युवा कवयित्री। नोएडा स्थित एक मीडिया संस्थान में सब–एडिटर।
दुख
मैंने जीवन में यूं बचाए दुख
जैसे अंजुरी में पानी
धीरे-धीरे रिसता हुआ
वे खनकते रहे
ज्यों बच्चे की जेब में सिक्के
जिससे वह स्वप्न खरीदना चाहता है
जीवन में सुख आया
तो मैंने उन सिक्कों से
फिर खरीदा दुख।
स्वीकार
मैंने खेत इतने करीब से नहीं देखे
कि फ़सल का नाम बता दूं
रबी, खरीफ
स्कूल में पढ़ा और वहीं तक रहा
यह भी नहीं बता सकती कि
पलाश, गुलमोहर, रातरानी
एक दूजे से कितने भिन्न हैं
देवदार, चीड़, अशोक, पीपल
वृक्षों की शृंखला में
पत्तियों का भान भी नहीं
मैं नहीं जानती लोक की भाषा
गांव की बातें, उनके किस्से
महुआ, माहवार, धान, रोपाई
कभी मेरी कविता के हिस्से नहीं रहे
प्रेम से आदि हो
प्रेम पर तमाम हुई मैं
क्या इतना कम जाना मैंने ?
क्या इतना कम देखा मैंने ?
गिरना
मैं गिरी
मैं गिरी तो किसी वृक्ष की तरह
कितने मौसम मेरे साथ झरे
पत्तियों की तरह
मेरी रीढ़ तने की भांति रही
और शाखाएं झुकी हुईं
मेरे साथ गिरे वे तमाम बीज
जिनसे नए वृक्ष बनते
मैंने छोड़ नहीं दी थीं अपनी जड़ें
मैं गिरी
ताकि बता सकूं
आंधी में यूं भी थामे रह सकते हैं जमीन।
ईश्वर
एक बीज से निकल आता है
समूचा वृक्ष
धरती से कैसे उग जाती हैं
ये सभी फसलें
ओस की बूंद से सुंदर लगते हैं
फूलों के रंग
हृदय से होंठ पर आती है
शिशु की मुस्कान
जैसे पहाड़ों पर बादल
झूम कर आता है
मैं अचंभित हूँ कि
ईश्वर कितने रूप में प्रकट होता है
हमारे समक्ष।
संपर्क: जी–2, मेट्रोपोलिससिटी, रुद्रपुर–263153, उत्तराखंड, मो. 9760971225
सुन्दर रचना, दीपाली जी को साधुवाद।
आंधी में यूं भी थामे रह सकते हैं जमीन।❤️
शानदार