युवा कवि और कथाकार। हाल की कृतियाँ : ‘चूंकि सवाल कभी खत्म नहीं होते’ (कविता संग्रह), ‘दिल्ली में नींद’।
सबसे पहले उसका साथ
सबसे पहले उम्मीदों ने ही छोड़ा होगा
उसका साथ
फिर उसके हाथ, पांव, नाक, मुंह
पसलियों, फेफड़ों, अंतड़ियों ने
और फिर दिमाग ने
और सबसे अंत में साथ छोड़ा होगा
उसकी आंखों ने
सबसे पहले अपनी आंखों से
उसने देखा होगा
आसमान की लालिमा को
फिर घर लौटते चिड़ियों के झुंड को
फिर उसने देखा होगा पेड़ों को
पेड़ों से झड़ रहे पत्तों को
खेतों में उदास फसलों को
और फिर गड्ढों को
उसकी आंखों ने सबसे पहले ढूंढा होगा
एक जोड़ी आंखों को ही
लेकिन उसे आंखों के बदले दिखे होंगे
ढेर सारे चेहरे और ढेर सारी आंखें
एक भीड़, ढेर सारी आवाजें
ढेर सारे नाखून
और कुछ रंग
उसने अपनी आंखों को नीचे झुकाया होगा
और बंद हो गई होगी पूरी दुनिया
उन आंखों के भीतर
वह दुनिया जिसको संजोने के बारे में
उसने कभी बुने होंगे ढेर सारे ख्वाब
सबसे पहले उसने थामा होगा
नाउम्मीदी का ही साथ
और खत्म हो गई होगी चिंता
खत्म हो गई होगी आवाज
खत्म हो गया होगा डर
उसने याद किया होगा अपने बचपन को
गलियों को, गुल्लर के पेड़ों को
कौओं को
और अपने उस साथी को
जो उसकी मोहब्बत में उतार लाता था
पेड़ की आखिरी फुनगी से उसकी पतंग
यह जो हवा और धूप है
जिससे वह बहुत परिचित रहता आया था
वह हो जाएगी इतनी बेगानी और रूखी
उसने कभी सोचा नहीं था
उसने सोचा यह भी नहीं था कि
पीपल के पेड़ पर बैठी चिड़िया
उसकी ओर बिना देखे उड़ जाएगी
सबसे पहले उम्मीदों ने ही छोड़ा होगा
उसका साथ
इसलिए यह चिड़िया, मिट्टी, हवा, धूप
और यहां तक कि इन गलियों से भी उसे
कोई शिकायत नहीं थी
और आखिर में जब उसने बंद की होंगीं अपनी आंखें
तब उसकी आंखों में धीरे-धीरे पसरा होगा अंधेरा
जैसे धीरे-धीरे घुसता है बाढ़ का पानी
उस अंधेरे में जरूर दिखी होंगी उसे कुछ शक्लें
कुछ सूखे पत्ते, कुछ टूटे तारे
और कुछ बहुत ही उदास बच्चे।
बंद दरवाजों के भीतर बच्चे
बच्चे दरवाजों के भीतर बंद हैं
बाहर छुरियां चल रही हैं
शायद तलवार और कुछ देशी कट्टे भी
बच्चे दरवाजों के भीतर बंद हैं
मां चीख की आवाज से
बच्चों को दूर रखने की कर रही है कोशिश
पिता बाहर शोर के थमने का कर रहे हैं इंतजार
पर सूरज है कि निकलता ही नहीं
बच्चे दरवाजों के भीतर बंद हैं
और मोबाइल में भिड़ा रहे हैं
दो राक्षसों को
बाहर सड़कों से हटाए जा रहे हैं खून के निशान
जले हुए सामान से लोहे के टुकड़े बीन रहे हैं लड़के
बच्चों ने गेम में कर लिए हैं कई लेवल पार
मारे गए हैं कई राक्षस
मोबाइल से निकल रही हैं तरंगें
और कहीं गायब हो जा रही हैं
पिता दरवाजों के छेद से देखते हैं
धुली सड़कें और होते हैं आश्वस्त
बच्चे दरवाजे से बाहर निकालते हैं पांव
कि बाहर अंधेरा छा जाता है
हवा जहरीली हो जाती है
पत्ते मुरझाने लगते हैं
पक्षी लौटने लगते हैं
चीटियों की आंखें जलने लगती हैं
बच्चे हो जाते हैं फिर से दरवाजों के भीतर बंद
दरवाजों के भीतर बच्चे बड़े हो रहे हैं
छोटी हो रही है उनकी दुनिया
बच्चों को खेलना था अभी कबड्डी
गेंद, छुपम-छुपाई या फिर
घघ्घो रानी कितना पानी
लेकिन बच्चे अभी हवा में जहर के
कम होने का कर रहे हैं इंतजार
हम रह रहे हैं ऐसे समय में
जब बच्चे होते जा रहे हैं बंद अपने घरों में
बाहर आततायी घूम रहे हैं
कभी छुरे और कभी जहर लिए
अभी हमारा लोकतंत्र सो रहा है
अभी एक सरकार की खरीद-फरोख्त चल रही है
अभी चिड़िया अपने बच्चों की आंखों से
बहते आंसुओं को देख रही है चुपचाप
ठीक इसी वक्त जब मैं लिख रहा हूं यह कविता
मेरे बच्चे दरवाजों के भीतर बंद हैं
बाहर आसमान से गिर रही हैं उल्काएं
आसमान से झड़ गए हैं चांद और सितारे
विज्ञान के सारे आविष्कार हो गए हैं इकट्ठे
और वसूल रहे हैं इन मासूम बच्चों से अपनी कीमत
ठीक अभी जब विश्व के सभी देशों में
एक साथ गिर रही हैं उल्काएं
एक साथ छा रही है निराशा
एक साथ गहरा रहा है डर
तब फिर बच्चे दरवाजों के भीतर बंद हैं
और खेल रहे हैं उसी मोबाइल में बबल शूटर
बंद दरवाजों के भीतर बच्चे बड़े हो रहे हैं
बंद दरवाजों के भीतर घुट रही हैं उनकी सांसें।
इतनी भी जगह
इस ब्रह्मांड में उनके लिए
नहीं है इतनी भी जगह
जितनी में कठफोड़वा बना लेते हैं अपना घर
गिलहरियां रख लेती हैं अपने बच्चे
या जितने में टिक जाती है ओस की बूंद
बस उतनी जगह
जितनी में आंखों में टिक जाते हैं आंसू
अभी जब सारे पक्षी लौट गए हैं
अपने घोंसलों में सुरक्षित
सारे कछुओं ने ओढ ली है
अपनी सुरक्षा की चादर
समुद्र की लहरें लौट रही हैं
अपने घरों की तरफ वापस
और अभी-अभी
जब टेलीविजन पर प्रसारित हो रहा है
एक महाआख्यान
तब ठीक इसी समय कंक्रीट भरे रास्तों पर
निकलने को मजबूर हो गए हैं असंख्य जोड़े पैर
रो रहे हैं अनगिनत बच्चे
लेकिन दूरी है कि अभी खत्म नहीं होने वाली
उनके लिए इस ब्रह्मांड में जगह नहीं है
इस ब्रह्मांड की सारी जगहों को
घेर लिया है तिलचट्टों ने
यहां की सारी जगहों पर गिर गए हैं सूखे पत्ते
यहां कोई मनुष्य नहीं दिख रहा
कोई बच्चा खेल नहीं रहा
सारी जगहों पर जम गई है बर्फ
गिर गए हैं आग के गोले
इस ब्रह्मांड पर ऐसी कोई खाली जगह नहीं
जहां सहेजे जा सकें उनके आंसू
जहां सहेजा जा सके उस चार वर्ष के बच्चे का
थका, दुखी और उदास चेहरा
जो मीलों चलने के बाद सो रहा है अभी
अपनी मां की गोद का सहारा लेकर बेसुध
मासूम बच्चे बस भरोसा करते हैं
अपने मां-बाप पर
और चल देते हैं उनके पीछे
क्या कभी आपने सुनी है
इन मासूम धड़कनों की आवाज
क्या कभी आपने महसूस किया है
एक भयानक खामोशी का
भांय भांय करता सन्नाटा
क्या कभी आपने देखी है तीन वर्ष के बच्चे के
तलुवों की गायब होती मुलायम त्वचा को
क्या कभी आपने प्यासे गले में
उग आए कांटों को किया है महसूस
आपने डूबते सूरज की उदासी को तो देखा ही होगा
अभी जब मैं लिख रहा हूं यह कविता
अभी जब रात गहरा रही है
रो रहा है एक कुत्ता
कहीं दूर से आ रही है झींगुर की आवाज
मौसम में घुल रही है उदासी
अभी भी गिर रही है पत्तों पर ओस की बूंदें
तब ध्यान से सुनने पर सुनाई पड़ेंगी
उनके नन्हें कदमों की मासूम आवाजें
ध्यान से सुनने पर
उन भूखे बच्चों की
भूखी अतड़ियों की आवाज भी देगी सुनाई
वे चलते चले जा रहे हैं
क्योंकि इस ब्रह्मांड में उनके लिए कोई जगह नहीं है
वे चलते चले जा रहे हैं
तब तक जब तक चल रही हैं उनकी सांसें।
संपर्क: ग्राम- एच–2 महानदी एक्सटेंश्न, इग्नू कैंपस, मैदानगढ़ी, नई दिल्ली–110068, मो.9810229111 email : umashankarchd@gmai.com
लोकतंत्र के सीने पर जब कीले ठोंक सलीब पर टांगने की तैयारी की जा रही हो ऐसे में बच्चों की सुध लेना बेहद जरूरी है। उमाशंकर जी ने अपनी कविता के जरिये ये काम बखूबी किया है।
कविताएं अच्छी हैं। उमाशंकर जी को खूब बधाई।
सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की आत्मा का परकाया प्रवेश होगया लगताहै!