के यथार्थ को बेहद पैनी और संवदनशील भाषा में व्यक्त कर रही हैं . अतुल चतुर्वेदी ने अपने अंतस को बहुत तपाया है ,उसी ऊष्मा से तपी हैं ये कवितायेँ .मैं उन्हें ह्रदय से बधाई देता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि समय -सत्य को उद्घाटित करने का यह क्रम अनवरत जरी रहेगा .
आपके महत्वपूर्ण और कविता के मर्म को समझने वाले विचारों से बहुत हौंसला मिला … दिल से धन्यवाद
अतुल चतुर्वेदी की यहां प्रस्तुत हर कविता एक से एक बढ़कर है। राजा कविता तो कमाल की है। एक साथ तरह तरह के भाव की गिरह खोलती हुई। साधुवाद।
आत्मीय आभार निर्मल जी
बेहद सुंदर रचनाएं,वर्तमान स्थितियों का को आईना दिखाती हुई उम्दा रचना।