दो काव्य संग्रह ‘यह मौसम पतंगबाज़ी का नहीं है’ एवं ‘अचानक कबीर’ प्रकाशित। संप्रति – स्वतंत्र लेखन।

सफ़ेद ख़ाली पन्ने

उसे याद आए
युद्ध में गिराए गए बमों से ज़ख़्मी
लहूलुहान बच्चे
जिन्हें उसने थोड़ी देर पहले ही
टी.वी. पर रोते-बिलखते देखा था

दूसरे दिन उसने अपनी कॉपी पर बनाया था
अपने ही जैसा एक मासूम-सा बच्चा
जिसके सिर पर घुँघराले, सुनहरे बाल थे
बिल्ली जैसी दो चमकदार आंखें थीं
लेकिन वह भी ख़ून से लथपथ
और बुरी तरह ज़ख़्मी था

उसने बहुत प्रेम से
उसके ज़ख़्मों की मरहम-पट्टी की
उसकी तीमारदारी में जी-जान से वह जुटा हुआ था
कि अचानक छत को चीरता हुआ एक बम
उसकी कॉपी पर गिरा
ज़ोरदार धमाके के साथ
उड़ गए परख़च्चे

इस वक़्त
दुनिया के करोड़ों बच्चों के सामने
बिखरे पड़े हैं ढेरों सफ़ेद ख़ाली पन्ने।

एक पंख

नीम की फुनगी पर बैठी
गौरैयों के कुछ पंख
हवा में लहराते हुए ज़मीन पर गिरे
उन्हीं में से एक पंख
मेरे बाएं कंधे पर गिरा
जिसे मैंने अपनी ऊपरी जेब में
संभाल कर रख लिया

पंख शायद डैनों के खुजलाने से
टूट कर गिरे हों
आपस में लड़ने से भी
ऐसा संभव है
लेकिन यक़ीन के साथ तो क़तई
कुछ भी नहीं कहा जा सकता

गुम होती गौरैये का यह एक पंख
मेरे लिए उनके वजूद में लिपटा
ऐसा दुख है
जो किसी अपने के धीरे-धीरे
गुम होते जाने के एहसास से होता है

जब पंख हवा में थे
तो ठीक उसी वक़्त
नीम की कुछ पत्तियां झड़ी थीं
झड़ा था थोड़ा-सा हरापन भी

मेरी जेब में
उड़ान से लबरेज़ वही एक पंख है
जो अब धीरे-धीरे धड़क रहा है।

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